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कहानी- इस्ला 3 (Story Series- Isla 3)

 

"इस विषय में सच और मिथ्या के बीच एक झीनी दीवार है. इसे तुम स्वयं ही देख लोगे. जब इस्ला...” अपनी बात पूरी करने से पहले ही वो यूं उठ गई, जैसे कुछ ग़लत कह दिया हो. लेकिन मिवान बैठा रह गया. उसके लबों से निकला नाम अब मिवान के लबों पर ठहर गया था. बोला, “इस्ला कौन है? लेकिन वो तो जैसे अचानक ही बदल गई हो. बोली, “बहुत रात हो गयी है, अब चलो.” उसके चेहरे की कठोरता देखकर मिवान भी शांत हो गया. इसके आगे की यात्रा भी मौनपूर्वक समाप्त हुई. वह चतुरा वास्तव में इस सघन वन से परिचित थी.

        रेखाचित्र बनाने में वह इतना व्यस्त रहा कि उसे भान ही नहीं हुआ कि दो जोड़ी ऑंखें उसे पढ़ रही हैं. वे नेत्र कभी उसकी लंबी टांगों से उसकी लम्बाई का अंदाज़ा लगाने का प्रयास करते, तो कभी उसके लंबी उंगलियों को परखते. सम्भवतः मिवान के नेत्रों को पढ़ने हेतु ही उसने हल्की हलचल भी की, पर एकाग्र मिवान पढ़ नहीं पाया वह मौन पुकार. आख़िरकार उसने हारकर अपने मौन को शब्द प्रदान कर दिया. वो बोली, “नारी अंगों के अति गहन प्रदेश का ही काग़ज़ पर चित्रण करना आता है अथवा नारी मन की थाह लेने का भी कौशल रखते हो!” और हंसी. उसके मंद स्मित कि सुरसुरी मिवान की रीढ़ की हड्डी को सुरसुरा गयी. मिवान रुककर उसे देखने लगा. कितनी ही देर तक देखता रहा. वह सत्य है अथवा माया, वह मानवी है अथवा दैवीय, वह स्त्री है अथवा मोह. इस सघन वन में वह अकेली क्या कर रही है? उसका सौन्दर्य विलक्षण था. वह श्यामा सुन्दरी जप-तप-समाधि को व्यर्थ सिद्ध कर सकती थी. जहां ललाट पर झुक आए बालों के गुच्छे से वह मोहिनी खेलती रही; वही उसके घुटनों तक लंबे केशों से पवन खेल रहा था. नीली साड़ी उससे ऐसे लिपटी थी मानो, उसने बादलों को अपने तन पर ओढ़ लिया हो. मिवान उसके पास गया और नम्रता से बोला, “आप कौन हैं?” “तुम्हें कौन लगती हूं?” इतना कहकर वो उसके पास आ गई. उस स्त्री का चेहरा मात्र सुंदर नहीं था. कुछ अधिक सांवला, पर चमकता हुआ रंग. गर्व से उठी हुई गर्दन, प्रतिकार में धधकती गहरी काली आंखें, अधरों पर खेलती हुई अप्रकट मुस्कान और कपोलों पर मान से फैली हुई लालिमा. मिवान के मन ने उससे चुगली की, “ये कहीं वो तो नहीं.” इस विचार ने मिवान को थोड़ा डरा दिया. मिवान के डर को वह भांप गई. बोली, “डरो मत रंगसाज. तुम्हें खाने नहीं आई हूं, अपने रिसर्च के लिए आई हूं.” मिवान को ऐसा लगा जैसे किसी ने पत्थरों से दबाकर फूल भेजे हो. जैसे छांह के भीतर दबा हुआ धूप का एक टुकड़ा, जैसे इस इतने सघन वन में पतझड़ का एहसास, जैसे झूठ के भीतर से झांकता हुआ सत्य. वह बताती रही कि वो इन जंगलों पर पिछले छह महीने से रिसर्च कर रही है. उसने यह भी बताया कि वह देहरादून कि निवासी है और वही के एक प्रख्यात कॉलेज में लेक्चरर भी है. पिथौड़ागढ़ उसका ननिहाल है. उसका सम्पूर्ण बचपन पिथौड़ागढ़ और सोनगढ़ के जंगलों में खेलते हुए व्यतीत हुआ है.   यह भी पढ़ें: कहानी- तुम्हारी मां (Short Story- Tumhari Maa) किन्तु मिवान चाहकर भी भरोसा नहीं कर पाया. कुछ था जो उसे रोकता रहा. जैसे उसके मन के दो टुकड़े हो गए हों. मन का एक हिस्सा, उस स्त्री की हर बात को मान उससे चर्चा में संलग्न हो गया और अपने बारे में भी सभी जानकारी देता रहा. तो दूसरा हिस्सा, मौन हो उस स्त्री को पढ़ता रहा. “तो मोह नीड़ का सौन्दर्य ले आया तुम्हें यहां... रंगसाज!” “मेरा नाम मिवान है.” इससे पूर्व कि मिवान उसका नाम पूछ पाता, वो बोली, “आह! मिवान! अर्थात सूर्य की किरणें. कहां तुम्हें मैं रंगसाज समझती रही, तुम तो विध्वंशक निकले.” यह कह उसने मिवान को ऐसे निहारा जैसे उसके नाममात्र के सम्बोधन से वह रोमांचित हो गयी हो. “जी! मैं कुछ समझा नहीं.” कुछ पल वह चुप रही, फ़िर नीचे घास पर बैठ गयी और मिवान को भी इशारे से समीप बैठ जाने को कहा. मिवान बैठ गया. “तुमने इन जंगलों कि अभिशप्त कहानियां तो सुनी ही होगी. कहते हैं कि इन स्त्रियों को सर्द मौसम और अंधेरों से प्रेम है, पर प्रकाश और सूर्य से द्वेष. सूर्य तो इनका शत्रु है. यह बात और है कि हर सुबह उसकी एक किरण इन्हें निहारने की लालसा में, इन वनों की सघनता में खो जाती है.” मिवान का सर्वांग थरथरा उठा. बोला, “आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे डायनों ने आपको अपना प्रवक्ता नियुक्त किया हो.” वह दुष्टता से हंसी और निःसंकोच अपनी दोनों कलाइयों के घेरे में मिवान को क़ैद कर लिया. बोली, “मानव के लिए छल और असत्य सहज है. हो भी क्यों ना, वह अपने रचयिता ईश्वर का प्रतिरूप ही तो है और ईश्वर से बड़ा छलिया और कौन है! किन्तु जिन स्त्रियों ने तुम्हारे उस छलिया को भी छल कर अपना एक स्वतंत्र संसार बना लिया हो, उन्हें क्या किसी प्रवक्ता की आवश्यकता नहीं है.” थोड़ा रुककर और फिर अपनी गंभीर वाणी को चंचल बनाते हुए उसने जोड़ा, “स्पष्ट है कि यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, जो इतने वर्षों के अनुभव और पिछले कुछ महीनों की रिसर्च पर आधारित हैं. वैसे तुम्हारा क्या मानना है?” “मैं सोचता हूं कि मानव मन की भ्रांतियां उसके किसी-न-किसी भौतिक ज़रूरत से उत्पन्न होती है. विज्ञान भूत-प्रेत, आत्मा इत्यादि को नहीं मानता और मैं स्वयं के अनुभव को ही सच मानता हूं.” “और तुम्हारा अब तक का अनुभव क्या कहता है?” “यहां कुछ अलग तो है, लेकिन पारलौकिक जैसा कुछ नहीं.” मिवान की बात सुनकर वह पहले तो मुस्कुराई और फिर बोली, “कुछ-कुछ ऐसे जैसे कोई चिड़िया कमरे के भीतर आ फंसती है, तो पहले वह खिड़की अथवा दरवाज़े के शीशों से टकराती रहती है. जहां से भी प्रकाश का भान होता है, उसे बाहर की राह समझ टकराती रहती है. फ़िर थककर कमरे के चक्कर काटती है, अंत में कोई उपाय न देखकर किसी स्थान पर शांत बैठ जाती है. हालांकि जानती वह भी है कि यह उसका मुक्ति मार्ग नहीं है, किन्तु गिर-गिर कर वह थक गयी है. कुछ पल को इस कल्पना में ही प्रसन्न हो जाती हैं. यथार्थ और कल्पना के बीच उसकी मुक्ति फंस जाती है.” मिवान समझ सब रहा था. पर शायद वह सत्य देखने के लिए प्रस्तुत ही नहीं था. बोला, “ये तो आपने मेरे सोच पर अपनी राय बता दी और यह भी स्पष्ट कर दिया कि आप इन शक्तियों को मानती हैं.” एक लंबी सांस लेकर उस स्त्री ने बोलना आरंभ किया, “यह समाज और संसार मात्र दो प्रकार की स्त्रियों को सम्मान देता है. एक जो आजीवन प्रताड़ित होने के बावजूद पतिव्रता रहती है; और दूसरी वो जो बिना प्रश्न किए पितृसता के समक्ष अपना सर्वस्व लुटा देती हैं. पति के प्रति अगाध श्रद्धा के पश्चात भी सीता को जीवनभर लांछित होना पड़ा. यदि उनके पुकारने पर धरती माता नहीं आतीं अथवा अग्नि-परीक्षा में जल जातीं, तब भी क्या यह समाज उन्हें देवी की संज्ञा देता. कभी नहीं. सतीत्व का यह प्रदर्शन सम्मान के लिए आवश्यक था.” इतना कहकर वो रुकी और मिवान के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ने के बाद पुनः बोली, “अहिल्या के साथ हुए अत्याचार के बावजूद, उसके पति द्वारा उसे सहानुभूति और प्रेम के स्थान पर, श्राप प्राप्त हुआ. ऋषि गौतम के इस दिव्गुणित अन्याय को फलित ही क्यों होने दिया गया. कभी किसी ने ऐसा सोचा है. कौमार्य का यह प्रदर्शन भी सम्मान के लिए आवश्यक था. ईश्वर को जीवन प्रदान करने वाली स्त्री के कौमार्य का इतना महिमामंडन और प्रदर्शन किया जाता है. मैरी का कुमारिनी होना इतना आवश्यक क्यों था! समाज ने स्त्री की पवित्रता को उसके कौमार्य से जोड़ दिया है. एक-दूसरे से भिन्न, धर्म और भौगोलिक अभिरूप में पृथक सभी देश, एक भावना में आज भी समरूप हैं. वे सभी स्त्री के कौमार्य को उसकी पवित्रता कि कसौटी मानते हैं. यदि ऐसा न होता तो मेडुसा को उसके ही बलात्कार के लिए डायन का अभिशप्त रूप प्रदान कर आज तक दंडित न किया जाता. देवी एथेना के प्रेमी पोसिडन ने मेडुसा के साथ हठ संभोग किया और प्रतिकार में उसने मेडुसा को अमरत्व और अकेलापन दे दिया. यहां तक कि आज भी मेडुसा को डायन और उसके किसी भी चित्र को अमंगलकारी माना जाता है. मुझे लगता है कि पश्चिम के सभी अन्याय यूनानी मिथकों से वापस आए हैं.” अभी तक मौन होकर उसकी बात सुनता हुआ मिवान बोला, “मुझे ऐसा लगता है, आपके अनुसार इस वन में मेडुसाओं का अधिपत्य है.” “हां भी और नहीं भी!” “मैं कुछ समझा नहीं.” “तुम्हें इस संसार में विप्रलब्धा, लांछित, अथवा अपमानित स्त्रियों की अनेक कहानियाँ मिलेंगी। पर इन कथाओं के अतिरिक्त कुछ कहानियां ऐसी स्त्रियों की भी हैं, जिनके बारे में कभी किसी ने नहीं लिखा. हां, इतिहास ने कुछ साहसी स्त्रियों को सम्मान अवश्य दिया, किन्तु अनेक पौराणिक विद्रोहिणियों की संघर्ष गाथा अनसुनी ही रह गयी. सम्भवतः उस काल में वह स्याही ही नहीं बनी जो उन वीरांगनाओं के शौर्य और उनके संघर्ष को अक्षरमाला में पिरो पाती.” मिवान उस दुस्साहसिनी के इस विचित्र संवाद पर उलझ गया. बोला, “अपनी दर्पोक्ति में आप अधिक बोल गयी हैं. सभी धार्मिक ग्रंथों में और इतिहास में भी कई वीर स्त्रियों का वर्णन है. आज के इस आधुनिक युग में तो नारीवाद कि आंधी चल रही है. वे सभी कहानियां सामने आ रही हैं जिन्हें इससे पहले कभी मंच प्राप्त नहीं हुआ.” मिवान के इस कथन पर उसका सुंदर अम्लान चेहरा क्षणिक क्रोध से रंजित हो गया. किन्तु शीघ्र ही उसकी मारत्मक मुस्कान वापस आ गयी. बोली, “अच्छा लगा जानकर कि तुम नारीवाद के समर्थक हो. यह कहना भी अतिशय नहीं होगा कि तुम बुद्धिमान हो. अत: तुमसे कह पाने का साहस कर रहीं हूं, तो सुनो. कालजयी एक राजकुमारी थी, जिसने आजीवन विवाह न करने का प्रण लिया. किन्तु एक वृद्ध मुनि उस पर आसक्त हो गया. उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि राजकुमारी के पास संभोग का प्रस्ताव लेकर चला गया. राजकुमारी द्वारा अपमानित किए जाने पर मुनि ने उसके धवल रंग को स्याह हो जाने का श्राप दे दिया. श्राप से मुक्ति पाने के लिए उसे मुनि से क्षमा मांगनी होती. लेकिन कालजयी ने इस अपमान को अस्वीकार कर, श्राप को स्वीकार कर लिया. मेहरू के केशों की मोहकता और ख़ूबसूरती चर्चित थी. एक संध्या वह अपने केश धो कर उन्हें सुखा रही थी कि तभी भूलवश एक फकीर के एकतारे का तार उसके केशों में उलझ गया. क्रोधित हो फकीर ने उसे तत्क्ष्ण ही केश काटने का आदेश दे डाला. मेहरू ने उसे समझाने का प्रयास किया, किन्तु वह दंभी पुरुष अधिक भड़क गया. उसने मेहरू को केशों से ढका हुआ जिन्न बन जाने की बद्दुआ दे डाली. सभी के समझाने पर फकीर मेहरू को माफ़ करने के लिए तैयार हुआ. किन्तु उसकी एक शर्त थी कि मेहरू को आजीवन अपने केशों को गुलूबंद से बांध कर रखना होगा. खुले सिर घूमना उसके लिए आजीवन प्रतिबंधित रहेगा अर्थात वह सार्वजनिक जीवन में अपने केशों को खोलने के लिए स्वतंत्र नहीं थी. किन्तु मेहरू ने उसकी बद्दुआ को लानत दे अपनी स्वतंत्रता का चयन किया. हेलेना का आरम्भिक जीवन इस अभिलाषा में व्यतीत हुआ कि उसका जीवन उसके प्रभु के लिए है. न वह कभी किसी पुरुष से प्रेम करेगी और न विवाह. लोग उसे पूजते थे. किन्तु एक दिन उसे प्रेम हो गया. जैसा कि अपेक्षित था, वह तुरंत ही देवी से दुराचारिणी बन गई. उसके प्रेमी कोभी अपमान मिला, लेकिन हेलेना के हिस्से आई मानसिक और शारीरिक प्रताड़नाएं. उसे सामूहिक दुष्कर्म की सज़ा दी गयी और उसके पश्चात कुरूप हो जाने का श्राप. पर न वो झुकी और न ही कभी उसने अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी.”   यह भी पढ़ें: क्या आपने की है अष्टविनायक की यात्रा? (Yatra Of Ashtvinayaka)   मिवान को कुछ समझ नहीं आया. इन सभी नामों को उसने अपने जीवन कभी नहीं सुना था. बोला, “कौन है ये स्त्रियां?" “कोई नहीं... जैसे नवि कोई नहीं थी. उसे अनादि काल के लिए धरती पर रेंग कर चलने का श्राप दिया गया था. जानते हो क्यों?” सम्मोहित मिवान के मुंह से निकला, “क्यों?” “क्योंकि उसने स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाई. उसने न केवल युद्ध में भागीदारी दिखाई, वरन कई शूरवीरों को पराजित भी किया. किन्तु इस प्रक्रिया में उसने एक देवता और उसके गुरु के दंभ को चोट भी पहुंचा दी थी.” यूं तो मिवान ऐसे किसी सत्य को नहीं मानता जिसका अनुभव उसने स्वयं न किया हो. किन्तु आज अकारण ही उसे इस मानिनी पर विश्वास हो गया.बोला, “तो यहां इन चारों स्त्रियों की घायल और श्रापित रूहों का निवास है!” मिवान की बात सुनकर उसके चेहरे पर पीड़ा की असंख्य रेखाएं खींच गईं. बोली, “यह वन ऐसी अनगिनत कथाओं से जगमगा रहा है. मैंने तो उनमें से चंद कहानियां तुम्हें सुनाई हैं. उतना तो समय ही शेष नहीं, जितनी वीरांगनाएं, श्राप की अभिशप्त अमृत-बूटी को निगल कर यहां विचर रही हैं.” मिवान का मन उससे बातें करने लगा. ‘क्या उसकी सभी धारणाएं झूठी थी? स्त्री जिन्होंने अपने श्राप से मुक्ति हेतु कोई समझौता न किया, उनकी कथाएं कहां लोप हो गयी हैं. और आज इस आधुनिकता के मुखौटे को धारण किए हुए समाज में भी इन्हीं उत्पीड़नों का दोहराव नहीं हो रहा?” उस स्त्री ने जैसे मिवान का मन पढ़ लिया. बोली, “इतना मत सोचो. मैं जानती हूं, पहले तो ऐसी किसी स्त्री के अस्तित्व का होना ही तुम्हें परेशान कर रहा होगा.” “नहीं ! ऐसा नहीं है. जब श्राप को स्वीकार कर लेने वाली स्त्रियां थीं, तो श्राप का विरोध करने वाली भी अवश्य होंगी. हां, पर किसी विद्रोहिनी की कहानी को समाज ने लिखने ही नहीं दिया. लेकिन...” मिवान कहते-कहते रूक गया. “लेकिन, उनके इस वन में आज भी होने पर तुम विश्वास नहीं कर पा रहे.” उसकी बात सुनकर मिवान ने कहा कुछ नहीं. मात्र हां में सिर हिला दिया. वह फिर बोली, "इस विषय में सच और मिथ्या के बीच एक झीनी दीवार है. इसे तुम स्वयं ही देख लोगे. जब इस्ला...” अपनी बात पूरी करने से पहले ही वो यूं उठ गई, जैसे कुछ ग़लत कह दिया हो. लेकिन मिवान बैठा रह गया. उसके लबों से निकला नाम अब मिवान के लबों पर ठहर गया था. बोला, “इस्ला कौन है? लेकिन वो तो जैसे अचानक ही बदल गई हो. बोली, “बहुत रात हो गयी है, अब चलो.” उसके चेहरे की कठोरता देखकर मिवान भी शांत हो गया. इसके आगे की यात्रा भी मौनपूर्वक समाप्त हुई. वह चतुरा वास्तव में इस सघन वन से परिचित थी, वरना उस दिन उस वन से स्वयं निकल पाना मिवान के लिए नामुमकिन होता.

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पल्लवी पुंडीर     अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES   अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

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