“शायद आप ठीक कहते हैं. हम इंसान हैं. जिस तरह ज़िंदा रहने के लिए खाना ज़रूरी होता है, उसी तरह हमारे अंदर की भावनाओं को भी जीवित रखने के लिए अपनों की आत्मीयता, स्नेह और प्यार आवश्यक होता है. इनके अभाव में भावनाएं शुष्क हो जाती हैं और शनै: शनै: ख़त्म होने लगती हैं और बिन भावनाओं के मानव का कोई अस्तित्व नहीं होता. आज की भाषा में कहा जाए, तो वह ठीक ऐसा होता है, जैसे पूरी बैटरी ख़त्म हुआ मोबाइल.”“यानी तुम कहना चाहती हो अपने मानव रूपी मोबाइल को स्नेह, प्रेम, अपनेपन और आत्मीयता जैसी भावनाओं से हमेशा रीचार्ज करते रहना चाहिए.” रवि ने ठहाका लगाया.
बस, औपचारिक रूप से अपने मम्मी-पापा और भाई के गले लगकर हल्की-सी इमोशनल हो गई. उससे गले लगना तो दूर, उसकी तरफ़ देखा तक नहीं. लेकिन मेरा जी भर आया. जिस बच्ची को अपने हाथों से खिलाया था, उसे विदा होते देख ख़ुद को रोक ना सकी. “सृष्टि” कहते हुए ज़ोर से मेरी रुलाई फूट पड़ी. सभी मुझे ऐसे देखने लगे, जैसे मैंने कोई अजूबा कर दिया हो.
“रिलैक्स बुआ, आप ऐसे क्यों रो रही हैं? मैं कोई हमेशा के लिए थोड़ी जा रही हूं? चलो प्रॉमिस करती हूं बुआ. डेली नाइट 10 से 11 व्हाट्सऐप पर ऑनलाइन मिलूंगी और बुआ स्काइप कनेक्ट करते ही आपको ऐसा लगेगा जैसे मैं आपके सामने ही हूं. ओके बाय.” कहते ही वह कार में बैठ गई.
धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार जाने लगे. “दीदी, आपका सामान तो घर पर है. आप तो वहां से जाएंगी,” भाभी ने जब यह कहा, तो कोफ़्त हुई, क्यों नहीं अपना सामान यहां लाई. यहीं से निकल लेते. घर पहुंचते ही बड़े भैया यह कहते हुए अपने कमरे में घुस गए, “बहुत थक गया हूं, अब सोऊंगा. प्लीज़ कोई डिस्टर्ब मत करना.”
उन्हें रवि का भी ध्यान नहीं आया. बड़ी भाभी ने एक मिठाई का डिब्बा और लिफ़ाफ़ा पकड़ाते हुए कहा, “दीदी-जीजाजी बहुत अच्छा लगा जो आप लोग शादी में आए. अब जल्दी ही सूर्यांश की शादी में भी आना है आप लोगों को. लड़की तो उसने पसंद कर ही ली है. बस, शादी की डेट फाइनल करनी है.”
हम पति-पत्नी ने वहां से निकलने के बाद रेलवे स्टेशन के लिए ऑटो कर लिया. पता चला गाड़ी दो घंटे लेट है. वहीं सीट पर बैठ गए. रवि चाय ले आए. चाय देते हुए बोले, “क्या बात है राधिका? बड़ी अपसेट-सी नज़र आ रही हो?”
मैं भरे गले से बोली, “क्या आप भी यह मानते हैं कि आज इंसान के पास व़क्त नहीं अपनों से मिलने का, उनसे दो मीठे बोल बोलने का? क्या यह सब मोबाइल, व्हाट्सऐप और फेसबुक पर मिल जाता है?”
“मैं तुम्हारी भावनाओं और विचारों की कद्र करता हूं. जानता हूं तुम अपनों के लिए सब कुछ लुटाने को आतुर रहती हो. लेकिन इसके बदले में तुम्हें क्या मिलता है? एक रूखी उपेक्षा और कभी-कभी तो अपमान भी? लेकिन तुम यह सब बर्दाश्त करती हो, क्योंकि तुम अपनों को हृदय से चाहती हो.”
“शायद आप ठीक कहते हैं. हम इंसान हैं. जिस तरह ज़िंदा रहने के लिए खाना ज़रूरी होता है, उसी तरह हमारे अंदर की भावनाओं को भी जीवित रखने के लिए अपनों की आत्मीयता, स्नेह और प्यार आवश्यक होता है. इनके अभाव में भावनाएं शुष्क हो जाती हैं और शनै: शनै: ख़त्म होने लगती हैं और बिन भावनाओं के मानव का कोई अस्तित्व नहीं होता. आज की भाषा में कहा जाए, तो वह ठीक ऐसा होता है, जैसे पूरी बैटरी ख़त्म हुआ मोबाइल.”
“यानी तुम कहना चाहती हो अपने मानव रूपी मोबाइल को स्नेह, प्रेम, अपनेपन और आत्मीयता जैसी भावनाओं से हमेशा रीचार्ज करते रहना चाहिए.” रवि ने ठहाका लगाया.
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उनकी इस बात पर हल्के से मुस्कुरा पड़ी मैं. “ठीक कह रहे हैं आप, लेकिन आज सब व़क्त का रोना रोते रहते हैं. आज संतान के पास पैरेंट्स के लिए व़क्त नहीं है, लेकिन मोबाइल से घंटों चिपकने के लिए है. इस तरह वह उनके आशीर्वाद और क़ीमती अनुभव से वंचित हो रहे हैं. पति-पत्नी भी और अधिक कमाने की चाह, प्रमोशन आदि की वजह से अपना सुंदर व़क्त ज़ाया कर रहे हैं. ऐसा पैसा किस काम का जो एक-दूसरे को वह हसीन व़क्त ही ना दे पाए, जो उनकी ज़िंदगी के ख़ूबसूरत और यादगार पल बनकर उनके अंतस में मह़फूज़ हो जाएं और व़क्त-व़क्त पर उनको और उनकी भावनाओं को गुदगुदाकर रोमांचित कर जाएं. इस सुखद एहसास की सुखद अनुभूति से उनका रोम-रोम खिल उठेगा और आजीवन उनके संबंधों में नवीनता, जीवंतता, भरपूर ऊर्जा और उत्साह का संचार होता रहेगा.
आज दोस्तों से मिलने का व़क्त नहीं है, लेकिन फेसबुक पर फ्रेंड बनाने का जुनून सवार है. गुरु के ज्ञान पर भरोसा नहीं है, गूगल पर सर्च करने में अटूट विश्वास है. मैं मानती हूं स़िर्फ एक उंगली से क्लिक करते ही दुनिया आपके सामने है, लेकिन इतना सब कुछ होने के बावजूद हम दूर होते जा रहे हैं अपनों से, अपनों के प्यार से.” रेलवे स्टेशन पर ट्रेन आ चुकी थी. ट्रेन में चढ़ते व़क्त मेरी आंखों में आंसू थे. यह मायके से विदाई के थे या अपनों की उपेक्षा के, मैं ख़ुद भी नहीं समझ पा रही थी. चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गई. ट्रेन ने अपनी गति पकड़ ली.
डॉ. अनिता राठौर ‘मंजरी’
मेरी शादी में तो जैसे ही किसी रिश्तेदार का आगमन होता, मां और पापा दोनों ही दौड़कर उनके आतिथ्य सत्कार में जुट जाते. उनके मान-सम्मान में कोई कमी ना रह जाए इसका वह हर पल ख़्याल रखते थे और यहां... छोटी भाभी कहती हैं आजकल तो पहले से ज़्यादा रिश्ते सहेजे जाते हैं व्हाट्सऐप पर. अब रिश्ते भी ऑनलाइन निभाए जाते हैं. यह कैसा अपनापन है, जिसमें न प्रेम का भाव है, न स्नेह की भावना और न ही आत्मीयता की मिठास है. मात्र एक औपचारिकता और दिखावा है.
जल्दी-जल्दी भात और मेहंदी की रस्म अदायगी हो गई. संगीत के नाम पर डीजे पर नृत्य चलने लगा. सभी एक साथ नाचने लगे. मैंने कहा, “भाभी, शगुन के लिए तो कम-से-कम ढोलक बजवा ही लेतीं.”
“बुआ, ये गली-मुहल्ला या बस्ती नहीं है, पॉश कॉलोनी है. सब हमें गंवार कहेंगे.” भाभी केबोलने से पहले ही भतीजा बोल पड़ा.
मन किया कि कह दूं, अगर ढोलक बजने से गंवारपन झलकता है, तो डीजे पर नशे में धुत नृत्य करते लोग, ये सब क्या है?
अपनी शादी का वह मोहक दृश्य आंखों के सामने तैर गया... “जोगी हम तो लुट गए तेरे प्यार में, जाने तुझको ख़बर कब होगी...” गाने पर जब भाभी नृत्य कर रही थीं, तब पापा ने चुपके से आकर कितने मर्यादित और शालीन व्यवहार से उन पर नोटों की गड्डियां लुटाई थीं.
और यहां तो जैसे छीना-झपटी मची है. एक-दूसरे पर हमला-सा कर रहे हैं. तभी नशे में धुत सृष्टि के ममेरे भाई ने सृष्टि की सहेली का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, “कम ऑन बेबी, मेरे साथ डांस करो.” वह मना कर रही थी, लेकिन वह भद्दे और अश्लील ढंग से उसे डीजे पर खींचने लगा. “वह डांस नहीं करना चाहती, तो उसे क्यों ज़बर्दस्ती खींच रहे हो?”
“आप बीच में क्यों बोल रही हैं बुआ? अगर आपको यह सब अच्छा नहीं लग रहा है, तो प्लीज़ आप यहां से चली जाइए. क्यों रंग में भंग डाल रही हैं आप? आपस का मैटर है सॉल्व कर लेंगे.” भतीजे सूर्यांश ने जब यह कहा, तो मेरी मुट्ठियां क्रोध से भिंच गईं. मैं चुपचाप कमरे में आ गई. किसी ने मुझे बुलाने की ज़हमत नहीं उठाई. भाभी ने भी अपने लाडले की इस बेहूदा हरक़त पर उसे कुछ नहीं कहा. सारी रस्में चलती रहीं. किसी ने मेरी सुध तक नहीं ली.
मेरी शादी की हल्दी पर छोटी बुआ ज़रा-सी बात पर तुनक गई थीं और मुंह फुलाकर बैठ गई थीं. पूरा घर उन्हें मनाने में जुट गया था.
शाम को मैं बाहर निकली, तो देखा ब्यूटीपार्लर से लगभग 5-6 लड़कियां आई हुई थीं, जो रिश्तेदार महिलाओं का मेकअप कर रही थीं.
“दीदी, आप भी मेकअप करा लीजिए.” बड़ी भाभी ने कहा.
“नहीं भाभी, मैं अपने आप तैयार हो जाऊंगी.” कहकर मैं तैयार होने लगी. तभी रवि भी आ गए. उन्हें दोपहर तक आना था, लेकिन ट्रेन लेट हो गई थी.
उनके आगमन पर किसी ने कोई ख़ुशी या उत्साह नहीं दिखाया. बस, बड़ी भाभी ने उनका अभिवादन करते हुए कामवाली को आवाज़ देकर कहा, “सीमा, ज़रा जल्दी से चाय-नाश्ता ले आना...” और साथ ही हल्के-से स्वर में भैया को संबोधित करते हुए कहा, “सुनो, रवि जीजाजी आ गए हैं.” कहते हुए तैयार होने चली गईं. सीमा भी चाय-नाश्ता रखकर चली गई.
मेरी शादी में तो जैसे ही किसी रिश्तेदार का आगमन होता, मां और पापा दोनों ही दौड़कर उनके आतिथ्य सत्कार में जुट जाते. उनके मान-सम्मान में कोई कमी ना रह जाए इसका वह हर पल ख़्याल रखते थे और यहां... छोटी भाभी कहती हैं आजकल तो पहले से ज़्यादा रिश्ते सहेजे जाते हैं व्हाट्सऐप पर. अब रिश्ते भी ऑनलाइन निभाए जाते हैं. यह कैसा अपनापन है, जिसमें न प्रेम का भाव है, न स्नेह की भावना और न ही आत्मीयता की मिठास है. मात्र एक औपचारिकता और दिखावा है.
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रात को सभी तैयार होकर मैरिज हॉल पहुंच गए. मेहमान आए औपचारिकता से मेज़बान से हाथ मिलाया, लिफ़ाफ़ा पकड़ाया और डिनर के लिए चल पड़े. ज़्यादातर युवा लड़के-लड़कियां सेल्फी लेने में व्यस्त थे. हर उम्र के हर प्राणी की उंगलियां अपने मोबाइल की स्क्रीन पर व्यस्त थीं. इक्का-दुक्का लोगों के समूह बातें कर रहे थे. सामूहिक हंसी और ठहाके तो ऐसे नदारद थे जैसे उन पर टैक्स लगा हो और लोगों ने टैक्स बचाने के लिए ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली हो.
जयमाला, डिनर, फिर फेरे सब कुछ यंत्रवत् निपट गया. जूता चुराने जैसी जीजा-साली की मस्ती भरी रस्म भी बड़ी शांतिपूर्वक संपन्न हो गई. सालियों ने नेग के लिए कोई हंगामा या ज़िद नहीं की. दूल्हे ने चेक साइन करके उन्हें पकड़ा दिया. दूल्हे के दोस्तों और भाइयों ने भी कोई हंगामा नहीं किया.
हां, दूल्हे के दोस्तों और भाइयों ने अपने मोबाइल से दुल्हन की साइड की लड़कियों के दनादन फोटो ज़रूर क्लिक किए और उनके साथ डीजे पर डांस करने के लिए ज़रूर मारामारी और अफ़रा-तफ़री का माहौल बन गया था.
विदाई की भावुक बेला पर न किसी का मन उदास था, न किसी की आंखें नम थीं. ख़ुद सृष्टि भी अपने पति के साथ बातों में व्यस्त थी. लेकिन मेरा मन और आंखें दोनों ही भरी थीं. भावनाएं मेरे अंदर उमड़-घुमड़ रही थीं. छोटी-सी सृष्टि को कितना खिलाती थी, गोद से उतारती ही नहीं थी. उसकी हर ज़िद पूरी करती थी. सभी कहते थे अपनी लाड़ो को अपने साथ ससुराल ले जाना. ख़ुद सृष्टि भी कहती थी, “बुआ, मैं भी चलूंगी आपके छाथ आपकी छछुराल.” वही सृष्टि आज पराई-सी खड़ी थी. उसकी तरफ़ देख भी नहीं रही थी.
डॉ. अनिता राठौर ‘मंजरी’
“राधिका, तेरी तरह सबके पास तो व़क्त नहीं है कि घंटों जाकर लोगों के पास बैठो. इस तरह बैठने से क्या रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं. सामनेवाले का भी क़ीमती व़क्त बरबाद करो और ख़ुद अपना भी.” इस बार बड़े भैया की टिप्पणी थी.“और क्या, घंटों बैठो, पंचायत करो, मुंह से किसी के लिए कुछ उल्टा-सीधा निकल गया तो वह अलग मुसीबत.” बड़ी भाभी भी कहां पीछे रहनेवाली थीं.“लेकिन, अपनों के लिए तो व़क्त निकालना ही पड़ता है. ज़रूरी नहीं घंटों बैठो. 5 मिनट बैठने से भी आत्मीयता और अपनेपन का सुखद एहसास हो जाता है.”
“रिश्तों की हमें पौधों की तरह देखभाल करनी चाहिए. समय-समय पर उन्हें स्नेह की खाद और प्रेम के जल से सींचते रहना चाहिए. ऐसा ना करने से रिश्तों में प्रीत की सौंधी सुगंध और अपनत्व की भावना धीरे-धीरे ख़त्म होने लगती है और वह भी एक पुष्प की तरह असमय मुरझा जाते हैं.” अपनी भतीजी के विवाह में शामिल होने आई राधिका ने जब यह कहा, तो छोटी भाभी तुरंत बोल पड़ीं- “दीदी, पहले से ज़्यादा अब रिश्तों को सहेजने लगे हैं लोग. अब हर रोज़ सुबह उठते ही व्हाट्सऐप पर गुड मॉर्निंग से लेकर पूरी दिनचर्या का लेखा-जोखा वीडियो सहित गुड नाइट पर जाकर ही ख़त्म होता है.”
“लेकिन भाभी, व्हाट्सऐप पर अपनेपन, स्नेह और प्रेम का सर्वथा अभाव होता है. कुछेक ज़रूरी बातों को छोड़कर वहां स़िर्फ टाइमपास और हास-परिहास का आदान-प्रदान ही होता है, जिसे दिनचर्या का एक अंग समझकर सभी निभाते हैं, एक मशीन की तरह.”
“राधिका, तेरी तरह सबके पास तो व़क्त नहीं है कि घंटों जाकर लोगों के पास बैठो. इस तरह बैठने से क्या रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं. सामनेवाले का भी क़ीमती व़क्त बरबाद करो और ख़ुद अपना भी.” इस बार बड़े भैया की टिप्पणी थी.
“और क्या, घंटों बैठो, पंचायत करो, मुंह से किसी के लिए कुछ उल्टा-सीधा निकल गया तो वह अलग मुसीबत.” बड़ी भाभी भी कहां पीछे रहनेवाली थीं.
“लेकिन, अपनों के लिए तो व़क्त निकालना ही पड़ता है. ज़रूरी नहीं घंटों बैठो. 5 मिनट बैठने से भी आत्मीयता और अपनेपन का सुखद एहसास हो जाता है.”
“लेकिन राधिका, बात तो व़क्त की है, आज आदमी के पास व़क्त ही नहीं है. तू ख़ुद देख आज रात को सृष्टि की शादी है और मैं ख़ुद उसका सगा चाचा सुबह ही आया हूं. भैया ने कह ही दिया था अपना व़क्त मत बरबाद करना. उन्होंने सभी को शादी के कार्ड व्हाट्सऐप पर भेज दिए. ऑनलाइन शॉपिंग कर ली, शादी से संबंधित सभी महत्वपूर्ण काम ऑनलाइन ही कर लिए. हल्दी, तेल, संगीत, मेहंदी जैसी सभी रस्में अभी दोपहर में ही निपट जाएंगी. बस, यूं समझो औपचारिकता करनी है और शाम को सभी तैयार होकर मेहमानों की तरह मैरिज हॉल
पहुंचेंगे. जयमाला, डिनर, फेरे, विदाई फिर रिश्तेदारों की विदाई और मैं ख़ुद भी वहीं से अपने परिवार सहित चला जाऊंगा.” छोटे भैया ने उसे पूरा ब्योरा सुना दिया.
यह सुनकर उसे लगा जैसे वो मूर्ख और फालतू थी, जो शादी से हफ़्ते भर पहले ही यह सोचकर आ गई थी कि शादी के कामों में भैया-भाभी का हाथ बंटाएगी. ख़ुद जिसकी शादी है, वह भी शादी से दो दिन पहले ही आई है. उसने उससे बात करने की कोशिश की, तो लैपटॉप पर निगाहें जमाए और उंगलियां चलाती व्यस्त सृष्टि ने बिना उसकी ओर देखे कहा, “सॉरी बुआ, ऑफिस का काम निपटा रही हूं, पेंडिंग नहीं रखना चाहती.”
तभी उसका मोबाइल घनघना उठा. “प्लीज़ श्रेय, स़िर्फ 3 दिन के लिए ही चलेंगे. यार, हनीमून ही तो मनाना है, वहां कोई गृहस्थी थोड़ी बसानी है. अगर लेट हो गए तो मेरा प्रमोशन मारा जाएगा... ओ.के. थैंक्स, लव यू बेबी,” कहकर वह फिर से लैपटॉप में व्यस्त हो गई.
“बेटा, क्या हनीमून भी तुम्हारे लिए मात्र एक औपचारिकता है. जब मेरी शादी हुई थी, तो मैं और तेरे फूफाजी शिमला, कुल्लू और मनाली 8 दिनों के लिए गए थे और वहां से वापस आने का हम दोनों का मन ही नहीं हो रहा था.”
“ओह माई स्वीट बुआ, आप जॉब नहीं करती थीं, फूफाजी भी प्राइवेट नौकरी नहीं करते हैं, इसलिए आप लोगों के पास तो व़क्त ही व़क्त है. लेकिन हमारे पास तो सांस लेने तक का भी टाइम नहीं है.” कहकर वह फिर से लैपटॉप में व्यस्त हो गई.
वह ख़ुद को उपेक्षित-सा महसूस करने लगी. दोपहर में ही रस्में औपचारिक रूप से निभाई जा रही थीं, स़िर्फ फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी में कैद होने के लिए.
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उसे याद आ गई अपनी शादी की मेहंदी, हल्दी, तेल और भात की रस्में. कितना धूम-धड़ाका, उत्साह, जोश, शोर-शराबा और गीत-संगीत हुआ था. मां को तो फुर्सत ही नहीं मिल रही थी. पूरे घर में चकरघिन्नी की तरह नाच रही थीं. पापा भी दौड़-धूप में व्यस्त थे. कभी मेहमानों की आवभगत, कभी हलवाई, कभी टेंट... न जाने कितने काम थे.
“चलो दीदी, सृष्टि को हल्दी लगा दो.” भाभी ने कहा तो पूरे जोश, उत्साह और लाड़ से सृष्टि के गोरे गालों पर हल्दी मल दी. वह भड़क उठी, “क्या बुआ आप भी. पूरे फेस पर हल्दी लगा दी. ब्यूटीशियन ने मना किया था. स़िर्फ शगुन करना था.”
“सॉरी बेटा.” वह अपमानित-सी हो उठी. उसकी हल्दी पर सभी ने उसको कितनी मल-मलकर हल्दी लगाई थी. वह पूरी पीली हो गई थी. सब कह रहे थे कितना रूप-रंग निखर आया है बन्नो रानी का. दूल्हे राजा तो इसके रूप-रंग पर अपनी जान छिड़क देंगे,” यह सुनकर वह शर्म से लाल हो उठी थी.
डॉ. अनिता राठौर ‘मंजरी’