"सर्विस से रिटायर हो जाना आपके जीवन का पूर्णविराम नहीं, बल्कि यह तो अर्द्धविराम है. अभी तो आपको जीवन में बहुत काम करने बाकी हैं. हम लोगों के साथ अनगिनत ख़ुशियों के पल जीने हैं. जो संस्कार आपने मुझे दिए, वही संस्कार अपने पोते को देने हैं. अपनी फैक्ट्री को आगे बढ़ाना है और सबसे बढ़कर हम लोगों के सिर पर सदैव अपना हाथ बनाए रखना है.” आरव भावुक हो उठा.
दार्जिलिंग पहुंचकर वहां के प्राकृतिक सौंदर्य ने उन्हें अभिभूत कर दिया. दूर-दूर तक फैली ब़र्फ से आच्छादित पहाड़ियां,
हरे-भरे देवदार और चिनार के वृक्ष, ख़ूबसूरत चाय के बागान. अनजान शुभचिंतक ने उनकी बड़े नामी होटल में बुकिंग भी करवा रखी थी. वह जो कोई भी था, बेशक उन्हें हृदय से प्यार करता था, अन्यथा आज के ज़माने में कौन किसी की इतनी परवाह करता है.
उस पूरी शाम होटल के कमरे में बैठे वे अंजलि से बातें ही करते रहे. इतनी बातें तो उन्होंने पिछले दो-तीन वर्षों में उससे नहीं की होंगी. अगली सुबह तैयार होकर वे दोनों नीचे नाश्ता करने जा ही रहे थे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई. उन्होंने दरवाज़ा खोला, तो आश्चर्य और ख़ुशी से उनकी आंखें फैल गईं. अंजलि भी हैरान थी. “अरे तुम लोग?”
“हां, मम्मी-पापा.” आरव, रिचा और सनी हंसते हुए अंदर आए और उनके पैरों पर झुक गए. भावविह्वल हो उन्होंने दोनों को गले से लगा लिया. “इसका मतलब तुम लोगों ने हमारा टूर प्लान किया था. आख़िर तुम लोगों को यह सब करने की क्या सूझी?” उन्होंने स्नेह से पूछा.
आरव आराम से बेड पर बैठकर बोला, “पापा, आप जीवन से दूर जा रहे थे. अपनी ख़ुशियों से विमुख हो रहे थे. जब इंसान के मन में निराशा घर करने लगती है, तो वह सकारात्मक चीज़ों को भी संदेह की दृष्टि से देखने लगता है. दूसरों की नकारात्मक सोच उस पर असर डालने लगती है.”
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ठीक ही तो कह रहा है आरव, वे सोचने लगे. नकारात्मक भाव ही उनके मन में आने लगे थे. अपना अहम्, जिसके चलते अपने ही घर के काम करने में स्वयं को छोटा महसूस कर रहे थे. क्या हो गया था उन्हें? कुछ दिनों से एक अंधेरी घुटन भरी गुफा में चल रहे थे और अब यकायक उस गुफा से बाहर आ गए हैं, जहां फैले प्रकाश ने उनके अंतर्मन को आलोकित कर दिया है. “पापा, आप सुन रहे हैं न.”
“अं हां, बोलो बेटे.” वे उसकी ओर देखने लगे. “पापा, मैं आपको इस स्थिति से बाहर निकालना चाहता था. मुझे अपने वही पापा चाहिए थे, जो हमेशा कहा करते थे कि जीवन के हर पड़ाव का ज़िंदादिली से सामना करना चाहिए और इसके लिए मुझे इससे अच्छा दूसरा उपाय नहीं सूझा. पापा, आपकी अपनी फैक्ट्री है, दूसरों की नौकरी करने की बजाय आप अपनी फैक्ट्री में बैठिए, ताकि मुझे आपके अनुभव का लाभ मिले. पापा, आपको मम्मी के साथ यहां भेजने का मक़सद यही था कि आपको एहसास हो कि सर्विस से रिटायर हो जाना आपके जीवन का पूर्णविराम नहीं, बल्कि यह तो अर्द्धविराम है. अभी तो आपको जीवन में बहुत काम करने बाकी हैं. हम लोगों के साथ अनगिनत ख़ुशियों के पल जीने हैं. जो संस्कार आपने मुझे दिए, वही संस्कार अपने पोते को देने हैं. अपनी फैक्ट्री को आगे बढ़ाना है और सबसे बढ़कर हम लोगों के सिर पर सदैव अपना हाथ बनाए रखना है.” आरव भावुक हो उठा. उसकी बातें सुनकर ख़ुशी से उनकी आंखें छलछला आईं. मन ही मन वे उस परमपिता परमेश्वर के चरणों में झुक गए, जिसने उन्हें इतना स्नेहिल परिवार दिया. सचमुच उन्हें भी लग रहा था, यह तो उनके जीवन का अर्द्धविराम ही है.
रेनू मंडल
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“अरे पापा मुबारक हो, आपके और मम्मी के नाम पर दार्जिलिंग के दो एयर टिकट हैं. परसों की फ्लाइट है.” “किसने भेजे हैं?” वे भी आश्चर्यचकित रह गए. “पता नहीं. भेजनेवाले ने अपना नाम नहीं लिखा. बस इतना लिखा है- दार्जिलिंग में मिलेंगे.” “कहीं भाईसाहब ने तो आपको रिटायरमेंट का गिफ्ट नहीं दिया.” अंजलि ने अनुमान लगाया. “तुम्हारे भाईसाहब इतने कंजूस हैं. वे क्या मुझे गिफ्ट देंगे.”“जिसने भी भेजा होगा, दार्जिलिंग में वह मिलेगा ही. पापा यह मौक़ा हाथ से मत जाने दीजिए. मम्मी के साथ घूम आइए.” रिचा बोली.
अभी दो दिन पहले ही उनके मित्रों ने उनसे पूछा था, “कैसा चल रहा है?” उन्होंने गर्व से कहा था, “बहुत अच्छा. अभी तक तो कुछ भी ऐसा नहीं हुआ, जो मन को कष्ट पहुंचाए, जिससे एहसास हो कि घरवालों की नज़रों में मैं अब फालतू और खाली हूं.” रमाशंकर ठीक ही कह रहे थे, बच्चों के साथ-साथ जीवनसंगिनी की आंखें भी बदल जाती हैं.
एक दिन सब्ज़ी ख़रीदते समय उन्हें ख़्याल आया, रिचा के लिए गुलाब जामुन ले लें. उसे बहुत पसंद हैं. स्वीट्स शॉप से गुलाब जामुन लेकर वे निकल ही रहे थे कि सामने से आ रहे निखिल और रमाशंकरजी ने उन्हें आवाज़ दी, “आदित्य, तुम यहां कैसे?”
“बस यूं ही, मार्केट आया था.” वे झेंपते से बोले.
उनके हाथ में सब्ज़ी का थैला देख रमाशंकर हंस पड़े और बोले, “अरे, अब तुम भी हमारी श्रेणी में शामिल हो गए.”
वे कुछ नहीं बोले और चुपचाप चले आए. रास्तेभर उन्हें लगता रहा मानो रमाशंकरजी कह रहे हों, फर्स्ट क्लास गैज़ेटेड ऑफिसर की अपने घर में यह इज़्ज़त. सब्ज़ी का थैला उठाए घूम रहे हो. नहीं, अब और नहीं.
घर आकर किसी से कुछ नहीं कहा. सब्ज़ी का थैला किचन में रखा. बाहर आकर स्कूटर स्टार्ट किया.
रिचा पीछे से चिल्लाई, “पापा, आपके लिए कोल्ड कॉफी बनाई है.” किंतु तब तक वे जा चुके थे.
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क़रीब चार घंटे बाद वे वापस घर लौटे, तो शाम हो चुकी थी. अंजलि, आरव और रिचा लॉन में परेशान-से खड़े थे. उन्हें देखते ही आरव बोला, “पापा, कहां चले गए थे. रिचा ने फैक्टरी में फोन करके मुझे बुलाया. हम सब कितने परेशान थे.”
उन्होंने सनी को गोद में उठाकर प्यार किया और बोले, “नौकरी के लिए गया था. एक ऑफिस में अकाउंट्स देखना है. द़िक्क़त यह है, ऑफिस यहां से 16 कि.मी. दूर है, किंतु कोई बात नहीं, मैं मैनेज कर लूंगा.”
“किंतु पापा इस तरह अचानक यह फैसला?” उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और पलंग पर लेटकर आंखें बंद कर लीं.
तीन दिन बाद दोपहर में लॉन में बैठे वे आरव के साथ खाना खा रहे थे कि उनके नाम से एक कुरियर आया. आरव ने साइन करके लिफ़ाफ़ा उनकी ओर बढ़ाया. वे बोले, “देखो तो किसका है?”
आरव ने खोलकर प़ढ़ा, तो हैरान रह गया. “अरे पापा मुबारक हो, आपके और मम्मी के नाम पर दार्जिलिंग के दो एयर टिकट हैं. परसों की फ्लाइट है.”
“किसने भेजे हैं?” वे भी आश्चर्यचकित रह गए.
“पता नहीं. भेजनेवाले ने अपना नाम नहीं लिखा. बस इतना लिखा है- दार्जिलिंग में मिलेंगे.”
“कहीं भाईसाहब ने तो आपको रिटायरमेंट का गिफ्ट नहीं दिया.” अंजलि ने अनुमान लगाया.
“तुम्हारे भाईसाहब इतने कंजूस हैं. वे क्या मुझे गिफ्ट देंगे.”
“जिसने भी भेजा होगा, दार्जिलिंग में वह मिलेगा ही. पापा यह मौक़ा हाथ से मत जाने दीजिए. मम्मी के साथ घूम आइए.” रिचा बोली.
थोड़ी-सी ना-नुकुर के बाद वे जाने के लिए सहमत हो गए. अंजलि के साथ जब वह फ्लाइट में बैठे, तो उनका मन पुलक उठा. कितने वर्षों बाद आज वे दोनों यूं अकेले जा रहे थे. जीवन की आपाधापी और काम की व्यस्तता के बीच इस सुखद एहसास को न जाने कब से भुलाए बैठे थे. उन्होंने अंजलि की ओर देखा. उसके चेहरे पर छाई स्निग्धता को देख मन में उल्लास की कलियां चटख गईं. कसकर उन्होंने अंजलि का हाथ थाम लिया. उस छुअन में भी आज एक नयापन-सा महसूस हो रहा था. उन्होंने आंखें बंद कर लीं और इस सुख को आत्मसात् करने लगे.
रेनू मंडल
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अगली सुबह रिचा ने चाय बनाई. हमेशा की तरह आरव चाय और पेपर लेकर उनके कमरे में आया. “गुड मॉर्निंग शहंशाहे आलम, हाज़िर है आपकी चाय और पेपर.” फीकी-सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर आकर लुप्त हो गई. चाय का कप पकड़ पेपर उसे देते हुए वे बोले, “पेपर पहले तुम्हीं पढ़ो. मैं तो खाली हूं सारा दिन. कभी भी पढ़ लूंगा.” कहते हुए उनके चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आईं. किंतु आरव ने पेपर टेबल पर रखते हुए कहा, “नहीं पापा, पेपर पहले आप ही पढ़िए. आप जानते हैं, मुझे बेड टी के साथ रिचा की डांट खाने की आदत है.”
दरअसल, अभी तक उन्होंने अपने रिटायरमेंट को गंभीरता से लिया ही नहीं था. कभी नहीं सोचा था, आगे क्या करेंगे. स्वयं को इस स्थिति के लिए पहले ही तैयार कर लेते, तो खालीपन का एहसास मन को नहीं सालता. पहले जीवन कितना व्यवस्थित था. सुबह नहा-धोकर घर से ऑफिस के लिए निकलते, तो देर शाम ही घर लौटते, किंतु अब तो कोई नियमितता नहीं रही. सुबह सैर पर से लौटकर क्या करें? पहाड़-सा दिन काटे नहीं कटता था. कितना पेपर पढ़ें, कितना टीवी देखें. अंजलि कहीं ले जाना चाहती, तो इंकार कर देते. सारा समय घर में ही पड़े सोचते रहते. मन में आशंकाओं के बादल उमड़ते-घुमड़ते. पता नहीं बेटा-बहू कैसा व्यवहार करें? आख़िर हैं तो वे भी इसी पीढ़ी के. कोई ज़माने से अलग तो हैं नहीं. इसी ऊहापोह में आठ दिन गुज़र गए.
आरव, रिचा और सनी घर लौटे, तब तक वह बिल्कुल निराश हो चुके थे. लग रहा था, ज़िंदगी में कुछ भी नहीं बचा है. सब समाप्त हो गया है.
रात में आरव ने आश्चर्यचकित हो अंजलि से पूछा, “मम्मी, पापा को क्या हो गया है? दस दिन में ही कितने कमज़ोर लग रहे हैं.”
अंजलि का मन भर आया, “अब तुम आ गए हो. तुम्हीं समझाओ. रिटायर हो जाने से कोई इतना निराश होता है क्या? कहते हैं, मेरी ज़िंदगी के चैप्टर पर पूर्णविराम लग गया है. अब मैं ज़्यादा जी नहीं पाऊंगा.”
आरव गंभीर हो उठा और अपने कमरे में चला गया. अगली सुबह रिचा ने चाय बनाई. हमेशा की तरह आरव चाय और पेपर लेकर उनके कमरे में आया. “गुड मॉर्निंग शहंशाहे आलम, हाज़िर है आपकी चाय और पेपर.” फीकी-सी मुस्कुराहट उनके चेहरे पर आकर लुप्त हो गई.
चाय का कप पकड़ पेपर उसे देते हुए वे बोले, “पेपर पहले तुम्हीं पढ़ो. मैं तो खाली हूं सारा दिन. कभी भी पढ़ लूंगा.” कहते हुए उनके चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आईं.
किंतु आरव ने पेपर टेबल पर रखते हुए कहा, “नहीं पापा, पेपर पहले आप ही पढ़िए. आप जानते हैं, मुझे बेड टी के साथ रिचा की डांट खाने की आदत है.”
तभी पीछे से रिचा बोली, “आहा, पापा आप ही कहिए, डांटते यह हैं या मैं?”
“पापा मेरी साइड लेंगे.” आरव बोला. रिचा उनके पास बैठ गई. उन दोनों की मीठी नोंक-झोंक का वे आनंद उठाते रहे.
चाय के बाद रिचा बोली, “पापा, आप क्या सनी को बस स्टॉप तक छोड़ देंगे?”
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“हां हां, क्यों नहीं.” झटपट वे तैयार हो गए. सनी की उंगली पकड़कर बस स्टॉप तक जाते हुए उसकी प्यारी-प्यारी बातों ने उनके मन को हल्का कर दिया. यूं भी पोता उन्हें बेहद प्यारा था. घर लौटकर वे रिचा से बोले, “आज से सनी को छोड़ने और लाने का काम मेरा है. अब तुम्हें जाने की आवश्यकता नहीं है.”
“ठीक है पापा.” रिचा प्रसन्न हो गई.
अगले दिन छुट्टी के समय वे सनी को लेने घर से निकल रहे थे कि अंजलि ने हाथ में थैला देते हुए कहा, “सुनिए, लौटते हुए सब्ज़ी ले आया कीजिए.”
“मम्मी, सब्ज़ी मैं और आरव ले ही आते हैं.” रिचा ने कहा. अंजलि बोली, “एक सप्ताह की सब्ज़ी फ्रिज में पड़े-पड़े बासी हो जाती है. अब पापा घर में रहते हैं, फिर क्यों न ताज़ी सब्ज़ी मंगवाई जाए.”
उन्हें बुरा लगा. आज से पहले उन्हें याद नहीं, अंजलि ने कभी उनसे सब्ज़ी लाने को कहा हो. पहले यह काम वह स्वयं करती थी. बाद में आरव और रिचा करने लगे, किंतु अब उनके रिटायर होते ही...
रेनू मंडल
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कल तक जो बातें उन्हें बच्चों की व्यर्थ की आलोचना लगती थी, आज उनमें सार नज़र आ रहा था. ये बातें उनके हृदयातल पर चोट पहुंचा रही थीं. निराशा की एक तीखी लहर उनके मन को चीरती हुई चली गई. तो क्या अब उनके साथ भी ऐसा ही... नहीं... नहीं, अपने साथ वह ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे. पहले ही स्वयं को समेट लेंगे. उनके आत्मसम्मान को कोई ठेस पहुंचाए, यह उन्हें गवारा नहीं.
इसी चिंता में पिछली पूरी रात वे सो नहीं पाए थे. सुबह हुई, तो क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद इधर चले आए थे. सभी ने अपनत्व से उन्हें गले लगा लिया था.
देवेशजी बोले थे, “तुम तो चार दिनों में ही कमज़ोर हो गए हो. चिंता किस बात की है तुम्हें? अच्छी भली पेंशन मिलेगी, आरव की अपनी फैक्ट्री है. स्वयं का इतना बड़ा मकान है.”
“चिंता रुपए-पैसे की नहीं देवेशजी, चिंता समय व्यतीत करने की है.” उन्होंने बुझे स्वर में कहा. तभी रवनीशजी, जो उन सब में सबसे बुज़ुर्ग थे, बोले, “देखो आदित्य, सारी ज़िंदगी तुमने मेहनत की है. अब समय है, थोड़ा रिलैक्स रहो. अपनी पत्नी के साथ क्वालिटी टाइम बिताओ. अपने पोते के बचपन को एंजॉय करो.”
“नहीं रवनीशजी, मैं खाली नहीं बैठ सकता. खाली रहा, तो बीमार पड़ जाऊंगा.” उन्होंने संजीदगी से कहा.
इस पर रमाशंकरजी बोले, “आदित्य ठीक कह रहे हैं. खाली बैठना बिल्कुल ठीक नहीं. खाली आदमी की कोई कद्र नहीं होती. अपने ही घर में वह अनचाहा सामान बनकर रह जाता है. यह मैं स्वयं के अनुभव से कह रहा हूं. कल तक नौकरी थी, तो कद्र थी. आज हर कोई फालतू समझता है, यहां तक कि पत्नी भी बात-बात पर टोकती रहती है.” निखिलजी की आंखों में भी दर्द सिमट आया था.
भर्राए कंठ से वह बोले थे, “सवेरे चाय के साथ अख़बार पढ़ना वर्षों की आदत थी. यहां तक कि बेटा स्वयं मेरे कमरे में अख़बार रख जाया करता था, किंतु रिटायर होने के अगले ही दिन बेटे ने कह दिया, ‘पापा, आप सारा दिन घर में रहेंगे, बाद में पढ़ लीजिएगा. पहले मुझे पढ़ने दीजिए.’ बेटे के जाने के बाद बहू पेपर पढ़ने बैठ जाती है. 11 बजे से पहले कभी पेपर हाथ नहीं आता. इसके अलावा बहू ज़रा भी संवेदनशील नहीं. न सर्दी देखती है, न गर्मी, जब देखो थैला हाथ में पकड़ाकर बाज़ार भेज देती है. यह भी नहीं सोचती, इनका बुढ़ापा है, थक जाते होंगे.” कल तक जो बातें उन्हें बच्चों की व्यर्थ की आलोचना लगती थी, आज उनमें सार नज़र आ रहा था. ये बातें उनके हृदयातल पर चोट पहुंचा रही थीं. निराशा की एक तीखी लहर उनके मन को चीरती हुई चली गई. तो क्या अब उनके साथ भी ऐसा ही... नहीं... नहीं, अपने साथ वह ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे. पहले ही स्वयं को समेट लेंगे. उनके आत्मसम्मान को कोई ठेस पहुंचाए, यह उन्हें गवारा नहीं. सोचते हुए वे घर की ओर चल दिए.
रेनू मंडल
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“रिटायर्ड हैं बेचारे. किस तरह अपना समय व्यतीत करें?” “रिटायर्ड होना बेचारगी कब से हो गई भला? यह तो एक नियम के तहत सामान्य प्रक्रिया है कि साठ साल की उम्र में व्यक्ति रिटायर हो जाएगा. ऐसा नहीं होगा, तो नवयुवकों को रोज़गार कैसे उपलब्ध होंगे? नहीं, रिटायरमेंट इसकी वजह नहीं, मानसिकता ही ऐसी होती है. अपने बच्चों से तालमेल बैठाने का प्रयास करने की बजाय उनकी आलोचना करना, महंगाई को रोते रहना, व्यर्थ की राजनीतिक चर्चा- ये सब खाली लोगों के लिए टाइमपास के साधन हैं.” वे तर्क देते, किंतु आज उनके सभी तर्क व़क्त और हालात की चादर के नीचे दबे सिसकियां ले रहे थे.
एक रात में ही ऐसा लगा, मानो उम्र कई वर्षों की सीमा पार कर आगे बढ़ गई हो. चेहरे पर छाई हल्की-सी लकीरें गहरा गई थीं. शरीर की चुस्ती और फुर्तीलापन न जाने कहां गायब हो गया था. थके हुए क़दमों से पार्क का एक पूरा चक्कर काटकर वह उस कोने में चले आए, जहां नित्य 5-6 बुज़ुर्गों की महफ़िल जमती थी. सब के सब रिटायर्ड. सवेरे पांच बजे से आठ बजे तक सैर, योगा और फिर बातों का अनवरत सिलसिला. सबके अपने-अपने दर्द, किंतु एक जैसे एहसास.
यूं वे इन लोगों के साथ कम ही बैठते थे. सुबह सैर करके लौटते हुए कभी पांच-दस मिनट खड़े होकर बात करते और फिर घर के लिए चल पड़ते. उनके पास समय ही कहां था, फालतू बातों के लिए. अक्सर वे हैरान होते, क्यों लोग इस तरह स्वयं को फालतू और खाली दर्शाते हैं? पत्नी अंजलि कहती, “रिटायर्ड हैं बेचारे. किस तरह अपना समय व्यतीत करें?”
“रिटायर्ड होना बेचारगी कब से हो गई भला? यह तो एक नियम के तहत सामान्य प्रक्रिया है कि साठ साल की उम्र में व्यक्ति रिटायर हो जाएगा. ऐसा नहीं होगा, तो नवयुवकों को रोज़गार कैसे उपलब्ध होंगे? नहीं, रिटायरमेंट इसकी वजह नहीं, मानसिकता ही ऐसी होती है. अपने बच्चों से तालमेल बैठाने का प्रयास करने की बजाय उनकी आलोचना करना, महंगाई को रोते रहना, व्यर्थ की राजनीतिक चर्चा- ये सब खाली लोगों के लिए टाइमपास के साधन हैं.” वे तर्क देते, किंतु आज उनके सभी तर्क व़क्त और हालात की चादर के नीचे दबे सिसकियां ले रहे थे.
दस दिन पहले वे स्वयं रिटायर हो चुके थे. कई दिनों तक पार्टियां चलती रही थीं. घर में मित्रों और रिश्तेदारों का आना-जाना जारी था, किंतु जब सब चले गए, तब उन्हें एहसास हुआ कि उनकी ज़िंदगी की कितनी बड़ी घटना घटी है. सर्विस से रिटायर हो जाना कोई छोटी घटना तो है नहीं. ज़िंदगी की तस्वीर ही बदल जाती है उसके बाद और इस समय तो उन्हें और भी सूनापन लग रहा था, क्योंकि घर में उनके और अंजलि के अतिरिक्त कोई नहीं था. उनके रिटायरमेंट के दो दिन बाद बेटा आरव, बहू रिचा और तीन वर्षीय पोता सनी, रिचा की छोटी बहन की शादी में इंदौर चले गए थे. घर में सन्नाटा छाया हुआ था. पिछले दो दिनों से वह इसी प्रश्न पर अटके हुए थे कि अब ज़िंदगी कैसे कटेगी?
रेनू मंडल
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