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कहानी- मोहभंग 3 (Story Series- Mohbhang 3)

‘’तुम्हारे विवाह के पश्‍चात उसने निखिल को भी भड़काने का प्रयत्न किया. उसने निखिल से कहा कि विवाह से पूर्व तुम्हारे अनेक लड़कों से संबंध रहे हैं. तुम्हारे विरुद्ध और भी अनेक कहानियां गढ़ीं. उसने तुम्हारा विवाह तोड़ने का पूरा प्रयत्न किया, पर निखिल चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे. बहुत संस्कारशील हैं वह. उन्होंने तुम्हारे पापा को आश्‍वासन दिया, “आप किसी प्रकार की चिंता न करें. आपकी बेटी के सम्मान की रक्षा करना अब मेरा कर्त्तव्य है और मैं उसका पूरी तरह निर्वाह करूंगा.” मां बता रही थीं और मेरे कानों में एक-एक शब्द किसी पत्थर की तरह चोट कर रहा था, नहीं मरहम लगा रहा था. पहला दिन तो यूं ही बीत गया. रात का भोजन करते ही मैं अपने कमरे में जा लेटी. ‘मेरा कमरा! जो मेरे चले जाने के बाद भी, मेरा ही कमरा था. मां ने उसे ज्यों-का-त्यों रखा हुआ था- मेरे कपड़े, किताबें, बचपन की गुड़िया सब कुछ. जो मां नहीं देख पाती थी, मनोज की यादें, वह सब भी वहीं मौजूद थीं. मुझे स्वयं पर क्रोध भी आया कि मैंने आते ही उसे फोन क्यों नहीं किया? पर कैसे करती. मुझे उससे लंबी बातें करनी थी, वह भी एकांत में. और आज वह संभव नहीं था. मैं योजनाएं बनाने लगी, ‘क्यों न अकस्मात् उसके सामने पहुंच उसे अचरज में डाला जाए?’ मुझे सामने देख वह कैसी प्रतिक्रिया करेगा, यह देखने को आकुल थी मैं. मां अपना सारा काम समेट मेरे पास आ बैठीं और इधर-उधर की बातें करने लगीं. निखिल की, उनके सब रिश्तेदारों की ख़बर ली. और मैं ‘हां हूं’ करती रही, संक्षिप्त से उत्तर देती रही. उन लोगों से कोई शिकायत तो नहीं थी, पर वहां ख़ुश भी तो नहीं थी मैं. सच पूछो, तो मुझे क्रोध भी पापा पर ही था. बचपन से मेरी हर ज़िद पूरी करते आए थे और मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय अपनी मर्ज़ी से कर लिया था. मैं क्या पिछली सदी की लड़कियों जैसी हूं कि गाय की तरह जिस खूंटी पर बांध आओगे, वहीं ख़ुश रह लूंगी. ‘यदि मैं निखिल से तलाक़ ले लूं, फिर तो पापा को मनोज से मेरे विवाह के लिए मानना ही पड़ेगा न.’ मैंने सोचा. मेरी चुप्पी देख मां कुछ बेचैन हो उठीं. उन्होंने मुझे सदा मौज-मस्ती करते ही देखा था. वह मेरी आवाज़ में वह खनक नहीं सुन पा रही थीं, जिसकी वह आदी थीं. परेशानीभरे लहज़े में उन्होंने पूछा, “निखिल ने कुछ कहा क्या तुमसे, मनोज के बारे में?” “निखिल को मैंने बताया ही कब मनोज के बारे में, और बताऊंगी भी क्यों?” मैं समझ नहीं पाई मां का आशय, अत: प्रश्‍नवाचक दृष्टि से उनकी तरफ़ देखा, तो वह बोलीं, “तुम्हारे पापा ने मनोज के बारे में खोज-ख़बर की थी, किसी ने भी उसके बारे में अच्छी राय नहीं दी. अनेक बातें सुनीं. ऐय्याश है, मम्मी-पापा के संग नहीं रहता इत्यादि. उसने हमसे झूठ कहा था कि मम्मी-पापा बाहर गए हुए हैं. ऐसे व्यक्ति का कैसे विश्‍वास किया जाए?  तुम्हारी आंखों पर तो उस समय मनोज के प्यार का चश्मा चढ़ा था, तो तुम्हें उसके वह सब अवगुण बताने से भी दिखाई न देते. परंतु पापा का अन्तर्मन इस रिश्ते की गवाही नहीं दे रहा था. पापा ने दुनिया देखी है और वही हुआ. यह भी पढ़ेबोरिंग पति को यूं बनाएं रोमांटिक (How To Get Your Husband To Be Romantic: 10 Ways) तुम्हें कुछ नहीं बताया, ताकि तुम परेशान न हो जाओ. तुम्हारी मंगनी की ख़बर सुनकर उसने तुम्हारे पापा को धमकीभरा टेलीफोन किया था, पर तुम्हारे पापा डरे नहीं. उन्होंने धमकी का जवाब धमकी से दिया, उसके ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज करवाने की धमकी देकर. वकालत का पेशा होने से हम बच गए. वह जानता था कि पापा की पहुंच ऊंचे तक है. तुम्हारे विवाह के पश्‍चात उसने निखिल को भी भड़काने का प्रयत्न किया. उसने निखिल से कहा कि विवाह से पूर्व तुम्हारे अनेक लड़कों से संबंध रहे हैं. तुम्हारे विरुद्ध और भी अनेक कहानियां गढ़ीं. उसने तुम्हारा विवाह तोड़ने का पूरा प्रयत्न किया, पर निखिल चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे. बहुत संस्कारशील हैं वह. उन्होंने तुम्हारे पापा को आश्‍वासन दिया, “आप किसी प्रकार की चिंता न करें. आपकी बेटी के सम्मान की रक्षा करना अब मेरा कर्त्तव्य है और मैं उसका पूरी तरह निर्वाह करूंगा.” मां बता रही थीं और मेरे कानों में एक-एक शब्द किसी पत्थर की तरह चोट कर रहा था, नहीं मरहम लगा रहा था. कितनी सौभाग्यशाली हूं मैं, जो निखिल को मैंने पाया. मुझे ध्यान आया कि एक दिन निखिल के बहुत देर से घर लौटने पर मुझे बहुत क्रोध आया और मैं निखिल को बहुत जली-कटी सुनाकर ग़ुस्से से भरी सोफे पर जा सोई थी. आंख मूंद लेटी तो थी, परंतु मौसम थोड़ा ठंडा होने के कारण नींद नहीं आ रही थी. इतने में मैंने महसूस किया कि निखिल ने आकर मुझे कंबल ओढ़ा दिया और मुझे सोया जान मेरे माथे और सिर को हल्के से सहला दिया. मेरी हर बात को मेरा बचपना मान माफ़ करते रहे वह. कभी क्रोध तो उन्हें आता ही नहीं था. मेरा मोहभंग हो चुका था. निखिल को नहीं, बदलने की ज़रूरत तो मुझे थी. कितनी परिपक्वता थी निखिल के प्यार में, कितना विश्‍वास! मनोज द्वारा चलाए बाण उसे डिगा नहीं पाए थे. मुझे स्वयं को भी निखिल जैसा बनाना था, जी तो चाह रहा था कि फ़ौरन घर लौट जाऊं, पर कारण क्या बताती? मम्मी-पापा के पास दो दिन और रुककर मैं लौट आई.       उषा वधवा

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कहानी- मोहभंग 2 (Story Series- Mohbhang 2)

विवाह तो धूमधाम से हुआ था, बस मेरे ही मन में कोई उत्साह नहीं था. कठपुतली बन सब रीति-रिवाज़ पूरे करती रही. छह माह बहुत मुश्किल से काटे मैंने अपने इस कथित घर में. उकता गई थी मैं इस बेरंग उबाऊ जीवन से. मुझे दिल्ली का अपना जीवन बहुत याद आता. ‘पापा, आप ग़लत थे, जो सोचते थे कि मैं मनोज के संग ख़ुश नहीं रह पाऊंगी. कैसा ख़ुशमिज़ाज था वह. उसके साथ बीता हर पल मेरी याद में बसा है. कैसे मस्ती से भरपूर थे वो दिन.’ मेरे भीतर विद्रोह पनप रहा था. बीए ख़त्म हुआ, तो विवाह की चर्चा होने लगी. मां को मैंने मनोज के बारे में बताया और मां ने पापा को. पापा ने कहा, “ठीक है, उससे कहो अपने माता-पिता को हमारे घर ले आए, ताकि हम बड़े भी आपस में मिल लें.” समय, दिन सब तय हो गया. वह आया भी, परंतु साथ में अपने किसी मित्र को लेकर. “मम्मी-पापा बाहर गए हुए हैं.” उसने बताया. ढेर सारी बातें हुईं. उसने पापा को प्रभावित करने का पूरा प्रयत्न किया, पर पापा ने जब उससे कहा कि कुछ भी तय करने से पहले उसके मम्मी-पापा से मिलना आवश्यक है, तो उसने उत्तर दिया, “मेरे मम्मी-पापा ने मुझे अपना जीवनसाथी चुनने की पूरी छूट दे रखी है और मैंने आपकी बेटी को पसंद किया है, तो फिर अड़चन क्या है?” मनोज को गए दो दिन बीत गए थे. पापा बहुत व्यस्त से तो दिखे, पर मुंह से कुछ न बोले. मैंने सोचा था कि पापा को उसने पूरी तरह से प्रभावित कर दिया है और वह सहर्ष हां कर देंगे. परंतु पापा की चुप्पी देख मेरे मन में धुकधुकी होती रही, बस उनसे कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. तीसरे दिन कोर्ट से लौटकर पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा, “क्या तुम्हें मुझ पर विश्‍वास है? यह विश्‍वास है कि मैं जो भी करूंगा, तुम्हारे हित की सोचकर ही करूंगा.” भय और असमंजस से भरी, मैने हां में सिर हिला दिया. “मैंने दुनिया देखी है, व्यक्ति को पहचानने का अनुभव है मुझे. मनोज अच्छा व्यक्ति नहीं है, तुम उसका इरादा छोड़ दो. अभी तुम यह नहीं समझ पा रही हो, पर मेरा अनुभव यही कहता है. मैंने कुछ जांच-पड़ताल भी की है. वह तुम्हारे योग्य नहीं है.” मां से कहा, तो उन्होंने भी पापा का पक्ष लिया. बोलीं, “पापा ने कुछ देख और सोचकर ही तो निर्णय लिया होगा.” पापा ने निखिल से मेरा विवाह तय कर दिया. उसने कुछ वर्ष पूर्व वकालत की अपनी शुरुआती ट्रेनिंग पापा के अधीन ली थी. अब वह मेरठ में अपने पैतृक घर में मां के साथ रहते थे. पापा ने हमारी मुलाक़ात करवाई, बातचीत भी हुई, पर मैं अपने मन से यह बात कैसे निकालती कि मेरा विवाह मनोज से नहीं हो रहा था. यह भी पढ़े5 शिकायतें हर पति-पत्नी एक दूसरे से करते हैं (5 Biggest Complaints Of Married Couples) और मैं ब्याहकर मेरठ आ गई. विवाह तो धूमधाम से हुआ था, बस मेरे ही मन में कोई उत्साह नहीं था. कठपुतली बन सब रीति-रिवाज़ पूरे करती रही. छह माह बहुत मुश्किल से काटे मैंने अपने इस कथित घर में. उकता गई थी मैं इस बेरंग उबाऊ जीवन से. मुझे दिल्ली का अपना जीवन बहुत याद आता. ‘पापा, आप ग़लत थे, जो सोचते थे कि मैं मनोज के संग ख़ुश नहीं रह पाऊंगी. कैसा ख़ुशमिज़ाज था वह. उसके साथ बीता हर पल मेरी याद में बसा है. कैसे मस्ती से भरपूर थे वो दिन.’ मेरे भीतर विद्रोह पनप रहा था. मेरी इच्छा के विपरीत आपने मेरा विवाह निखिल से कर तो दिया, परंतु आप मुझे इससे बंधे रहने को मजबूर नहीं कर सकते.’ मैं मन-ही-मन पापा से कहती. मैंने दिल्ली जाने का निर्णय लिया. मैंने जब निखिल को अपने जाने की बात कही, तो वह बोले, “मां की तबीयत अभी ठीक नहीं चल रही है. अगले सप्ताह मेरी दो छुट्टी है, एक-दो और ले लूंगा, तब की टिकट ले लेता हूं.” मैंने निखिल पर एहसान जताते हुए उसकी बात मान ली. दरअसल, निखिल इस ग़लतफ़हमी में थे कि मैं दो-चार दिन के लिए जाना चाह रही हूं जबकि मैंने यह तय कर लिया था कि मैं लौटकर नहीं आऊंगी. और मैंने उसी हिसाब से अपना सामान तैयार कर लिया. निखिल ने मम्मी-पापा को भी सूचित कर दिया था. ख़ूब ख़ुश हुए वह मुझे देखकर. उनके घर रौनक़ लौट आई थी. दिनभर आस-पड़ोस का, मेरी सखियों का तांता लगा रहा. मां ने तरह-तरह के व्यंजन बना रखे थे. सहेलियों के संग ख़ूब मस्ती की, घूमने-फिरने का, फिल्म देखने का कार्यक्रम भी बना. तरस गई थी मैं इन सब चीज़ों के लिए. मन में निश्‍चय गहरा होता गया कि लौटकर निखिल के पास नहीं जाना है, परंतु मां से अभी कुछ नहीं कहा था. अभी तो मैं मनोज से मिलने की युक्ति लगा रही थी. उसे मैंने धोखा दिया था. वह अवश्य ही मुझसे नाराज़ होगा. मुझे याद कर उदास होता होगा. मैंने सोचा और मेरे सामने किसी मजनू का सा चेहरा घूम गया. usha vadhava        उषा वधवा

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कहानी- मोहभंग 1 (Story Series- Mohbhang 1)

बुआ की बातें वैसे भी अबूझ होती थीं. कभी कहतीं, “पराए घर जाएगी तो...” और कभी कहतीं, “अपने घर जाकर जो मर्ज़ी करना, यहां लड़की बनकर रहो.” मुझ पर बस न चलता, तो बुआ मां को समझाने लगतीं, “लड़की को घर पर बैठना सिखाओ. घर का कुछ कामकाज सीखे. कौन-सा उसे नौकरी करनी है, जो पढ़ाए चले जा रहे हो.”  बहरहाल, मैं बुआ की बातों को नज़रअंदाज़ करके साइकिल उठा घूमने चली जाती. क्या करूं, मुझे ‘घर घिस्सू टाइप’ लोगों से बहुत कोफ़्त होती थी. निखिल के काम पर जाते ही मैंने दरवाज़ा बंद किया और जाकर सोफे पर बैठ गई. थोड़ा-बहुत काम अभी बाक़ी था, परंतु सामने पहाड़-सा दिन भी तो पड़ा था- ‘नीरस और उबाऊ.’ इस कमरे से उस कमरे तक, बस इतने में ही सिमट गई थी मेरी दिनचर्या. घर में हम तीन ही तो प्राणी थे. मांजी धार्मिक प्रवृति की थीं. स्नान के पश्‍चात घंटाभर अपने पूजाघर में बितातीं, उसके पश्‍चात ही अन्न ग्रहण करतीं. छह माह हो गए थे मेरे विवाह को और हर दिन ऐसे ही बीता था, सिवाय पहले के 15 दिन, जब लोगों का आना-जाना रहा. निखिल दिनभर कोर्ट-कचहरी में व्यस्त रहते, छुट्टी के दिन भी कुछ-न-कुछ काम लेकर बैठे रहते. घूमना-फिरना, मित्रमंडली, फिल्मों इत्यादि में उनकी रुचि बिल्कुल नहीं थी, जबकि मुझे इन सबके बिना जीवन बेकार लगता था. मेरे लिए जीवन एक उत्सव यात्रा थी. अपने कर्त्तव्य निभाने से इंकार नहीं था मुझे, परंतु इस जीवन को भरपूर जीना चाहती थी मैं. निखिल की ओर से कोई रोक भी नहीं थी, परंतु मेरे संगी-साथी तो सब पीछे छूट चुके थे और इस छोटे-से शहर में मुझे अभी तक कोई ऐसी संगिनी मिली ही नहीं थी, जिसके साथ मैं मौज-मस्ती कर सकूं. बहुत पारंपरिक क़िस्म के लोग रहते थे हमारे आसपास, जहां स्त्रियां अपनी घर-गृहस्थी में ही ख़ुश थीं. मांजी ने अपनी पूरी उम्र यहीं बिताई थी, इसलिए वह भी उन्हीं विचारों की थीं. मैं उनकी पूरी देखभाल करती थी. प्याज़-लहसुन बग़ैर उनकी पसंद का भोजन बनाती, समय पर परोसती, पर उसके बाद भी तो बड़ा-सा दिन बच जाता था. ‘आप ग़लत थे पापा जो सोचते थे कि मनोज मेरे लिए उपयुक्त वर नहीं था और निखिल के संग ख़ुश रहूंगी मैं.’ मन-ही-मन मैं अपने पापा से कहती. ‘कुछ भी तो यहां मेरे मन-माफ़िक़ नहीं है.’ विवाह से पहले मैं कभी रसोई में नहीं घुसी थी और यहां आने पर मांजी अपेक्षा करने लगीं कि अब रसोई मैं ही संभालूंगी. पहले दिन वह दाल चढ़ाने को बोल मंदिर चली गईं. यह तो अच्छा था कि छुट्टी का दिन था और निखिल घर पर थे. मैंने उनसे अपनी समस्या बताई, तो उन्होंने रसोई में आकर मेरी सहायता भी की और सब कुछ ब्योरेवार समझाया भी. बाद में भी कोई समस्या आने पर वह मुझे गाइड करते. मांजी की तबीयत ख़राब होने पर विवाह से पूर्व वह ही उनकी सहायता किया करते थे, इसलिए उन्हें भोजन बनाना आ गया था. अच्छे इंसान थे निखिल, परंतु जिस तरह के जीवनसाथी की मैंने कल्पना की थी, उससे बहुत भिन्न. मम्मी-पापा की लाडली थी मैं और मुझे हर तरह की आज़ादी मिली हुई थी. पापा मुझे अपनी शहज़ादी कहते. न भाई, न बहन, उनका पूरा प्यार मेरे लिए था. थोड़ा बिगड़ गई थी मैं शायद. लड़कों की तरह घूमना, मनमर्ज़ी करना. मां तो कुछ न कहतीं, पर बुआ जब भी आतीं, मम्मी-पापा को एक लंबा-सा भाषण दे जातीं. ‘बिगाड़ रहे हो बेटी को’ वह कहतीं. “पराए घर जाएगी, तो नाक कटवाएगी तुम्हारी.” उनकी यह पराए घरवाली बात मेरी समझ न आती. यहां तो फिर भी मम्मी-पापा को बताना पड़ता था कि कहां जा रही हूं, विवाह के बाद तो किसी से पूछने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी. वह तो मेरा अपना घर होगा. बुआ की बातें वैसे भी अबूझ होती थीं. कभी कहतीं, “पराए घर जाएगी तो...” और कभी कहतीं, “अपने घर जाकर जो मर्ज़ी करना, यहां लड़की बनकर रहो.” मुझ पर बस न चलता, तो बुआ मां को समझाने लगतीं, “लड़की को घर पर बैठना सिखाओ. घर का कुछ कामकाज सीखे. कौन-सा उसे नौकरी करनी है, जो पढ़ाए चले जा रहे हो.” बहरहाल, मैं बुआ की बातों को नज़रअंदाज़ करके साइकिल उठा घूमने चली जाती. क्या करूं, मुझे ‘घर घिस्सू टाइप’ लोगों से बहुत कोफ़्त होती थी. यह भी पढ़ेशादी से पहले दिमाग़ में आनेवाले 10 क्रेज़ी सवाल (10 Crazy Things Which May Bother You Before Marriage) इन्हीं मौज-मस्ती से भरे दिनों में मेरी मनोज से दोस्ती हुई थी. कॉलेज का वार्षिक उत्सव था. मुझे खेलकूद में बहुत सारे इनाम मिलने थे. पारितोषिक वितरण के पश्‍चात चाय-नाश्ते का प्रबंध भी था. कॉलेज यूनियन का अध्यक्ष था मनोज, मुझसे तीन वर्ष सीनियर. चाय के दौरान मेरे पास आकर बोला, “कल कॉफी पीने चलें, ठीक चार बजे?” और मेरे उत्तर देने से पहले ही जोड़ दिया, “मैं इंतज़ार करूंगा कैफेटेरिया में.” पहली बार एहसास हुआ दिल की धड़कन तेज़ होना किसे कहते हैं. मेरा दिमाग़ सातवें आसमान पर. लड़कियां दीवानी थीं उसकी और उसने स्वयं मुझे आमंत्रित किया था. हमारी यह छोटी-सी मुलाक़ात कॉफी से शुरू होकर गहरी मैत्री तक पहुंच गई. ख़ूब पटती थी हम दोनों की. वह भी घूमने-फिरने का बहुत शौकीन था और उसके पास निजी कार भी थी. हमारा कोई-न-कोई कार्यक्रम बना ही रहता. उसके पिता का अपना कारोबार था, पढ़ाई तो वह बस डिग्री पाने के लिए कर रहा था. और मुझे भी घर में स्पष्ट कर दिया गया था कि बीए कर लो बहुत है, नौकरी थोड़े ही करनी है. usha vadhava         उषा वधवा

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