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कविता
Home » कविता

प्रकृति प्रेम…
अभी तलाश रही हूं कुछ पीले शब्द
कि एक कविता लिखूं
पीली सी
ठीक उस पीली सोच वाली लड़की के जैसी
भीगती हुई
पीली धूप में तर-बतर
बटोरती हुई सपनों में
गिरे पीले कनेर
जो नहीं जानती फूल तोड़ना
घंटों बतियाती है जो चुपचाप
पीले अमलतास से
निहारा करती है रोज़
रिश्तों के पीले सूरजमुखी…
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कोयलिया
तू हर दिन किसे बुलाती है?
भोर होते ही सुनती हूं तेरी आवाज़
विरह का आर्तनाद
प्रणयी की पुकार
मनुहार
सभी कुछ है उसमें
गूंज उठता है उपवन
हर दिन
दिन भर
ढूंढ़ती है उसे तू डाल-डाल
भोर से सांझ तक
तेरा खुला निमंत्रण पाकर भी
नहीं आता क्यों मीत तेरा?
विरक्त है तुझसे?
या वह
विवश?
प्रात: होते ही गूंज उठती है
फिर वही पुकार
कुहू-कुहू की अनुगूंज
खिड़की की राह भर जाती है
मेरे कमरे में
द्विगुणित हो गूंजती है
मेरे आहत मन में
पुकारता है मेरा भी मन
मनमीत को
विरह का आर्त्त
प्रणयी की पुकार
मनुहार
सभी कुछ उसमें
पर सखी
कैसे पहुंचे उस तक
मेरी आवाज़?
पंख विहीन मैं
मेरे तो लब भी सिले हुए हैं!..
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आज के हालातों में
हर कोई ‘बचा’ रहा है कुछ न कुछ
पर, नहीं सोचा जा रहा है
‘प्रेम’ के लिए
कहीं भी..
हां, शायद
‘उस प्रलय’ में भी
नाव में ही बचा रह गया था ‘कुछ’
कुछ संस्कृति..
कुछ सभ्यताएं..
और
.. थोड़ा सा आदमी!
प्रेम तब भी नहीं था
आज भी नहीं है
.. वही ‘छूटता’ है हर बार
हर प्रलय में
पता नहीं क्यों…
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लो बीत गया
दिन एक और
चाहे जैसा गुज़रा
यह दिन
अब बंद हो चुका है
मेरी स्मृति की क़ैद में
और भी जाने कितने
अनगिनत दिन
बंद है इस क़ैद में
कब मिलेगा इन
छटपटाते दिनों को
इस क़ैद से छुटकारा
शायद तब, जब मौत करेगी
आकर आलिंगन मेरा
ये दिन तो छूट जाएंगे
इस क़ैद से
किंतु मैं स्वयं,
क़ैद होकर रह जाऊंगा
एक शून्य में…