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ब्रेस्ट कैंसर यानी स्तन कैंसर भारतीय महिलाओं में कैंसर के कारण होनेवाली मौतों के मुख्य कारणों में से एक है. यह महिलाओं को प्रभावित करनेवाला मुख्य कैंसर भी हैं. आइए, इसके बारे में विस्तार से जानें.
एक अध्ययन के मुताबिक़ साल 2016 में देश में तक़रीबन 1,18,000 मामले पाए गए और 5,20,000 से अधिक मामले पहले से ही दर्ज थे. प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर्स में प्रकाशित परिणाम इसकी वास्तविकता पर रोशनी डालते हैं. ग्लोबोकन 2018 आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में दोनों लिंगों में कैंसर के कुल 11,57,294 नए मामले थे, जबकि स्तन कैंसर के मामलों के लिए पांच साल की प्रसार दर 4,05,456 थी. आसान भाषा में कहें, तो स्तन कैंसर भारतीय महिलाओं में कैंसर का सबसे बड़ा प्रकार है. हालांकि इस कैंसर का इलाज संभव है, लेकिन इसके बावजूद हर साल इससे बड़ी संख्या में मौतें होती हैं. हर साल अक्टूबर माह स्तन कैंसर जागरूकता माह के रूप में मनाया जाता है. इसके बारे में एसआरएल डायग्नोस्टिक्स की डॉ. सिमी भाटिया ने महत्वपूर्ण जानकारियां दीं.
स्तन कैंसर के लक्षण
स्तन कैंसर तब होता है, जब स्तनों के भीतर कोशिकाएं अनियंत्रित रूप से बढ़ने लगती हैं. ऐसा आमतौर पर दूध बनानेवाली ग्लैण्ड्स यानी लोब्यूल्स या डक्ट में होता है, जो निप्पल तक दूध लेकर जाती हैं. रक्त या लिम्फ के ज़रिए कैंसर स्तनों के बाहर भी फैल सकता है.
अक्सर लंबे समय तक इसका पता नहीं चलता, ख़ासतौर पर भारत में जहां महिलाएं इसके बारे में खुलकर बात नहीं कर पातीं. स्तन कैंसर में स्तनों में गांठ बन जाती है या स्तन के शेप या साइज़ में बदलाव आ जाता है. कुछ अन्य लक्षण हैं, स्तन या बगल में नई गांठ बनना, साइज़ बढ़ना या सूजन, खुजली, स्तनों की त्वचा की परतें उतरना, स्तन के किसी हिस्से ख़ासतौर पर निप्पल में दर्द.
ख़ुद जांच करें
भारत में महिलाएं अक्सर अपने स्तनों में होनेवाली गांठ, इनके शेप या साइज़ के बारे में बात नहीं करना चाहती. इस बारे में वे अपने पति या यहां तक कि परिवार की अन्य महिलाओं से भी बात नहीं कर पातीं. यहां तक कि समाज के ज़्यादातर वर्गों की महिलाएं अपने स्तनों में होनेवाले बदलाव को समझ हीं नहीं पातीं. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि महिलाएं अपने स्तनों की ख़ुद जांच करना सीखें और कम-से-कम महीने में एक बार ऐसा नियमित रूप से करें.
- माहवारी की उम्र में महिलाएं पीरियड्स के कुछ दिनों बाद अपने स्तनों की जांच कर सकती हैं. जब स्तन अपनी सही शेप में होते हैं. जिन महिलाओं के पीरियड्स बंद हो चुके हैं, वे महीने का एक दिन इसके लिए चुन सकती हैं.
- यह जानना ज़रूरी है कि स्तनों का क्षेत्र आपके बगलों के पास से लेकर पसलियों तक फैला होता है. निप्पल के आसपास, बगलों के आसपास किसी भी तरह की गांठ की जांच करें. देखें कि कोई असामान्य गांठ तो नहीं बन रही है.
- अपनी जांच का रिकाॅर्ड रखें. इससे अगर आपके स्तन के किसी हिस्से में बदलाव आता है, तो आप समझ पाएंगी.
जागरुकता ज़रूरी
अगर आपको स्तनों में कोई बदलाव या गांठ महसूस हो, तो याद रखें कि हर गांठ कैंसर की नहीं होती. वास्तव में दस में से आठ गांठें कैंसर की नहीं होती हैं. हालांकि गांठ कैंसर की है या नहीं, इसका पता लगाने के लिए डाॅक्टर को बायोप्सी करनी होती है. स्तन कैंसर के बढ़ते मामलों और इसके कारण बढ़ती मृत्यु दर को देखते हुए स्तन कैंसर के बारे में जागरुकता फैलाना बेहद ज़रूरी है. पुरुषों और महिलाओं दोनों को इसे समझना चाहिए, ताकि समय पर निदान कर उपचार किया जा सके.
समय पर डायग्नोसिस
स्तन कैंसर को पहचानने में उसके लक्षण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इस बीमारी का इलाज पूरी तरह संभव है, लेकिन इसके डायग्नोसिस में देरी से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है, इसलिए जैसे ही आपको शक हो, तुरंत डाॅक्टर से संपर्क करें.
डायग्नोसिस का एक तरीक़ा है मैमोग्राफी, जिसमें कम स्तर की एक्स-रे की मदद से स्तनों के टिश्यूज़ में होनेवाले बदलावों को देखा जाता है. अगर मैमोग्राफी में कुछ असामान्यता दिखाई दे, तो स्तन कैंसर की जांच की जाती है, जिसमें विभिन्न कोणों से एक्स-रे लिए जाते हैं और इसके बाद अल्ट्रासाउंड किया जाता है. महिलाओं को 40 साल की उम्र के बाद हर साल मैमोग्राफी कराने की सलाह दी जाती है, चाहे उनमें स्तनों से संबंधित कोई लक्षण दिखाई दे या न दें.
जांच के अन्य तरीक़े
स्तनों में कैंसर के ट्यूमर की जांच का एक और तरीक़ा है फाइन नीडल एस्पीरेशन सायटोलोजी. इस प्रक्रिया में गांठ में नीडल डाली जाती है और एस्पीरेट ड्रेन किया जाता है. इसके बाद सेल्स को स्लाइड पर ट्रांसफर किया जाता है और माइक्रोस्कोप से जांच की जाती है.
हिस्टोपैथोलोजी स्लाइड की जांच के लिए उच्चस्तरीय विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है. यह प्रक्रिया बेहद जटिल होती है. कई बड़ी डायग्नाॅस्टिक्स चेन्स आईटी के दिग्गजों के साथ साझेदारी कर रही हैं, ताकि आर्टीफिशियल इंटेलीजेन्स एवं अन्य डिजिटल तकनीकों की मदद से सटीक एवं तीव्र निदान किया जा सके. उदाहरण के लिए डिजिटल पैथोलॉजी में बदलाव लाना माइक्रोसाॅफ्ट एआई फाॅर हेल्थ प्रोग्राम का उद्देश्य है. वर्तमान में यह अपने दूसरे चरण में है. अगर ट्यूमर मैलिग्नेन्ट हो, तो स्तन कैंसर की पुष्टि हो जाती है.
स्तन कैंसर की पांच अवस्थाएं
स्तन कैंसर के बढ़ने के आधार पर इसे पांच अवस्थाओं में बांटा जाता है.
शून्य अवस्था- जब स्तन कैंसर नाॅन-इनवेसिव होता है, इस बात के कोई प्रमाण नहीं कि इस अवस्था में कैंसर आसपास के टिश्यूज़ में फैल सकता है या नहीं.
पहली अवस्था- इसमें कैंसर इनवेसिव हो जाता है, किंतु स्तनों के क्षेत्र में ही सीमित रहता है. आमतौर पर इस समय ट्यूमर का आकार 2 सेंटीमीटर से कम होता है.
दूसरी अवस्था- इसमें दो उप श्रेणियां होती हैं और निम्न फीचर्स होते हैं. पहली श्रेणी में ट्यूमर का अधिकतम आकार 2 सेंटीमीटर हो जाता है और यह बगल में लिम्फ नोड में फैल जाता है या ट्यूमर का आकार 2 से 5 सेंटीमीटर के बीच होता है और यह लिम्फ नोड तक नहीं फैलता. दूसरी श्रेणी में ट्यूमर का आकार 5 सेंटीमीटर से बढ़ जाता है या 2 से 5 सेंटीमीटर तक रहता है और लिम्फ नोड्स तक फैल जाता है.
तीसरी अवस्था- यह कैंसर की स्थानिक एडवान्स्ड अवस्था होती है, जिसे तीन श्रेणियों में बांटा गया है. पहली श्रेणी में ट्यूमर का आकार 5 सेंटीमीटर से कम होता है और लिम्फ नोड में फैल जाता है. इसके बाद बढ़ते हुए क्लम्प बनाने लगता है. दूसरी श्रेणी में ट्यूमर किसी भी आकार का हो सकता है, किंतु छाती की दीवार या स्तनों की त्वचा में फैल जाता है. इसमें त्वचा में गांठें बनने लगती हैं और स्तनों में सूजन आ जाती है. तीसरी श्रेणी में ट्यूमर किसी भी आकार का हो सकता है, किंतु लिम्फ नोड तक फैल जाता है और स्तनों की त्वचा एवं छाती की दीवार के आसपास फैल सकता है.
चौथी अवस्था- वास्तव में एडवान्स्ड अवस्था होती है, जिसमें कैंसर स्तनों से शरीर के अन्य अंगों में फैल जाता है.
इलाज
स्तन कैंसर का इलाज कई तरह से किया जाता है. यह अक्सर कैंसर की अवस्था और इस बात पर निर्भर करता है कि स्तनों में कैंसर के उतकों का विकास कितना गंभीर है. आम तकनीकों में सर्जरी, कीमो थेरेपी, रेडिएशन थेरेपी और हार्मोन थेरेपी शामिल है. मामले की गंभीरता के आधार पर सर्जिकल विकल्प जैसे लम्पेक्टोमी (गांठ को निकालना) या मास्टेक्टोमी (पूरे स्तनों को निकालना) को भी चुना जा सकता है. इसलिए ज़रूरी है कि दूसरी अवस्था से पहले ही मरीज़ का निदान हो जाए.
हेल्थ अलर्ट
किसी भी बीमारी में रोकथाम करना उपचार से बेहतर विकल्प होता है. हालांकि स्तन कैंसर के प्रत्यक्ष कारण ज्ञात नहीं हैं, किंतु पाया गया है कि सेहतमंद जीवनशैली जीनेवाली महिलाओं में इसकी संभावना कम होती है. स्तन कैंसर की संभावना को कम करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान दें.
- अल्कोहल का सेवन करने से जोख़िम बढ़ता है, इसलिए इसका सेवन ना करें.
- इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि धूम्रपान से स्तन कैंसर की संभावना बढ़ती है, ऐसा ख़ासतौर पर मेनोपाॅज़ से पहले की स्थिति में देखा गया है. अतः इससे दूर रहना ही बेहतर है.
- मोटापा या सामान्य से अधिक वज़न से स्तन कैंसर की संभावना बढ़ जाती है. बड़ों के लिए ज़रूरी है कि वे शारीरिक रूप से सक्रिय रहें. कम-से-कम दो-ढाई घंटे हल्का एरोबिक या पौने घंटे हेवी एक्सरसाइज़ करें.
- पौष्टिकता से भरपूर भोजन लें.
- स्तनपान यानी ब्रेस्ट फीडिंग कराने से कैंसर को रोका जा सकता है. साथ ही लंबे समय तक शिशु को स्तनपान कराने से भी अधिक फ़ायदा होता है.
- उच्च स्तरीय रेडिएशन और पर्यावरणी प्रदूषण से बचें.
स्तन कैंसर का उपचार शत-प्रतिशत संभव है, अगर समय पर निदान कर जल्द-से-जल्द उपचार शुरू कर दिया जाए. हालांकि महिलाओं को सलाह दी जाती है कि सेहतमंद जीवनशैली अपनाएं, नियमित रूप से अपनी जांच करें, अगर कोई भी संदेह हो, तो तुरंत डाॅक्टर से संपर्क करें. पुरुषों को भी चाहिए कि वे महिलाओं की नियमित जांच, निदान एवं उपचार में सहयोग दें. हालांकि स्तन कैंसर ज़्यादातर महिलाओं को ही होता है, लेकिन पुरुषों को भी हो सकता है. इसलिए इस बीमारी को गंभीरता से लें और यथासंभव एक-दूसरे को सहयोग भी दें.
– ऊषा गुप्ता

अनेक अध्ययनों से यह बात साबित हो चुका है कि व्यस्त जीवनशैली, वर्कआउट न करना, बढ़ता तनाव, मोटापा, उच्च रक्तचाप आदि अनेक ऐसे कारण हैं, जो बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल (Cholesterol) की ओर संकेत करते हैं. यदि आप भी उपरोक्त बताए गए किसी एक कारण से परेशान हैं, तो सावधान हो जाएं, क्योंकि आपको ज़रूरत है अपने कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल करने की…
क्या है कोलेस्ट्रॉल?
कोलेस्ट्रॉल तैलीय पदार्थ जैसा होता है, जो शरीर की कोशिकाओं में मौजूद होता है. कोलेस्ट्रॉल तैलीय होने के कारण पानी में घुलता नहीं, लेकिन लिपोप्रोटीन (एचडीएल) के कणों के रूप में रक्तप्रवाह के द्वारा शरीर के अन्य अंगों तक पहुंचता है. यह शरीर के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि-
– यह शरीर के कई हार्मोंन्स को नियंत्रित करता है.
– शरीर में विटामिन डी के निर्माण में मदद करता है.
कोेलेस्ट्रॉल के प्रकार
कोलेस्ट्रॉल दो तरह का होता है- गुड कोलेस्ट्रॉल और बैड कोलेस्ट्रॉल. गुड कोलेस्ट्रॉल दिल के दौरे से बचाता है. यह धमनियों से कोलेस्ट्रॉल को निकालकर लिवर में लाने का काम करता है, जबकि बैड कोलेस्ट्रॉल हृदय और दिमाग़ की ओर जानेवाली रक्तनलिकाओं में वसा का निर्माण करता है. वसा के जमा होने से वहां की धमनियां संकुचित होकर अवरुद्ध हो जाती हैं, जिसके कारण हृदय और दिमाग़ जैसे महत्वपूर्ण अंगों में रक्त का संचार धीमा हो जाता है या रुक जाता है और हार्ट संबंधी बीमारियां होने का ख़तरा बढ़ जाता है.
किन कारणों से बढ़ता है कोलेस्ट्रॉल?
– किडनी, थायरॉइड और लिवर संबंधी बीमारियां होने पर.
– अधिक दवाएं खाने से.प खाने में सैचुरेटेड फैट और ट्रांस फैट लेने से.
– वज़न बढ़ने के कारण शरीर में ट्राइग्लिसराइड का स्तर बढ़ने पर.-
– शारीरिक गतिविधियां कम होने के कारण.
– खानपान में लापरवाही बरतने पर.
– आनुवांशिक कारण.
– बहुत अधिक धूम्रपान करने से.
कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने से हो सकते हैं ये ख़तरे
1. धमनियों में कोलेस्ट्रॉल के जमा होने पर वे संकरी हो जाती हैं, जिसके कारण रक्त का संचार सही तरह से नहीं हो पाता और दिल का दौरा पड़ने की आशंका बढ़ जाती है.
2. कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने पर रक्त का प्रवाह आंखों तक सही तरह से नहीं हो पाता, जिससे आंखों को नुक़सान पहुंचता है.
3. कुछ स्थितियों में कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने पर आंखों के स़फेद भाग पर ग्रे कलर का धब्बा दिखाई देने लगता है.
4. बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल का असर किडनी पर भी पड़ता है.
इनके अलावा कोलेस्ट्रॉल के बढ़ने पर
– सीने में दर्द
– कंधे और गर्दन में सूजन व दर्द
– हाथ-पैर में अचानक दर्द व सिहरन होना
– सांस फूलनाप दिल की धड़कन तेज़ होना
– वज़न बढ़नाप बहुत पसीना आना आदि की शिकायत भी हो सकती है.
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कैसे करें कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित?
– अमेरिकन हार्ट ऑफ एसोसिएशन के अनुसार, सूखे मेवों में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन ई और फैटी एसिड अधिक मात्रा में होते हैं, जो कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद करते हैं, इसलिए रोज़ाना आधा मुट्ठी सूखे मेवे ज़रूर खाएं.
– हाल ही में हुए शोधों से यह साबित हुआ है कि लहसुन खाने से ख़ून में थक्का बनने की आशंका कम हो जाती है. यह धमनियों में प्लाक को जमने से रोकता है, इसलिए नियमित रूप से तीन-चार लहसुन खाएं.
– लहसुन की तरह पालक भी धमनियों में प्लाक को जमने से रोकता है. पालक केवल कोलेस्ट्रॉल के लिए ही नहीं, बल्कि आंखों के लिए भी फ़ायदेमंद होता है.
– ओटमील, राजमा, संतरा, स्प्राउट्स, सेब और नाशपाती में सोल्युबल फाइबर प्रचुर मात्रा में होता है, जो कोलेस्ट्रॉल को कम करता है.
– विटामिन सी से भरपूर आंवला कोलेस्ट्रॉल को रक्त नलिकाओं में जमा नहीं होने देता है.
– हल्दी, मेथीदाना, बैंगन, शकरकंद, भिंडी खाने से कोेलेस्ट्रॉल नियंत्रित रहता है.
– फिश में अमिनो एसिड और फैटी एसिड प्रचुर मात्रा में होते हैं, जो बढ़े हुए कोलेस्ट्रॉल को कम करता है.
– ऐवोकैडो में बीटा सिटोस्टेरॉल नामक कंटेंट होता है, जो कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करता है. इसमें मोनोसैचुरेटेड फैट भी प्रचुर मात्रा में होता है, जिसके कारण शरीर में गुड कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ता है.
– एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी पॉलिटेक्नीक कैंपस में हुए शोध से यह सिद्ध हुआ है कि बीन्स कोलेस्ट्रॉल को कम करता है. नियमित रूप से बीन्स खाने से बैड कोलेस्ट्रॉल में लगभग 8% की कमी आती है, इसलिए काला-स़फेद लोबिया और राजमा डायट में ज़रूर लें.
– ग्रीन टी पीएं. इसमें ऐसे एंटी-ऑक्सीडेंट्स होते हैं, जो बैड कोलेस्ट्रॉल को कम करते हैं.
– अंडे की जर्दी, रेड मीट, तला हुआ खाना, क्रीम बेस्ड स्वीट्स- ये चीज़ें कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाती हैं. अत: इन्हें खाने से बचें.
– ऑयली चीज़ें न खाएं. ऑयली चीज़ें खाने से कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है, लेकिन ऑलिव ऑयल का सेवन करने से अन्य तेलों की तुलना में कोलेस्ट्रॉल के ख़तरे को 8% तक कम किया जा सकता है.
– डायट में अधिक-से-अधिक फाइबरयुक्त चीज़ें खाएं.प फैट फ्री डेयरी प्रोडक्ट्स का सेवन करें.
– अपनी मर्ज़ी से अधिक दवाएं न खाएं.
– कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल करने के लिए सप्ताह में कम-से-कम 5 दिन एक्सरसाइज़ ज़रूर करें.
– स्विमिंग, जॉगिंग, साइकिलिंग और एरोबिक्स से भी से कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित किया जा सकता है.
– धूम्रपान से बचें, क्योंकि धूम्रपान करने से धमनियों को नुक़सान पहुंचता है.
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– पूनम नागेंद्र शर्मा

चाट-पकौड़े, बासी खाना, पास्ता….कुछ ऐसे खाद्य पदार्थ होते हैं, जिन्हें खाने पर पेट का गड़बड़ (Stomach Disorder) होना स्वाभाविक है. यदि आप उन बदनसीब लोगों में से हैं जिन्हें कुछ भी खाने के बाद पेट की परेशानी हो जाती है तो आप इरिटेबल बाउल सिंड्रोम (Irritable Bowel Syndrome) के शिकार हैं. जानिए, इस बीमारी के बारे में विस्तार से.
क्या है यह बीमारी?
आईबीएस यानी इरिटेबल बाउल सिंड्रोम पेट से जुड़ा हुआ एक ऐसा विकार है, जो पाचन तंत्र की कार्यप्रणाली में लंबे समय से या बार-बार उत्पन्न हो रहे परिवर्तनों के कारण होता है. आईबीएस का तनाव और चिंता से गहरा संबंध है, क्योंकि ये एक-दूसरे को ट्रिगर करते हैं.
लक्षणः अक्सर पेट दर्द, पेट में ऐंठन, आंतों में सूजन, गैस, कब्ज़ और दस्त इत्यादि आईबीएस के प्रमुख लक्षण हैं.
कारणः आईबीएस क्यों और कैसे होता है, फ़िलहाल इसका कारण स्पष्ट नहीं हो पाया है, लेकिन कई ऐसे कारक हैं जो इसमें अपनी अहम् भूमिका निभाते हैं. आंतों की सतह पर मांसपेशियों की परतें होती हैं. ये एक लय में सिकुड़ती और फैलती हैं और यही भोजन को पेट से आंत की नली के ज़रिए मलाशय में ले जाती हैं. इरिटेबल बाउल सिंड्रोम से ग्रसित लोगों केपेट की आंतों में सिकुड़न सामान्य से ज़्यादा और अधिक समय के लिए होता है, जिसके कारण गैस, सूजन और दस्त की शिक़ायत होती है. इसके अलावा आंतों पर मौजूद बैक्टीरिया में असंतुलन के कारण भी यह समस्या होती है. जानते हैं 8 ऐसे कारक जो आंतों में संकुचन या सिकुड़न के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं.
ग्लूटेन का सेवन
कई लोगों का मानना है कि ग्लूटेन का सेवन करने पर उनके पेट की तकलीफ़ बढ़ जाती है. ग्लूटेन एक प्रकार का ख़मीर होता है, जो आईबीएस के मरीज़ों के लिए अक्सर परेशानी का सबब बन जाता है. जिन लोगों को ग्लूटेन पचाने में दिक्कत होती है, उनके कोलोन में सूजन आ जाती है और उन्हें दस्त व गैस की समस्या होती है.
सुझाव- कई अध्ययनों से यह पता चला है कि आईबीएस से ग्रसित कुछ लोगों ने जब ग्लूटेन (गेहूं, जौ और राई) का सेवन बंद कर दिया, तब उनके दस्त के लक्षणों में सुधार देखने को मिला. अगर आपको भी ग्लूटेन को पचाने में दिक्कत होती है तो इसका सेवन बंद कर दें.
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शराब पीने की आदत
अलग-अलग तरह के शराब में मौजूद शर्करा भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, जो पेट में मौजूद जीवाणुओं के लिए भोजन का काम करती है. इस प्रक्रिया से पेट में गैस और सूजन होती है. शराब पीने की आदत आंतों के अच्छे बैक्टीरिया को नष्ट करती है, जिससे आपके पेट की तकलीफ़ ज़्यादा बढ़ जाती है.
सुझाव- पेट के अच्छे बैक्टीरिया को नुक़सान न पहुंचे, इसके लिए शराब का सेवन कम करने में ही भलाई है और इससे आपके आंतों को भी तकलीफ़ नहीं होगी.
विटामिन डी की कमी
विटामिन डी स़िर्फ हडि्डयों के लिए ही नहीं, बल्कि पेट के स्वास्थ्य के लिए भी बहुत ज़रूरी है. यह विटामिन शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए आवश्यक है. क्लिनिकल न्यूट्रिशन के यूरोपीय जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में इस बात का ख़ुलासा किया गया है कि इरिटेबल बाउल सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्तियों में से जिन लोगों ने विटामिन डी सप्लीमेंट का सेवन किया, उनके लक्षणों में काफ़ी सुधार देखने को मिला.
सुझाव- अगर आपके शरीर में विटामिन डी की कमी है तो डॉक्टर से परामर्श करें और सप्लीमेंट की मदद से इस कमी को दूर करें.
अनिद्रा
एक अध्ययन में यह पाया गया है कि आईबीएस से पीड़ित महिलाएं दर्द, तनाव, चिंता और थकान से परेशान नज़र आती हैं, जिसके कारण उनकी नींद में खलल पैदा होती है, जो बिल्कुल भी ठीक नहीं है. ख़राब और अस्वस्थ नींद के चलते आईबीएस के लक्षणों में बढ़ोत्तरी हो सकती है.
सुझाव- स्वस्थ नींद की आदत अपनाएं और उसका नियमित रूप से पालन करें. सोने का एक सही समय निर्धारित करें. इससे आईबीएस के लक्षणों में सुधार के साथ-साथ तनाव और चिंता से भी राहत मिलेगी.
एक्सरसाइज़ की कमी
सप्ताह में कम से कम तीन बार शारीरिक क़सरत या एक्सरसाइज़ करने से आईबीएस से पीड़ित लोगों के पेट में गुड बैक्टीरिया में बढ़ोत्तरी होती है. इसके साथ ही तनाव और चिंता से राहत मिलती है. लेकिन एक्सरसाइज़ न करना या कम करना, कब्ज़ और दस्त जैसी परेशानी को और भी बढ़ा सकता है.
सुझाव- हफ़्ते में कम से कम पांच दिन क़रीब आधे से एक घंटे तक एक्सरसाइज़ करें. साइकिलिंग, योग, ताज़ी हवा में टहलना जैसी गतिविधियां आईबीएस के लक्षणों से राहत दिलाने में काफ़ी हद तक मदद कर सकती है.
आर्टिफिशियल स्वीटनर्स का उपयोग
अगर आप मिठास के लिए आर्टिफिशियल स्वीटनर्स का इस्तेमाल करते हैं तो आपको गैस, आंतों में सूजन और दस्त की शिक़ायत हो सकती है. आर्टिफिशियल स्वीटनर्स अच्छी तरह से अवशोषित नहीं हो पाते हैं, जिससे दूसरों की तुलना में आईबीएस से पीड़ित लोगों को ज़्यादा तकलीफ़ हो सकती है.
सुझाव- इससे बचने के लिए आर्टिफिशियल स्वीटनर्स का इस्तेमाल बंद कर दें और डायट सोडा व शुगर फ्री गम का उपयोग न के बराबर करें.
पीरियड्स
महिलाओं में आईबीएस होने की दोगुनी संभावना होती है. शोधकर्ताओं का मानना है कि इस स्थिति में हार्मोनल बदलाव काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. महिलाओं के दो प्रमुख हार्मोन्स एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट को धीमा कर देते हैं, जिससे पीरियड्स के दौरान या उसके आस पास ये संकेत और लक्षण अधिक बदतर हो जाते हैं.
सुझाव- इससे बचने के लिए पीरियड्स के आस पास गैस पैदा करनेवाले खाद्य पदार्थों का सेवन करने से बचें. डायट और जीवनशैली में बदलाव लाएं, व्यायाम का समय बढ़ाएं.
अत्यधिक तनाव
अधिक तनाव के कारण आईबीएस के संकेत और लक्षण अधिक गंभीर हो जाते हैं, जैसे कि महीने के अंतिम सप्ताह या नई नौकरी का पहला सप्ताह. बता दें कि तनाव गंभीर रुप से लक्षणों को बढ़ा देता है, लेकिन उन्हें उत्पन्न नहीं करता.
सुझाव- आपको अपने मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने की ज़रूरत है. इससे पेट की समस्याओं पर क़ाबू पाने में बड़ी मदद मिलेगी.
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शरीर के स्वस्थ और संतुलित विकास के लिए हर उम्र में कैल्शियम (Calcium) की आवश्यकता होती है. बढ़ते बच्चों के शरीर, दांतों के आकार और हड्डियों को मज़बूत बनाने के लिए भी कैल्शियम ज़रूरी है. जहां तक महिलाओं का प्रश्न है, हमारे देश की अधिकांश महिलाओं में कैल्शियम की कमी पाई जाती है. उनमें इसकी कमी टीनएज से ही रहने लगती है, जो ताउम्र बनी रहती है.
क्यों ज़रूरी है कैल्शियम?
शरीर की प्रत्येक कोशिका को कैल्शियम की ज़रूरत इसलिए होती है, क्योंकि हमारे शरीर में त्वचा, नाख़ून, बाल और मल के ज़रिए रोज़ ही कैल्शियम की कुछ मात्रा नष्ट होती रहती है, इसलिए कैल्शियम का संतुलन बनाए रखने के लिए इसकी रोज़ ही पूर्ति कर ली जाए, तो अच्छा रहता है. यदि ऐसा नहीं होगा, तो हमारा शरीर हड्डियों से कैल्शियम लेने लगेगा. नतीजा बाहर से भले ही हम कमज़ोर न लगें, लेकिन अंदर ही अंदर हड्डियां खोखली हो जाएंगी और शरीर कमज़ोर. कमज़ोर हड्डियां कई तरह की परेशानियां पैदा करती हैं, जैसे- ज़रा-सी चोट लगने पर ही फ्रैक्चर हो सकता है. यही नहीं, कैल्शियम हृदय, मांसपेशियों, ब्लड क्लॉटिंग के लिए भी बेहद ज़रूरी होता है.
इसके अलावा कैल्शियम मांसपेशियों के कई काम में मदद करता है, जैसे- लिखना, टहलना, बैठना और किसी गेंद कोफेंकना आदि.
- कैल्शियम नर्वस सिस्टम के संदेश मस्तिष्क तक पहुंचाने में सहायक है, जैसे- यदि आपने किसी गरम वस्तु को छू लिया है, तो मस्तिष्क तुरंत एक संदेश भेजेगा, जिससे आपके मुंह से आह! आउच! की आवाज़ आएगी और आप अपने हाथ को जल्दी से दूर हटा लेंगे.
2. इसके अलावा ये चोट, घाव, खरोंच आदि को भी जल्दी ठीक करने में मदद करता है.
3. लेकिन यदि शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाए, तो इसके दुष्प्रभाव होते हैं, जो हमें बीमार कर सकते हैं. इन बीमारियों के लक्षण धीरे-धीरे सामने आते हैं.कैल्शियम की कमी के लक्षण
. ब्लड प्रेशर का बढ़नाश्र दांतों का समय से पहले गिरनाश्र शरीर का विकास रुकना
. हड्डियों में टेढ़ापनश्र शरीर के विभिन्न अंगों में ऐंठन या कंपन
. जोड़ों का दर्द
. मांसपेशियों में निष्क्रियता
. ज़रा-सा टकराने पर हड्डियों का टूटना
. मस्तिष्क का सही ढंग से काम न करना
. भू्रण के विकास पर प्रभाव पड़ना
. हड्डियों का खोखला होना, उनका कमज़ोर होकर टूटना, बार-बार फ्रैक्चर होना
. कमर का झुकना व दर्द होना
. हाथ-पैरों में झुनझुनाहट व कमज़ोरी
. बुज़ुर्गों को ऑस्टियोपोरोसिस हो सकता है यानी फ्रैक्चर व हड्डियों में दर्दये भी पढ़ेंः कौन सा तेल सबसे सेहतमंद
कितना कैल्शियम है ज़रूरी?
1. सामान्य महिलाओं के लिए प्रतिदिन 1000 मिलीग्राम कैल्शियम की आवश्यकता होती है.
2. गर्भवती महिलाओं व स्तनपान करानेवाली महिलाओं के लिए प्रतिदिन 1500 मिलीग्राम.
3. 6 माह के छोटे बच्चों के लिए 400 मिलीग्राम.
4. 1 साल से 10 साल तक के बच्चों के लिए 800 मिलीग्राम.
कैल्शियम की कमी की पूर्ति कैसे करें?
इस बारे में डॉक्टरों का कहना है कि बीमारी कोई भी हो, शरीर के लिए दुखदायी होती है, इसलिए उसका तुरंत उपचार करना भी ज़रूरी होता है, वरना उसके साथ-साथ शरीर में और भी कई बीमारियां घर कर लेती हैं. यदि हम अपने खानपान का ध्यान रखें, तो बीमारियों को दूर भगा सकते हैं. आइए, जानें कि कैल्शियम हमें किन चीज़ों से मिल सकता है, जिन्हें अपने डायट में शामिल कर हम स्वस्थ रह सकते हैं-
अनाज- गेहूं, बाजरा, मूंग, मोठ, चना, राजमा और सोयाबीन.
सब्ज़ियां- गाजर, भिंडी, टमाटर, ककड़ी, अरबी, मूली, मेथी, करेला और चुकंदर.
फल- नारियल, आम, संतरा और अनन्नास.
डेयरी उत्पाद- दूध व दूध से बनी चीज़ों को कैल्शियम का प्रमुख स्रोत माना जाता है. हर रोज़ दूध का सेवन शरीर में कैल्शियम की मात्रा बनाए रखने में मददगार
होता है.
. मां का दूध नवजात शिशु के लिए कैल्शियम का सर्वोत्तम स्रोत है, जो उनमें कैल्शियम की पूर्ति करता है और स्वस्थ रखता है.
. ये सभी प्राकृतिक रूप से कैल्शियम प्रदान करनेवाले तत्व हैं. ये पदार्थ तुरंत शरीर के द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं. इन्हें अपनी रोज़मर्रा की डायट में शामिल कर हम कैल्शियम की कमी से होनेवाले नुक़सानों से बच सकते हैं.
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इन लक्षणों से जानें थायरॉइड कंट्रोल में है या नहीं (Thyroid: Causes, Symptoms And Treatment)
समय के साथ-साथ हमारी जीवनशैली बदल रही है, खानपान बदल रहा है, काम करने के तरी़के बदल रहे हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि इन बदलावों को हमारे मन के साथ-साथ हमारा तन भी स्वीकार करे. कई बार हमें इस बात का बिल्कुल एहसास नहीं होता है कि सामान्य से लगनेवाले ये छोटे-छोटेे बदलाव किसी गंभीर बीमारी के संकेत भी हो सकते हैं. ऐसी ही एक हेल्थ प्रॉब्लम (Health Problem) है थायरॉइड (Thyroid), जिसके बारे में हम आपको बता रहे हैं.
क्या है थायरॉइड?
हम में से अधिकतर लोगों को यह बात मालूम नहीं होगी कि थायरॉइड किसी बीमारी का नाम नहीं है, बल्कि यह एक ग्रंथि का नाम है, जो गर्दन में सांस की नली के ऊपर और वोकल कॉर्ड के दोनों ओर दो भागों में तितली के आकार में बनी होती है. यह ग्रंथि थायरॉक्सिन नामक हार्मोन का उत्पादन करती है. हम जो भी खाते हैं, उसे यह हार्मोन ऊर्जा में बदलता है. जब यह ग्रंथि ठीक तरह से काम नहीं करती है, तो शरीर में अनेक समस्याएं होने लगती हैं.
पहचानें थायरॉइड के लक्षणों को?
एनर्जी का स्तर बदलना
थायरॉइड की समस्या होने पर शरीर में ऊर्जा का स्तर बदलता रहता है. ओवरएक्टिव थायरॉइड (हाइपरथायरॉइडिज़्म) में मेटाबॉलिज़्म तेज़ हो जाता है या फिर उसमें अनियमित बदलाव होता रहता है, जिसके कारण अधिक भूख लगना, नींद न आना, चिड़चिड़ापन और बेचैनी जैसी समस्याएं होती हैं. इसी तरह से अंडरएक्टिव थायरॉइड (हाइपोथायरॉइडिज़्म) में शरीर में ऊर्जा का स्तर कम हो जाता है, जिसकी वजह से अधिक थकान, एकाग्रता में कमी, घबराहट और याद्दाश्त में कमी आने लगती है.
वज़न का घटना-बढ़ना
ओवरएक्टिव थायरॉइड (हाइपरथायरॉइडिज़्म) ग्रंथि की समस्या होने पर मेटाबॉलिज़्म तेज़ हो जाता है, जिसके कारण व्यक्ति की भूख बढ़ जाती है. वह ज़रूरत से ज़्यादा खाना खाने लगता है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा खाने पर भी उसका वज़न घटने लगता है. वहीं दूसरी ओर अंडरएक्टिव थायरॉइड (हाइपोथायरॉइडिज़्म) होने पर मेटाबॉलिज़्म धीमा हो जाता है, जिसके कारण भूख कम लगती है और कम खाना खाने पर भी वज़न लगातार बढ़ता रहता है.
आंतों की समस्या
ओवरएक्टिव थायरॉइड और अंडरएक्टिव थायरॉइड दोनों के कारण आंतों में भी गड़बड़ी की समस्या हो सकती है. ये दोनों ही भोजन पचाने और मल-मूत्र के विसर्जन करने की क्रियाओं में मुख्य भूमिका निभाते हैं. अंडरएक्टिव थायरॉइड होने पर व्यक्ति कब्ज़ और डायरिया से परेशान रहता है.
गले में सूजन
सर्दी-जुक़ाम के कारण गले में दर्द और आवाज़ में भारीपन आने लगता है, लेकिन इन लक्षणों की अनदेखी बिल्कुल न करें. कई बार सिंपल से दिखनेवाले ये लक्षण थायरॉइड के भी हो सकते हैं, क्योंकि थायरॉइड होने पर भी गले में दर्द और आवाज़ में भारीपन के साथ-साथ गले में सूजन आती है. अगर गले में सूजन हो, तो इसकी अनदेखी करने की बजाय थायरॉइड टेस्ट कराएं.
मांसपेशियों में दर्द
शारीरिक मेहनत और वर्कआउट करने के बाद बॉडी पेन होना आम बात है. लेकिन ओवरएक्टिव थायरॉइड के कारण भी मांसपेशियों में दर्द होता है. कई बार मांसपेशियों में दर्द के साथ-साथ कमज़ोरी, थकान, कमर व जोड़ों में दर्द और सूजन भी आती है.
अनिद्रा की समस्या
थायरॉइड के प्रमुख लक्षणों में अनिद्रा भी एक लक्षण है. थायरॉइड ग्रंथि का असर व्यक्ति की नींद पर भी पड़ता है, जैसे- रात को नींद नहीं आना, बेचैनी, सोते समय अधिक पसीना आना आदि. नींद न आने के कारण कई बार चक्कर भी आने लगते हैं.
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बालों का झड़ना और त्वचा का ड्राई होना
हाइपरथायरॉइडिज़्म से ग्रस्त व्यक्ति की त्वचा धीरे-धीरे ड्राई होने लगती है. त्वचा के ऊपर की कोशिकाएं (सेल्स) क्षतिग्रस्त होने लगती हैं, जिसके कारण त्वचा में रूखापन आने लगता है. थायरॉइड के कारण त्वचा में रूखेपन के अलावा बालों की भी कई तरह की समस्याएं होने लगती हैं, जैसे- बालों का झड़ना, रूखापन आदि.
तनाव में रहना
दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद थकान होना लाज़िमी है, लेकिन अगर आपको ज़रूरत से ज़्यादा ही थकान महसूस हो, तो इसकी वजह थायरॉइड भी हो सकती है. शुरुआत में इस बात का एहसास नहीं होता है कि थकान किस वजह से है, लेकिन जब थायरॉइड ग्रंथि ओवरएक्टिव हो जाती है, तो यह ग्रंथि शरीर में ज़रूरत से बहुत अधिक मात्रा में थायरॉइड हार्मोंस का निर्माण करने लगती है, जिसके कारण तनाव व बेचैनी होने लगती है.
पीरियड्स की अनियमितता
अधिकतर महिलाओं में पीरियड्स का अनियमित होना आम बात है, लेकिन उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं होता है कि अंडरएक्टिव और ओवरएक्टिव थायरॉइड के कारण भी पीरियड्स अनियमित होते हैं. इसके लक्षणों में लगातार बदलाव होने पर महिलाएं इस बात से परेशान रहती हैं. जब महिलाओं को हाइपरथायरॉइडिज़्म (ओवरएक्टिव थायरॉइड) की समस्या होती है, तो उन्हें सामान्य से अधिक रक्तस्राव होता है और जब महिलाएं हाइपोथायरॉइडिज़्म (अंडरएक्टिव थायरॉइड) से ग्रस्त होती हैं, तब उन्हें रक्तस्राव बहुत कम होता है या फिर होता ही नहीं है.
डिप्रेशन
अवसाद होने की एक वजह थायरॉइड भी हो सकती है, क्योंकि अवसाद में अधिक नींद आना या अनिद्रा की समस्या होती है. यदि व्यक्तिअंडरएक्टिव थायरॉइड से ग्रस्त है, तो मूड स्विंग होना, आलस, काम में मन न लगना जैसी समस्याएं होती हैं.
थायरॉइड को नियंत्रित करने के लिए क्या खाएं?
थायरॉइड के मरीज़ अगर उपचार के साथ-साथ अपने खानपान पर ध्यान दें, तो बहुत हद तक इसे नियंत्रित किया जा सकता है. उन्हें अपनी डायट में इन चीज़ों को शामिल करना चाहिए, जैसे-
मशरूम: इसमें सेलेनियम अधिक मात्रा में होता है, जो थायरॉइड को नियंत्रित करता है.
अंडा: थायरॉइड के रोगियों को अपनी डायट में अंडा ज़रूर शामिल करना चाहिए. इसमें भी सेलेनियम होता है, जो थायरॉइड को नियंत्रित करने के साथ कमज़ोरी को भी दूर करता है.
नट्स: वैसे तो नट्स सभी को खाने चाहिए, लेकिन थायरॉइड के मरीज़ों को नट्स ज़रूर खाना चाहिए. नट्स में ऐसे पोषक तत्व होते हैं, जो थायरॉइड के कारण होनेवाले हार्ट अटैक के ख़तरे को कम करते हैं.
दही: इसे खाने से इम्यूनिटी लेवल बढ़ता है और थायरॉइड भी नियंत्रित रहता है.
मेथी: इसमें ऐसे एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं, जो थायरॉक्सिन नामक हार्मोन को नियंत्रित करने में मदद करते हैं.
– पूनम शर्मा
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मैं 24 वर्षीया कामकाजी महिला हूं. पिछले कई सालों से पीरियड्स (Periods) के दौरान मुझे काफ़ी दर्द (Pain) होता था, तो मैं पेनकिलर ले लेती थी. पर जब ज़्यादा तकलीफ़ बढ़ी, तो गायनाकोलॉजिस्ट को दिखाया. उन्होंने चेकअप करके बताया कि मुझे एंडोमेटिरियोसिस (Endometriosis) है. यह क्या है, कृपया मेरा मार्गदर्शन करें.
– प्रभा अवस्थी, मुंबई.
यूट्रस की अंदरूनी लाइनिंग के टिश्यूज़ को एंडोमेट्रियम कहते हैं. जब ये टिश्यूज़ यूट्र्स के बाहर ओवरीज़ या पेल्विक एरिया में चले जाते हैं, तब उस अवस्था को एंडोमेटिरियोसिस कहते हैं. इसके सही कारणों का अभी तक पता नहीं चल पाया है. आमतौर पर यह 25-40 की उम्र की महिलाओं में होता है. इसके कारण महिलाओं को पेड़ू में और पीरियड्स के दौरान काफ़ी दर्द होता है. यह एक वंशानुगत समस्या है. ओरल कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स के सेवन से इसके होने की संभावना कम हो जाती है.
मैं 41 वर्षीया महिला हूं. मुझे अक्सर योनिमार्ग से स़फेद स्राव निकलता है और कभी-कभी बहुत खुजली भी होती है. मुझे क्या करना चाहिए?
– ख़ुशबू कुकरेजा, देहरादून.
कई बार योनिमार्ग से स़फेद स्राव निकलता है, पर अगर आपको उससे कोई समस्या नहीं है, तोउसके इलाज की कोई ज़रूरत नहीं होती है, वो अपने आप ठीक हो जाता है. योनि में खुजली होना और यूरिन पास करते समय जलन होना किसी इंफेक्शन के कारण हो सकता है और इसके कारण भी स़फेद स्राव होता है. अगर आपको डायबिटीज़ आदि कोई समस्या है, तो काफ़ी हद तक मुमकिन है कि यह फंगल इंफेक्शन हो. सबसे पहले फंगल इंफेक्शन का इलाज कराएं, इसके लिए आप अपने डॉक्टर से सलाह ले सकती हैं. इसके बाद आपको अपने डायबिटीज़ पर नियंत्रण करना होगा. योनि से होनेवाले स्राव के कई कारण हो सकते हैं, इसलिए जल्द से जल्द किसी अच्छे गायनाकोलॉजिस्ट से मिलें.
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डॉ. राजश्री कुमार
स्त्रीरोग व कैंसर विशेषज्ञ
[email protected]
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मिनरल्स, विटामिन व प्रोटीन जैसे पोषक तत्व हमारे शरीर को स्वस्थ बनाए रखते हैं. इनकी कमी होने पर व्यक्ति को कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. आयरन भी शरीर के लिए बेहद ज़रूरी है. आयरन शरीर को स्वस्थ रखने, लाल रक्त कोशिकाओं को बनाने और मांसपेशियो को
प्रोटीन पहुंचाने का काम करता है. शरीर में इसकी मात्रा कम होने पर ख़ून की कमी होने लगती हैं, जिसके कारण किडनी, कैंसर, कुपोषण व एनीमिया जैसी कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं व बीमारियां होती हैं. पौष्टिक आहार न लेनेे या किसी बीमारी के कारण शरीर में आयरन की कमी हो सकती है. हम आपको आयरन की कमी के कुछ प्रमुख संकेत बता रहे हैं.
अत्यधिक थकानः थकान आयरन की कमी का प्रमुख संकेत है. शरीर में आयरन की कमी होने पर लाल रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन का उत्पादन कम हो जाता है. हीमोग्लोबिन फेफड़ों व शरीर के अन्य अंगों तक ऑक्सिजन पहुंचाने का काम करता है. जब शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी होती है तो मांसपेशियों और अन्य कोशिकाओं तक ऑक्सिज़न नहीं पहुंच पाता, नतीज़तन थकान महसूस होती है. थकान एक आम समस्या है इसलिए यह पता लगा पाना मुश्क़िल होता है कि थकान आयरन की कमी से हो रही है या फिर अन्य कारण से. यदि थकान के साथ कमज़ोरी, ऊर्जा की कमी, एकग्रता की कमी जैसी समस्याएं हों तो यह आयरन की कमी का संकेत है.
मुरझाई त्वचाः रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन हमारी त्वचा को सेहतमंद और लाल बनाए रखने में मदद करता है. आयरन की कमी होने पर हमारा शरीर रक्त कोशिकाओं में पर्याप्त मात्रा में हीमोग्लोबिन नहीं बना पाता, जिसके कारण त्वचा मुरझाई व बुझी हुई दिखती है. चाहे आपकी रंगत कैसी भी हो, अगर आपके होंठ, मसूढ़े, नाख़ून और आंखों का अंदरूनी हिस्सा सामान्य से कम लाल दिखाई दे तो इसका अर्थ हुआ कि आपके शरीर में आयरन की कमी है.
सांस चढ़ना या सीने में दर्दः कोई शारीरिक ऐक्टिविटी करने पर सांस चढ़ने लगे या सीने में दर्द हो तो यह आयरन की कमी का संकेत है. लाल रक्त कोशिकाओं में सीमित मात्रा में हीमोग्लोबिन होने के कारण शरीर के दूसरे अंगों तक ऑक्सिज़न की सप्लाई भी सीमित हो जाती है, जिससे अन्य अंगों तक ऑक्सिज़न पहुंचाने के लिए शरीर को ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है. इसके कारण सांस फूलने या सीने में दर्द की समस्या होती है.
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सिरदर्दः शरीर में आयरन की कमी होने पर सिरदर्द या माइग्रेन की समस्या हो सकती है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मस्तिष्क को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सिज़न नहीं मिलता, जिसके कारण रक्त कोशिकाएं सूज जाती हैं, नतीज़तन मस्तिष्क पर ज़्यादा दबाव पड़ता है और सिरदर्द शुरू हो जाता है. इसके अलावा आयरन की कमी होने पर चक्कर भी आता है. जब शरीर में हीमोग्लोबिन का स्तर अचानक कम हो जाता है या लगातार बहुत दिनों तक कम रहता है तो शरीर ऑक्सिज़न प्राप्त करने के लिए बैचेन हो जाता है, जिसके कारण चक्कर आता है.
बार-बार इंफेक्शन होनाः आयरन हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को मज़बूत बनाने में मदद करता है. यही वजह है कि शरीर में आयरन की कमी होने पर बार-बार इंफेक्शन होता है. लाल रक्त कोशिकाएं शरीर में मौजूद लसीकाओं तक ऑक्सिज़न पहुंचाने का काम करती हैं. इन लसीकाओं में इंफेक्शन से लड़ने वाले व्हाइट ब्लड सेल्स होते हैं. जब किसी के शरीर में आयरन की कमी होती है, तो व्हाइट ब्लड सेल्स पर्याप्त मात्रा में नहीं बन पाते हैं और ऑक्सिज़न न मिल पाने के कारण वे स्ट्रॉन्ग नहीं रह पाते. नतीज़तन जल्दी इंफेक्शन पकड़ लेता है.
जीभ और मुंह में सूजनः मूंह देखकर बहुत से रोगों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, आयरन की कमी उनमें से एक है. उदाहरण के लिए यदि आपकी जीभ सूजी हुई है और उसका रंग बदला हुआ दिखाई दे तो इसका अर्थ हुआ कि आपके शरीर में आयरन की कमी है. जीभ की मासंपेशियों में मायग्लोबिन नामक प्रोटीन पाया जाता है. मायग्लोबिन का स्तर कम होने पर जीभ सूजी व फूली हुई नज़र आती है. आयरन की कमी होने से मुंह सूखने और फटने की समस्या भी होती है.
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विश्व क्षय रोग दिवस (World TB Day) पूरे विश्व में आज यानी 24 मार्च को मनाया जाता है और इसका ध्येय है लोगों को इस बीमारी के विषय में जागरूक करना और टीबी की रोकथाम के लिए कदम उठाना है. भारत में टीबी के फैलने का एक मुख्य कारण इस बीमारी के लिए लोगों सचेत ना होना और इसे शुरुआती दौर में गंभीरता से न लेना. टी.बी किसी को भी हो सकता है, इससे बचने के लिए कुछ सामान्य उपाय भी अपनाये जा सकते हैं. इसी बारे में ज़्यादा जानकारी के लिए हमने बात की डॉ. लविना मीरचंदानी, हेड ऑफ रेस्पिरेटरी डिपार्टमेंट, के.जी सोमैया हॉस्पिटल, मुंबई से.
टीबी क्या है?
टीबी अर्थात ट्यूबरक्लोसिस एक संक्रामक रोग होता है, जो बैक्टीरिया की वजह से होता है. यह बैक्टीरिया शरीर के सभी अंगों में प्रवेश कर जाता है. हालांकि ये ज्यादातर फेफड़ों में ही पाया जाता है. मगर इसके अलावा आंतों, मस्तिष्क, हड्डियों, जोड़ों, गुर्दे, त्वचा तथा हृदय भी टीबी से ग्रसित हो सकते हैं.
टीबी के लक्षण
- तीन हफ़्ते से ज़्यादा खांसी
- बुखार (जो शाम को बढ़ जाता है)
- छाती में तेज दर्द
- वजन का अचानक घटना
- भूख में कमी आना
- बलगम के साथ खून का आना
- बहुत ज्यादा फेफड़ों का इंफेक्शन
ऐसे होता है टीबी का संक्रमण
टीबी से संक्रमित रोगियों के कफ से, छींकने, खांसने, थूकने और उनके द्वारा छोड़ी गई सांस से वायु में बैक्टीरिया फैल जाते हैं, जोकि कई घंटों तक वायु में रह सकते हैं. जिस कारण स्वस्थ व्यक्ति भी आसानी से इसका शिकार बन सकता है. हालांकि संक्रमित व्यक्ति के कपड़े छूने या उससे हाथ मिलाने से टीबी नहीं फैलता. जब टीबी बैक्टीरिया सांस के माध्यम से फेफड़ों तक पहुंचता है तो वह कई गुना बढ़ जाता है और फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है. हालांकि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता इसे बढ़ने से रोकती है, लेकिन जैसे-जैसे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ती है, टीबी के संक्रमण की आशंका बढ़ती जाती है.
जांच के तरीक़े
टीबी की जांच करने के कई माध्यम होते हैं, जैसे छाती का एक्स रे, बलगम की जांच, स्किन टेस्ट आदि. इसके अलावा आधुनिक तकनीक के माध्यम से आईजीएम हीमोग्लोबिन जांच कर भी टीबी का पता लगाया जा सकता है. अच्छी बात तो यह है कि इससे संबंधित जांच सरकार द्वारा निशुल्क करवाई जाती हैं.
बचने के उपाय
• दो हफ्तों से अधिक समय तक खांसी रहती है, तो डॉक्टर को दिखाएं.
• बीमार व्यक्ति से दूर रहें.
• आपके आस-पास कोई बहुत देर तक खांस रहा है, तो उससे दूर रहें.
• अगर आप किसी बीमार व्याक्ति से मिलने जा रहे हैं, तो अपने हाथों को ज़रूर धोलें.
• पौष्टिक आहार लें जिसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन्स , मिनेरल्स , कैल्शियम , प्रोटीन और फाइबर हों क्योंोकि पौष्टिक आहार हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाता है.
• अगर आपको अधिक समय से खांसी है, तो बलगम की जांच ज़रूर करा लें.

हाई कोलेस्ट्रॉल हेल्थ व लाइफ दोनों को ही ख़तरा व नुक़सान पहुंचा सकता है, क्योंकि रक्त में बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल कोरोनरी धमनियों में अवरोध पैदा करके हार्ट प्रॉब्लम व हार्ट अटैक जैसी घातक स्थिति को जन्म देता है. इसलिए ज़रूरी है इसे कंट्रोल में रखना.
कोलेस्ट्रॉल रक्त में पाया जानेवाला वसा (फैट) है. स्वस्थ जीवन के लिए यह बहुत ज़रूरी हैे, परंतु जब रक्त में इसकी मात्रा सामान्य से अधिक हो जाती है, तो रक्त में थक्के जम जाते हैं, जो हृदय के लिए घातक होता है. डॉक्टर्स के अनुसार, किसी भी उम्र के स्त्री-पुरुष में कोलेस्ट्रॉल का स्तर 200 एमजी/डीएल से कम ही रहना चाहिए.
कोलेस्ट्रॉल क्यों ज़रूरी है?
कोलेस्ट्रॉल शरीर के क्रियाकलाप में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. यह कोशिकाओं की दीवारों का निर्माण करने और विभिन्न हार्मोंस को बैलेंस करने के लिए भी ज़रूरी होता है. इनमें एचडीएल को अच्छा कोलेस्ट्रॉल तथा एलडीएल को बुरा कोलेस्ट्रॉल कहते हैं.
एलडीएल को बुरा इसलिए कहते हैं, क्योंकि यह कोरोनरी धमनियों में अवरोध उत्पन्न करता है, जिससे रक्त संचार में बाधा होती है और हार्ट अटैक की स्थिति पैदा होती है. एचडीएल कोलेस्ट्रॉल इसलिए अच्छा है, क्योंकि यह धमनियों में अवरोध बनने से रोकता है.
कोलेस्ट्रॉल के रिस्क फैक्टर्स
प हाई कोलेस्ट्रॉल से ग्रस्त लोगों में कोई लक्षण तब तक दिखाई नहीं देते, जब तक कोलेस्ट्रॉल दिल व दिमाग़ की तरफ़ जानेवाली धमनियों को काफ़ी संकरा नहीं कर देता है. इसके परिणामस्वरूप सीने में दर्द होता है.
प रक्त में कोलेस्ट्रॉल बढ़ जाने से पथरी रोग, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और गुर्दे की बीमारी हो सकती है.
प हाई कोलेस्ट्रॉल होने पर ये बढ़ते-बढ़ते नसों में उतर आता है, जिससे चलना-फिरना कठिन हो जाता है.
प हार्ट अटैक, किडनी डिसऑर्डर, थायरॉयड, लकवा जैसे रोग कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ने से हो सकते हैं. इनसे बचने के लिए दवा के साथ-साथ अपने खानपान पर ध्यान देना भी ज़रूरी है. कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल करके हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारियों की वजह से होनेवाली अकाल मृत्यु को रोका जा सकता है.
कोलेस्ट्रॉल के कारण और लक्षण
रक्त में कोलेस्ट्रॉल बढ़ने के कारणों को तीन भागों में बांटा गया है.
– कोलेस्ट्रॉल बढ़ानेवाले आहार यानी वसायुक्त खाद्य पदार्थ का अधिक मात्रा में लगातार सेवन करना.
– मेटाबॉलिक सिस्टम जब एलडीएल की मात्रा को पर्याप्त रूप में रक्त से बाहर नहीं कर पाता, तो रक्त में एलडीएल का स्तर बढ़ जाता है.
– तीसरी स्थिति वह होती है, जब लिवर कोलेस्ट्रॉल को अधिक मात्रा में बनाने लगता है.
उपरोक्त कारणों को यदि नियंत्रण में रखा जाए, तो हाई कोलेस्ट्रॉल की समस्या उत्पन्न ही नहीं होगी.
जहां तक लक्षणों की बात है, तो थकान, कमज़ोरी, सांस लेने में तकलीफ़, अधिक पसीना आना, सीने में दर्द, बेचैनी-सी महसूस होना आदि इसके प्रमुख लक्षण हैं.
कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल में रखने के लिए क्या खाएं?
– अपने खानपान में अधिकाधिक मौसमी फल व सब्ज़ियों को शामिल करें.
– इनमें संतरे का जूस प्रमुख है, जिसमें भरपूर मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है.
– ज़ीरो कोलेस्ट्रॉल वाले पदार्थ, जैसे- ताज़ा फल, सब्ज़ियां और फ़ाइबरयुक्त पदार्थ अपने भोजन में शामिल करें.
– सुबह नाश्ते में कॉर्नफ्लैक्स जैसे आहार फ़ायदेमंद रहते हैं.
ये न खाएं
– रेड मीट का सेवन न करें.
– दूध, बटर, घी, क्रीम यहां तक कि आइस्क्रीम जैसे पदार्थ, जिनमें भारी मात्रा मेें कोलेस्ट्रॉल होता है, खाने से बचें.
– मावा से बनी मिठाइयां स्लो पॉइज़न का काम करती हैं, इनसे दूर ही रहें.
– सिगरेट-शराब का सेवन कम करें.
सावधानियां
– दवा के अलावा कुछ सावधानियों और खानपान में सुधार लाकर भी कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल किया जा सकता है, क्योंकि खानपान व रहन-सहन के तौर-तरीक़ों में बिगड़ते संतुलन की वजह से ही शहरी लोग विशेष रूप से हाई कोलेस्ट्रॉल (एलडीएल) के शिकार हो रहे हैं.
– डॉक्टर की सलाह के अनुसार अपने खानपान और जीवनशैली में परिवर्तन करें.
– शरीर का वज़न बढ़ने न दें. शरीर की एक्स्ट्रा कैलोरीज़ बर्न करें यानी ज़्यादा से ज़्यादा पैदल चलें.
– नियमित एक्सरसाइज़ इसमें मददगार है. जॉगिंग, स्विमिंग, डांसिंग और एरोबिक्स नियमित रूप से करें.
– बिल्डिंग मेें चढ़ने के लिए लिफ़्ट की बजाय सीढ़ियों का इस्तेमाल करें.
– यदि आपको हार्ट से जुड़ी बीमारी होने का ज़रा भी शक है, तो तुरंत हार्ट स्पेशलिस्ट की सलाह लें.
– जो लोग चिकनाई वाले आहार कम खाते हैं, उनके शरीर में बैड कोलेस्ट्रॉल का अनुपात कम होता है.
– खाद्य पदार्थ ख़रीदते समय उनके लेबल गौर से पढ़ लें. ऐसे ही पदार्थ ख़रीदें, जिनमें वसा और कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो.
कोलेस्ट्रॉल की जांच
– 20 साल की उम्र से अधिक आयुवालों को हर 5 साल में कोलेस्ट्रॉल का टेस्ट ज़रूर करवाना चाहिए.
– टेस्ट में लिपोप्रोटीन टेस्ट करवाना ज़रूरी होता है, जिससे आपका कोलेस्ट्रॉल लेवल पता चलता है.
– यह भी देखा गया है कि मेनोपॉज़ से पहले एक ही उम्र के स्त्री-पुरुषों में कोलेस्ट्रॉल का स्तर अलग-अलग होता है. स्त्रियों में पुरुषों के मुक़ाबले कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है.
– लेकिन मेनोपॉज़ के बाद स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कोलेस्ट्रॉल का स्तर काफ़ी ज़्यादा पाया जाता है.
– ऐसे में मेनोपॉज़ के बाद महिलाओं को अपने कोलेस्ट्रॉल स्तर पर ख़ास ध्यान देना चाहिए.
हाई कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल करने की होम रेमेडीज़
– 1 कप गर्म पानी में 1-1 टीस्पून शहद और नींबू का रस मिलाकर रोज़ सुबह पीने से कोलेस्ट्रॉल का स्तर प्राकृतिक रूप से कम होता जाता है.
– 1 ग्लास पानी में 2 टेबलस्पून साबूत धनिया उबाल लें. ठंडा होने पर छान लें. इसे दिन में दो बार पीएं.
– प्याज़ का रस न स़िर्फ कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करता है, बल्कि खून साफ़ करके हृदय को भी मज़बूत करता है.
– विटामिन ई से भरपूर डायट लें, जैसे- सूरजमुखी के बीज, सोयाबीन ऑयल, अंकुरित अनाज आदि.
– विटामिन बी 6 भी लें.
– इसके अलावा रोज़ाना लहसुन खाएं. गुग्गुल भी बहुत फ़ायदेमंद है.
– गिलोय और कालीमिर्च पाउडर के मिश्रण को रोज़ाना दिन में दो बार 3 ग्राम की मात्रा में खाएं.
– 1 ग्लास पानी में 1 टीस्पून मेथी पाउडर मिलाकर 1 महीने तक रोज़ खाली पेट पीने से कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है.
– मेथीदाने का नियमित सेवन भी काफ़ी फ़ायदेमंद होता है.
– रोज़ाना 1 टेबलस्पून शहद के सेवन से भी कोलेस्ट्रॉल नियंत्रण में रहता है.
– कुकिंग के लिए सनफ्लावर ऑयल का ही इस्तेमाल करें.
– ऊषा गुप्ता

हृदय रोगियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए तक़रीबन हर डॉक्टर मरीज़ों को कोलेस्ट्रॉल से बचने की सलाह देते हैं. दिल के मरीज़ों के लिए कोलेस्ट्रॉल अभिशाप के समान है. आइए, शरीर में पर्याप्त मात्रा में कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल में रखने के तरीक़ों और इससे जुड़े विभिन्न पहलुओं के बारे में जानें.
कोलेस्ट्रॉल रक्त में पाया जानेवाला वसा (फैट) है. स्वस्थ जीवन के लिए यह बहुत ज़रूरी हैे, परंतु जब रक्त में इसकी मात्रा सामान्य से अधिक हो जाती है, तो रक्त में थक्के जम जाते हैं, जो हृदय के लिए घातक होता है. डॉक्टर्स के अनुसार, किसी भी उम्र के स्त्री-पुरुष में कोलेस्ट्रॉल का स्तर 200 एमजी/डीएल से कम ही रहना चाहिए. हाई कोलेस्ट्रॉल व्यक्ति के स्वास्थ्य और जीवन दोनों को ही ख़तरा व नुक़सान पहुंचा सकता है, क्योंकि रक्त में बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल कोरोनरी धमनियों में अवरोध पैदा करके हार्ट प्रॉब्लम व हार्ट अटैक जैसी घातक स्थिति को जन्म देता है.
कोलेस्ट्रॉल क्यों ज़रूरी है?
कोलेस्ट्रॉल शरीर के क्रियाकलाप में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. यह कोशिकाओं की दीवारों का निर्माण करने और विभिन्न हार्मोंस को बैलेंस करने के लिए भी ज़रूरी होता है. इनमें एचडीएल को अच्छा कोलेस्ट्रॉल तथा एलडीएल को बुरा कोलेस्ट्रॉल कहते हैं.
एलडीएल को बुरा इसलिए कहते हैं, क्योंकि यह कोरोनरी धमनियों में अवरोध उत्पन्न करता है, जिससे रक्त संचार में बाधा होती है और हार्ट अटैक की स्थिति पैदा होती है. एचडीएल कोलेस्ट्रॉल इसलिए अच्छा है, क्योंकि यह धमनियों में अवरोध बनने से रोकता है.
कोलेस्ट्रॉल के रिस्क फैक्टर्स
– हाई कोलेस्ट्रॉल से ग्रस्त लोगों में कोई लक्षण तब तक दिखाई नहीं देते, जब तक कोलेस्ट्रॉल दिल व दिमाग़ की तरफ़ जानेवाली धमनियों को काफ़ी संकरा नहीं कर देता है. इसके परिणामस्वरूप सीने में दर्द होता है.
– रक्त में कोलेस्ट्रॉल बढ़ जाने से पथरी रोग, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और गुर्दे की बीमारी हो सकती है.
– हाई कोलेस्ट्रॉल होने पर ये बढ़ते-बढ़ते नसों में उतर आता है, जिससे चलना-फिरना कठिन हो जाता है.
– हार्ट अटैक, किडनी डिसऑर्डर, थायरॉयड, लकवा जैसे रोग कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ने से हो सकते हैं. इनसे बचने के लिए दवा के साथ-साथ अपने खानपान पर ध्यान देना भी ज़रूरी है. कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल करके हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारियों की वजह से होनेवाली अकाल मृत्यु को रोका जा सकता है.
कोलेस्ट्रॉल के कारण और लक्षण
रक्त में कोलेस्ट्रॉल बढ़ने के कारणों को तीन भागों में बांटा गया है.
– कोलेस्ट्रॉल बढ़ानेवाले आहार यानी वसायुक्त खाद्य पदार्थ का अधिक मात्रा में लगातार
सेवन करना.
– मेटाबॉलिक सिस्टम जब एलडीएल की मात्रा को पर्याप्त रूप में रक्त से बाहर नहीं कर पाता, तो रक्त में एलडीएल का स्तर बढ़ जाता है.
– तीसरी स्थिति वह होती है, जब लिवर कोलेस्ट्रॉल को अधिक मात्रा में बनाने लगता है.
उपरोक्त कारणों को यदि नियंत्रण में रखा जाए, तो हाई कोलेस्ट्रॉल की समस्या उत्पन्न ही नहीं होगी.जहां तक लक्षणों की बात है, तो थकान, कमज़ोरी, सांस लेने में तकलीफ़, अधिक पसीना आना, सीने में दर्द, बेचैनी-सी महसूस होना आदि इसके प्रमुख लक्षण हैं.
कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल में रखने के लिए क्या खाएं?
– अपने खानपान में अधिकाधिक मौसमी फल व सब्ज़ियों को शामिल करें.
– इनमें संतरे का जूस प्रमुख है, जिसमें भरपूर मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है.
– ज़ीरो कोलेस्ट्रॉल वाले पदार्थ, जैसे- ताज़ा फल, सब्ज़ियां और फ़ाइबरयुक्त पदार्थ अपने भोजन में शामिल करें.
– सुबह नाश्ते में कॉर्नफ्लैक्स जैसे आहार फ़ायदेमंद रहते हैं.
ये न खाएं
– रेड मीट का सेवन न करें.
– दूध, बटर, घी, क्रीम यहां तक कि आइस्क्रीम जैसे पदार्थ, जिनमें भारी मात्रा मेें कोलेस्ट्रॉल होता है, खाने से बचें.
– मावा से बनी मिठाइयां स्लो पॉइज़न का काम करती हैं, इनसे दूर ही रहें.
प सिगरेट-शराब का सेवन कम करें.
सावधानियां
– दवा के अलावा कुछ सावधानियों और खानपान में सुधार लाकर भी कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल किया जा सकता है, क्योंकि खानपान व रहन-सहन के तौर-तरीक़ों में बिगड़ते संतुलन की वजह से ही शहरी लोग विशेष रूप से हाई कोलेस्ट्रॉल (एलडीएल) के शिकार हो रहे हैं.
– डॉक्टर की सलाह के अनुसार अपने खानपान और जीवनशैली में परिवर्तन करें.
– शरीर का वज़न बढ़ने न दें. शरीर की एक्स्ट्रा कैलोरीज़ बर्न करें यानी ज़्यादा से ज़्यादा पैदल चलें.
– नियमित एक्सरसाइज़ इसमें मददगार है. जॉगिंग, स्विमिंग, डांसिंग और एरोबिक्स नियमित रूप से करें.
– बिल्डिंग मेें चढ़ने के लिए लिफ़्ट की बजाय सीढ़ियों का इस्तेमाल करें.
– यदि आपको हार्ट से जुड़ी बीमारी होने का ज़रा भी शक है, तो तुरंत हार्ट स्पेशलिस्ट की सलाह लें.
– जो लोग चिकनाई वाले आहार कम खाते हैं, उनके शरीर में बैड कोलेस्ट्रॉल का अनुपात कम होता है.
– खाद्य पदार्थ ख़रीदते समय उनके लेबल गौर से पढ़ लें. ऐसे ही पदार्थ ख़रीदें, जिनमें वसा और कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो.
कोलेस्ट्रॉल की जांच
– 20 साल की उम्र से अधिक आयुवालों को हर 5 साल में कोलेस्ट्रॉल का टेस्ट ज़रूर करवाना चाहिए.
– टेस्ट में लिपोप्रोटीन टेस्ट करवाना ज़रूरी होता है, जिससे आपका कोलेस्ट्रॉल लेवल पता चलता है.
– यह भी देखा गया है कि मेनोपॉज़ से पहले एक ही उम्र के स्त्री-पुरुषों में कोलेस्ट्रॉल का स्तर अलग-अलग होता है. स्त्रियों में पुरुषों के मुक़ाबले कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है.
– लेकिन मेनोपॉज़ के बाद स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कोलेस्ट्रॉल का स्तर काफ़ी ज़्यादा पाया जाता है.
– ऐसे में मेनोपॉज़ के बाद महिलाओं को अपने कोलेस्ट्रॉल स्तर पर ख़ास ध्यान देना चाहिए.
हाई कोलेस्ट्रॉल को कम करने की होम रेमेडीज़
– 1 कप गर्म पानी में 1-1 टीस्पून शहद और नींबू का रस मिलाकर रोज़ सुबह पीने से कोलेस्ट्रॉल का स्तर प्राकृतिक रूप से कम होता जाता है.
– 1 ग्लास पानी में 2 टेबलस्पून साबूत धनिया उबाल लें. ठंडा होने पर छान लें. इसे दिन में दो बार पीएं.
– प्याज़ का रस न स़िर्फ कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करता है, बल्कि खून साफ़ करके हृदय को भी मज़बूत करता है.
– विटामिन ई से भरपूर डायट लें, जैसे- सूरजमुखी के बीज, सोयाबीन ऑयल, अंकुरित अनाज आदि.
– विटामिन बी 6 भी लें.
– इसके अलावा रोज़ाना लहसुन खाएं. गुग्गुल भी बहुत फ़ायदेमंद है.
– गिलोय और कालीमिर्च पाउडर के मिश्रण को रोज़ाना दिन में दो बार 3 ग्राम की मात्रा में खाएं.
– 1 ग्लास पानी में 1 टीस्पून मेथी पाउडर मिलाकर 1 महीने तक रोज़ खाली पेट पीने से कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है.
– मेथीदाने का नियमित सेवन भी काफ़ी फ़ायदेमंद होता है.
– रोज़ाना 1 टेबलस्पून शहद के सेवन से भी कोलेस्ट्रॉल नियंत्रण में रहता है.
– कुकिंग के लिए सनफ्लावर ऑयल का ही इस्तेमाल करें.
– ऊषा गुप्ता
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