- Entertainment
- Shopping
- Story
- Relationship & Romance
- Sex Life
- Recipes
- Health & Fitness
- Horoscope
- Beauty
- Others
- Shop
daughters
Home » daughters

सुष्मिता सेन हमेशा से ही अपनी ख़ूबसूरती, प्यार व बोल्ड निर्णय के लिए सुर्ख़ियों में रही हैं. उन्होंने अपनी दोनों बेटियों व प्रेमी रोहमन शॉल के साथ बेहद रोमांटिक अंदाज़ में वैलेंटाइन डे मनाया. इससे जुड़ी तस्वीरें उन्होंने सोशल मीडिया पर शेयर की.
मॉडल, मिस यूनिवर्स बनने से लेकर अभिनेत्री बनने तक सुष्मिता सेन ने एक लंबा सफ़र तय किया है. अक्सर उनके प्रेम के क़िस्से भी काफ़ी चर्चा में रहे, फिर वो उनकी पहली फिल्म दस्तक के निर्देशक विक्रम भट्ट के साथ हो या फिर रणदीप हुड्डा. सुष्मिता ने कभी भी समाज या लोग क्या कहेंगे कि परवाह नहीं की. उन्होंने हमेशा से ही वो किया, जो उन्हें सही लगा और जो उनके दिल ने माना. दिल की वे हमेशा से ही सुनती आई हैं, तभी तो अपने से 15 साल छोटे रोहमान के प्यार को स्वीकारने में देर ही सही उन्होंने अपनाया. आज वे पूरी शिद्दत के साथ अपनी लव लाइफ एंजॉय कर रही हैं.
अक्सर सोशल मीडिया पर सुष्मिता की रोहमन, अपने परिवार, बेटियों के साथ प्यार बांटते, मौज-मस्ती करते तस्वीरें देखी जा सकती हैं. रोहमन के साथ उनके लव कनेक्शन व एक्सप्रेशन का स्टाइल तो हर किसी को रोमांचित कर देता है. उनकी लव जर्नी पर एक नज़र डालते हैं…
View this post on InstagramA post shared by Sushmita Sen (@sushmitasen47) on
View this post on InstagramA post shared by Sushmita Sen (@sushmitasen47) on
View this post on InstagramA post shared by Sushmita Sen (@sushmitasen47) on
View this post on InstagramA post shared by Sushmita Sen (@sushmitasen47) on

संपत्ति में हक़ मांगनेवाली लड़कियों को नहीं मिलता आज भी सम्मान… (Property For Her… Give Her Property Not Dowry)
उसका वजूद जैसे कोई त्याग… उसके लब जैसे ख़ामोशी का पर्याय… उसकी नज़रें लाज-शर्म से झुकीं जैसे घर की लाज… उसके अधिकार…? नहीं हैं कोई… उसका कर्त्तव्य जैसे पिता-भाई द्वारा तय मर्यादाओं का पालन… लफ़्ज़ों के मायने कोई नहीं उसके लिए, जब तक अपने घर न जाए, तब तक एक बोझ, जब अपने घर जाती है, तो सबको ख़ुश रखना ही उसके जीवन का अर्थ… एक औरत के जीवन की यही सच्चाई थी कुछ समय पहले तक और आज भी बहुत कुछ बदलकर भी काफ़ी कुछ नहीं बदला है. यही वजह है कि अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठानेवाली बेटियों को घर-परिवार व समाज में सम्मान नहीं मिलता, क्योंकि समाज में आज भी बेटियों से स़िर्फ और स़िर्फ त्याग की ही उम्मीद की जाती है.
उम्मीदें हैं बेहिसाब…
– बेटियों से हर तरह की उम्मीदें करना जैसे सबका जन्मसिद्ध अधिकार हो.
– वो मर्यादा में रहे, सबका कहना माने, सबकी इच्छाओं का सम्मान करे.
– धीरे बात करे, ज़ोर से हंसे नहीं, लड़कों के साथ ज़्यादा न घूमे, नज़रें झुकाकर चले, जैसे वो कोई अपराधी है…
– घर की पूरी इज़्ज़त व मान-मर्यादा उसकी ही ज़िम्मेदारी है.
– एक अच्छी बेटी वो ही है, जो घर के कामकाज में पूरी तरह निपुण हो.
– भाई-बहनों का, माता-पिता व अन्य तमाम रिश्तेदारों का ख़्याल रखे.
– हमारे परिवारों में आज भी बेटों की अपेक्षा बेटियों से काफ़ी उम्मीदें रखी जाती हैं. ऐसे में उनका अपने हक़ के लिए कुछ बोलना कहां बर्दाश्त हो पाएगा किसी को भी?
क्यों हैं इतनी उम्मीदें?
– सामाजिक व पारिवारिक ढांचा ऐसा ही है कि हमें लगता है कि बेटियां स़िर्फ कुर्बानी देने और त्याग करने के लिए ही होती हैं.
– वो परिवार में झगड़ा नहीं चाहतीं, इसलिए अपना हक़ छोड़ने में ही समझदारी मानती हैं.
– जबकि बेटों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वो बहनों को उनका हक़ बिना कुछ कहे दे दें.
– सब जानते हैं कि अगर बहनों ने अपने हक़ की बात तक की, तो सारे रिश्ते ख़त्म कर दिए जाएंगे.
– बचपन से बेटों की परवरिश इसी तरह से होती है कि उन्हें अपनी बहनों से यही उम्मीद रहती है कि वो उनके लिए अपनी हर ख़ुशी कुर्बान करेंगी.
– ऐसे में वो संपत्ति में बहनों को बराबर का हक़ देने के बारे में सोच भी नहीं सकते.
– क़ानून ने भले ही बेटियों को समानता का हक़ दे दिया हो, पर समाज व परिवार के लिए अब भी ये स्वीकार्य नहीं है.
– इसका प्रमुख कारण परिवार की सोच व परवरिश के तौर-तरी़के ही हैं, जो आज भी ज़्यादा नहीं बदले हैं.
– महिलाएं भले ही घर की दहलीज़ लांघकर आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रही हैं, लेकिन बावजूद इसके उनकी घरेलू ज़िम्मेदारियां जस की तस हैं.
– उन्हें पति, पिता या भाई से घर के कामों में ख़ास मदद नहीं मिलती.
– बाहर काम करने का नतीजा यह हुआ कि महिलाओं की ही ज़िम्मेदारी बढ़ गई और आज वो दोहरी ज़िम्मेदारियों के बीच पिस रही हैं.
– ऐसे में समानता का दर्जा, वो भी संपत्ति के मामले में तो बहुत दूर की सोच है…
यह भी पढ़ें: महिलाओं को क्यों चाहिए मी-टाइम?
क्यों स्वीकार्य नहीं बेटियों का हक़?
प्रमिला के पति की मृत्यु हो चुकी थी. उसके दो बच्चे थे. पिता के पास काफ़ी ज़मीन थी, जो उन्होंने सभी बच्चों में बांट दी थी. प्रमिला के बड़े भाई ने कहा कि वो उसकी और उसके बच्चों की देखरेख आजीवन करेगा. बस, वो अपने हिस्से की ज़मीन अपने भाई के नाम कर दे. प्रमिला ने इंकार कर दिया, उसका साफ़ कहना था, “मेरा जो हक़ है, वो मुझे मिलना चाहिए, मैं ताउम्र किसी की मोहताज बनकर नहीं रह सकती.
बस, फिर क्या था. भाई ने न स़िर्फ बातचीत बंद कर दी, बल्कि सारे नाते तोड़ लिए, लेकिन मुझे इस बात की संतुष्टि थी कि मैंने सही समय पर सही फैसला लिया. आज मेरे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं. मैंने उन्हें अच्छी शिक्षा दी और आज मैं ख़ुश हूं, दुख स़िर्फ इस बात का है कि मात्र संपत्ति ही ज़रिया है क्या प्यार व अपनेपन जैसी भावनाओं को जीवित रखने का?
मेरे भाई ने उसे इतना महत्व दिया कि बहन से सारे रिश्ते तोड़ लिए. कुछ लोगों ने मेरे इस क़दम को सही कहा, तो ऐसे भी लोग हैं, जो मानते हैं कि पैसों के लिए मैंने भाई से दुश्मनी कर ली… मुझे अपना हक़ छोड़ देना चाहिए था… दरअसल, समाज की सोच अब भी वही है कि घर का मुखिया एक पुरुष ही हो सकता है, वही हमारी देखरेख करता, तो प्यार बना रहता. मैंने अपने दम पर अपने बच्चों का जीवन संवारा, तो किसी से बर्दाश्त नहीं हो रहा…!”
प्रमिला की ही तरह कविता और सुषमा का भी केस है. कविता ने बताया, “पापा की मृत्यु के बाद अब मेरी मम्मी ने हम चार भाई-बहनों में ज़मीन-जायदाद का बंटवारा कर दिया. मुझे और मेरी बहन को भी मेरे दोनों भाइयों के बराबर का हिस्सा दिया गया. मेरे दोनों भाई यूं भी आर्थिक रूप से काफ़ी सक्षम हैं. लेकिन बावजूद इसके उनकी नाराज़गी इतनी बढ़ गई कि अब परिवार की शादियों तक में हमें निमंत्रण नहीं दिया जाता. इसकी एकमात्र वजह संपत्ति में हमारा हक़ लेना ही है.
लोग आज भी बेटियों से ही उम्मीद करते हैं कि भाई को नाराज़ करने से अच्छा है कि अपना हक़ छोड़ दें, लेकिन भाई से कभी यह पूछा तक नहीं जाता कि बहनों को अगर समान दर्जा मिल जाता है, तो उन्हें इतनी तकलीफ़ क्यों होती है?
हमने स़िर्फ अपना हक़ लिया है, उनका नहीं. तो उन्हें हमसे नाराज़गी क्यों? वो हमारे हिस्से की हर चीज़ पर अपना अधिकार समझते हैं और हर बार यही उम्मीद करते हैं कि बहनों को ही त्याग करना चाहिए… कोई उनसे पूछे कि क्या वो बहनों के लिए यह त्याग करने के लिए तैयार होंगे कभी?
प्रॉपर्टी में अपना जायज़ हिस्सा लेने पर भी समाज हमें लालची, घर व रिश्ते तोड़नेवाली और भी न जाने क्या-क्या कहता है, लेकिन उस भाई से एक भी सवाल नहीं, जो अपनी बहन का हिस्सा भी ख़ुद ही लेने की चाह रखता है.
दरअसल, यह सोच कभी नहीं बदलनेवाली और कभी बदलेगी भी तो सदियां बीत जाएंगी.”
यह भी पढ़ें: आज भी होते हैं लड़कियों के वर्जिनिटी टेस्ट्स…!
प्रॉपर्टी फॉर हर… गिव हर प्रॉपर्टी, नॉट डाउरी!
भारतीय महिलाएं खेतों का लगभग 80% काम करती हैं, लेकिन मात्र 17% ही ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखती हैं. अन्य क्षेत्रों में भी तस्वीर कुछ इसी तरह की है और अधिकार व पारिवारिक संपत्ति बेटों को ही मिलती है.
इसी के मद्देनज़र साउथ एशिया में महिलाओं को प्रॉपर्टी में हक़ दिलाने के लिए एक कैंपेन की शुरुआत की गई- प्रॉपर्टी फॉर हर!
इसका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना था कि पैरेंट्स इस बात को समझें कि क्यों बेटियों के लिए संपत्ति ज़रूरी है और वो भी उतनी ही हक़दार हैं, जितने बेटे! क्योंकि
बिना किसी मज़बूत सपोर्ट सिस्टम, बिना किसी आर्थिक सुरक्षा के कैसे बेटियां आत्मनिर्भर और सुरक्षित महसूस कर
सकती हैं? यह कहना है इस कैंपेन से जुड़े लोगों का.
ट्विटर पर भी यह कैंपेन चलाया गया था, जिसमें महिला व पुरुष दोनों से ही राय मांगी गई थी. अधिकांश पुरुषों ने भी इस पर सहमति जताई कि महिलाओं को भी संपत्ति में बराबरी का हक़ दिया जाना चाहिए.
जहां तक क़ानून की बात है, तो काफ़ी पहले ही वो बेटियों को समानता का दर्जा दे चुका है, अब स़िर्फ समाज व परिवार को समझना है कि वो अपनी बेटियों को कब समान समझना शुरू करेंगे? ख़ासतौर से घर के बेटे, क्योंकि सोशल मीडिया पर बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले भी अपनी बारी आने पर वही पारंपरिक सोच अपनाना बेहतर समझते हैं, जो उन्हें सूट करती है और उनके ईगो को तुष्ट करती है.
– गीता शर्मा

बॉलीवुड स्टार्स के लिए लुक बहुत मायने रखता है, इसकी बदौलत ही तो वो लाखों दिलों पर राज करते हैं. कई बॉलीवुड सितारें ऐसे भी हैं जो अपने शुरुआती दौर में ज़रा भी अच्छे नहीं लगते थें, मगर अब बहुत स्मार्ट हो गए हैं. कुछ ऐसा ही हाल स्टार डॉटर्स का भी है. कुछ साल पहले तक बेहद साधारण दिखने वाली इन स्टार बेटियों का गज़ब का ट्रांस्फॉर्मेशन हुआ है. सीधी-सिंपल ये स्टार बेटियां अब स्टनिंग और गॉर्जियस हो गई हैं.
सुहाना ख़ान
बॉलीवुड के किंग ख़ान की बेटी सुहाना अपने पिता शाहरुख़ ख़ान की बहुत लाडली हैं. सुहाना की मां गौरी ख़ान भी बेहद स्टाइलिस्ट हैं, अब मां इतनी स्टाइलिस्ट है, तो बेटी पर कुछ तो असर होगा ही. पहले के मुक़ाबले सुहाना अब बेहद गॉर्जियस लगती हैं.
ख़ुशी कपूर
श्रीदेवी की बड़ी बेटी जान्हवी जहां काफ़ी पहले से ही लाइमलाइट में हैं, वहीं छोटी बेटी खुशी कपूर अब कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर छाई हुई हैं. पहले जान्हवी की तुलना में ख़ुशी कुछ ख़ास नहीं दिखती थीं, मगर अब ख़ुशी का स्टाइल किसी भी एक्ट्रेस से कम नहीं है.
सारा ख़ान
सैफ अली ख़ान की बिटिया बॉलीवुड में डेब्यू के लिए तैयार हैं, मगर एक समय था जब उनकी बॉडी काफ़ी बल्की थी, मगर सारा ने ख़ुद को बहुत मेंटेन किया और नतीजा सामने है.
न्यासा देवगन
अगर आपको बाज़ीगर फिल्म में काजोल का लुक याद होगा, तो आप समझ जाएंगे कि पहले के मुकाबले काजल अब कितनी बदल गई हैं या कहें कि ख़ूबसूरत हो गई हैं. कुछ ऐसा ही उनकी बेटी के साथ भी हुआ. काजोल की बेटी न्यासा जैसे-जैसे बड़ी हो रही हैं, बेहद स्मार्ट होती जा रही हैं.
– कंचन सिंह

आज़ाद, क़ामयाब, आसमान की बुलंदियों को छूती महिलाएं… लेकिन ये तस्वीर का स़िर्फ एक पहलू है. इसका दूसरा पहलू बेहद दर्दनाक और भयावह है, जहां क़ामयाबी की राह पर आगे बढ़ना तो दूर, लाखों-करोड़ों बच्चियोेंं को दुनिया में आने से पहले ही मार दिया जाता है. तमाम तरह के क़ानून और जागरूकता अभियान के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या का सिलसिला थमा नहीं है. पेश है, इस सामाजिक बुराई के विभिन्न पहलुओं को समेटती एक स्पेशल रिपोर्ट.
सच बहुत कड़वा है
हमारे पुरुष प्रधान समाज में आज भी बेटियों को बेटों से कमतर आंका जाता है. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज़्यादातर परिवारों में बेटियों के जन्म पर आज भी मायूसी छा जाती है. बेटी के जन्म पर बधाई देते हुए अक्सर लोग कहते हैं, ङ्गङ्घमुबारक हो, लक्ष्मी आई है.फफ लेकिन सच ये है कि धन रूपी लक्ष्मी आने पर सभी को ख़ुशी होती है, लेकिन बेटी रूपी लक्ष्मी के आने पर सबके चेहरे का रंग उड़ जाता है. उसे बोझ समझा जाता है. इसी मानसिकता के चलते कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा, बल्कि व़क्त के साथ बढ़ता ही जा रहा है.
शिक्षित वर्ग भी नहीं है पीछे
ऐसा नहीं है कि स़िर्फ गांव, कस्बे और अशिक्षित वर्ग में ही लड़कियों को जन्म से पहले मारने के मामले सामने आते हैं, हैरत की बात ये है कि ख़ुद को पढ़ा-लिखा और मॉडर्न कहने वाले लोग भी निःसंकोच इस जघन्य अपराध को अंजाम दे रहे हैं. कुछ मामलों में तो परिवार वाले मां की मर्ज़ी के बिना ज़बरदस्ती उसका गर्भपात करवा देते हैं. इसके अलावा छोटे परिवार की चाहत रखने वाले अधिकतर दंपति पहली लड़की होने पर हर हाल में दूसरा लड़का ही चाहते हैं, इसलिए सेक्स डिटर्मिनेशन टेस्ट करवाते हैं और लड़की होने पर एबॉर्शन करवा लेते हैं. ताज्जुब की बात ये है कि पढ़ी-लिखी और उच्च पदों पर काम करने वाली महिलाओं पर भी परिवार वाले लड़के के लिए दबाव डालते हैं.
एक प्रतिष्ठित कंपनी में एक्ज़ीक्यूटिव पद पर कार्यरत स्वाति (परिवर्तित नाम) बताती हैं, “बेटी होने की ख़बर सुनते ही मेरे ससुराल वालों के चेहरे पर मायूसी छा गई, क्योंकि सबको बेटे की आस थी. बेटी के जन्म के कुछ महीनों बाद से ही घर में बार-बार दूसरे बच्चे की प्लानिंग की चर्चा होने लगी. इतना ही नहीं, दूसरी बार भी लड़की न हो जाए इसके लिए लिंग परीक्षण कहां करवाया जाए,इस पर भी सोच-विचार होने लगा. हैरानी तो तब हुई जब मेरे पति भी दूसरी बार लड़की होने पर एबॉर्शन की बात करने लगे.”
कुछ ऐसी ही कहानी दीपिका की भी है. एचआर प्रोफेशनल दीपिका कहती हैं, “शादी के 4 साल बाद मुझे लड़की हुई, लेकिन बेटी के जन्म से घर में कोई भी ख़ुश नहीं था. उसके जन्म के 1 साल बाद ही मुझ पर दोबारा मां बनने का दबाव डाला जाने लगा, लेकिन मैं इसके लिए न तो शारीरिक रूप से तैयार थी और न ही मानसिक. उस दौरान मेरी हालत बहुत अजीब हो गई थी. घर वालों की बातें सुनते-सुनते मैं बहुत परेशान हो गई थी. मुझे समझ में नहीं आता, आख़िर लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि लड़के को जन्म देने के लिए भी तो लड़की ही चाहिए. सब कहते हैं लड़कों से वंश आगे बढ़ता है, लेकिन लड़कियां ही नहीं रहेंगी, तो आपकी पीढ़ी आगे कैसे बढ़ेगी?”
दीपिका का सवाल बिल्कुल जायज़ है, वंश और ख़ानदान को आगे बढ़ाने के लिए लड़के जितने ज़रूरी हैं, लड़कियां भी उतनी ही अहम् हैं. ये गाड़ी के दो पहियों के समान हैं. यदि एक भी पहिया निकाल दिया जाए तो परिवार और समाज की गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाएगी, लेकिन लोग इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं. बेटे के मोह में महिलाओं का कई बार गर्भपात करवाया जाता है, बिना ये सोचे कि इसका उनके शरीर और मन पर क्या असर पड़ेगा. इतना ही नहीं, कई बार तो पांचवें-छठे महीने में भी गर्भपात करवा दिया जाता है, जिससे कई महिलाओं की जान भी चली जाती है.
कन्या भ्रूण हत्या के कारण
हमारे देश में दशकों से बेटों की चाह में बेटियों की बलि चढ़ाई जाती रही है. कहीं जन्म लेने के बाद उसे मार दिया जाता है, तो कहीं जन्म से पहले. अब नई तकनीक की बदौलत उन्हें दुनिया में आने ही नहीं दिया जाता. आख़िर क्या कारण है कि लोग लड़कियों को जन्म ही नहीं लेने देते?
* लड़कियों को बोझ समझने की सबसे बड़ी वजह है बरसों पुरानी दहेज प्रथा, जो आज भी फल-फूल रही है. शादी के समय बेटी को लाखों रुपए दहेज देना पड़ेगा, यही सोचकर लोग लड़कियों के जन्म से डरते हैं.
* लड़कियां तो पराया धन हैं, शादी के बाद पति के घर चली जाएंगी, लेकिन लड़के बुढ़ापे का सहारा बनेंगे, वंश आगे बढ़ाएंगे, ख़ानदान का नाम अगली पीढ़ी तक ले जाएंगे, ये सोच लड़कियों के जन्म के आड़े आती है.
* कई परिवार लड़कों के जन्म को प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं, ऐसे परिवारों में लड़कियों के जन्म को शर्मनाक समझा जाता है.
* यदि पहली लड़की है, तो दूसरी लड़की को जन्म नहीं लेने दिया जाता.
* गरीबी, अशिक्षा और लड़कियों को बोझ समझने वाली मानसिकता कन्या भ्रूण हत्या के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं.
अपने हक़ से महरूम है आधी आबादी
स्त्री को मां और पत्नी के रूप में अपनाने वाला समाज न जाने क्यों उसे बेटी के रूप में स्वीकार नहीं कर पाता. बेटियों को जन्म से पहले ही मारकर न स़िर्फ उनसे जीने का अधिकार छीना जा रहा है, बल्कि ऐसा करके लोग प्रकृति के संतुलन को भी बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
इसी मानसिकता के चलते आज भी कई परिवारों में लड़के-लड़कियों की परवरिश में फर्क़ किया जाता है. ये भेदभाव अनपढ़ ही नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे परिवारों में भी होता है. कई अभिभावक बेटे की हर जायज़-नाजायज़ मांग तुरंत पूरी करते हैं, लेकिन वही मांग अगर बेटी करे, तो उसकी उपेक्षा कर दी जाती है.
घटती तादाद चिंता का विषय
जिस रफ़्तार से लड़कियों की तादाद कम हो रही है, उसे देखते हुए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि वो दिन दूर नहीं जब शादी के लिए लड़कियां ही नहीं मिलेंगी. कई जगहों पर तो ये समस्या शुरू भी हो चुकी है. इतना ही नहीं, इस असंतुलन से समाज में महिलाओं से जुड़े अपराध और सेक्स संबंधी हिंसा के मामलों में और बढ़ोतरी होगी. यदि इसी तरह से लड़कियों को कोख में मारने का सिलसिला चलता रहा, तो संभव है कि भविष्य में हर पुरुष को पत्नी न मिल पाए. ऐसे में एक औरत को कई पुरुषों के बीच बांटा जाएगा. हो सकता है, औरत पर अपना हक़ जताने के लिए लड़ाइयां भी शुरू हो जाएं. ये सारी बातें समाज के नैतिक पतन की ओर इशारा करती हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या जैसा घिनौना अपराध करने वाले लोग इस भयावह स्थिति के बारे में सोचने तक की ज़हमत नहीं उठाते. यदि बेटी को जन्म ही नहीं लेने दिया जाएगा, तो ममता की छांव व मार्गदर्शन करने वाली मां और हर मुश्किल में साथ देने वाली पत्नी कहां से मिलेगी. बिना औरत के सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती. इतनी अनमोल होते हुए भी न जाने क्यों कुछ लोग बेटियों की अहमियत नहीं समझ पाते.
क्या कहता है क़ानून?
बॉम्बे हाईकोर्ट की वकील ज्योति सहगल के मुताबिक, प्री-कन्सेप्शन एंड प्री-नैटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक्स(पीसीपीएनडीटी) एक्ट 1994 के तहत, प्रेग्नेंसी के दौरान लिंग परीक्षण और जन्म से पहले कन्या भ्रूण की हत्या को ग़ैर क़ानूनी ठहराया गया है, लेकिन इस क़ानून का व्यापक असर नहीं हुआ है. कन्या भ्रूण हत्या प्रतिबंधित है, लेकिन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट के तहत निम्न परिस्थितियों में क़ानूनन गर्भपात की अनुमति है.
* प्रेग्नेंसी की वजह से महिला की जान को ख़तरा हो.
* महिला के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को ख़तरा हो.
* प्रेग्नेंसी की वजह रेप हो.
* यदि बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा होने की संभावना हो.
कब होती है सज़ा?
कन्या भ्रूण हत्या जैसे गंभीर ज़ुर्म के लिए क़ानून द्वारा निम्न सज़ा तय की गई हैंः
- आईपीसी धारा 313- महिला की अनुमित के बिना ज़बरदस्ती गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास या जुर्माने की सज़ा हो सकती है.
- आईपीसी धारा 314- गर्भपात करवाने के लिए किए गए कार्यों से यदि महिला की मृत्यु हो जाती है, तो 10 साल की सज़ा या जुर्माना या फिर दोनों की सज़ा हो सकती है. यदि एबॉर्शन महिला की मर्ज़ी के बिना किया जा रहा हो तो सज़ा आजीवन कारावास होगी.
- आईपीसी धारा 315- बच्चे को ज़िंदा जन्म लेने से रोकना या ऐसे कार्य करना जिससे जन्म लेते ही उसकी मृत्यु हो जाए दंडनीय अपराध है. इसके लिए अपराधी को 10 साल की सज़ा या जुर्माना या फिर दोनों से दण्डित किया जा सकता है.
सख़्त क़ानून के साथ ही मानसिकता बदलने की ज़रूरत
सोशल एक्टिविस्ट वर्षा देशपांडे कहती हैं, “कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए स़िर्फ मज़बूत क़ानून और पॉलिसी बनाने की ही नहीं, बल्कि उसे सख़्ती से लागू करने की भी ज़रूरत है.फफ एडवोकेट ज्योति सहगल भी इस बात से सहमत हैं. उनका मानना है, ङ्गङ्घक़ानून को अमल में लाने की जो प्रक्रिया है उसे सुधारना ज़रूरी है. साथ ही कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई को ख़त्म करने के लिए लोगों की सोच बदलनी भी बेहद ज़रूरी है. जब तक लोगों के विचार नहीं बदलेंगे स़िर्फ क़ानून बनाने से कुछ नहीं होगा. पहली पत्नी के ज़िंदा रहते दूसरी शादी करना क़ानूनन ज़ुर्म है, बावजूद इसके आज भी कई लोग ऐसे हैं जो पहली पत्नी से बेटा न होने पर दूसरी शादी कर लेते हैं और समाज इसे ग़लत नहीं मानता. जब तक ये स्थिति नहीं बदलेगी लड़कियों को उनका हक़ नहीं मिलेगा. जन्म से पहले ही लड़कियों को मारना हत्या जैसा ज़ुर्म है और इसके लिए डॉक्टर के साथ ही वो व्यक्ति भी सज़ा का हक़दार है जो गर्भपात करवाता है.”
लेक लाडकी अभियान
कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए महाराष्ट्र में लेक लाडकी अभियान की शुरुआत करने वाली सोशल एक्टिविस्ट वर्षा देशपांडे का कहना है कि डिज़ाइनर साड़ियों की तरह ही आजकल लोग डिज़ाइनर बेबी चाहते हैं. पढ़े-लिखे और रसूखदार लोग लाखों रुपए देकर लिंग परीक्षण करवा रहे हैं. वर्षा का कहना है कि लिंग भेद के मामले में महाराष्ट्र की स्थिति हरियाणा से भी बदतर है. कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए वर्षा सबसे ज़्यादा ज़ोर सेक्स डिटर्मिनेशन टेस्ट बंद करवाने पर देती हैं. वर्षा कहती हैं, “पहले लिंग परीक्षण पर रोक लगाना ज़रूरी है. जब परीक्षण ही नहीं होगा तो कन्या भ्रूण हत्या भी नहीं होगी. कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों के लिए वर्षा डॉक्टरों को भी आड़े हाथों लेती हैं. उनके मुताबिक ङ्गङ्घडॉक्टर्स लॉबी में एथिकल क्राइसेस हैं. चंद रुपयों की ख़ातिर ये लोग टेक्नोलॉजी का दुरुपयोग कर रहे हैं.”
आज भी कई गांव व शहरों में कन्या भू्रण हत्या की जा रही है. आज भी कई लोग ऐसे हैं जो लड़की को बोझ समझते हैं और सोचते हैं कि लड़की से ख़ानदान आगे कैसे बढ़ेगा? महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के लिए सबसे पहले इस विचारधारा को बदलने की ज़रूरत है.
मेघना मलिक, टीवी कलाकार
बेटियों की घटती संख्या को उजागर करते आंकड़े
- 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या स़िर्फ 914 रह गई है, जो आज़ादी के बाद से सबसे कम है.
- 2001 में ये तादाद 927 थी.
- सबसे बदतर हालात हरियाणा में हैं. यहां लड़कियों का अनुपात स़िर्फ 861 है.
- युनाइटेड नेशंस पॉप्युलेशन फंड एजेंसी के आंकड़ों के मुताबिक, अकेले महाराष्ट्र में हर साल क़रीब 55,000 लड़कियों को जन्म से पहले मार दिया जाता है.
- महाराष्ट्र में साल 2001 में प्रति हज़ार लड़कों पर लड़कियों कि संख्या 913 थी जो 2011 में घटकर 883 हो गई.
– कंचन सिंह

करणवीर बोहरा और टीजे के घर आई दो नन्हीं परी. जी हां करणवीर बन गए हैं पापा दो ट्विन बेटियों के. करणवीर की पत्नी टीजे अपने माता-पिता के पास कनाडा में है और करणवीर मुंबई में नागिन 2 की शूटिंग में व्यस्त हैं. बीच में वक़्त निकाल कर वो टीजे से मिलने गए थे. करणवीर कई दिनों से टीजे की मैटर्निटी फोटोशूट वाली पिक्चर्स इंस्टाग्राम पर शेयर भी कर रहे थे. दोनों के लिए ये ख़ुशी का मौक़ा है. शादी के 11 सालों बाद दोनों को माता-पिता बनने का मौक़ा मिला है. दोनों को मेरी सहेली की ओर से ढेरों बधाइयां.