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वेजाइनल लुब्रिकेंट्स के बारे में कितना जानती हैं आप? (How Much You Know About Vaginal Lubricants?)
पहले के मुकाबले अब लोग सेक्स और सेक्स से जुड़ी बातों पर खुलकर अपने विचार रखने लगे हैं. चाहे बात सेक्सुअल प्रॉब्लम्स की हो या फिर प्राइवेट पार्ट्स की क्लीनिंग और हाइजीन. और यह अच्छा भी है, क्योंकि पहले इन सब बातों को छुपाने के कारण ही महिलाओं को कई तरह की शारीरिक और मानसिक समस्याओं से गुज़रना पड़ता था. ऐसे में अब सेक्सुअल हाइजीन और सेक्स लाइफ को और बेहतर बनाने को लेकर महिलाएं जागरूक हो रही हैं. इसी को ध्यान में रखते हुए हम वेजाइनल लुब्रिकेंट्स के बारे में आपको बता रहे हैं, क्योंकि आज भी बहुत-सी महिलाएं वेजाइनल ड्राइनेस की समस्या से जूझती हैं, पर इस बारे में अधिक जानकारी के अभाव में कुछ ख़ास नहीं कर पातीं.
वेजाइनल हेल्थ
हालांकि महिलाओं को वेजाइनल हेल्थ के बहुत ज़्यादा एफर्ट नहीं लेने पड़ते, क्योंकि इसका सेल्फ क्लीनिंग सिस्टम इसे हेल्दी बनाए रखता है. इसके अलावा यह अपना पीएच बैलेंस भी स्वयं बनाए रखती है, पर बात जब लुब्रिकेशन की आती है, तो इसे आपकी मदद की ज़रूरत पड़ती है.
वेजाइनल लुब्रिकेंट्स की ज़रूरत किसे पड़ती है?
वेजाइनल ड्राईनेस की समस्या हर उम्र की महिला को परेशान करती है. इसके कई कारण हैं, जैसे-
– कामोत्तेजना की कमी
– केमिकलयुक्त प्रोडक्ट्स, जैसे- हार्श सोप आदि का अधिक इस्तेमाल
– दवाइयों का साइड इफेक्ट
– नियमित टैम्पोन का इस्तेमाल
– हिस्टेरेक्टॉमी
– कीमोथेरेपी
– मेनोपॉज़
– वेजाइना के जिस अंदरूनी भाग से उसका प्रोडक्शन होता है, वहां ड्राइनेस आ जाना.
वेजाइना का नेचुरल लुब्रिकेशन किस तरह काम करता है?
महिलाओं के शरीर से दो तरह के लुब्रिकेशन निकलते हैं-
1. रेग्युलर वेजाइनल मेंटेनेंस के लिए
2. कामोत्तेजना के दौरान सेक्सुअल एक्टिविटी को बेहतर बनाने के लिए
लुब्रिकेंट्स के प्रकार
लुब्रिकेंट्स तीन तरह के होते हैं-
1. वॉटर बेस्ड
2. ऑयल बेस्ड
3. सिलिकॉन बेस्ड
अगर आपको किसी एक लुब्रिकेशन से एलर्जी की शिकायत हो, तो आप दूसरा ऑप्शन ट्राई कर सकती हैं या फिर डॉक्टर की सलाह लें.
यह भी पढ़ें: क्या होती है सेक्सुअल फिटनेस? (What Is Sexual Fitness?)

यूं तो हमारे देश में आर्थिक से लेकर सामाजिक सुधार हो रहे हैं, लेकिन ऐसे में जब इस तरह की ख़बरें सामने आती हैं, तो रुककर सोचने की ज़रूरत पड़ जाती है. यूं तो हमारे देश में आर्थिक से लेकर सामाजिक सुधार हो रहे हैं, लेकिन ऐसे में जब इस तरह की ख़बरें सामने आती हैं, तो रुककर सोचने की ज़रूरत पड़ जाती है. हाल ही में एक रिपोर्ट सामने आई है कि भारत में सबसे अधिक एनीमिक महिलाएं हैं. द ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट के इस सर्वे के मुताबिक़ 15 से लेकर 49 साल तक की 51% भारतीय महिलाएं एनीमिक हैं. वे आयरन डेफिशियंसी झेल रही हैं, वे पोषक आहार नहीं ले रहीं… कुल मिलाकर वे स्वस्थ नहीं हैं. यह 2017 की रिपोर्ट है, जबकि वर्ष 2016 तक 48% महिलाएं एनीमिक थीं यानी यह आंकड़ा अब बढ़ गया है. सबसे चिंताजनक बात यह है कि 15-49 साल की उम्र यानी युवावस्था, रिप्रोडक्शन की एज में इस तरह का कुपोषण, जिसका सीधा असर आनेवाली पीढ़ी पर पड़ता नज़र आएगा. यदि मां स्वस्थ नहीं, तो बच्चा भी स्वस्थ नहीं होगा.
क्या वजह है?
एक्सपर्ट्स की मानें, तो मात्र कुपोषण ही सबसे बड़ी या एकमात्र वजह नहीं है, बल्कि स्वच्छता की कमी भी एक बड़ा कारण है, क्योंकि पूअर हाइजीन पोषण को शरीर में एब्ज़ॉर्ब नहीं होने देती. इसके अलावा जागरूकता की कमी, अशिक्षा और परिवार के सामने ख़ुद को कम महत्व देना यानी पहले परिवार की ख़ुशी, उनका खाना-पीना, ख़ुद के स्वास्थ्य को महत्व नहीं देना भी प्रमुख कारण हैं.
सामाजिक व पारिवारिक ढांचा
- हमारा समाज आज भी इसी सोच को महत्व देता है कि महिलाओं का परम धर्म है पति, बच्चे व परिवार का ख़्याल रखना.
- इस पूरी सोच में, इस पूरे ढांचे में कहीं भी इस बात या इस ख़्याल तक की जगह नहीं रहती कि महिलाओं को अपने बारे में भी सोचना है
- उनका स्वास्थ्य भी ज़रूरी है, यह उन्हें सिखाया ही नहीं जाता.
- यदि वे अपने बारे में सोचें भी तो इसे स्वार्थ से जोड़ दिया जाता है. पति व बच्चों से पहले खाना खा लेनेवाली महिलाओं को ग़ैरज़िम्मेदार व स्वार्थी करार दिया जाता है.
- बचपन से ही उन्हें यह सीख दी जाती है कि तुम्हारा फ़र्ज़ है परिवार की देख-रेख करना. इस सीख में अपनी देख-रेख या अपना ख़्याल रखने को कहीं भी तवज्जो नहीं दी जाती.
- यही वजह है कि उनकी अपनी सोच भी इसी तरह की हो जाती है. अगर वे ग़लती से भी अपने बारे में सोच लें, तो उन्हें अपराधबोध होने लगता है.
- शादी के बाद पति को भी वे बच्चे की तरह ही पालती हैं. उसकी छोटी-छोटी ज़रूरतों का ख़्याल रखने से लेकर हर बात मानना उसका पत्नी धर्म बन जाता है. लेकिन इस बीच वो जाने-अनजाने ख़ुद के स्वास्थ्य को सबसे अधिक नज़रअंदाज़ करती है.
- वो पुरुष है, तो उसके स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी पत्नी की होती है. उसे पोषक आहार, मनपसंद खाना, उसकी नींद पूरी होना… इस तरह की बातों का ख़्याल रखना ही पत्नी का पहला धर्म है.
- ऐसे में यदि पत्नी बीमार भी हो जाए, तो उसे इस बात की फ़िक्र नहीं रहती कि वो अस्वस्थ है, बल्कि उसे यह लगता है कि पूरा परिवार उसकी बीमारी के कारण परेशान हो रहा है. न कोई ढंग से खा-पी रहा है, न कोई घर का काम ठीक से हो रहा है.
- पत्नी यदि अपने विषय में कुछ कहे भी और अगर वो हाउसवाइफ है तब तो उसे अक्सर यह सुनने को मिलता है कि आख़िर सारा दिन घर में पड़ी रहती हो, तुम्हारे पास काम ही क्या है?
- कुल मिलाकर स्त्री के स्वास्थ्य के महत्व को हमारे यहां सबसे कम महत्व दिया जाता है या फिर कहें कि महत्व दिया ही नहीं जाता.
जागरूकता की कमी और अशिक्षा
- जागरूकता की कमी की सबसे बड़ी वजह यही है कि बचपन से ही उनका पालन-पोषण इसी तरह से किया जाता है कि महिलाएं ख़ुद भी अपने स्वास्थ्य को महत्व नहीं देतीं.
- उन्हें यही लगता है कि परिवार व पति की सेवा ही सबसे ज़रूरी है और हां, यदि वे स्वयं गर्भवती हों, तो उन्हें अपने स्वास्थ्य का ख़्याल रखना है, क्योंकि यह आनेवाले बच्चे की सेहत से जुड़ा है.
- लेकिन यदि वे पहले से ही अस्वस्थ हैं, तो ज़ाहिर है मात्र गर्भावस्था के दौरान अपना ख़्याल रखने से भी सब कुछ ठीक नहीं होगा.
- गर्भावस्था के दौरान भी आयरन टैबलेट्स या बैलेंस्ड डायट वो नहीं लेतीं.
- अधिकांश महिलाओं को पोषक आहार के संबंध में जानकारी ही नहीं है और न ही वे इसे महत्व देती हैं.
- हमेशा से पति व बच्चों की लंबी उम्र व सलामती के लिए उन्हें व्रत-उपवास के बहाने भूखा रहने की सीख दी जाती है.
- जो महिलाएं शाकाहारी हैं, उन्हें किस तरह से अपने डायट को बैलेंस करना है, इसकी जानकारी भी नहीं होती.
- बहुत ज़रूरी है कि महिलाओं को जागरूक किया जाए, अपने प्रति संवेदनशील बनाया जाए.
- इसी तरह से अशिक्षा भी बहुत बड़ी वजह है, क्योंकि कम पढ़ी-लिखी महिलाएं तो जागरूकता से लेकर हाइजीन तक के महत्व को नहीं समझ पातीं.
- साफ़-सफ़ाई की कमी किस तरह से लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, यह समझना बेहद ज़रूरी है. लोग कई गंभीर रोगों के शिकार हो सकते हैं, जिससे उनके शरीर में पोषक तत्व ग्रहण व शोषित करने की क्षमता प्रभावित हो सकती है.
- भोजन को किस तरह से संतुलित व पोषक बनाया जाए, इसकी जानकारी भी अधिकांश लोगों को नहीं होती.
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ग़रीबी भी है एक बड़ी वजह
- आयरन की कमी के चलते होनेवाले एनीमिया की सबसे बड़ी वजह ग़रीबी व कुपोषण है.
- ग़रीबी के चलते लोग ठीक से खाने का जुगाड़ ही नहीं कर पाते, तो पोषक आहार दूर की बात है.
- वहीं उन्हें इन तमाम चीज़ों की जानकारी व महत्व के विषय में भी अंदाज़ा नहीं होता.क्या किया जा सकता है?
- सरकार की ओर से प्रयास ज़रूर किए जा रहे हैं, लेकिन वो नाकाफ़ी हैं.
- द ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट में इस ओर भी इशारा किया गया है कि बेहतर होगा भारत ग़रीब व आर्थिक रूप से कमज़ोर यानी लो इनकम देशों से सीखे, क्योंकि वे हमसे बेहतर तरी़के से इस समस्या को सुलझा पाए हैं.
- ब्राज़ील ने ज़ीरो हंगर स्ट्रैटिजी अपनाई है, जिसमें भोजन का प्रबंधन, छोटे किसानों को मज़बूती प्रदान करना और आय के साधनों को उत्पन्न करने जैसे प्रावधानों पर ज़ोर दिया गया है.
- ब्राज़ील के अलावा पेरू, घाना, वियतनाम जैसे देशों ने भी कुपोषण को तेज़ी से कम करने में सफलता पाई है.
नेशनल न्यूट्रिशनल एनीमिया प्रोफिलैक्सिस प्रोग्राम (एनएनएपीपी) का रोल?
- जहां तक भारत की बात है, तो कई ग़रीब देश भी एनीमिया व कुपोषण की समस्या से हमसे बेहतर तरी़के से लड़ने में कारगर सिद्ध हुए हैं, तो हमें उनसे सीखना होगा.
- भारत में एनीमिया से लड़ने के लिए नेशनल न्यूट्रिशनल एनीमिया प्रोफिलैक्सिस प्रोग्राम (एनएनएपीपी) 1970 से चल रहा है. कुछ वर्ष पहले इस प्रोग्राम के तहत किशोर बच्चों व गर्भवती महिलाओं में आयरन और फोलेट टैबलेट्स बांटने का साप्ताहिक कार्यक्रम शुरू हुआ, लेकिन हेल्थ एक्सपर्ट्स का मानना है कि मात्र दवाएं उन्हें सौंप देना ही कोई विकल्प नहीं है.
- यह देखना भी ज़रूरी है कि क्या वो ये दवाएं ले रही हैं? एक अन्य सर्वे से पता चला कि बहुत कम महिलाएं ये टैबलेट्स नियमित रूप से लेती हैं.
- इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि आयरन टैबलेट्स के काफ़ी साइड इफेक्ट्स होते हैं, जैसे- उल्टियां व दस्त और ये गर्भावस्था को और मुश्किल बना देते हैं. यही वजह है कि अधिकतर महिलाएं इन्हें लेना छोड़ देती हैं.
- जबकि होना यह चाहिए कि उन्हें इन साइड इफेक्ट्स से जूझने का बेहतर तरीक़ा या विकल्प बताना चाहिए.
भारत में गर्भवती स्त्रियां गंभीर रूप से कुपोषण की शिकार हैं- सर्वे
- न स़िर्फ गर्भावस्था में, बल्कि भारतीय स्त्रियां हर वर्ग में कम स्वस्थ पाई गईं. उनका व उनके बच्चों का स्वास्थ्य व वज़न अन्य ग़रीब देशों की स्त्रियों व बच्चों के मुक़ाबले कम पाया गया. भारत में किशोरावस्था में लड़कियों के एनीमिक होने के पीछे प्रमुख वजह यहां की यह संस्कृति बताई गई, जिसमें लिंग के आधार पर हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है.
- बेटे को पोषक आहार देना और बेटी के स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ करना हमारे परिवारों में देखा जाता है. स़िर्फ ग़रीब तबके में ही नहीं, पढ़े-लिखे व खाते-पीते घरों में भी इस तरह का लिंग भेद काफ़ी पाया जाता है.
- पोषण की कमी के कारण होनेवाला एनीमिया यानी आयरन और फॉलिक एसिड की कमी से जो एनीमिया होता है, वह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से गर्भावस्था के दौरान लगभग 20% मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार होता है.
- दवाओं के साथ-साथ पोषक आहार किस तरह से इस समस्या को कम कर सकता है, कौन-कौन से आहार के ज़रिए पोषण पाया जा सकता है, इस तरह की जानकारी भी महिलाओं व उनके परिजनों को भी देनी आवश्यक है.
– गीता शर्मा

हम सोचते हैं कि व़क्त तेज़ी से बदल रहा है, लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? अगर हम यह मान भी लें कि व़क्त बदल रहा है, लेकिन व़क्त के साथ क्या हम भी उतनी ही तेज़ी से बदल रहे हैं? विशेषज्ञों की मानें, तो जिस तेज़ी से भारतीय समाज बदल रहा है, उतनी तेज़ी से लोग, उनकी सोच और हमारा पारिवारिक व सामाजिक ढांचा नहीं बदल रहा. यही वजह है कि महिलाओं की सेक्सुअलिटी को लेकर आज भी हमारा समाज परिपक्व नहीं हुआ है.स़िर्फ समाज ही नहीं, महिलाएं ख़ुद भी अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर मैच्योर नहीं हुई हैं.
– आज भी महिलाएं सेक्स शब्द के इस्तेमाल से बचना चाहती हैं.
– वो अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर कुछ नहीं बोलतीं.
– ख़ासतौर से अपनी शारीरिक ज़रूरतों को लेकर, सेक्स की चाह को लेकर भी वो कुछ भी बोलने से कतराती हैं.
– वो भले ही अपनी चाहत को कितना ही दबाकर रखें, लेकिन इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि उनमें भी पुरुषों के समान, बल्कि पुरुषों से भी अधिक सेक्सुअल डिज़ायर होती है.
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क्या वजह है?
– सबसे बड़ी वजह है हमारा सामाजिक व पारिवारिक ढांचा.
– महिलाओं को इस तरह ट्रेनिंग दी जाती है कि वो सेक्स को ही ग़लत या गंदा समझती हैं.
– यहां तक कि अधिकांश भारतीय पुरुष यह मानकर चलते हैं कि महिलाएं ‘एसेक्सुअल जीव’ हैं यानी उनमें सेक्स की चाह नहीं होती, बल्कि जब उनका पति उनसे सेक्स की चाह रखे, तब ख़ुद को समर्पित कर देना उनका कर्त्तव्य होता है.
– यही वजह है कि उनका मेल पार्टनर उनकी संतुष्टि से अधिक अपनी शारीरिक संतुष्टि पर ध्यान देता है.
– सेक्स को लेकर ये जो अपरिपक्व सोच है, उसी वजह से शादी के बाद भी अधिकतर महिलाएं ऑर्गेज़्म का अनुभव नहीं कर पातीं, क्योंकि उनका पार्टनर इसे महत्वपूर्ण ही नहीं समझता.
– सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि वेे अपने पति से अपनी संतुष्टि की बात तक नहीं कर पातीं, क्योंकि उन्हें डर रहता है कि कहीं इससे उनके चरित्र पर तो उंगलियां उठनी शुरू नहीं हो जाएंगी.
अच्छी लड़कियां कैसी होती हैं?
– हमारे समाज में यही धारणा बनी हुई है कि अच्छी लड़कियां सेक्स पर बात नहीं करतीं. बात तो क्या, वो सेक्स के बारे में सोचती तक नहीं.
– अच्छी लड़कियां सेक्स में पहल भी नहीं करतीं.प वो अपने पार्टनर से अपनी संतुष्टि की डिमांड नहीं कर सकतीं.
– अच्छी लड़कियां अपने पति के बारे में ही सोचती हैं. उसका सुख, उसकी संतुष्टि, उसकी सेहत… आदि.
– शादी के बाद उनके शरीर पर उनके पति का ही हक़ होता है. ऐसे में अपने शरीर के बारे में, अपने सुख के बारे में सोचना स्वार्थ होता है.
– अच्छी लड़कियां सेक्स को लेकर फैंटसाइज़ भी नहीं करतीं.
– अच्छी लड़कियां मास्टरबेट नहीं करतीं.
– अच्छी लड़कियां शादी से पहले सेक्स नहीं करतीं.
– उनकी सोच होती है कि उन्हें अपनी वर्जिनिटी अपने पार्टनर के लिए बचाकर रखनी चाहिए.
– अच्छी लड़कियां मेडिकल स्टोर से कंडोम्स नहीं ख़रीदतीं.
– वो अपने वेजाइनल हेल्थ के बारे में बात नहीं करतीं. उन्हें हर चीज़ छुपानी चाहिए, वरना उन्हें इज़्ज़त नहीं मिलेगी.
– अच्छी लड़कियां हमेशा अच्छे कपड़े पहनती हैं. वो छोटे कपड़े नहीं पहनतीं और सिंपल रहती हैं.
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क्या असर होता है?
– महिलाएं अपनी इंटिमेट हाइजीन पर बात नहीं करतीं, जिसके कारण कई तरह के संक्रमण का शिकार हो जाती हैं.
– पार्टनर को भी कंडोम यूज़ करने के लिए नहीं कह पातीं.
– कंट्रासेप्शन के बारे में भी पार्टनर को नहीं कहतीं, वो ये मानकर चलती हैं कि ये तमाम ज़िम्मेदारियां उनकी ही हैं.
– इन सबके गंभीर परिणाम हो सकते हैं, लेकिन फिर भी हमारा समाज सतर्क नहीं होना चाहता, क्योंकि सेक्स जैसे विषय पर महिलाओं का खुलकर बोलना हमारी सभ्यता व संस्कृति के ख़िलाफ़ माना जाता है.
क्या सचमुच बदल रहा है इंडिया?
– बदलाव हो रहे हैं, यह बात सही है, लड़कियां अब बोल्ड हो रही हैं.
– सेक्स पर बात करती हैं, मेडिकल स्टोर पर जाकर कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स या कंडोम भी ख़रीदती हैं… लेकिन यहां हम बात महिलाओं के बदलाव व परिपक्वता की नहीं कर रहे, बल्कि उनके इस बोल्ड अंदाज़ पर समाज की परिपक्व सोच की बात कर रहे हैं.
– क्योंकि पीरियड्स तक पर बात करना यहां बेशर्मी समझा जाता है, सेक्स तो दूर की बात है.
– हमारे समाज में आज भी लिंग आधारित भेदभाव बहुत गहरा है. शादी से पहले भी और शादी के बाद भी हम पुरुषों के अफेयर्स को स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन स्त्री के विषय में हम उसे घर की इज़्ज़त, संस्कार व चरित्र से जोड़कर देखते हैं.
– जबकि सच तो यही है कि जो चीज़ ग़लत है, वो दोनों के लिए ग़लत है.
– अगर कोई लड़की छेड़छाड़ का शिकार होती है, तो आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो छेड़छाड़ के लिए लड़कों की बुरी नियत को नहीं, बल्कि लड़की को ही दोषी ठहराते हैं. कभी उनके कपड़ों को लेकर, तो कभी उनके रहन-सहन व बातचीत के तरीक़ों पर तंज कसकर.
– अगर कोई युवती शादी से पहले प्रेग्नेंट हो जाती है, तो सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दी जाती है, लेकिन उन पुरुषों का क्या, जो शादी से पहले और बाद में भी कई महिलाओं के साथ संबंध बनाते हैं और यहां तक कि उन्हें यूज़ करते हैं, प्रेग्नेंट करते और फिर छोड़ देते हैं, क्योंकि उनकी भी यही धारणा होती है कि शादी से पहले जिस लड़की ने हमारे साथ सेक्स कर लिया, वो पत्नी बनाने के लायक नहीं होती, क्योंकि वो तो चरित्रहीन है.
– आज भी हमारा समाज महिलाओं को समान स्तर के नागरिक के रूप में नहीं स्वीकार पा रहा.
– यही वजह है कि जब भी महिलाओं पर कोई अपराध होता है, तो उसका दोष भी महिलाओं के हावभाव और कपड़ों को दिया जाता है, न कि अपराधी की ग़लत सोच को.
– यह बात दर्शाती है कि हम फीमेल सेक्सुअलिटी को लेकर आज भी कितने अपरिपक्व हैं.
– गीता शर्मा
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मैं 40 वर्षीया कामकाजी महिला हूं. मैं यह जानना चाहती हूं कि मेरे लिए इस उम्र में कौन-से टेस्ट्स करवाने ज़रूरी हैं?
– पल्लवी राणा, इंदौर.
किसी भी हेल्थ प्रोफेशनल से आप अपना जनरल चेकअप करवा सकती हैं, जिसमें ब्लड प्रेशर, पल्स रेट, चेस्ट व हार्ट की जांच के अलावा सिर से पैर तक की जांच की जाती है. इसके साथ ही पैप स्मियर टेस्ट व पेल्विक की जांच भी ज़रूर करवाएं. अगर कुछ डिटेक्ट हुआ, तो आपको सोनोग्राफी भी करानी पड़ सकती है. इसके अलावा साल में एक बार बेसिक एक्ज़ामिनेशन, जैसे ब्लड टेस्ट, लिपिड प्रोफाइल, लिवर और किडनी प्रोफाइल, चेस्ट एक्स-रे और ईसीजी ज़रूर करवाएं. अगर आप फिट और हेल्दी हैं, फिर भी हर साल आंख और दांत की जांच ज़रूर करवाएं.
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मैं 24 वर्षीया महिला हूं और पहली बार कंसीव किया है. मुझे डेढ़ महीने का गर्भ है. सब कहते हैं कि पहले तीन महीने उल्टियां होती ही हैं. पर मुझे बहुत ज़्यादा उल्टियां हो रही हैं. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं? कृपया, उचित सलाह दें.
– रश्मि सिंह, झांसी.
अगर आपको बहुत ज़्यादा उल्टियां हो रही हैं, तो आपको तुरंत डॉक्टर से मिलना चाहिए. डॉक्टर यूरिन टेस्ट के ज़रिए जांच करेंगे कि यूरिन में कीटोन्स तो नहीं. अगर ऐसा हुआ, तो आपको एडमिट करके आईवी फ्लूइड दिया जाएगा. इसके साथ ही वो आपको कुछ दवाइयां भी दे सकते हैं. वैसे 3 महीने के बाद यह समस्या अपने आप कम हो जाती है, पर फिर भी ऐसी स्थिति में आपको हर दो-तीन घंटों में कुछ खाना चाहिए. सुबह-सुबह चाय-कॉफी या चॉकलेट से बचें. इसकी बजाय आप ठंडा दूध पीएं.
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प्रेग्नेंसी में उल्टी के लिए होम रेमेडीज़
- सुबह सोकर उठने पर सबसे पहले घूंट-घूंट कर थोड़ा पानी पीएं.
- अदरक की चाय बनाकर पीएं या अदरक का एक टुकड़ा मुँह में रखें.
- उल्टी में नींबू काफ़ी फायेदमंद साबित होता है. नींबू पानी में शहद मिलाकर पीएं. आप चाहें तो नींबू के तेल की कुछ बूंदें रुमाल में छिड़कें और जब भी उल्टी जैसा लगे तो उसे सूंघती रहें.
- सौंफ भी इसमें काफ़ी कारगर सिद्ध होती है. आप चाहें तो सौंफ को यूँ ही फांकें या फिर १ कप पानी में उबालकर उसमें नींबू का रस और शहद मिलाकर पीएं.
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डॉ. राजश्री कुमार
स्त्रीरोग व कैंसर विशेषज्ञ
[email protected]
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सदियां बदल रही हैं, लेकिन बेटियों को लेकर हमारी सोच अब तक नहीं बदली. तकनीकी विकास हुआ और उस विकास का प्रयोग (दुरुपयोग) भी हमने गर्भ में पल रही बेटी की हत्या के लिए ही करना बेहतर समझा. अगर नारी विहीन समाज की चाह है, तो परिवार व शादी जैसी प्रथाएं बंद ही कर दें. मात्र बेटे की चाह तो इसी ओर इशारा करती है.
एबॉर्शन सेंटर्स के बाहर इस तरह के विज्ञापन चौंका देते हैं- 500 ख़र्च करो और 50,000 बचाओ… जिसका अर्थ है कि गर्भ में कन्या है, तो 500 में गर्भपात करवा लो और उसके दहेज के 50,000 बचा लो.
* जहां तक गर्भपात की बात है, तो गर्भपात ग़ैरक़ानूनी नहीं है, लेकिन सेक्स सिलेक्टिव एबॉर्शन अपराध है.
* मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 में बनाया गया और 2003 में यह सोचकर इसमें संशोधन किया गया कि महिलाओं की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा और अनसेफ एबॉर्शन्स की संख्या भी कम होगी. लेकिन आज भी हक़ीक़त यही है कि अनसेफ एबॉर्शन्स की संख्या घट नहीं रही.
* हैरानी की बात यह है कि कन्या भ्रूण हत्या उन राज्यों और शहरों के उन हिस्सों में सबसे अधिक होती है, जहां आर्थिक रूप से अधिक संपन्न व सो कॉल्ड पढ़े-लिखे लोग यानी एलीट क्लास के लोग रहते हैं.
* इंडियन पीनल कोड के अंतर्गत एबॉर्शन करवाना, यहां तक कि ख़ुद महिला द्वारा अपनी मर्ज़ी से भी एबॉर्शन करवाना अपराध है, यदि वो महिला की जान को बचाने के लिए न किया गया हो.
* इसमें तीन साल तक की कैद या जुर्माना या फिर दोनों ही हो सकता है.
* इसी तरह गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण भी अपराध है, जब तक कि डॉक्टर निश्चित न हो कि महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के मद्देनज़र गर्भपात ज़रूरी है.
कहां है रौशनी की किरण?
* लोगों को जागरूक करने के लिए सरकार द्वारा ङ्गबेटी बचाओफ अभियान चलाया गया, जिसमें पेंटिंग्स, विज्ञापनों, पोस्टर्स, एनिमेशन और वीडियोज़ द्वारा कोशिशें की गईं. इस अभियान को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के साथ-साथ कई मेडिकल संस्थाओं ने समर्थन व सहयोग दिया.
* इस अभियान का असर कहीं-कहीं नज़र भी आया. गुजरात में वर्ष 2009 में 1000 लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों की जन्म संख्या 802 से बढ़कर 882 हो गई थी.
* इन सबके बावजूद हालात ये हैं कि जब महिलाओं से इस विषय में पूछा जाता है, तो वो झल्लाकर यही कहती हैं कि कैसा क़ानून और किस तरह का समाज… सच्चाई तो यह है कि जब हम बेटियों को जन्म देती हैं, तो यही समाज हमें हिकारत की नज़रों से देखकर ताने देता है. हमें हर जगह कमतर बताया जाता है. रिश्तेदारों से लेकर पति तक तानों से छलनी कर देते हैं. फिर हम क्यों बेटियों को जन्म दें, ताकि वो भी हमारी ही जैसी ज़िंदगी जीने को मजबूर हों?
* महिलाओं द्वारा उठाए ये तमाम सवाल दरअसल हमारे सामाजिक ढांचे पर तमाचा हैं, जिसमें महिलाओं को दोयम दर्जे का ही माना जाता है. अगर बीवी कमाती है, तो उसे एक्स्ट्रा इन्कम माना जाता है, पढ़ी-लिखी लड़कियां इसलिए डिमांड में हैं कि वो पति के स्टेटस को मैच करने के साथ-साथ बच्चों की परवरिश बेहतर कर पाएंगी, उनका होमवर्क करवा पाएंगी आदि.
* दूसरी तरफ़ पढ़ी-लिखी लड़कियों के साथ यह भी समस्या आती है कि दहेज अधिक देना पड़ता है, क्योंकि उनके लिए लड़के भी अधिक पढ़े-लिखे ढूंढ़ने होते हैं.
* अख़बारों के मैट्रिमोनियल कॉलम में भी आसानी से ऐसी दोहरी मानसिकता के दर्शन हो सकते हैं, जिसमें लिखा होता है- चाहिए गोरी, सुंदर, लंबी, पढ़ी-लिखी, घरेलू व संस्कारी लड़की. यानी घरेलू व संस्कारी लड़की वो, जो घर के सारे काम भी करे और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ भी न उठाए.
* जब इस तरह की मानसिकता वाले समाज में हम जी रहे हैं, तो पैरेंट्स को यही लगता है कि लड़की का जन्म यानी ढेर सारा ख़र्च और मुसीबत.
* इन समस्त समीकरणों के बीच ख़ुद लड़कियों को ही अपनी रक्षा का बीड़ा उठाना होगा. अपने लक्ष्य बदलने होंगे और उसी से समाज की दशा व दिशा भी बदलेगी.
* शादी, परिवार और समाज की घिसी-पिटी परंपराओं से ऊपर उठकर अपने अस्तित्व को देखना होगा और सबसे ज़रूरी है कि आवाज़ उठानी होगी.
* कोई ज़बर्दस्ती गर्भपात करवाता है, तो आवाज़ उठाएं, फिर सामने भले ही सास-ससुर, मां-बाप या अपना पति ही क्यों न खड़ा हो. क़ानून बने हैं, उनका उपयोग नहीं करेंगे, तो व्यवस्था नहीं बदलेगी.
कहां से मिल सकती है मदद?
* इंडियन वुमन वेलफेयर फाउंडेशन (IWWF) वेबसाइट:
www.womenwelfare.org
यहां आपको लीगल असिस्टेंस भी मिलेगा और आप ऑनलाइन अपनी शिकायत भी दर्ज करवा सकती हैं.
* जागृति नामक संस्था भी वुमन एंपावरमेंट के लिए काम करती है. संस्था द्वारा कन्या भ्रूण हत्या के ख़िलाफ़ भी काफ़ी अभियान किए गए हैं.
फोन: 0836-2461722
वेबसाइट: www.jagruti.org
* नेशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (NCPCR), नई दिल्ली- फोन: 011-23478200
फैक्स: 011-23724026
कंप्लेन के लिए: 011-23724030
ईमेल: [email protected],
[email protected]
Female Foeticide

अक्सर नारी मन को सच्चा सुकून मिलता है, तो बस मां-बहन, सहेली की प्यारभरी स्नेह (Reasons when a woman needs woman) की छांव में… कारणों की क्या बात करें? बस यह कह सकते हैं कि यह तो कभी ख़ुशी, तो कभी ग़म से जुड़ा साझा रिश्ता है एक स्त्री का दूसरी स्त्री से.
एक ख़ुशहाल जीवन जीने के लिए हमें प्यार, अपनापन, साथ… जैसी न जाने कितनी ही छोटी-छोटी बातों की आवश्यकता होती है. ऐसे में कितने ही मामलों में एक स्त्री को दूसरी स्त्री की ही बेहद ज़रूरत महसूस होती है, ख़ासकर शॉपिंग करते समय. आइए, और भी वजहों के बारे में जानते हैं.
1. तनावमुक्त रहने के लिएः महिलाओं से जुड़ी ऐसी कई बातें होती हैं, जिसे वे चाहकर भी पुरुषों से शेयर नहीं कर पातीं. ऐसे नाज़ुक समय में उन्हें किसी नारी के साथ की ही बहुत ज़रूरत होती है. फिर चाहे वो पति-पत्नी के रिश्ते से जुड़ी कोई समस्या या संवेदनशील मुद्दा हो, पीरियड्स की प्रॉब्लम्स हों या फिर आपसी अहम् की बात हो, पति-पत्नी की आपसी कहा-सुनी हो, पारिवारिक सास-बहू, ननद-जेठानी से जुड़े वाद-विवाद हों या अविवाहित बेटी से तनाव… इन तमाम विषयों पर अपनी क़रीबी स्त्री से ही बात कर एक स्त्री ख़ुद को काफ़ी हल्का महसूस करती है. एक नारी को नारी के साथ की ज़रूरत ख़ासतौर पर स्ट्रेस फ्री होने, मन को हल्का करने यानी तनाव को दूर करने के लिए होती ही है.
2. जब ज़िम्मेदारीभरा कार्य करना होः तीज-त्योहार हो या शादी-ब्याह, तब महिलाओं का साथ ही माहौल को ख़ूबसूरत व आकर्षक बनाता है. हमारे यहां शादी की रस्में और ज़िम्मेदारियां काफी होती हैं, जहां पर न जाने कितने काम ऐसे होते हैं, जो महिलाओं को ही करने होते हैं. ऐसे में एक स्त्री को दूसरी स्त्री का साथ मिल जाने पर मानो सोने पे सुहागा वाली स्थिति हो जाती है. वैसे इस तरह के कार्यों में हर किसी की अपनी बहुत सारी जवाबदेही होती है, पर दो नारी के साथ भर से भी कई काम आसानी से हो जाते हैं.
3. जो सच्चाई से अवगत करा सकेः हम चाहे कितने ही अच्छे और समझदार हों, पर हम सभी में कुछ-न-कुछ कमी तो होती ही है. स्त्री के इस पहलू को एक स्त्री ही बेहतर ढंग से कह व समझ पाती है. अतः हमें अक्सर ऐसे शख़्स की ज़रूरत होती है, जो हमसे कड़वा सच कहने की हिम्मत रखता हो, जो बिना लाग-लपेट के हमारी अच्छी-बुरी दोनों ही बातों के बारे में हमें स्पष्ट रूप से बता सके, जो सही मायने में शुभचिंतक-आलोचक हो.
4. परवरिश का नैसर्गिक गुणः चूंकि मातृत्व सुख का सौभाग्य एक स्त्री को ही मिलता है, इसलिए जाने-अनजाने में सहेजने, संवारने, परवरिश करने जैसे गुण उसमें स्वाभाविक रूप से होते हैं. हरेक स्त्री अपने इस स्वभाव को कभी मां, तो कभी बहन-बेटी, सहेली आदि के रूप में जीती है. वो अपने रिश्ते की इस पौध को प्यार व स्नेह के खाद-पानी से सींचती है. उसका यह नैसर्गिक गुण ताउम्र उसके साथ रहता है और रिश्तों के कई नए आयाम लिखता है.
5. जब जीवनसाथी से सब कुछ कहना न हो मुमकिनः एक पत्नी अपने पति से अपना सब कुछ कह-सुन ले, यह संभव नहीं. उस पर यह ज़रूरी भी नहीं कि पति महोदय के पास अपनी पत्नी की आपबीती सुनने-समझने के लिए वक़्त हो. ऐसे में पत्नी की कोई बेस्ट फ्रेंड या फिर कोई क़रीबी महिला ही उसकी सबसे बड़ी राज़दार होती है. वैसे भी यह कहां तक उचित है कि किसी एक शख़्स से ही हम सब कुछ कहने-सुनने की अपेक्षा रखें.
6. सुखद लंबी आयु के लिएः हाल ही में हुए एक शोध के अनुसार, स्त्रियों के लंबे जीवन जीने में उनकी टेंशन फ्री लाइफ की बहुत बड़ी भूमिका रही है. और ऐसा जीवन जीने में किसी स्त्री का साथ होना व एक अच्छी सोशल लाइफ जीना काफ़ी मायने रखता है यानी घर-गृहस्थी, सामाजिक कार्यक्रम, फेस्टिवल आदि में आपका एक्टिव होना, महिलाओं का संग-साथ, उन्हें हेल्दी, ख़ुशमिज़ाज और ख़ुशहाल लंबा जीवन जीने में मदद करता है. ये सभी बातें आपके हर दिन को ख़ुशगवार व ऊर्जा से भर देती हैं.
7. लक्ष्य के सहयोग में मदद के लिएः कहते हैं, हर कामयाब पुरुष के पीछे किसी स्त्री का सहयोग होता है. लेकिन यही बात महिलाओं पर भी लागू होती है. एक स्त्री के आगे बढ़ने, अपने लक्ष्य को पूरा करने, उद्देश्यपूर्ण जीवन की सार्थकता में भी किसी दूसरी स्त्री का भरपूर सहयोग रहा है. नारी को उसके लक्ष्य की ओर बढ़ने में प्रोत्साहित करने में नारी का भी उल्लेखनीय योगदान रहता है. समय-समय पर एक मां, बहन, सहेली या फिर कोई ऐसी स्त्री, जो बेहद क़रीबी होती है, स्त्री को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है.
– ऊषा गुप्ता

कुछ रस्में अब न निभाएं तो अच्छा है, थोड़े-से अपने रूल्स बनाएं तो अच्छा है… कभी बचपने में खो जाएं तो अच्छा है, कभी एकदम से बड़े हो जाएं तो अच्छा है… टुकड़ों में जीना अब छोड़ दिया है… परंपराओं को अब अपने हिसाब से मोड़ दिया है… छोड़ो ये शर्म-संकोच, कुछ पल अपने लिए भी चुराओ… जी लो खुलकर ज़रा अब, थोड़े बिंदास और बोल्ड हो जाओ.
लाज, हया, शर्म, संकोच, नज़ाकत, नफ़ासत… और भी न जाने किन-किन अलंकारों से महिलाओं को अब तक अलंकृत किया जाता रहा है. ख़ासतौर से भारत जैसे देश में- ‘शर्म तो स्त्री का गहना है…’ इस तरह के जुमले आम हैं. ऐसे में तमाम पारंपरिक दायरों और सदियों से चली आ रही सो कॉल्ड परंपराओं के ढांचे को तोड़कर, बोल्ड-बिंदास महिलाएं जब सामने आती हैं, तो उन पर कई तरह के प्रश्नचिह्न भी लगा दिए जाते हैं. लेकिन चूंकि अब व़क्त बदल चुका है, तो महिलाओं की भूमिका और अंदाज़ भी बदल गए हैं. यही वजह है कि आज आपको हर दूसरी महिला बिंदास नज़र आएगी. वहीं दूसरी ओर पुरुष शायद भूमिकाओं के इस बदलते दौर में ख़ुद को एडजस्ट करने के प्रयास में थोड़े संकोची हो रहे हैं.
क्यों महिलाएं हो रही हैं बिंदास?
– सबसे बड़ी वजह है कि वो पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं. इससे उनमें आत्मविश्वास और ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने का एहसास बढ़ा है.
“अगर स्त्री-पुरुष एक समान हैं, तो स्त्रियों को संकोची होने की ज़रूरत ही क्या है?” यह कहना है 19 वर्षीया मुंबई की एक कॉलेज स्टूडेंट दिव्या का. दिव्या के अनुसार, “महिलाएं अपने हक़ के लिए लड़ना सीख गई हैं. वो आर्थिक रूप से सक्षम हो रही हैं. अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाना चाहती हैं और अपनी ज़िंदगी से जुड़े बड़े-बड़े फैसले भी आसानी से लेती हैं. यह सकारात्मक बदलाव है, जिसका सबको स्वागत करना चाहिए.”
– एक सर्वे से यह बात सामने आई है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक एडल्ट जोक्स अपने पुरुष दोस्तों के साथ मैसेजेस के ज़रिए शेयर करती हैं. उनका मानना है कि एक मैसेज या जोक ही तो है, उसे शेयर करने में हर्ज़ ही क्या है? आजकल महिलाएं न स़िर्फ अपने निजी रिश्तों पर, बल्कि अपने अफेयर्स पर भी बात करने से नहीं हिचकिचातीं. अपने बॉयफ्रेंड्स और ब्रेकअप्स के बारे में बात करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. इस संदर्भ में 28 वर्षीया शीतल का कहना है, “अब वो ज़माना नहीं रहा कि लोग आपको इन चीज़ों पर परखकर आपके चरित्र पर उंगली उठाएंगे. आख़िर हम भी इंसान हैं. इंसानी कमज़ोरियां व ख़ूबियां हम में भी हैं, तो भला दुनिया हमें क्यों जज करे? और दूसरी तरफ़ अगर कोई हम पर उंगली भी उठाए, तो हमें परवाह नहीं.”
– एक अन्य सर्वे के मुताबिक़, पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएं कमिटमेंट से ज़्यादा डरती हैं यानी रिलेशनशिप में अब वो बहुत जल्दी भावुक होकर शादी के लिए तैयार नहीं होतीं. डेटिंग के बाद भी वो पुरुषों की अपेक्षा शादी के लिए या तो मना कर देती हैं या फिर अधिक समय लेती हैं निर्णय लेने में.
– महिलाओं के बिंदास होने की एक और बड़ी मिसाल है कि आजकल लड़कियां शादी के मंडप में भी दहेज के विरोध में उठ खड़ी होने का साहस दिखाने लगी हैं. उन्हें अब यह डर नहीं रहा कि कल को कोई उनसे शादी के लिए तैयार होगा या नहीं, पर वो अपने व अपने परिवार के स्वाभिमान की ख़ातिर क़दम उठाने में संकोच नहीं करतीं.
क्या मर्द संकोची हो रहे हैं?
कई महिलाओं का यह भी मानना है कि भारतीय पुरुषों में आत्मविश्वास की कमी है और उन्हें ग्रूमिंग की ज़रूरत है. उन्हें यह भी नहीं पता कि महिलाओं के साथ किस तरह से व्यवहार करना चाहिए. इस संदर्भ में अधिक जानकारी के लिए हमने बात की सायकोथेरेपिस्ट डॉ. चित्रा मुंशी से-
– दरअसल महिलाओं में निर्णय लेने की क्षमता बढ़ी है. इसे आप उनका बिंदास होना कहें या फिर अपने लिए ज़मीन तलाशने की कोशिश की सफलता की शुरुआत. जहां तक संकोच की बात है, तो संकोच दोनों में ही होता है और यह कोई नकारात्मक भाव नहीं है, जब तक कि वो आपके रिश्ते या प्रोफेशन को प्रभावित नहीं कर रहा. संकोच या लिहाज़ के कारण ही हम मर्यादा व अनुशासन में रहने की कोशिश करते हैं और अपनी सीमाएं बहुत जल्द नहीं लांघ पाते.
– पुरुषों को संकोची कहना यहां सही नहीं होगा, क्योंकि वो संकोची नज़र आ रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उनमें शेयरिंग की आदत नहीं होती, अपने सीक्रेट्स से लेकर तमाम बातें वो दिल में ही रखते हैं. दरअसल, पुरुषों की तार्किक शक्ति काफ़ी अच्छी होती है, उनके लिए 2+2=4 ही होगा, लेकिन महिलाएं भावुक होती हैं. वो हर बात को भावनाओं से जोड़कर देखती हैं. जबकि पुरुषों को लगता है कि अगर कोई बात नहीं भी बताई या शेयर नहीं की, तो भी क्या फ़र्क़ पड़ता है. ऐसे में उनके लिए कहीं-कहीं संकोच एक बचाव का काम करता है.
– मेरे पास कुछ ऐसे पुरुष भी आते हैं, जो यह तर्क भी देते हैं कि मैं छिपा नहीं रहा, बस, मैं बता नहीं रहा यानी मैंने झूठ नहीं बोला, बल्कि मैंने तथ्य (फैक्ट्स) नहीं बताया.
– पुरुष ज़िंदगी का 80% समय ऑफिस व अपने काम में बिताते हैं, इसलिए वो घरवालों से भी उसी तरह डील करने लगते हैं, जैसे अपने कलीग्स या सबऑर्डिनेट्स से.
– दूसरी ओर लड़कियों को हमारे समाज व परिवार में पारंपरिक व सांस्कृतिक तौर पर ही प्रशिक्षित किया जाता है, ऐसे में जब आज की लड़कियां आत्मनिर्भर व आत्मविश्वासी हो रही हैं, तो वो पुरुषों की तरह सोचना चाहती हैं. चाहे ज़िंदगी हो या रिश्ते- हर स्तर पर पुरुषों से ही मुक़ाबला कर रही हैं, क्योंकि मुख्य रूप से वो बराबरी की तलाश में हैं. ऐसे में वो सबसे पहले उन बंदिशों को अपनी ज़िंदगी से हटाना चाहती हैं, जो अब तक उन्हें बराबरी की तलाश से रोक रही थीं.
– लेकिन जिस तेज़ी से किसी लड़की की सोच बदल रही है, हमारा समाज उस तेज़ी से नहीं बदल रहा, इसलिए अचानक बराबरी कर लेना संभव नहीं. इसमें लंबा व़क्त लगेगा और बराबरी की इस चाह में कोई ग़लत रास्ता चुनना या ज़िंदगी को जीने का ग़लत अंदाज़ चुन लेना भी सही नहीं है. कई बार वो जोश में ऐसे निर्णय भी ले लेती हैं, जो ख़ुद उनके लिए सही नहीं होते और असुरक्षित भी होते हैं. इसलिए सतर्क रहने में कोई बुराई नहीं.
– कई बार न चाहते हुए भी समाज की सोच के अनुरूप व्यवहार करना पड़ता है, स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए भी, क्योंकि हम अचानक सबकी सोच व आसपास का माहौल नहीं बदल सकते. संतुलन बेहद ज़रूरी है और हमें अपनी सीमारेखा ख़ुद तय करनी होगी. समाज, परिवार और अनुशासन भी ज़रूरी हैं, क्योंकि हमारी अपनी सुरक्षा भी ज़रूरी है.
– कई बार बात स्त्री-पुरुष की होती ही नहीं, स़िर्फ आसपास के वातावरण, माहौल और परिस्थितियों को जांच-परखकर समझदारी से व्यवहार करने की होती है.
ऐसे काम जो महिलाओं को और भी बिंदास बनाते हैं-
– बस कंडक्टर से लेकर लोकल ट्रेन और ऑटो ड्राइव करने से भी लड़कियां पीछे नहीं हटतीं. करियर से लेकर अपनी पर्सनल लाइफ में वो एक्सपेरिमेंट करने से अब डरती नहीं. कोई क्या कहेगा या क्या सोचेगा, इससे उन्हें अब अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता. इस संदर्भ में 32 वर्षीया मोना शर्मा का कहना है, “मुझे अपनी ज़िंदगी कैसे जीनी है, यह मैं तय करूंगी, कोई और नहीं. मैं अक्सर अपने फ्रेंड्स के साथ वीकेंड पर पब जाती हूं या पार्टी करती हूं. मुझे देखकर लोगों को यह लगता है कि मैं लापरवाह क़िस्म की हूं. मेरी एक बेटी है और मेरे पति भी मुझे कहते हैं कि कुछ व़क्त अपने लिए भी निकालना ज़रूरी है. मेरे परिवार को मेरी लाइफस्टाइल से समस्या नहीं है, इसके बाद भी लोगों की मेरे बारे में कोई अच्छी राय नहीं है. पर मेरी बेटी और पति हमेशा मुझे समझाते हैं कि दूसरों की राय पर अपनी ज़िंदगी के रूल्स मत बनाओ.”
– कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जहां समाज का एक बड़ा तबका आज भी महिलाओं को लेकर रूढ़िवादी सोच रखता है, वहीं ऐसे लोगों की तादाद बढ़ भी रही है, जो व़क्त के साथ बदलना और ढलना पसंद करते हैं. अब पुरुष भी घर का काम करने में संकोच नहीं करते. अगर पत्नी का करियर अच्छा है, तो अपने करियर को पीछे रखकर उन्हें आगे बढ़ाने का हौसला भी रखने लगे हैं. हालांकि कम हैं ऐसे लोग, लेकिन हैं ज़रूर. इसलिए महिलाएं भी बिंदास हो रही हैं, बिंदास होने में बुराई नहीं, पर संतुलन का नियम तो हर जगह लागू होता है. जहां संकोच की ज़रूरत हो, ज़रूर संकोच करें. ध्यान रहे, समझदारी व परिपक्वता से व्यवहार करना किसी भी बिंदास महिला को आउटडेटेड नहीं बना देगा.
– गीता शर्मा