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अक्षय कुमार पिछले कुछ सालों से गंभीर व सार्थकपूर्ण विषयों पर आधारित फिल्में करते आ रहे हैं. अब उनकी इच्छा डिप्रेशन पर फिल्म बनानी की है. हाल ही में कलाकार कुशल पंजाबी द्वारा डिप्रेशन के कारण आत्महत्या करने के हादसे ने तमाम लोगों को अंचभित कर दिया. अक्षय कुमार को भी इसका दुख है. अक्षय के साथ कुशल ने अंदाज़ फिल्म में काम किया था.
अक्षय कुमार ने इस विषय अपनी बात कुछ इस तरह रखी. उन्होंने इस बात पर अधिक चिंता व्यक्त की कि भारत में अवसाद यानी डिप्रेशन की समस्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है. साथ ही इस कारण आत्महत्याएं भी बहुत हो रही हैं. उनका कहना है कि चाहे जितनी भी समस्या हो, पर किसी को भी आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए. हां, यह भी है कि अवसादग्रस्त व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है, उसकी परेशानी, दर्द, उलझनों को अपनों को समझने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए. आख़िर समस्याएं किसके पास नहीं है, लेकिन समाधान आत्महत्या तो नहीं होना चाहिए. डिप्रेशन से ग्रस्त शख़्स को एक बार अपने माता-पिता, परिवार, दोस्त, चाहनेवालों के बारे में ज़रूर सोचना चाहिए. ऐसा करने से न जाने कितनों के दिल दुखी हो जाते हैं. कितने ही ग़म में घिर जाते हैं.
आख़िर प्रॉब्लम कहां नहीं है, पर इसका सोल्यूशन जीवन का अंत तो कतई नहीं है. ज़िंदगी बहुत ख़ूबसूरत है. आपका सुंदर शरीर है. उसे यूं ही मिटा देना ठीक नहीं. हमें समस्याओं से जूझना चाहिए. समझदारी से समस्या को हल करने की कोशिश करनी चाहिए. दोस्तों-परिवारों की मदद व सलाह लेनी चाहिए. परिस्थितियों का मुक़ाबला करना चाहिए. कभी भी हार नहीं माननी चाहिए. डिप्रेशन से डरे नहीं लड़ें… मैं डिप्रेशन को लेकर फिल्म बनाना चाहता हूं. कुशल पंजाबी के आत्महत्या ने मुझे भी दुखी कर दिया है. अक्सर हमारे सामने मुस्कुराते चेहरे के पीछे के दर्द को हम समझ ही नहीं पाते. हमें लगता है कि अरे भाई, इसे तो कोई दर्द-तकलीफ़ है ही नहीं. यही पर हम धोखा खा जाते हैं. हमारे देश के बहुत से लोग डिप्रेशन की समस्या से जूझ रहे हैं. हमारा यह फर्ज़ बनता है कि हम इस विषय पर कई प्रभावशाली फिल्में बनाएं. वैसे पिछले साल मैं दहेज के विषय पर कोई कहानी ढूंढ़ रहा था, पर अब डिप्रेशन पर भी फिल्म बनाना चाहूंगा.
अक्षय कुमार ने अच्छी बात कही कि अवसाद के कारण आत्महत्या करनेवालों को एक बार नहीं, बल्कि कई बार ख़ुद से जुड़े लोगों के बारे में ज़रूर सोचना चाहिए, ख़ासकर पैरेंट्स. वे बड़े प्यार से अपने बच्चों की परवरिश करते हैं और जब बड़े होकर वे ही बच्चे इस तरह का कदम उठाते हैं, तब उनके दिल पर क्या गुज़रती होगी, शायद यह हम व आप नहीं समझ सकते.
डिप्रेशन का मुद्दा आज का नहीं है, यह बरसों से बढ़ता ही जा रहा है. कलाकारों के बीच तो यह अधिक ही पसरा हुआ है. अक्सर कभी किसी मॉडल, तो किसी स्ट्रगलर आर्टिस्ट, तो किसी सिंगर द्वारा तनाव-डिप्रेशन के कारण सुसाइड करने की ख़बरें सुनने में आती हैं. कुछ समय पहले बेहतरीन अदाकारा दीपिका पादुकोण भी इस समस्या से गुज़री थीं. तब उन्हें इससे उबरने में काफ़ी व़क्त लगा था. अपने दर्द व तनाव के अनुभवों को उन्होंने लोगों के बीच शेयर किया. ब्रेकअप के दर्द के बारे में खुलकर कहा. तब उन्हें इसे लेकर प्रेरणा मिली और उन्होंने द लिव लव लाफ फाउंडेशन की स्थापना की. इस संस्था द्वारा डिप्रेशन से जूझ रहे लोगों को इससे उबरने व छुटकारा पाने में मदद मिलती है. दीपिका के सराहनीय कदम व कठिन दौर से जूझने के जज़्बे ने उन्हें आज किस मुक़ाम तक ला दिया, इसके साक्षी हम सभी हैं. रणवीर सिंह के रूप में बेइंतहा प्यार करनेवाला पति के साथ-साथ करियर में सफलता के शिखर को भी छुआ उन्होंने.
अक्षय कुमार ने कई गंभीर व उल्लेखनीय विषयों पर आधारित फिल्में की हैं, जैसे- पैडमेन, टॉयलेट एक प्रेमकथा. अब उनकी ख़्वाहिश तनाव, अवसाद से घिरे परेशान लोगों को सही राह दिखाने पर आधारित कहानी की तलाश है. देखें कौन स्टोरी राइटर उनकी यह इच्छा पूरी करता है.
हम तो यही उम्मीद करते हैं कि इस पर अक्षय कुमार ही नहीं अन्य कई फिल्ममेकर भी फिल्में बनाएं और प्रभावशाली संदेश भी दें, ताकि कोई और डिप्रेशन से घिरा शख़्स कुशल पंजाबी की तरह आत्महत्या करने के कगार पर ना पहुंचे. आज तनाव-अवसाद जैसी समस्याओं पर लोगों को जागरूक करने की बेहद ज़रूरत है.

विकी डोनर से लेकर ड्रीम गर्ल तक आयुष्मान खुराना (Ayushmann Khurrana) ने अलग-अलग क़िरदारों में बेहतरीन अदाकारी से हर किसी को प्रभावित किया. वे युवाओं के रोल मॉडल बनते जा रहे हैं. गीत-संगीत, गायकी के साथ अपने प्रभावशाली अभिनय से उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली है. बधाई हो, अंधाधुन, आर्टिकल 15, ड्रीम गर्ल, शुभ मंगल ज़्यादा सावधान, बाला फिल्मों की कामयाबी ने उन्हें शिखर पर ला दिया है. आज उनका जन्मदिन है, मेरी सहेली की तरफ़ से ढेर सारी शुभकामनाएं! इस मौक़े पर उनसे ही उनकी कुछ कही-अनकही दास्तान सुनते हैं.
* ड्रीम गर्ल में मेरी अदाकारी पर भले ही सब फ़िदा हों, पर मैं बचपन से ही नाच-गाना करते हुए होंठों को हिलाना, अभिनय करना जैसी नौटंकी-ड्रामा करता रहा हूं. इन्हीं सबके कारण एक बार तो मां ने मुझे फ्रॉक तक पहना दिया था.
* एक बार एक गे कास्टिंग डायरेक्टर ने मेरा ऑडिशन लिया और मुझसे मेरा प्राइवेट पार्ट दिखाने को कहा. मुझे यह सुनकर अजीब लगा. मैंने हंसते हुए कहा कि क्या बात कर रहे हो? क्या तुम सीरियस हो? मैं तुम्हें ऑडिशन दूंगा, लेकिन जो तुम कह रहे हो, वह नहीं करूंगा.
* पहली ही फिल्म विकी डोनर बेहद सफल रही, पर एक्ट्रेस यामी गौतम को किए गए एक किस के कारण मेरी शादीशुदा ज़िंदगी में तूफ़ान आ गया. मेरी पत्नी ताहिरा नहीं चाहती थीं कि मैं ऑनस्क्रीन किसी एक्ट्रेस को किस करूं. तब हमारे बीच कई बार अनबन व टकराव भी हुए. मुझे इससे उबरने में क़रीब तीन साल लग गए.
* एक और दिलचस्प वाकया विकी डोनर के समय का ही है. मैं अपनी मां के साथ मॉल में था. तब एक लड़की, जो मेरी फैन थी, ने मुझसे मेरे स्पर्म की डिमांड की. इस पर जहां मां चौंक गईं, वहीं मैंने शरारत में कहा कि मां साथ हैं, वरना दे देता.
* मैं स्कूलिंग तक बॉयज़ स्कूल में पढ़ा था. फिर ताहिरा से ट्यूशन के दौरान मुलाक़ात, फिर प्यार हो गया. वो स्कूल के प्रिंसिपल की बेटी थी. वो बाद में हमारे थिएटर ग्रुप मंचतंत्र से भी जुड़ी. मैंने ताहिरा के साथ मिलकर अपने फिल्मी सफ़र पर एक किताब भी लिखी है.
* गाने का बचपन से ही बेहद शौक रहा है. फिल्मों में विकी डोनर से जो गाने की शुरुआत हुई, वो अब तक बरक़रार है.
ज़िंदगी का सफ़र…
* चंडीगढ़ के आयुष्मान को बचपन से क्रिकेट का बहुत शौक रहा है. घर-बाहर, टूर्नामेंट आदि में वे ख़ूब क्रिकेट खेला करते थे.
* साइकिल चलाना, मार्केट्स में घूमना-फिरना, वेफर्स आदि खाना उन्हें ख़ूब पसंद है.
* उनके पिता पी. खुराना ज्योतिष विशेषज्ञ हैं. एस्ट्रोलॉजी में रुचि होने के कारण अपनी सरकारी नौकरी छोड़ वे पूरी तरह से इससे जुड़ गए. विदेशों से भी उनके क्लाइंट आते हैं. उन्होंने आयुष्मान को भी कई उपयोगी उपाय बताए, जिससे उन्हें करियर में आगे बढ़ने में मदद मिली.
* उनके पिता ढोलक व हार्मोनियम भी बजाया करते थे और घर में संगीतमय माहौल रहता था. इसी से प्रेरित हो आयुष्मान का संगीत के प्रति रुझान बढ़ा. उनकी मां पूनम गृहिणी हैं.
* अपने आगाज़ ग्रुप के एक नाटक के लिए आयुष्मान ने अपने सिर के बाल मुंडवा लिए थे.
* एक थी राजकुमारी टीवी सीरियल में उन्होंने नकारात्मक क़िरदार भी निभाया था.
* टीनएज में ही वी चैनल के लिए पॉप स्टार्स शो किए.
* कॉलेज में मास कॉम की पढ़ाई करते हुए टीवी रियालटी शो रोडीज़ सीज़न 2 जीता.
* बिग एफएम में आरजे फिर वीजे भी रहे और एंकरिंग तक की.
* आध्यात्मिक इतने कि जब कभी दुखी या तनाव में रहते हैं, तो श्रीमद् भगवदगीता पढ़ने लगते हैं.
* आयुष्मान बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. कॉन्वेंट में पढ़ने के बावजूद उनकी हिंदी में बेहद रुचि है. वे हिंदी में अच्छी कविताएं व ब्लॉग लिखते हैं. उनका जन्मदिन आज हिंदी दिवस (14 सितंबर) को होता है. इसलिए वे स्कूल के दिनों से ही हिंदी के वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते रहते थे.
– ऊषा गुप्ता

हमें बहुत-सी शिकायतें रहती हैं… अपनी ज़िंदगी से, अपने आसपास के लोगों से और ऊपरवाले से भी… न हम किसी चीज़ से संतुष्ट होते हैं और न ही शिकायतें करते-करते कभी थकते हैं… लेकिन इन शिकायतों के बीच क्या कभी उन मासूम बच्चियों पर नज़र पड़ती है, जिनके तन पर एक कपड़ा तक नहीं होता, क्या कभी भूख से तरसते वो रूखे चेहरे नहीं दिखते हमें, जिनके लिए सूखी रोटी भी अमृत का काम करती है… कभी उन ग़रीब-मजबूर लोगों को नहीं देख पाती हमारी आंखें, जो दिनभर मेहनत करके भी अपने परिवार के लिए छोटी-सी ख़ुशी भी नहीं जुटा पाते… शायद नहीं, हम तो अपनी शिकायतों में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि हम यह सोच भी नहीं पाते कि इस समाज के प्रति भी हमारे कुछ कर्त्तव्य हैं…
लेकिन कुछ लोग होते हैं, जो हमसे अलग सोचते हैं, उनके जीने का उद्देश्य ही होता है दूसरों के लिए कुछ कर गुज़रना… ऐसी ही एक शख़्सियत हैं भारती त्रिवेदी. उनकी मुहिम ही अब उनके जीवन का उद्देश्य है, क्योंकि उनका कहना है कि ङ्गहम योगी तो नहीं हो सकते, लेकिन समाज के लिए उपयोगी तो हो ही सकते हैं…फ जिनकी सोच इतनी पाक हो, उनकी मुहिम कितनी सशक्त और सार्थक होगी, यह समझा ही जा सकता है. क्या कहती हैं भारतीजी ‘कवच’ के बारे में और अपने ट्रस्ट नर्चरिंग माइंड्स के विषय में, आइए जानें.
“सबसे पहले तो मैं यह चाहती हूं कि लोग थोड़े संवेदनशील बनें, ख़ासतौर से हमारी बच्चियों के विषय में. हमारे ट्रस्ट द्वारा चलाई जा रही मुहिम ‘कवच’ इसी संवेदनशीलता से उपजी है, क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य है बच्चियों को सेक्सुअल डिसीज़, रिप्रोडक्टिव डिसीज़, मानसिक प्रताड़ना और शारीरिक शोषण से बचाना.
- हम बच्चियों को साफ़-सफ़ाई, सेक्सुअल हाइजीन, प्राइवेट पार्ट्स की केयर और सेक्स एजुकेशन की जानकारी देते हैं, ताकि वो अपनी सेफ्टी और हाइजीन के महत्व को पहचान सकें.
- हम मुंबई व आसपास के इलाकों में कई वर्कशॉप्स कर चुके हैं, जहां हम बच्चों को और ख़ासतौर से लड़कियों को हाइजीन और सेफ्टी के तौर-तरी़के सिखाते-समझाते हैं. हालांकि हम जानते हैं कि यह काम सागर में बूंद समान है, क्योंकि यदि हम चाहते हैं कि समाज के हर तबके के बच्चे एक बेहतर ज़िंदगी जी सकें, तो अभी बहुत कुछ करना बाकी है.”
क्यों ज़रूरत पड़ी कवच की?
“मैं आपको एक बेहद मार्मिक तथ्य बताने जा रही हूं. सुनकर शायद आप विश्वास भी नहीं कर पाएंगे, क्योंकि जब मेरे सामने यह घटना हुई, तो मैं अंदर तक हिल गई थी. - आप यह तो समझ ही सकते हैं कि अंडरगार्मेंट्स हमारी ज़िंदगी का महत्वपूर्ण व ज़रूरी भाग हैं, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते इस ज़रूरत को पूरा न किया जा सकना और इसी वजह से आगे भी कई तरह की द़िक्क़तों का सामना करना बेहद चौंकानेवाली बात थी. हाल ही में मैं एक म्यूनिसिपल स्कूल में गई थी, वहां मैंने सुना कि एक बच्ची प्रिंसिपल को अपनी परेशानी बयां कर रही थी कि उसे पीरियड्स हो गया है और वो घर जाना चाहती है. स्कूल की ओर से जब उसे सैनिटरी नैपकिन देने की बात कही गई, तो उसने बताया कि वो इसका इस्तेमाल नहीं कर सकती, क्योंकि वो आमतौर पर अंडरवेयर नहीं पहनती.
- अंडरगार्मेंट न स़िर्फ आपको बीमारियों, इंफेक्शन्स से बचाता है, बल्कि वो बैड टच और शोषण की संभावना को भी कुछ हद तक कम करने में सहायक है. लेकिन बहुत-सी बच्चियां हैं, जो आर्थिक तंगी के चलते पैंटी नहीं पहनतीं. यहां तक कि कुछ लड़कियां तो घर में पैंटीज़ शेयर करती हैं, उनकी मम्मी भी पति के अंडरवेयर से काम चलाती है और फिर समय व ज़रूरत के हिसाब से उसी का इस्तेमाल बच्चियां भी करती हैं.
- लेकिन इस तरफ़ किसी का ध्यान तक नहीं जाता और न ही इस विषय पर इतनी बात की जाती है. मुझे इस घटना ने इतना हिला दिया था कि मैंने यह निर्णय लिया कि मैं इन बच्चियों को पैंटीज़ प्रोवाइड करूंगी. समस्या यह थी कि मेरे पास भी इतने पैसे नहीं थे, लेकिन जब आपके इरादे पुख़्ता हों, तो रास्ते बन ही जाते हैं. मुझे कई लोगों से मदद मिली. मैंने अंडरवेयर का इंतज़ाम किया, लेकिन फिर सवाल उठा कि अंडरगार्मेंट्स तो ठीक है, सैनिटरी नैपकिन्स भी तो ज़रूरी हैं, क्योंकि इन्हीं बेसिक चीज़ों की कमी से इंफेक्शन्स जैसी समस्या उभरती है. उसके बाद अपरोक्ष रूप से शोषण व प्रताड़ना भी बढ़ती है. सैनिटरी नैपकिन के लिए भी मैं चाहती तो थी कि कोई स्पॉन्सर मिल जाए, लेकिन बात अब तक नहीं बनी, फिर भी हमारे प्रयास रंग लाए और उनका भी इंतज़ाम हो गया. फिर लगा कि नहीं, स़िर्फ इन दो चीज़ों से काम नहीं चलेगा, तो हमने एक सोप और टॉवेल भी इसमें रख दिया… इस तरह धीरे-धीरे हमारे कवच का किट तैयार हुआ.
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- कुछ लोगों को लगा कि लड़कों के लिए भी तो किट ज़रूरी है, क्योंकि वो भी उसी आर्थिक तबके से आते हैं, तो हमने उनके लिए भी अलग से एक किट तैयार किया, जिसमें साबुन, टॉवेल और इसी तरह की बेसिक चीज़ें हैं, जो बेसिक हाइजीन के लिए ज़रूरी होती हैं.”
पैरेंट्स को भी एजुकेट करना उतना ही ज़रूरी है!
“हमारे समाज में सेक्स शब्द पर ही सबको आपत्ति है, तो यहां सेक्स एजुकेशन के महत्व को समझाना बहुत ही मुश्किल काम है. लेकिन हमें तो यह करना ही है, वरना इसी तरह हमारे बच्चे शोषित होते रहेंगे, तो हम बच्चों के साथ-साथ पैरेंट्स की भी काउंसलिंग करवाते हैं, उन्हें एजुकेट करने की कोशिश करते हैं कि सेक्स एजुकेशन और पर्सनल हाइजीन का मतलब यह नहीं कि बच्चे सेक्सुअली एक्टिव हो जाएंगे, बल्कि वो सतर्क हो सकेंगे और अपने ख़िलाफ़ हो रही ग़लत चीज़ों पर आवाज़ उठाने से नहीं झिझकेंगे. - हम बच्चों को बताते हैं कि जैसे आपका मोबाइल फोन या आपकी कोई भी पर्सनल चीज़ को कोई हाथ लगाता है, तो कितना बुरा लगता है, उसी तरह यह शरीर आपका है, अगर आपको किसी का टच बुरा लग रहा है, तो बोलो और डरो मत, चाहे वो कोई भी हो. ऐसे भी अनेक केसेज़ हमने देखे हैं, जहां पिता ही बच्चियों का शोषण कर रहा होता है, कहीं किसी स्कूल का कोई कर्मचारी इसमें लिप्त होता है, तो ऐसी घटनाओं को रिपोर्ट करवाना बेहद मुश्किल होता है. लोग इसे इज़्ज़त व समाज से जोड़कर देखने लगते हैं, लेकिन हम अपने स्तर पर प्रयास करते हैं कि हमारे बच्चे जितना संभव हो सुरक्षित हो सकें.
- एक समय था, जब मैं अध्यात्म की ओर बढ़ना चाहती थी, लेकिन सांसारिक दुनिया में आने के बाद योगी नहीं बन सकी, पर मैंने सोचा समाज के लिए उपयोगी तो बना ही जा सकता है. यही मेरी साधना है. यह भी एक ज़रिया है ईश्वर को, समाज को कुछ वापस देने का. मैं चाहती हूं और भी लोग हमारी मुहिम से जुड़ें और हम अपने इस काम को और आगे तक ले जा सकें, ताकि हमारा समाज एक ऐसी दुनिया इन बच्चों को दे सकें, जहां वो हर तरह से और हर स्तर पर मह़फूज़ हों!”
- अधिक जानकारी के लिए यहां संपर्क करें:
- फोन: 9930910388
- ईमेल: [email protected]
– ब्रम्हानंद शर्मा

गम्भीर सामाजिक विषयों को फ़िल्मों के ज़रिए लोगों तक पहुँचाने का काम आसान नहीं होता, लेकिन लगता है अक्षय कुमार इसमें माहिर हो गए हैं… इसी कड़ी में उनकी चर्चित फ़िल्म पैडमैन पर सबकी नज़र है. क्या कहते हैं अक्षय इस बारे में, ख़ुद उनसे ही पूछ लेते हैं.
बात पैडमैन की करें, तो ये एक ऐसे विषय पर है जिसके बारे में समाज में और परिवार में बात तक नहीं की जाती तो आपका क्या अनुभव रहा है?
आप सही कह रहे हैं, क्यूंकि मेरा भी यही अनुभव रहा था जब तक कि मैं ख़ुद इस विषय को समझ नहीं पाया था. असली बात समझते-समझते तो ज़ाहिर है वक़्त लगा कि हमारे समाज में ८२% महिलायें भी इस विषय को ठीक से नहीं समझ पातीं. यही वजह है कि पीरियड्स के दौरान वे राख, पत्ते, मिट्टी जैसी चीज़ें इस्तेमाल करने को मजबूर हैं और ये बेहद शर्मनाक बात है. जब मुझे इन बातों का पता चला तो मैंने सोचा ये तथ्य ज़रूर सामने आने चाहिए. लोगों को पता होना चाहिए कि ये प्राकृतिक क्रिया है इसे शर्म से जोड़कर नहीं देखना चाहिए.
फिर मेरी मुलाक़ात हुई अरुणाचलम मुर्गनाथन से, उन्होंने अपनी पत्नी की कितनी केयर की ये पता चला, उनकी सोच बहुत बेहतरीन थी, इसलिए उन्होंने पैड्स की मशीन बनाई मात्र ६० हज़ार में, जिसे लोग करोड़ों रुपए में बनाते हैं.
मुझे उनकी कहानी ने बहुत प्रेरित किया और उनकी ये बात दिल को छू गई कि किसी भी देश को मज़बूत बनाना है तो उस मुल्क की महिलाओं को मज़बूत करना होगा.
मुझे लगा कितना सही कहा उन्होंने, हम क्यूं इतने हथियार ख़रीदते हैं, जबकि हमारे देश की महिलायें ही मज़बूत नहीं हैं.
मुझे ख़ुद को इतनी समझ और जानकारी मिली कि अपनी बेटी के साथ अब हम खुलकर इस विषय पर बात करते हैं. वो १३-१४ साल की है और अब ज़रूरी है कि वो समझे इन चीज़ों को. जबकि हमारे समाज में आज भी महिलाओं को इस दौरान भेदभाव का भी शिकार होना पड़ता है.
मेरी बेटी की प्यूबर्टी पर हमने सेलिब्रेट किया, ताली बजाई क्यूँकि बेटी सयानी हो गई है तो ये तो सेलिब्रेशन की बात है. जब आप सेलब्रेट करोगे तभी तो बेटी को भी एहसास होगा कि ये नॉर्मल है, इसमें शर्म की बात नहीं. वहीं अगर आप उसको ये सीख दोगे कि किसी को बताना नहीं, ये छिपाने की बात है तो वो भी इसको सहजता से नहीं ले पाएगी
फ़िल्म रिलीज़ कि बाद कैसा करेगी क्या करेगी मुझे नहीं पता लेकिन आज मैं सोशल मीडिया पर जब देखता हूं कि लड़के भी इस विषय पर खुलकर बात कर रहे हैं तो मेरी जीत वहीं है. मुझे ये फ़िल्म किसी भी हाल में करनी ही थी और मैंने अपने दिल की सुनी.
देश में आज भी अधिकतर लड़कियां सैनिटेरी नैप्किन अफ़ॉर्ड नहीं कर पातीं.
जी हां, मैं इसलिए कहता हूं कि सैनिटेरी नैप्किन फ़्री होने चाहिए. डिफ़ेन्स में पैसे थोड़े कम कर दो पर ये बेसिक नीड़ है जिसे सबको मिलना चाहिए. मैंने फ़िल्म कि ज़रिए संदेश दे दिया है अब ये समानेवाले को चाहिए इसे कैसे लेता है.
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कोई ख़ास वजह कि सामाजिक मुद्दों पर फ़िल्में करना पसंद करते हैं?
ख़याल और चाहत पहले से ही थी लेकिन तब पैसे नहीं थे अब हैं तो produce करता हूं. मेरा यही मानना है कि गम्भीर विषय को मनोरंजक तरीक़े से समझाओ तो बेहतर है बजाय भाषण देने के.
अपनी कामयाबी का श्रेय किसको देंगे? फ़िल्म के सब्जेक्ट्स या अपनी फ़िट्नेस?
फ़िल्मों के हिट होने का कोई फ़ॉर्म्युला नहीं होता.
चाहे टॉयलेट एक प्रेम कथा हो या पैडमैन तो महिलाओं से जुड़े और किन विषयों पर अब आगे फ़िल्म बनाना चाहते हैं?
मेरे दिमाग़ में नहीं था कोई विषय लेकिन एक लड़की ने मुझसे कहा कि सर आप डाउरी यानी दहेज पर फ़िल्म बनायें.
आपको क्या लगता है कि इस तरह की फ़िल्में सामाजिक स्तर पर बदलाव लाती हैं.
बदलाव लाती हैं लेकिन सरकार के समर्थन से बदलाव और प्रभाव जल्दी और ज़्यादा आता है. जैसे टॉयलेट में हुआ था क्यूंकि सरकार का बहुत समर्थन मिला था.
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क्या धर्म भी एक वजह है इस तरह कि विषयों पर खुलकर बात ना करने की?
धर्म भी है और हमारी सोच भी. लड़कों के लिए ये मज़ाक़ का विषय है इसलिए लड़कियां झिझकती हैं. मेरे एक दोस्त का क़िस्सा बताता हूं, देर रात उसकी नींद खुली और उसने देखा उसकी बेटी और पत्नी बात कर रहे हैं कि घर पे सैनिटेरी नैप्किन नहीं है और बेटी को उसकी पत्नी समझा रही है कि इतनी रात को क्या करें? तब वो अंदर गया और बेटी को बोला कि पीरियड्स हैं और पैड्स नहीं हैं? बेटी हैरान थी पर वो उसको गाड़ी में लेके गया, डे नाइट केमिस्ट से पैड्स लेके बेटी को दिया. उसके बाद उसने कहा कि उसकी बेटी उसको बेहद प्यार करने लगी, पहले से भी ज़्यादा! उसका रिलेशन पूरी तरह बदल गया. तो कहनी का मतलब है कि खुलकर बात करो, बच्ची को दोस्त बनाओ, उसकी समस्या को समझो और ख़ुद महिलाओं को भी यही करना चाहिए.
वो ख़ुद झिझकती हैं. मेरी फ़ैन ने मुझे कहा अक्षय मैंने ट्रेलर देखा बहुत अच्छा था, मैंने पूछा कौन सा ट्रेलर? तो वो बुदबुदाई यानी वो ख़ुद पैडमैन खुलकर नहीं बोल पा रही थी. तो ये चीज़ ख़त्म होनी चाहिए.
२०१७ आपका कैसा गुज़रा और नए साल में क्या कुछ नया करने का सोचा है आपने?
पिछला साल बहुत अच्छा गुज़रा. मैंने ऐसा कुछ सोचा नहीं है कि क्या resolution बनाऊं. सोचता हूं साल में चार की जगह तीन फ़िल्में करूं.
आप साल में चार फ़िल्में करते हैं जबकि ऐसे भी स्टार्स हैं जो एक ही फ़िल्म करते हैं तो इंडस्ट्री आप पर अच्छी फ़िल्मों के लिए काफ़ी निर्भर करती है, ऐसे में आप ख़ुद पर कीसी तरह का प्रेशर महसूस करते हैं?
प्रेशर क्यूं महसूस होगा… मैं तो ये पिछले २७ सालों से यह कर रहा हूं. एक मूवी ४०-५० दिनों में ख़त्म हो जाती है, तो इतना समय बचता है तो करूं क्या? इसलिए बीच बीच में ऐड कर लेता हूं.
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टेलिविजन जगत की जानीमानी कलाकार और एकता कपूर के लोकप्रिय शो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ में विलेन पायल का किरदार निभाने वाली जया भट्टाचार्य (Jaya Bhattacharya) जीवन के काफ़ी मुश्किल दौर से गुज़र रही हैं. जानकारी के मुताबिक, टीवी एक्ट्रेस जया पैसे की तंगी (Financial Crisis) झेल रही हैं और उन्हें काम की सख्त ज़रूरत हैं.
एक इंटरटेनमेंट वेबसाइट से हुई बातचीत में जया ने बताया कि उनकी 79 वर्षीय मां हार्ट प्रॉब्लम के चलते 26 नवंबर से हॉस्पिटल में एडमिट हैं और अभी भी आईसीयू में हैं. जया के अनुसार,” मां की बीमारी में उनकी सारी सेविंग ख़र्च हो चुकी है. इसके अलावा उनके घर के रेनोवेशन में भी काफ़ी पैसा ख़र्च हो गया है. जया ने इंटरव्यू में कहा कि, मेरे आगे-पीछे कोई नहीं है इसलिए मुझे काम की सख्त ज़रूरत है. मैं बहुत स्ट्रॉन्ग हूं और कभी हार नहीं मानूंगी.”
आपको बता दें कि जया मूलरूप से असम की रहने वाली हैं और आखिरी बार इन्हें कलर्स के हिट शो ‘थपकी प्यार की’ में देखा गया था. जया पिछले दो दशक से टीवी इंडस्ट्री में एेक्टिव हैं. जया ने ‘कसम से’, ‘पलछिन’, ‘केसर’, ‘हातिम’ और ‘कोशिश एक आशा’ जैसे शोज में काम किया है. इसके अलावा कुछ फ़िल्मों में भी नज़र आई हैं. टीवी शोज के अलावा जया कुछ फिल्मों में भी नज़र आई हैं. वर्ष 2001 में लज्जा और वर्ष 2002 में देवदास के अलावा इन्होंने शबाना आजमी की इस साल आई फिल्म ‘The Wishing Tree’ में भी काम किया है.
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मैंने सूरज को कैद किया था आंखों में, मैंने चांद उगाया था हथेली पर… स्याह रातें जब अंधेरा बिखेर रही थीं, मैंने उम्मीद का चिराग़ जलाया था अपनी पलकों पर… थककर रुक जाता, तो वहीं टूट जाता… रास्ता बदल देता, तो हर ख़्वाब पीछे छूट जाता… चलता रहा मैं कांटों पर भी, रुक न सका मैं उलझी हुई राहों पर भी… अपने पैरों की बेड़ियों को तोड़ दिया जब मैंने, सारी दुनिया ने कहा, हर नाउम्मीदी को बड़े जिगर से पीछे छोड़ दिया मैंने… लोग कहते थे लड़ना छोड़ दे, यही तेरी नियति है प्यारे… मैंने कहा, जो लड़ने से डर जाए, वो इंसान नहीं, जो नियति से हार जाए, वो संग्राम नहीं… क्या कोई सोच सकता है कि बचपन के आठ साल व्हील चेयर पर गुज़ारने के बाद कोई बंदा पहलवानी की दुनिया को अपने दम पर इस क़दर जीत सकता है कि आज बड़े अदब और सम्मान से उसका नाम लिया जाता है. उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ पहलवान कहा जाता है… जी हां, हम बात कर रहें हैं रेसलर संग्राम सिंह (Wrestler Sangram Singh) की. क्या था उनका संघर्ष और कैसे लड़े वो अपनी नियति से, आइए उन्हीं से पूछते हैं…
आपको बचपन में आर्थराइटिस था लेकिन वहाँ से लेकर वर्ल्ड के बेस्ट रेस्लर बनने तक की जर्नी कैसी रही आपकी?
बचपन में मुझे रूमैटॉइड आर्थराइटिस हुआ था. जब मैं 3 साल का था, तो पैरों में दर्द हुआ और फिर पैरों में गांठ-सी बन गई. चूंकि मैं हरियाणा के रोहतक डिस्ट्रिक्ट के मदीना गांव से हूं, तो मेरे पैरेंट्स भी बहुत ही सिंपल हैं और उस समय इतनी जानकारी नहीं थी, सुविधाएं नहीं थीं और न ही इतने पैसे थे, सो मुझे कभी इस डॉक्टर को दिखाया, तो कभी किसी दूसरे को. इसी में इतना समय निकल गया कि जब बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर्स को दिखाया गया, तो उन्होंने सीधेतौर पर कह दिया कि यह बीमारी तो मेरी मौत के साथ ही ख़त्म होगी. लेकिन मेरी मां ने हिम्मत नहीं हारी और कुछ मेरी भी इच्छाशक्ति थी कि 8 साल तक व्हील चेयर पर रहने के बाद आज मैं रेसलर हूं.
दरसअल मेरे बड़े भाई स्टेट लेवल के रेसलर थे, तो मैंने भी टूर्नामेंट यानी दंगल के बारे में सुना कि उन्हें घी-दूध सब मिलता है, तो मैं उसके साथ दंगल देखने गया. दंगल देखकर मुझे न जाने क्यों यह महसूस हुआ कि काश मैं भी रेसलर बन सकता. फिर अपने दोस्त को कहा कि मुझे अखाड़े में लेकर चल. वहां गया, तो सब मुझे देखकर मेरा मज़ाक उड़ाने लगे. अखाड़े के उस्ताद ने भी मुझसे पूछा कि आप क्या करना चाहते हो, तो मैंने अपने मन की बात कही कि मैं भी रेसलर बनना चाहता हूं. मेरी बात सुनकर उन्होंने भी यही कहा कि अगर भी आप बन गए, तो सब बन जाएंगे… खंडहर देखकर इमारत का पता चल जाता है… इत्यादि बातें… न जाने क्या कुछ नहीं कहा उन्होंने मुझे.
लेकिन मेरी मां ने गिवअप नहीं किया और न मैंने हिम्मत हारी. आप सोच सकते हैं कि गांव में नेचर कॉल के लिए भी बाहर जाना पड़ता था, हमारे पास व्हील चेयर तक के पैसे नहीं होते थे… मैं सुबह उठ तो जाता था, आंखें खुल जाती थीं, लेकिन मेरी बॉडी मूव नहीं होती थी. 8 साल तक बिस्तर पर पड़े रहना आसान नहीं था, क्योंकि यह बीमारी मेरे शरीर में फैलती जा रही थी. हर जॉइंट में आ गई थी. यहां तक कि मैं अपना मुंह भी खोलता था, तो मुझे दर्द होता था. मैं हर रोज़ जीने की एक नई कोशिश करता था, अपने पैरों पर खड़े होने के लिए संघर्ष करता था… मेरा यही मानना है कि यदि इंसान हिम्मत न हारे, तो नामुमकिन कुछ भी नहीं… मुझे प्रोफेशनल रेसलिंग में वर्ल्ड के बेस्ट रेसलर का टाइटल मिला, तो मैं यही कहूंगा कि जग जिस पर हंसता है, इतिहास वही रचता है.
यही वजह है कि अपने इस संघर्ष को मैं भूलता नहीं और मैं उन बच्चों की हर तरह से मदद करने की कोशिश करता हूं, जो इस बीमारी से पीड़ित हैं. उनकी पढ़ाई-लिखाई, रोज़ी-रोटी के लिए मुझसे जो बन पड़ता है, मैं ज़रूर करने की कोशिश करता हूं. दरअसल, हम स़िर्फ एक ज़रिया हैं, भगवान ही सब कुछ करता है.
आज की बिज़ी लाइफस्टाइल में फिटनेस कितनी महत्वपूर्ण है? और आप अपनी फ़िट्नेस के लिए क्या कुछ ख़ास करते हैं?
फिटनेस के लिए आप कहीं भी समझौता नहीं कर सकते और न करना चाहिए. ख़ासतौर से आज की बिज़ी लाइफस्टाइल में. यह एक ऐसा इंवेस्टमेंट है कि कोई भी मुझसे पूछे, तो यही कहूंगा कि अपने शरीर में इंवेस्ट करो रोज़ाना, चाहे एक घंटा, दो घंटा या जब भी, जितना भी टाइम मिले, आपको अपने शरीर में इंवेस्टमेंट करना चाहिए, क्योंकि शेयर मार्केट हो या आपका बिज़नेस हो, वो आपको धोखा दे सकता है, लेकिन यह शरीर धोखा नहीं देगा. मैं फिटनेस के लिए हर रोज़ 3 घंटे वर्कआउट करता ही हूं, चाहे कितना ही बिज़ी क्यों न होऊं. कोशिश करता हूं अलग-अलग चीज़ें करने की, जो मैं 15 साल की उम्र में नहीं कर पाता था, वो वर्कआउट मैं आज करता हूं. रेसलिंग भी करता हूं. युवाओं को मोटिवेशनल स्पीच भी देता हूं, टीवी शोज़ करता हूं, फिल्म भी कर रहा हूं. तो हर चीज़ बैलेंस करने की कोशिश करता हूं. 5-6 घंटे सोता हूं.
अपने डाइयट कि बारे में बताइए…
मैं प्योर वेजीटेरियन हूं. मेरा यही मानना है कि यदि ज़िंदगी में आपको सच में स्ट्रॉन्ग बनना है, आगे बढ़ना है, तो खाओ कम, काम ज़्यादा करो. एक और दिलचस्प बात ज़रूर करना चाहूंगा, हालांकि मैं किसी की बुराई नहीं करना चाहूंगा, लेकिन जैसे हम जिम में जाते हैं, तो ट्रेनर डरा देते हैं कि अरे, आपका वज़न इतना है, तो आपको तो इतने ग्राम प्रोटीन खाना है… आप 70 किलो के हैं, तो और ज़्यादा प्रोटीन खाओ… सब वहम की बातें हैं. आप ख़ुद अपने डायट का ध्यान रखो, हेल्दी खाओ. पानी पीओ. सूखी रोटी और प्याज़ में भी इतनी ताकत और विटामिन होते हैं, जितना किसी बड़े होटल के खाने में भी नहीं होंगे. हर रोज़ वर्कआउट करो, ख़ुश रहो. अच्छी हेल्थ का यही फॉर्मूला है कि खाना भूख से कम, पानी डबल, वर्कआउट ट्रिप्पल और हंसना चार गुना.
मैं सुबह दलिया खाता हूं. आंवला-एलोवीरा का जूस लेता हूं. अश्वगंधा, शहद, गुड़, दूध, रोटी, दाल-सब्ज़ी और घी. यह सभी चीज़ें संतुलित रूप से खाता हूं. आजकल एक मूवी के लिए वज़न कम कर रहा हूं. 20 किलो वज़न कम किया है, इसलिए संतुलन ज़रूरी है.
रेसलिंग को आज इंडिया में किस मुक़ाम पर देखते हैं?
रेसलिंग आज इंडिया में क्रिकेट बाद नंबर 2 स्पोर्ट है, जबकि क्रिकेट में तो प्रोफेशनलिज़्म बहुत पहले से था, लेकिन अब यह अन्य स्पोर्ट्स में भी आ रहा है. इसी तरह रेसलिंग भी आगे बढ़ रहा है, लोग भी काफ़ी जागरूक हुए हैं. सुविधाएं भी बढ़ी हैं. एक समय था, जब इतनी जागरूकता और फैसिलीटीज़ नहीं थीं, लेकिन अब वैसा नहीं है. हमें मेडल्स भी मिलते रहे हैं. जब किसी और स्पोर्ट्स में ऑलिंपिक्स या अन्य टूर्नामेंट में हमें मेडल्स नहीं मिल रहे थे, तब रेसलिंग ही थी, जहां हमें मेडल्स मिले. इसके बाद अब तो बहुत-से स्पार्ट्स हैं, जो आगे बढ़ रहे हैं. कुल मिलाकर रेसलिंग को आज बेहद सम्मान मिलने लगा है और यह आगे और बढ़ेगा.
आपने हाल ही में के डी जाधव चैंपियनशिप शुरुआत की उसके विषय में बताइए?
के डी जाधव जी जैसा कोई दूसरा नहीं हुआ देश में. वे बेहद सम्मानित हैं और उनका दर्जा बहुत ऊंचा है. वे पहले भारतीय थे, जिन्होंने कुश्ती में हमें ओलिंपिक मेडल दिलाया था. मैं चाहता हूं कि लोग उनके बारे में और जानें, ताकि युवाओं को प्रेरणा मिले, इसलिए मैं दिल से चाहता था कि उनके लिए कुछ कर सकूं, तो यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन्हें.
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इंडियन रेसलर्स कितने प्रोफेशनल हैं अगर विदेशी प्लेयर्स से कम्पेयर करें तो…
हम काफ़ी प्रोफेशनल हैं और अब तो हम किसी भी तरह से विदेशी प्लेयर्स से पीछे नहीं हैं. चाहे टेकनीक हो या फिटनेस- हर स्तर पर हम उन्हें तगड़ा कॉम्पटीशन दे रहे हैं और भारतीय पहलवान तो अब दुनियाभर में नाम कमा रहे हैं, सारा जग उनका लोहा मान चुका है.
यहां सुविधाएं कैसी हैं? क्या बदलाव आने चाहिए?
सुविधाएं बहुत अच्छी हैं. प्रशासन की तरफ़ से भी बहुत गंभीरता से लिया जाता है हर चीज़ को, इसलिए पहले जो द़िक्क़तें हुआ करती थीं, वा अब नहीं हैं. बदलाव तो यही है कि हम और बेहतर करें, आगे बढ़ें. जो ग़रीब बच्चे हैं, जिनमें हुनर है, उन्हें ज़रूर बेहतर सुविधाएं दी जानी चाहिए, ताकि वे बेहतर स्पोर्ट्समैन बन सकें. अब तो महिलाएं भी ख़ूब नाम कमा रही हैं रेसलिंग में भी और अन्य खेलों में भी. तो बस, उन्हें बढ़ावा मिलना चाहिए. हम भी अपने स्तर पर प्रयास करते ही हैं.
आप मोटिवेशनल स्पीकर और स्पोर्ट्स सायकोलॉजिस्ट भी हैं, तो फैंस और आम लोगों को कोई संदेश देना चाहेंगे?
मैं यही कहना चाहूंगा कि जीवन में कभी भी निराश मत होना. उम्मीद का दामन कभी मत छोड़ना. अपने प्रयास हमेशा जारी रखना. मंज़िल ज़रूर मिलेगी. मैं भी अगर अपनी कोशिशें छोड़ देता, मेरी मां भी थक-हरकर नाउम्मीद हो जाती, तो कभी अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंचता. बाकी तो ऊपरवाले का साथ और चाहनेवालों की दुआएं तो हौसला देती ही हैं. फैंस ने मुझे काफ़ी प्यार दिया, मैं भी अपनी तरफ़ से जितना संभव हो सके, करने की कोशिश हमेशा करता रहा हूं और करता रहूंगा.
स्ट्रेस दूर करने के लिए क्या करते हैं?
स्ट्रेस को दूर करने का सबसे बेहतरीन ज़रिया है वर्कआउट. मैं दुखी होता हूं, तो वर्कआउट करता हूं, ख़ुश होता हूं, तो भी वर्कआउट करता हूं. स्ट्रेस को दूर करने का सिंपल सा उपाय है, यहां सब कुछ टेम्प्रेरी है. चाहे दुख हो, तकलीफ़ हो, स्ट्रेस हो… यहां तक कि ख़ुशियां भी टेम्प्रेरी ही हैं. तो जब सब कुछ टेम्प्रेरी है, तो यहां किस चीज़ के लिए दुखी होना, उदास होना. मैं स़िर्फ 500 लेकर मुंबई आया था और आज भगवान की दया से इतना कुछ कर रहा हूं, लेकिन मैं अगर आज भी वापस जाता हूं, तो भी बहुत ख़ुश रहूंगा, क्योंकि इतने लोगों का प्यार मिला, सब कुछ मिला, तो दुख किस बात का. मैं अब यहां हूं, तो ढेर सारे बच्चों की मदद का ज़रिया बन रहा हूं, क्योंकि मैं भी तो उस जगह से आया हूं, जहां रनिंग करते समय पैरों में जूते नहीं होते थे, बस का किराया नहीं होता था, 20 कि.मी. पैदल चलता था नंगे पैर. क्योंकि एक जोड़ा जूते-चप्पल होते थे, जो टूट जाते थे. आज मालिक का दिया हुआ सब है, तो किस बात की शिकायत और किस बात का स्ट्रेस. मैं तो आप सबसे भी यही कहूंगा कि जो नहीं है, उसका स्ट्रेस न लो, जो है, उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद कहो और ख़ुश रहो.
आज की लाइफस्टाइल में कैसे पॉज़िटिव और फ़िट रहा जाए उसके लिए आपके स्पेशल टिप्स?
आज की लाइफस्टाइल में फिट और पॉज़िटिव रहने के लिए थोड़ा-सा अपनी लाइफ में डिसिप्लिन लाओ. शेड्यूल बनाओ, घर का खाना खाओ. फैमिली के साथ समय बिताओ. अपने पैरेंट्स के साथ, भाई-बहन, दोस्तों के साथ, पार्टनर के साथ हंसों, खेलो, शेयर करो. माता-पिता का आशीर्वाद लो. छोटी-सी ये ज़िंदगी है, पता नहीं कल क्या हो, कल किसने देखा और ज़िंदगी में किसी को भी कम मत आंको. कहते हैं न कि बंद घड़ी भी दिन में दो बार सही समय दिखाती है. एक प्यारी-सी तितली को देखा है आपने कभी, कितनी रंग-बिरंगी, कितनी चमक होती है उसमें, जबकि उसकी ज़िंदगी बहुत छोटी होती है, फिर भी वो अपने रंगों से लोगों को आकर्षित करते ख़ुशियां देती है. तो हमें ज़िंदगी में किस बात का तनाव? हमें तो इतना कुछ मिला है, बस उसकी कद्र करने का हुनर आना चाहिए. हमेशा ख़ुश रहो, नए-नए अवसरों को क्रिएट करने का प्रयास करो. अगर आज नहीं हुआ, तो कल होगा, कल नहीं, तो परसों हो जाएगा… कहां जाएगा यार, सारी चीज़ें यहीं तो हैं. कई बार आख़िरी चाभी ताला खोल देती है. तो प्रयास जारी रखो.

कभी अंधे रास्तों पर चलते-चलते ख़ुद ही अपनी रोशनी तलाश कर लेना… कभी ठोकरों के बीच ख़ुद संभलकर अपनी मंज़िल को पा लेना… ज़िंदगी की तपती धूप के बीच सूरज को ही हथेली में कैद कर लेना, तो कभी चुभती चांदनी को दामन में समेटकर दूसरों के जीवन को रोशन कर देना… जहां ख़ुद का रास्ता बेहद कठिन हो, वहां
मासूम-सी, नासमझ उम्र में दूसरों की राहें न स़िर्फ आसान बनाने का जज़्बा रखना, बल्कि उन्हें नई मंज़िलों तक पहुंचाने का संकल्प लेना साधारण बात नहीं है… यही वजह है कि साधारण-सी नज़र आनेवाली फ़ातिमा ख़ातून (Fatima Khatoon) ने बेहद असाधारण काम किया है अपने जीवन में… जिस्मफ़रोशी के दलदल से ख़ुद निकलकर दूसरों के जीवन को संवारना बेहद कठिन है… लेकिन नामुमकिन नहीं… यह साबित कर दिखाया है फ़ातिमा ने.
मासूम उम्र में दिखाए बड़े हौसले…
“नौ वर्ष की मासूम उम्र में तीन गुना अधिक उम्र के व्यक्ति से शादी और कुछ ही समय बाद इस बात का एहसास होना कि यह दरअसल शादी थी ही नहीं, यह तो सीधे-सीधे जिस्मफ़रोशी थी… दरअसल, शादी के नाम पर ख़रीद-फ़रोख़्त की शिकार हुई थी मैं. जब तक कुछ समझ पाती, तब तक मैं इस चक्रव्यूह में फंस चुकी थी. धीरे-धीरे समझने लगी कि मेरे पति और सास असल में वेश्यालय चलाते हैं.”
बिहार की रहनेवाली फ़ातिमा अपने आप में हिम्मत व हौसले की बड़ी मिसाल हैं. उनके इसी जज़्बे को सलाम करते हुए हमने उनसे उनके संघर्षपूर्ण जीवन की चुनौतियों पर बात की.
अपने संघर्ष के बारे में वो आगे कहती हैं, “मैं अक्सर देखती थी कि लड़कियां व महिलाएं यहां बहुत सज-धजकर रहती थीं. बचपन में ज़्यादा समझ नहीं पाती थी, लेकिन धीरे-धीरे मुझे एहसास हो गया कि यहां सब कुछ ठीक नहीं है. अपनी सास से पूछने पर मुझे यही कहा जाता कि मैं अभी छोटी हूं. ये सब समझने के लिए और मुझे अपने काम से काम रखना चाहिए. समय बीत रहा था कि इस बीच मेरी बात वहां एक लड़की से होने लगी, जिससे मुझे पता चला कि उस लड़की को और वहां रह रही अन्य लड़कियों से भी ज़बर्दस्ती वेश्यावृत्ति करवाई जाती है. जब मैं 12 साल की थी, तब मुझे एक रोज़ मौक़ा मिला. मेरा परिवार एक शादी में गया हुआ था और मैंने वहां से 4 लड़कियों को आज़ाद करवाने में मदद की. उसके बाद मुझे काफ़ी मारा-पीटा गया. कमरे में बंद करके रखा गया. खाना नहीं दिया गया.”
इतनी कम उम्र में इतना हौसला? क्या कभी डर नहीं लगा?
“कहते हैं ना कि एक स्तर पर आकर डर भी दम तोड़ देता है. मेरे साथ भी यही हुआ. रोज़ इतना अत्याचार और मार खाते-खाते मेरा सारा डर ही ख़त्म हो चुका था. मार-पीट के डर ने मेरे हौसले कम नहीं होने दिए.
मैंने भी सोच लिया था कि वैसे भी एक रोज़ तो मरना ही है, तो क्यों न कुछ बेहतर काम करके मरें. 12 साल की उम्र में ही मैं मां बन चुकी थी. अक्सर मुझे मेरी बेटी के नाम पर इमोशनली ब्लैकमेल किया जाता कि अगर मैं चुप न रही, तो मेरी बेटी को मार दिया जाएगा. लेकिन मैंने भी यह सोच लिया था कि एक बेटी को बचाने के बदले में बहुत-सी बेटियों की कुर्बानी देना कितना सही होगा? ‘अपने आप’ नामक एनजीओ से जुड़ने के बाद मुझे हौसला मिला, जिससे मेरी लड़ाई को भी बल मिला कि कैसे एक लड़की रोज़ इन लड़कियों को मरते हुए देख सकती है?
मेरे घरवालों तक जब यह बात पहुंची, तो वो भी बीच-बीच में आते थे, लेकिन मुझे वापस घर ले जाने को वो भी तैयार नहीं थे.
इसी बीच समय गुज़रता गया, मेरी उम्र बढ़ रही थी, मेरी हिम्मत भी बढ़ गई थी. मेरी सास ने मेरी ही एक दोस्त, जो वहीं काम करनेवाली एक सेक्स वर्कर की बेटी थी, को ज़बर्दस्ती जिस्मफ़रोशी में शामिल करने की कोशिश की. यह जानने के बाद मैं काफ़ी ग़ुस्से में थी और मैंने अपनी सास को लकड़ी से पीट डाला. उसके बाद तो मैं खुलेआम उन सबका विरोध करने लगी.
साल 2004 में मुझे एक बहुत बड़ा सपोर्ट मिला, जब एनजीओ ‘अपने आप’ से मेरा संपर्क हुआ और मैंने वो जॉइन
कर लिया.”
आपके मन में कोई शिकायत, कोई सवाल या किसी भी तरह की भावनाएं, जज़्बात… जो आप कहना चाहती हों लोगों से?
“बहुत कुछ है मन में…
- मेरा कहना यही है कि ख़रीददारों को क्यों नहीं पकड़ा जाता है?
- ज भी महिलाओं की स्थिति में अधिक बदलाव नहीं आया है, चारदीवारी में कैद उस औरत को कोई नहीं पूछता.
- परिवारवाले हमें वापस अपनाना ही नहीं चाहते. ऐसे में परिवारों को व समाज को अपनी सोच बदलनी चाहिए, क्योंकि इसमें हमारा तो कोई क़ुसूर नहीं होता, तो सज़ा स़िर्फ हमें ही क्यों मिलती है?
- जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, कुछ भी नहीं बदलेगा.”
क्या आप लोग ऐसा कोई अभियान भी चलाते हैं, जिसमें परिवारवालों से संपर्क करके अपनी बच्चियों को अपनाने की बात होती हो?
“जी हां, हम परिवारवालों को भी जागरूक करते हैं. हम चाहते हैं कि समाज इन बच्चियों को अपनाए. लेकिन समाज तो परिवार से ही बनता है, तो इसमें पहल परिवारवालों को ही करनी होगी.
दरअसल, मैं यह देखती और महसूस करती हूं कि जब एक आम लड़की का बलात्कार होता है, तो किस तरह से मीडियावालों से लेकर देश का हर आदमी जागरूक हो जाता है. बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, न्यूज़ में भी दिखाया जाता है, लोग विरोध करते हैं, मोर्चा निकालते हैं, चक्का जाम करते हैं, लेकिन लाल बत्ती इलाकों में रोज़ 100 बार लड़कियों का बलात्कार होता है… कितने लोग परवाह करते हैं?
सच में औरत आज भी आज़ाद नहीं हुई है. यही वजह है कि हम ऐसी महिलाओं को न स़िर्फ उस गंदगी से बाहर निकालने का प्रयास करते हैं, बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करते हैं, ताकि परिवार व समाज के मुंह फेरने के बाद भी वो दोबारा उस जगह जाने को मजबूर न हों. ख़ुद अपना गुज़ारा कर सकें और अपने बच्चों को बेहतर भविष्य दे सकें.”
फ़ातिमा को उनके बेहतरीन काम के लिए अन्य संस्था से भी इनाम मिला, वे ‘कौन बनेगा करोड़पति’ शो में भी आकर 25 लाख का इनाम जीतकर गई थीं. अमिताभ बच्चन साहब और उस एपिसोड में ख़ास अतिथि रानी मुखर्जी ने भी फ़ातिमा के हौसलों को सलाम किया. हम भी उनकी निर्भीकता व कम उम्र में ही बड़ा काम करने की परिपक्वता को सेल्यूट करते हैं.
– गीता शर्मा

इसे कहते हैं क्रिकेट और स्पोर्ट्मैन स्पिरिट. यहां कोई किसी का दुश्मन नहीं होता, थोड़े व़क्त तक तनातनी रहती है, लेकिन मैदान के बाहर निकलते ही सब कुछ धुल जाता है. इसका ताज़ा उदाहरण देखने को मिला युवराज सिंह के इंस्टाग्राम पर अपलोड हुए उस वीडियो से, जिसमें युवराज और धोनी दिख रहे हैं. इस वीडियों में यूवी धोनी के कंधे पर हाथ रखकर उनसे उनके कप्तानी पारी के बारे में कुछ सवाल करते हैं और उन्हें बताते हैं कि वो बेहद अच्छे कप्तान थे. उनकी अगुआई में खेलना उन्हें बहुत अच्छा लगता था.
यूवी ने पूछा अब कितने छक्के लगाओगे?
इस इंटरव्यू में यूवी ने धोनी से पूछा कि अब जब वो कप्तान नहीं हैं, तो क्या ज़्यादा छक्के लगाएंगे? धोनी ने कहा कि अगर बॉल उनके एरिया में आएगी, तो ज़रूर.
धोनी ने की यूवी की तारीफ़
इस वीडियो में धोनी ने अपने इंयरव्यूवर यूवी की तारीफ़ करते हुए कहा कि टीम में उनके जैसे प्लेयर के साथ खेलना हमेशा ख़ुशी का अनुभव कराता है. इसके साथ ही धोनी ने यूवी के उन 6 छक्कों की भी तारीफ़ की. इस बात पर यूवी थोड़े इतराते हुए नज़र आए.
आइए, देखते हैं कैसा रहा धोनी का इंटरव्यू?
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जब यूवी भूल गए अपना सवाल
धोनी से सवाल करते हुए अचानक यूवी कह उठते हैं कि अरे मैं तो भूल गया मुझे क्या पूछना था. इस पर दोनों खिलाड़ी हंसते हैं. दोनों में पॉज़िटिव एनर्जी देखने को मिलती है.
कुछ दिनों पहले जब धोनी के कप्तानी से रिटायरमेंट के बाद यूवी के टीम में सिलेक्शन की बात सामने आई थी, तो युवराज के पिता योगराज ने कहा था कि धोनी के कारण ही यूवी को टीम में नहीं लिया गया था. अब जब वो कप्तान नहीं हैं, तो यूवी टीम में है.
लेकिन युवराज का ये वीडियो क्रिकेट प्रेमियों को ये बता रहा है कि यहां सब कुछ ठीक है यानी ऑल इज़ वेल इन धोनी एंड यूवी. हम तो यही कहेंगे कि युवी और धोनी ने अपने इस अंदाज़ से यह साबित कर दिया है कि क्रिकेट इज़ जेंटलमेन्स गेम.
– श्वेता सिंह

Birthday boy टीम इंडिया के कैप्टन अनूप कुमार (Anup Kumar) क्या सोचते हैं, यह जानना बेहद दिलचस्प होगा-
अपनी फिटनेस का ख़्याल किस तरह से रखते हैं?
जहां तक डायट का सवाल है, तो ऑयली और फैटी फूड अवॉइड करता हूं, क्योंकि डायट से ही हमारी फिटनेस बनी रहती है. साथ ही जमकर प्रैक्टिस करता हूं. 5-6 घंटे की प्रैक्टिस से स्टेमिना भी बेहतर होता है और बॉडी भी फिट रहती है.
ओलिंपिक्स में कबड्डी को लेकर क्या सपना है?
ओलिंपिक्स में कबड्डी को ज़रूर जाना चाहिए. यह सपना हम सभी का है, ताकि एक और मेडल देश को मिल सके. भविष्य में ज़रूर ऐसा होगा.
क्या कभी ऐसा महसूस होता है कि कबड्डी को उतनी सुविधाएं और पहचान नहीं मिली, जितनी अन्य खेलों को?
जी नहीं, बिल्कुल भी नहीं. फेसिलिटीज़ बहुत अच्छी मिलती हैं. किसी भी तरह की कोई शिकायत नहीं. हमारे ट्रैवलिंग से लेकर, रहने और खाने-पीने तक के सारे इंतज़ाम काफ़ी अच्छे हैं. एक समय था, जब लोग हमें उतना नहीं पहचानते थे, लेकिन लीग के आने के बाद मीडिया भी कबड्डी को लेकर काफ़ी संजीदा हुआ है और अच्छा कवरेज मिलता है. लोग हमें बेहद प्यार करते हैं. यह देखकर भला क्यों किसी से शिकायत होगी?
भारत में कबड्डी का फ्यूचर किस तरह से देखते हैं आप?
कबड्डी का फ्यूचर बहुत ही ब्राइट है इंडिया में. हमारी मिट्टी से जुड़ा खेल है और भविष्य में यह और भी ऊंचाइयों को छुएगा.
आप लोग कई विदेशी खिलाड़ियों के साथ व उनके विरुद्ध भी खेलते आए हैं, उनकी फिटनेस व टेक्नीक को लेकर क्या महसूस करते हैं? क्या वो हमसे बेहतर हैं या हम उनसे बेहतर हैं?
विदेशी खिलाड़ियों के मुकाबले हमारी टेकनीक बेहतर है, लेकिन जहां तक फिटनेस का सवाल है, तो इसमें हम थोड़े पीछे इसलिए रह जाते हैं कि हमारा खान-पान थोड़ा अलग है. वो नॉन वेज खाते हैं, जबकि आज भी हमारे बहुत-से प्लेयर्स नॉन वेज नहीं खाते. तो यही वजह है, अगर हम भी अपने डायट प्लान में कुछ तब्दीली लाएं, तो फिटनेस में भी हम पीछे नहीं रहेंगे.
कबड्डी के भविष्य व कबड्डी प्लेयर बनने का सपना देखनेवालों को कुछ कहना चाहेंगे? कुछ ख़ास टिप्स?
भविष्य के लिए यह ज़रूर चाहूंगा कि हर राज्य में हर शहर में विंग्स खोलनी चाहिए, जहां बच्चों को कबड्डी के लिए ट्रेनिंग दी जा सके. वहां उनकी ट्रेनिंग, डायट, फिटनेस और टेक्नीक पर बचपन से ही काम किया जा सकेगा, जिससे 20-22 की उम्र तक वो काफ़ी बेहतरीन खिलाड़ी बनकर देश का प्रतिनिधित्व कर सकेंगे. आख़िर कबड्डी का भविष्य तो यही बच्चे हैं, तो उन पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए.
फ्री टाइम में क्या करना पसंद करते हैं?
फ्री टाइम में मैं अपनी फैमिली के साथ रहना पसंद करता हूं. फैमिली ही मेरा मॉरल सपोर्ट है, तो जब भी व़क्त मिलता है, उनके साथ क्वालिटी टाइम स्पेंड करता हूं.
भविष्य का अनूप कुमार बनने की क्षमता किस प्लेयर में देखते हैं आप?
भविष्य का अनूप कुमार मेरे हिसाब से तो सभी में संभावनाएं हैं. किसी एक का नाम लेना तो ठीक नहीं, क्योंकि सभी अनूप कुमार ही क्यों, मुझसे बेहतर भी बन सकते हैं.
यंग जनरेशन को क्या कहना चाहेंगे?
यंगस्टर्स को मैं यही कहूंगा कि आज की तारीख़ में कबड्डी में काफ़ी संभावनाएं हैं. भविष्य अच्छा है, इसलिए मेहनत करें. जमकर प्रैक्टिस करें.
रैपिड फायर: दीपिका के दीवाने हैं कैप्टन कूल अनूप!
फेवरेट डिश?
– घर का सादा खाना पसंद है, शुद्ध देसी खाना, दूध, दही, घी, रोटी-सब्ज़ी. बाहर खाना मजबूरी है, लेकिन पसंद तो घर का खाना ही है.
फेवरेट एक्टर?
– सनी देओल.
फेवरेट एक्ट्रेस?
– दीपिका पादुकोण.
फेवरेट क्रिकेटर?
– सचिन तेंदुलकर और युवराज सिंह.
– गीता शर्मा

किसी ने सच कहा है कि अगर आपको तरक्क़ी करनी है, तो एक ही नौकरी पकड़कर बैठे न रहें. इससे आप एक तरह के सेफ ज़ोन में दाखिल हो जाते हैं, जिसे तोड़ने की आप हिम्मत नहीं जुटा पाते. इस तरह की परिस्थिति करियर के लिए बाधक सिद्ध होती है. नई नौकरी के विचार मात्र से आपका मन कांप उठता है. भले ही आप दूसरों के सामने इसे प्रदर्शित न करें, लेकिन आपके भीतर एक अजीब-सा डर घर कर जाता है, जिसे निकालना बहुत मुश्किल होता है. कई सालों से एक ही कंपनी के लिए जी जान लगाकर नौकरी करने के बाद भी अगर मन मुताबिक़ तरक्क़ी नहीं हो रही है, तो बहुत जल्दी उस नौकरी को छोड़कर दूसरी जॉब की तलाश करें. इसके लिए आपको इंटरव्यू देने पड़ेंगे. ऐसे में इंटरव्यू के नाम से डरने की ज़रूरत नहीं है. बस, अपनाइए ये टिप्स और छा जाइए इंटरव्यू में.
स्ट्रॉन्ग फीलिंग
सबसे पहले अपने मन में ये तय कर लें कि अब आपको बहुत जल्द एक नई नौकरी ढूंढ़नी है. जिस दिन आप मन में ये सोच लेंगे, उस दिन से आपकी प्रतिक्रिया बदल जाएगी. आपका मन अब आपके अनुरूप सोचने लगेगा. ऐसे में आपके भीतर बैठा इंटरव्यू का डर धीरे-धीरे ग़ायब होने लगेगा.
सेल्फ एनालिसिस
अगर आप योग्यता और डिग्री होने के बाद भी नौकरी नहीं हासिल कर पा रहे हैं, मेहनत करने के बाद भी कंपनियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं, तो आपकोे सेल्फ एनालिसिस की ज़रूरत है. इंटरव्यू से डरकर उसी नौकरी में लगे रहने की बजाय ख़ुद का मूल्यांकन करें और अपनी कमियों को सुधारें.
अप टु डेट रहें
आमतौर पर लंबे समय तक एक ही नौकरी में रहने से सीखने की क्षमता ख़त्म हो जाती है. ऐसा लगता है, सब कुछ तो आता है. यही ग़लती आपको नई नौकरी के लिए आगे बढ़ने नहीं देती और मन में इंटरव्यू का ख़्याल आते ही आप डरने लगते हैं. अपने फील्ड से जुड़ी हर बात को जानें. कब, क्या नया हो रहा है, यह जानना आपके लिए बहुत ज़रूरी है. जब आपको नई नौकरी से जुड़ी सारी बातें पता होंगी, तो इंटरव्यू में आप घबराएंगे नहीं.
हताश न हों
बात बड़ी अजीब, लेकिन सच है, ऑफिस में कलीग के साथ लंच के समय जब भी नई नौकरी की बात होती है, तो अक्सर लोग ख़ुद को कम आंकने लगते हैं और ये कहने से परहेज़ नहीं करते कि अब जॉब देगा कौन? उनके अंदर वो क्षमता रही नहीं, जिससे उन्हें आसानी से जॉब मिल सके. यदि आप भी ऐसा सोचते हैं, तो अपनी सोच बदलें. ख़ुद को कभी भी हतोत्साहित न करें.
पॉज़िटिव एटीट्यूड
डर से उबरने के लिए यह सबसे बेहतरीन आइडिया है. लंबे समय से कोई इंटरव्यू न देने पर डर लगना लाज़मी है, लेकिन उस डर को हराया जा सकता है. बस, ज़रूरत है तो सकारात्मक रवैया अपनाने की. यक़ीन मानिए, इससे आपका सारा डर मिनटों में दूर हो जाएगा. अपने मन में यह बात बैठा लीजिए कि आपको एक जगह स्टिक होने की ज़रूरत नहीं. तरक्क़ी करने के लिए आपको एक कंपनी से दूसरी कंपनी में जाना ही होगा. सफलता के लिए यह बहुत ज़रूरी है.
सिक्योर ज़ोन से बाहर निकलें
कई सालों से एक ही कंपनी में जॉब करते रहने से आप सिक्योर महसूस करने लगते हैं. मन में यह बात घर कर जाती है कि यह नौकरी पूरी तरह से सिक्योर है. ऐसे में जब कंपनी में प्रमोशन और सैलरी नहीं बढ़ती, तब अचानक आपको सिक्योरिटी ख़त्म होती नज़र आने लगती है और नई नौैकरी के ख़्याल मात्र से आप चिंतित होने लगते हैं. एक्सपर्ट्स कहते हैं कि डे फर्स्ट से ही किसी भी कंपनी में ख़ुद को सिक्योर वाली फीलिंग से दूर रखें. मन में ये सोच लें कि कुछ समय बाद आपको दूसरी नौकरी करनी है. यह भाव आपको हमेशा हर तरह के डर से बचाएगा और इंटरव्यू फोबिया से आप दूर रहेंगे. बात बस विचारों की है. विचार बदलिए, डर अपने आप ख़त्म हो जाएगा.
डिप्रेशन से बचें
यह ख़तरनाक स्थिति है. नई नौकरी ढूंढ़नेे, इंटरव्यू देने के डर से कई बार लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं. इंटरव्यू के प्रेशर को वो ख़ुद पर इतना ज़्यादा हावी कर देते हैं कि नई नौकरी के चक्कर में वो वर्तमान नौकरी भी ठीक से नहीं कर पाते. ऐसी स्थिति से बचें और अपना आत्मविश्वास बनाए रखें. रिलैक्सेशन बूस्टिंग टेकनीक इंटरव्यू के डर को ख़त्म करने का ये बेहद आसान उपाय है. इसके लिए अपने मन-मस्तिष्क को इतना मज़बूत बनाएं कि डर जगह बनाने न पाए. इसके लिए आप ख़ासतौर पर मेंटल एक्सरसाइज़ करें.
एक्सपर्ट एडवाइज़
उपर्युक्त तरी़के अपनाने के बाद भी अगर आप में कॉन्फिडेंस नहीं आ पा रहा है, तो ऐसी स्थिति में एक्सपर्ट की सलाह लें. वो आपका माइंड बदलकर आपके भीतर सकारात्मक सोच और ऊर्जा का संचार करेंगे, जिससे आप नई नौकरी के लिए ख़ुद को तैयार कर सकेंगे.
कार्टून देखें
आपको सुनकर भले ही हंसी आए, लेकिन जानकार मानते हैं कि मनोबल गिरने पर ऐसे कार्टून देखना हमेशा अच्छा होता है, जो हर बार दुश्मनोंको हराते हैं. कार्टून आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा भरते हैं. इससे आपके अंदर बदलाव आता है.
इंप्रेसिव इंटरव्यू पढ़ें
इंटरव्यू के लिए ख़ुद को तैयार करने के लिए नामी हस्तियों के इंटरव्यू पढ़ें. इस तरह के इंटरव्यू में कई तरह के उतार-चढ़ाव भरे सवाल-जवाब होते हैं, जिससे आपको अपनी स्थिति को समझने में मदद मिलेगी.
– श्वेता सिंह

रोहित कुमार… खिलाड़ी कुमार… या फिर अक्की… कबड्डी के फैन्स समझ ही जाते हैं कि इन नामों के ज़रिए हम बात एक ही शख़्स की कर रहे हैं, वो हैं यंग, डायनैमिक और बेहतरीन रेडर रोहित छिल्लर. फैन्स को उम्मीद थी कि अपने इस फेवरेट प्लेयर को वो कबड्डी वर्ल्ड कप में मैट पर अपना जौहर दिखाते हुए देख पाएंगे, पर ऐसा नहीं हो पाया… लेकिन रोहित के चाहनेवाले ही नहीं बल्कि कबड्डी के सभी फैन्स उन्हें कबड्डी वर्ल्ड कप में एक्सपर्ट के तौर पर अपना स्पेशल ओपिनियन देते देखकर ख़ासे प्रभावित भी हैं और बेहद ख़ुश भी. अपने इस नए रोल, इससे जुड़े चैलेंजेस, कबड्डी वर्ल्ड कप पर एक्सपर्ट ओपिनियन व खेल की तमाम बारीक़ियों के बारे में रोहित का क्या कहना है, बेहतर होगा हम उन्हीं से पूछ लें.
वर्ल्ड कप में भले ही आप टीम में नहीं हैं, लेकिन फिर भी एक नए रोल में और नए अंदाज़ में अपने फैन्स के साथ जुड़े हैं, उसके लिए बधाई!
शुक्रिया, थैंक यू सो मच.
एक एक्सपर्ट के तौर पर आप मैच व गेम्स का विश्लेषण कर रहे हैं, कितना चुनौतीपूर्ण लग रहा है यह काम?
सच कहूं तो मज़ा आ रहा है. यह सच है कि बहुत चैलेंजिंग रोल है यह और ख़ासतौर से एक कबड्डी प्लेयर के लिए तो और भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि आपने भी देखा होगा कि हम काफ़ी कम बोलते हैं और थोड़े शाय (शर्मीले) नेचर के होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे झिझक दूर हो रही है, प्रैक्टिस हो रही है, बहुत कुछ नया सीखने को मिल रहा है.
एक विश्लेषक के तौर पर आपकी यह नई पारी है, तो क्या महसूस कर रहे हैं- रेडिंग ज़्यादा आसान है या एक्सपर्ट ओपिनियन देना?
मैं एक प्लेयर हूं और पिछले 13-14 सालों से कबड्डी खेल रहा हूं, तो ज़ाहिर है मेरे लिए रेडिंग ही आसान है. पोस्ट मैच ओपिनियन मेरे लिए न्यू फील्ड है, तो ये थोड़ा-सा मुश्किल है, लेकिन काफ़ी मज़ा भी आ रहा है, तो मैं एंजॉय कर रहा हूं.
टीम इंडिया के कितने चांसेज़ लग रहे हैं वर्ल्ड चैंपियन बनने के?
जी 99%.
100% क्यों नहीं?
क्योंकि यह एक गेम है और कबड्डी में तो आप पूरी तरह से आश्वस्त हो ही नहीं सकते, क्योंकि यह गेम ही ऐसा है. अंतिम क्षणों में बाज़ी पलट जाती है, किसी की जीत हार में और किसी की हार जीत में बस कुछ सेकंड्स में बदल जाती है. इंडियन टीम बेहद स्ट्रॉन्ग है, लेकिन बाकी की टीम्स भी पूरी तैयारी के साथ आई हैं, तो हम उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते.
पहले मैच में भारतीय टीम रिपब्लिक ऑफ कोरिया से लास्ट मिनट में जीता हुआ मैच हार गई, क्या यह टीम इंडिया के ओवर कॉन्फिडेंस का नतीजा था?
थोड़ा-सा यह कारण भी था, क्योंकि हमारी टीम के सभी प्लेयर्स इतने स्ट्रॉन्ग हैं कि सभी में मैच जिताने की पूरी क्षमता है. इसी के चलते सभी कुछ न कुछ ग़लतियां भी करते गए कि अगर मैं पॉइंट नहीं ला पाया, तो वो ले आएगा… अगर मैं आउट हो गया, तो दूसरा प्लेयर संभाल लेगा, तो शायद ये थोड़ा-सा ओवरकॉन्फिडेंस ही था, जिससे रिज़ल्ट थोड़ा शॉकिंग आया, लेकिन यह आगे नहीं होगा.
टीम इंडिया को सबसे ज़्यादा चुनौती किस टीम से है?
ईरान से, क्योंकि वो भी काफ़ी अच्छी टीम है.
जांग कुन ली जिस तरह की फॉर्म में हैं और आख़िर के 5-7 मिनटों में जो कमाल कर रहे हैं, उस पर क्या कहना है?
वो एक बेहतरीन खिलाड़ी है और उसकी सबसे बड़ी ख़ूबी ही यह है कि वो डरकर नहीं खेलता. उसकी सोच यही होती है कि पॉइंट्स लाने हैं, तो लाने ही हैं और एक अच्छे रेडर की निशानी यही होती है कि भले ही वो पूरे मैच में अच्छा न कर पाया हो, लेकिन जिस व़क्त उसकी टीम को सबसे ज़्यादा पॉइंट्स की ज़रूरत होती है, उस व़क्त वो पॉइंट्स लाए. ऐसे में ली एक गेम चेंजर की भूमिका निभाता है, जो परिस्थितियों के अनुसार खेलता है.
क्या टीम इंडिया जांग कुन ली व इसी तरह के अन्य रेडर्स को आगे के गेम्स में रोकने में कामयाब हो पाएगी?
टीम इंडिया व अन्य टीम्स भी एक-दूसरे के गेम्स को फॉलो करती ही हैं और हमारे पास मंजीत छिल्लर जैसे वर्ल्ड के टॉप डिफेंडर भी हैं. रेडर्स चाहे जितने भी ख़तरनाक हों, उन्हें मंजीत भाई देख लेंगे और मंजीत के अलावा भी सुरेंद्र नाडा व मोहित छिल्लर भी हैं, जिनसे रेडर्स ख़ुद डरते हैं. तो हमारी टीम टॉप लेवल की है, जिसमें सभी प्लेयर्स बहुत ही परिपक्व व इंटेलिजेंट हैं.
वर्ल्ड कप टीम में आपका सिलेक्शन नहीं हो पाया, क्या इसे लेकर कुछ डिसअपॉइंटमेंट है? आपके फैन्स काफ़ी शॉक्ड हैं इसे लेकर, क्योंकि आपकी परफॉर्मेंस के हिसाब से तो टीम में आपकी भी जगह बनती थी.
जी मैं भी शॉक्ड हूं. डिसअपॉइंटमेंट तो बिल्कुल है, लेकिन चूंकि मेरी तबीयत उन दिनों ठीक नहीं थी, तो शायद यही वजह है कि मेरा सिलेक्शन नहीं हो पाया. अगर कोच साहब थोड़ा-सा कॉन्फिडेंस दिखाते, तो मैं भी सिलेक्ट हो सकता था.
लेकिन अब आप एक्सपर्ट के तौर पर न्यू चैलेंजिंग रोल निभाते हुए कबड्डी वर्ल्ड कप से जुड़ गए हैं और आपके फैन्स आपको इस रोल में बेहद पसंद भी कर रहे हैं, तो क्या डिसअपॉइंटमेंट कुछ कम हुआ?
जी बिल्कुल, सच कहूं तो फैन्स के प्यार ने मुझे सब कुछ भुला दिया. सिलेेक्ट न हो पाने का सारा दर्द अब चला गया. फैन्स के मैसेजेस पढ़कर सुकून मिलता है. वो मुझसे बेहद प्यार करते हैं, मैं हमेशा उनकी उम्मीदों पर खरा उतरूं और उन्हें अपनी परफॉर्मेंस से हमेशा ख़ुश करता रहूं यही कोशिश रहेगी. उन्हें थैंक्यू कहना चाहूंगा, मेरी तकलीफ़ को कम करने में जो मदद उनके प्यार भरे मैसेजेस करते हैं उसके लिए उनका शुक्रगुज़ार हूं.
किस टीम ने आपको अब तक अपने गेम से सबसे ज़्यादा प्रभावित किया या चौंका दिया?
केन्या की परफॉर्मेंस आउटस्टैंडिंग रही, जिसने ईरान जैसी टीम के आगे आसानी से घुटने नहीं टेके और अपने उम्दा खेल से उसे टक्कर दी. बाकी जापान व थाईलैंड भी अच्छा कर रही हैं.
ऐसा लगता है कि कबड्डी को अभी भी वो पहचान नहीं मिली, जो अन्य खेलों व खिलाड़ियों को मिली है?
देखिए, ये तो ज़ाहिर-सी बात है कि जितने पॉप्युलर क्रिकेट या अन्य गेम्स हैं, कबड्डी अब तक उस मुक़ाम तक तो नहीं पहुंची, लेकिन यह भी ध्यान देना होगा कि ये तमाम स्पोर्ट्स लंबे अरसे से चल रहे हैं, जबकि कबड्डी को कुछ ही साल हुए मेन स्ट्रीम में आए हुए. उस हिसाब से कबड्डी कम समय में काफ़ी पॉप्युलर हुई है और अगले चंद ही सालों में ये और भी आगे जाएगी.
ओलिंपिक्स में अब तक कबड्डी शामिल नहीं हो पाई है?
अगले कुछ ही सालों में ऐसा हो जाएगा, क्योंकि वर्ल्ड कप में कई बड़े देश पहली बार हिस्सा ले रहे हैं, यह काफ़ी बड़े पैमाने पर हो रहा है, तो वो दिन भी अब दूर नहीं, जब कबड्डी को ओलिंपिक्स में देखने का हम सबका यह सपना पूरा होगा.
यूं तो सभी प्लेयर्स अपनी फिटनेस पर ध्यान देते हैं, पर आप अपनी फिटनेस पर काफ़ी ध्यान देते हैं, तो क्या ख़ास करते हैं?
सुबह 2 घंटे वॉकिंग-रनिंग करता हूं, शाम को जमकर प्रैक्टिस करता हूं. नाश्ते में 10 अंडे, शाम को भी 10 अंडे, लंच में प्रोटीन और रात को सलाद व फ्रूट्स लेता हूं. हेल्दी डायट और एक्सरसाइज़ बहुत ज़रूरी है.
आपका फेवरेट ऐक्टर कौन है, यह आपको जाननेवालों को पूछने की ज़रूरत ही नहीं, क्योंकि हम सभी जानते हैं कि आप अक्षय कुमार के सबसे बड़े फैन हैं, लेकिन फेवरेट एक्ट्रेस कौन है?
मेरी कोई भी फेवरेट एक्ट्रेस नहीं है. मुझे बस अक्षय कुमार की मूवीज़ देखना ही पसंद है. एक्ट्रेस सभी अच्छी हैं, लेकिन कोई ख़ास मेरी फेवरेट हो, ऐसा नहीं.
आपकी हॉबीज़ क्या हैं?
फ्री टाइम में मैं मूवीज़ देखता हूं या फ्रेंड्स के साथ टाइम स्पेंड करता हूं, बातें करता हूं. कुल मिलाकर एंजॉय करता हूं.
– गीता शर्मा

7 अक्टूबर 2016 से कबड्डी वर्ल्ड कप शुरू हो रहा है, ऐसे में टीम इंडिया की कमान है हमारे कैप्टन कूल अनूप कुमार (Anup Kumar) के हाथ में, जो अपने शांत मिज़ाज और विपरीत परिस्थितियों में भी सही निर्णय लेने की क्षमता के लिए जाने जाते हैं. क्या कहना है उनका टीम के बारे में, कबड्डी के बारे में और अपनी पर्सनल लाइफ के बारे में, आइए उन्हीं से जानते हैं-
भारत में कबड्डी का फ्यूचर किस तरह से देखते हैं आप?
कबड्डी का फ्यूचर बहुत ही ब्राइट है इंडिया में. हमारी मिट्टी से जुड़ा खेल है और भविष्य में यह और भी ऊंचाइयों को छुएगा.
टीम इंडिया की वर्ल्ड कप की तैयारी कैसी है?
वर्ल्ड कप की तैयारी बहुत ही बढ़िया है. हम सभी कैंप्स में बहुत मेहनत कर रहे हैं. आख़िर मेहनत से ही तो बेहतर परिणाम मिलते हैं.
सबसे टफ अपोनेंट कौन लग रहा है?
सभी टीमें बहुत अच्छी हैं, हम किसी को भी कम नहीं आंक सकते. वो भी उतनी ही मेहनत करते हैं और जीत के जज़्बे के साथ ही मैट पर उतरते हैं.
बतौर कप्तान देश को वर्ल्ड कप में प्रेज़ेंट करना कितना ज़िम्मेदारी का काम है? लीग और देश के लिए कप्तानी करने का अनुभव किस तरह से अलग होता है?
जब हम लीग में खेलते हैं, तो वहां खेल और उससे जुड़ी ज़िम्मेदारियां कुछ अलग हो जाती हैं और जब हम देश के लिए खेलते हैं, तो ज़ाहिर है ज़िम्मेदारियां बढ़ जाती हैं. एक कप्तान के तौर पर भी ज़िम्मेदारी काफ़ी हद तक बढ़ जाती है. एक-एक हार और जीत मायने रखती है. लीग में अगर आप एक मैच हार भी गए, तो लगता है कोई बात नहीं, अगला मैच जीत जाएंगे, लेकिन जहां देश की बात होती है, तो हारना हम अफोर्ड ही नहीं कर सकते, क्योंकि उसका असर पूरी टीम के मोराल पर पड़ता है.
आपको कैप्टन कूल कहा जाता है? क्या कभी ग़ुस्सा नहीं आता? किस तरह से आप विपरीत परिस्थितियों में भी ख़ुद को शांत बनाए रखते हैं?
मेरा यह मानना है कि ग़ुस्सा हमेशा नुक़सान ही पहुंचाता है और ग़ुस्से के दुष्परिणाम भी हमें ही भुगतने पड़ते हैं. मेरी यही कोशिश रहती है कि मैं शांत रहूं, ग़ुस्सा न करूं, क्योंकि ग़ुस्से का असर मेरी और मेरी टीम की सोचने-समझने की क्षमता पर नकारात्मक रूप में पड़ सकता है. बेहतर यही है कि शांत दिमाग़ से परिस्थितियों का आंकलन किया जाए. ऐसे में यदि आप गेम में पीछे भी होते हैं, तो भी आपके जीतने की पूरी संभावना बनी रहती है. आप अपनी ग़लतियों से सीखते हैं और सही निर्णय लेकर परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर सकते हैं.
यंग जनरेशन को क्या कहना चाहेंगे?
यंगस्टर्स को मैं यही कहूंगा कि आज की तारीख़ में कबड्डी में काफ़ी संभावनाएं हैं. भविष्य अच्छा है, इसलिए मेहनत करें. जमकर प्रैक्टिस करें.
अपनी फिटनेस का ख़्याल किस तरह से रखते हैं?
जहां तक डायट का सवाल है, तो ऑयली और फैटी फूड अवॉइड करता हूं, क्योंकि डायट से ही हमारी फिटनेस बनी रहती है. साथ ही जमकर प्रैक्टिस करता हूं. 5-6 घंटे की प्रैक्टिस से स्टेमिना भी बेहतर होता है और बॉडी भी फिट रहती है.
भविष्य का अनूप कुमार बनने की क्षमता किस प्लेयर में देखते हैं आप?
भविष्य का अनूप कुमार मेरे हिसाब से तो सभी में संभावनाएं हैं. किसी एक का नाम लेना तो ठीक नहीं, क्योंकि सभी अनूप कुमार ही क्यों, मुझसे बेहतर भी बन सकते हैं.
ओलिंपिक्स में कबड्डी को लेकर क्या सपना है?
ओलिंपिक्स में कबड्डी को ज़रूर जाना चाहिए. यह सपना हम सभी का है, ताकि एक और मेडल देश को मिल सके. भविष्य में ज़रूर ऐसा होगा.
क्या कभी ऐसा महसूस होता है कि कबड्डी को उतनी सुविधाएं और पहचान नहीं मिली, जितनी अन्य खेलों को?
जी नहीं, बिल्कुल भी नहीं. फेसिलिटीज़ बहुत अच्छी मिलती हैं. किसी भी तरह की कोई शिकायत नहीं. हमारे ट्रैवलिंग से लेकर, रहने और खाने-पीने तक के सारे इंतज़ाम काफ़ी अच्छे हैं. एक समय था, जब लोग हमें उतना नहीं पहचानते थे, लेकिन लीग के आने के बाद मीडिया भी कबड्डी को लेकर काफ़ी संजीदा हुआ है और अच्छा कवरेज मिलता है. लोग हमें बेहद प्यार करते हैं. यह देखकर भला क्यों किसी से शिकायत होगी?
आप लोग कई विदेशी खिलाड़ियों के साथ व उनके विरुद्ध भी खेलते आए हैं, उनकी फिटनेस व टेक्नीक को लेकर क्या महसूस करते हैं? क्या वो हमसे बेहतर हैं या हम उनसे बेहतर हैं?
विदेशी खिलाड़ियों के मुकाबले हमारी टेकनीक बेहतर है, लेकिन जहां तक फिटनेस का सवाल है, तो इसमें हम थोड़े पीछे इसलिए रह जाते हैं कि हमारा खान-पान थोड़ा अलग है. वो नॉन वेज खाते हैं, जबकि आज भी हमारे बहुत-से प्लेयर्स नॉन वेज नहीं खाते. तो यही वजह है, अगर हम भी अपने डायट प्लान में कुछ तब्दीली लाएं, तो फिटनेस में भी हम पीछे नहीं रहेंगे.
कबड्डी के भविष्य व कबड्डी प्लेयर बनने का सपना देखनेवालों को कुछ कहना चाहेंगे? कुछ ख़ास टिप्स?
भविष्य के लिए यह ज़रूर चाहूंगा कि हर राज्य में हर शहर में विंग्स खोलनी चाहिए, जहां बच्चों को कबड्डी के लिए ट्रेनिंग दी जा सके. वहां उनकी ट्रेनिंग, डायट, फिटनेस और टेक्नीक पर बचपन से ही काम किया जा सकेगा, जिससे 20-22 की उम्र तक वो काफ़ी बेहतरीन खिलाड़ी बनकर देश का प्रतिनिधित्व कर सकेंगे. आख़िर कबड्डी का भविष्य तो यही बच्चे हैं, तो उन पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए.
फ्री टाइम में क्या करना पसंद करते हैं?
फ्री टाइम में मैं अपनी फैमिली के साथ रहना पसंद करता हूं. फैमिली ही मेरा मॉरल सपोर्ट है, तो जब भी व़क्त मिलता है, उनके साथ क्वालिटी टाइम स्पेंड करता हूं.
वर्ल्ड कप के लिए आपको और टीम इंडिया को ऑल द बेस्ट!
थैंक्यू सो मच!
– गीता शर्मा