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Kavay
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श्रम-निष्ठा जो हो सच्ची, माँ मेरे द्वारे तुम आना,
आत्मा को तृप्त करें, वरदान मुझे वो दे जाना।
युक्ति की कमी बहुत, महसूस मुझको होती है,
बुद्धि में बनके विवेक, माँ गायत्री तुम बस जाना।
वाक्-चातुर्य नहीं है बिल्कुल, माँ तेरी इस बेटी में,
बन के ये कला मुझमें, माँ सावित्री तुम बस जाना।
जाने कितनी बातों से, तेरी बेटी डर जाती है,
मन में निर्भयता बनकर, माँ शक्ति तुम बस जाना।
ढाल नहीं पाती शब्दों में, निज व्यथाएं तेरी बेटी,
लेखनी को माँ सरस्वती, ये सामर्थ्य दिला जाना।
हार कभी न माने मन, जगत के रक्तबीजों से,
मेरी आत्मा में दुर्गा माँ, तुम अपना आवास बनाना।
– भावना प्रकाश
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Photo Courtesy: Freepik

चाय में घुली
चीनी सी मीठी बातें
बिस्कुट सी कुरकुरी
आ जाती हैं होंठों पर
तैरती रहती हैं कमरे में
कभी खिड़की से झांकती
धूप को देखती
सरियों पर बैठकर
तितलियों संग मुस्काती…
कभी पलंग पर लेट अलसाती
तकिए के गिलाफ़ को देख शरमाती
कही-अनकही मन की बातें
उठती हैं चाय के प्याले से
गर्म भाप की उष्मीय
आत्मीयता के साथ…
एक-दूसरे की आंखों में झांकती
कुछ मीठी सी शिकायतें
कुछ प्यारे उलाहने
और ढ़ेर सारा अपनापन
एक साथ का आश्वासन
एक प्याला चाय में…
अपनी कहना
कुछ तुम्हारी सुनना
नई बातें, कुछ पुरानी यादें
थोड़ा सा प्रेम हवा में
कुछ प्रीत भरी मन में
सुबह का नारंगी उजाला
सांझ का सुरमई झुटपुटा…
आज बांटते हैं आपस में
मुस्कुराहटें
कुछ खिलखिलाना
प्रेम की ताज़गीभरी मिठास
भीतर उतारते हैं
कड़वाहट को
चायपत्ती की तरह
प्याले में ही छोड़ देते हैं
आओ न प्रिय साथ बैठकर
एक-एक प्याला
गर्म चाय पीते हैं…
– डॉ. विनीता राहुरीकर
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Photo Courtesy: Freepik
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मैं लंबा हो रहा था
वो ठिगनी ही रह गई
मैं ज़हीन बन रहा था
वो झल्ली ही रह गई
मैं आगे बढ़ रहा था
वो पीछे ही छूट गई
मैं किताबों और डिग्रियों के पीछे भागा
वो व्रतों और मंदिरों के पीछे भागी
मैं खाने से बचने लगा
वो दवाइयों से बचने लगी
मैं घर देर से आने लगा
वो देर तक जागती रही
मैं दुनियादारी और राजनीति में लगा रहा
वो पूजापाठ और तीमारदारी में लगी रही
मैं भागने लगा था उसके आंचल की छांव से
वो मेरी छाया की भी बलैयां लेती रही
मैं ग़लतियां करता रहा
वो जवाबदेही लेते रही
मैं काजल का टीका लगाने नहीं देता
वो दुआओं से नज़र उतार देती
मैं कसमसाने लगा उसकी छोटी सी चारदीवारी में
वो गोद में ब्रह्माण्ड बसाए बैठी रही
मैं आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंच गया
वो बेसन के हलवे में उलझी रही
मैं उसकी हथेलियों के धागों से उधड़ रहा था
वो फिर भी ममता की सिलाई किए गई
मैं बेटे से पति-पिता बन चुका था
पर वो हमेशा मां ही बनी रही…
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Photo Courtesy: Freepik

तुमने मुझे लिखा
मैंने तुमको
आपस में कविताएं बदलकर भी
हम स्वयं को पढ़ सकते हैं
अधूरे तुम भी रहे
पूरा मैं भी कहां हो सकी
सजा करके अपने-अपने अधूरेपन
हम पूर्ण हो सकते हैं
तुमने स्वीकारा चुप रहना
मैंने कुछ भी न बोलना
अपने मौन कवच में भी
हम बहुत कुछ कह सकते हैं
तुम्हारी अपनी व्यस्तताएं
मेरी अपनी रही
यूं उलझे हुए से हम
एक-दूसरे को सुलझा सकते हैं
कहीं तुम उदास दिखे
मैं भी थोड़ी अनमनी
हज़ारों तरीक़े हैं
अपनी-अपनी शिकायतें बांट सकते हैं
तुम्हारी अपनी सीमाएं
मेरे भी कुछ दायरे
अपने-अपने वृत्तों में हम
कोई नया सिरा खोज सकते हैं
तुमने अपनी तरह सोचा
मैंने अपनी तरह
कल्पनाओं का एक नया क्षितिज गढ़कर
हम दोनों वहां मिल सकते हैं
हां माना, क्षितिज एक भ्रम है
तो भ्रम ही सही
अपने-अपने क्षितिज में हम
धरती-आसमान बन सकते हैं
इतना तो कर ही सकते हैं
हैं न!!
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कभी तेरा-कभी मेरा, मैं दिल का हाल लिखती हूं
कहूं कैसे कि बहाने से, मैं मन बेहाल लिखती हूं
गढ़ती हूं मैं कविताएं, कभी एहसास लिखती हूं
लिखती ही नहीं केवल, होने की बात लिखती हूं
बिखर जाती हूं रिसकर मैं, घुटन की बात लिखती हूं
संभल जाती हूं वहीं, लेकिन मैं स्व-सम्मान लिखती हूं
विरह की शाम लिखती हूं, हां मैं श्रृंगार लिखती हूं
नहीं कह पाती जब कुछ भी, वो जज़्बात लिखती हूं
मैं पछतावे लिखती हूं, मन के हालात लिखती हूं
ठहर जाती हूं एक पल को, जब वो नाम लिखती हूं
लिखती हूं शिकायत भी, मैं तेरा साथ लिखती हूं
मिलन की बात करती हूं, पर इंतज़ार लिखती हूं
अजब हालात हैं यारों, न जानें क्या-क्या लिखती हूं
लिखा है उसको ही मैंने, जब अपना नाम लिखती हूं
ज़ुबां अब तक नहीं बोली, मैं वो इतिहास लिखती हूं
कभी धूप तो कभी छांव, मैं सब त्योहार लिखती हूं
हवाओं का मैं ज़िक्र लिखूं, पेड़ों की बात लिखती हूं
मैं सूरज की कहानी में, बारिश का गान लिखती हूं
कविता में ढलती हूं, कभी सूरजमुखी सी खिलती हूं
मैं अपने हर अनकहे चुप के, नये आकार लिखती हूं…
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काग़जी फूलों की हैं यह बस्तियां
ढूंढ़ते फिरते हैं बच्चे तितलियां
और बढ़ती जा रही हैं लौ मेरी
तेज़ जितनी हो रही है आंधिया
अब भी लहरों में हैं देखो तैरती
याद के सागर में कितनी मछलियां?
आस्मां से काले बादल छट गए
घोंसले फूकेंगी कैसे बिजलियां?
यह मिली हम को निशानी प्यार में
फासले और सिसकती मजबूरियां
रोशनी को आज़माने के लिए
फिर पतंगों ने मिटा ली हस्तियां
चांद तक तुम को ले जा सकती नहीं
कश्तियां यह चांदनी की कश्तियां
कल्पना हो या हक़ीक़त हो मगर
दूरियां होती हैं फिर भी दूरियां
इक दुआ बनती गई मेरे लिए
जब भी गैरों ने उड़ाई फब्तियां
बिछुड़ते लम्हों में जो तुम ने भरी
याद हैं अब भी मुझे वो सुबकियां
रात काली है तो ‘बालम’ क्या हुआ?
इसके आंचल में सुबह की पंक्तियां
– बलविन्दर ‘बालम’
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अब भी आती होगी गौरैया
चोंच में तिनके दबाए
बरामदे की जाली से अंदर
तार पर सूख रहे कपड़ों पर बैठ
ढूंढ़ती होगी जगह
घोंसला बनाने के लिए
कमरे के टांड़ पर
बिजली के बोर्ड के पीछे…
अब भी पिछले दरवाज़े पर
आ खड़ी होती होगी
गैया अपने बछड़े के साथ
एक रोटी की आस में
या पीने को पानी चाहती
खा लेती होगी ख़ुशी से
निचली सीढ़ी पर रखे
रात के बचे चावल या खिचड़ी…
कोई कुत्ता भी
घरों के पिछवाड़े पड़े
कूड़े के ढेरों में ढूंढ़ता फिरता होगा
रोटी का टुकड़ा
कौआ बैठा रहता होगा
गैया को तकते पेड़ की ऊंची डाल से
चावल के दाने जो छूट जाते गैया से
आकर उन्हें चुग जाता…
आती होंगी बकरियां, भैंसे
नालियों से बहते पानी की नमी में
उगी थोड़ी सी हरी घास
और जंगली पेड़ों की पत्तियां चरने
अब भी घरों के आसपास
उगती रहती होंगी
अनगिनत तरह की झाड़ियां
और जंगली पौधे अपने
प्राकृतिक आकर में
बिना किसी रोकटोक के
चलती रहती होंगी जीवन की
सभी गतिविधियां अपने
स्वाभाविक रूप में…
मॉडर्न कॉलोनी की
जालीदार खिड़की से
देख रही हूं मैं पुराने मुहल्ले की
उस खुली खिड़की से झांकती
अपनी सी दुनिया को…
विनीता राहुरीकर
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सुनो आज मुझे
मुझे बेहद ख़ूबसूरत शब्द देना
जैसे
गुलाब चेहरे के लिए
झील आंखों के लिए
हंस के पंख गालों के लिए
और होंठों के लिए
अंगूर या अनार
नैतिकता के बंधन न हों तो
आम, नींबू, स्ट्रॉबेरी
और रेड वाइन भी मांग लूं
आज मैं
तुम्हारे शरीर पर
कविता लिखने चला हूं…
– शिखर प्रयाग
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बातों में बेखटकी है
हंसने में बेफ़िक्री है
पंख फैलना आता है
हवा से हाथ मिलना भाता है
पंछी की तरह ख़ुद में
साहस भरने वाली स्त्रियां
उड़ने वाली स्त्रियां…
तर्क-वितर्क की बात करती
पूरी तरह अपडेट ये रहती
रुचियों को विस्तार देतीं
लिखने-पढ़ने वाली स्त्रियां
उड़ने वाली स्त्रियाँ…
सास-बहू से उठकर ऊपर
आसमान के तारे छूकर
बड़ी-बड़ी मिसाइल बनाकर
कई दफ़ा ये चांद पे जाकर
इतिहास गढ़ने वाली स्त्रियां
उड़ने वाली स्त्रियां…
न द्वारे पे जमघट लगाती
न सहारे को किसी को बुलाती
स्त्री की स्त्री अब बनी सहेली
कहीं खो गई
अब लड़ने वाली स्त्रियां
उड़ने वाली स्त्रियां…
– पूर्ति वैभव खरे
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सुबह होते ही
बंट जाता हूं
ढेर सारे हिस्सों में
नैतिकता का हिस्सा
सर्वाधिक तंग करता है मुझे
जो मेरी सोच पर
सबसे बड़े बंधन सा उभरता है,
जो पूरे जीवन को
सदियों से चले आ रहे
सेट पैटर्न पर चलने को बाध्य करता है
मुझे लगता है
ऐसा करते हुए
मैं हिप्पोक्रेट हो जाऊंगा
मुझसे पूर्ववर्ती लोग
ऐसे हुए कि नहीं कह नहीं सकता
मेरा चिंतन
जीवन के इस मोड़ पर
कुछ मांगता ही नहीं
नाम शोहरत दौलत सुख शांति
कुछ भी नहीं
सिर्फ़ तुम्हें मांगना नहीं छोड़ पाता
जो मुझे
ढेर सारे हिस्सों में बांट देता है
एक तरफ़ तुम्हें मांगता मैं
और दूसरी तरफ़
सब कुछ की मांग छोड़ चुकी ज़िंदगी
यही तो हिप्पोक्रेसी है
तुम्हें मांगते ही
तमन्ना की सीरीज़ पैदा होती है जो
एक एक कर उम्र की दहलीज़ पर
लांघ चुके लम्हों की मांग करती है
और मैं नैतिक बनाम अनैतिक हो जाने के
बंटवारे में उलझ जाता हूं
नैतिक होते ही
जीवन समाप्ति की ओर बढ़ जाता है
जबकि वैचारिक अनैतिकता
मुझे उम्र की दहलीज़ पर
पीछे ले जाती है और मैं
एक बार फिर नई ज़िंदगी जी उठता हूं
‘हिप्पोक्रेसी’
स्वीकार कर लूं
या सत्य स्वीकार कर
उम्र बढ़ा लूं
मैं सुबह होते ही
बंट जाता हूं
ढेर सारे हिस्सों में
मैं ताउम्र सत्य के साथ जीता रहा हूं
अब हिप्पोक्रेट नहीं होना चाहता
इसलिए बंट जाता हूं
सुबह होते ही
ढेर सारे हिस्सों में…
– मुरली
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श्रद्धा के सुमनों से सजी, पूजा की थाली मुबारक
धनतेरस और दूज सहित, सबको दिवाली मुबारक
खट्टी-मीठी बहस के बीच, चुटकुलों पर ताली मुबारक
धनतेरस और
स्नेह के मधुरिम रंगों से, जब रंगोली मस्त बना लें हम
नोंकझोंक की किरकिरी भी, चटकन समझ सजा दें हम
उससे आभा बढ़ जाएगी, उस आभा की लाली मुबारक
धनतेरस और दूज सहित, सबको दीवाली मुबारक
उत्साह की मधु सामग्री से, पकवान कई बना लें हम
अनबन की मिर्ची को भी, तड़का समझ लगा दें हम
स्वाद कहीं बढ़ ही जाएगा, तारीफ़ों की ताली मुबारक
धनतेरस औ दूज सहित, सबको दिवाली मुबारक
प्यार के उज्ज्वल दीपों की, जब पंक्तियां लगा लें हम
तकरार को भी कंदील समझ, यहां-वहां सजा दें हम
फूलों कांटों से सजी हुई, जीवन की डाली मुबारक
धनतेरस और दूज सहित, सबको दीवाली मुबारक
– भावना प्रकाश
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सुबहों को व्यस्त ही रखा, दुपहरियां थकी-थकी सी रही
कुछ जो न कह सकी, इन उदास शामों से क्या कहूं..
चुन-चुनकर रख लिए थे जब, कुछ पल सहेज कर
वो जो ख़र्चे ही नहीं कभी, उन हिसाबों का क्या कहूं..
न तुमने कुछ कहा कभी, मैं भी चुप-चुप सी ही रही
हर बार अव्यक्त जो रहा, उन एहसासों का क्या कहूं..
यूं तो गुज़र ही रहे थे हम-तुम, बगैर ही कुछ कहे-सुने
अब कि जब मिलें, छूटे हुए उन जज़्बातों से क्या कहूं..
हां है कोई चांद का दीवाना, कोई पूजा करे सूरज की
वो जो भटकते फिर रहे, मैं उन टूटे तारों से क्या कहूं..
न ख़त का ही इंतज़ार था, और न किसी फूल का
सिर्फ़ लिखी एक कविता, खाली लिफ़ाफ़ों से क्या कहूं…
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