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Kavitayen
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दिवाली की झालरें…
..टिम-टिम करती
रंग-बिरंगी झिलमिलाती हुईं झालरें
बतियाती रही रातभर
दो सहेलियों की तरह
कभी हंसतीं-खिलखिलाती..
कभी चुप-चुप
पोंछती आंसुओं को
एक-दूसरे के
दर्द.. कुछ क़िस्से..
कुछ तेरे.. कुछ मेरे..
शोर पटखों का भी अवाक् रहा..
“सहेलियां हमेशा बहुत बातूनी ही होतीं हैं”..
समझ से परे रही यह बात उनके लिए
अब तक…
2
मैंने रोशनी सा झिलमिलाने की बात की…
जब-जब भी दिखा गाढ़ा अंधेरा कहीं
मैैंने रोशनी सा झिलमिलाने बात की..
यहां जब भी चलन था आगे बढ़ने का
मैंने बीते पलों को संजोने की बात की..
आता है तुम्हें दुनिया को जीने का हुनर
पर मैंने ख़ुद को जिए जाने की बात की..
जहां उलझनों में उलझना ही सबब था
मैंने आभावों में भी उड़ने की बात की..
तुम तो खो ही गए थे इस सफ़र में कहीं
मैंने अंत तक तुमको तलाशने की बात की..
जहां शोर था मिलने और बिछड़ने का ही
मैंने मौन में ही अपने मिलने की बात की..
चाहे कोई जवाब आए या न आए तुम्हारा
फिर भी रोज़ ख़त लिखने की बात की..
और..
जीते रहे समझौतों को सौग़ात समझकर
मैंने बिना शर्त प्रेम किए जाने की बात की…
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झूठ-मूठ खांसा क्या बहू ने बन गए झटपट काम
पलंग छोड़ सासू भागी, उनका जीना हुआ हराम
जीना हुआ हराम सोचें, ‘क्यूं बाई की छुट्टी कर दी’
मन मसोस के बोलीं, ‘बहू तुमने तो हद ही कर दी’
जा कर करो आराम कमरे के बाहर मत आना
ख़बरदार जो आ पास मेरे अब पांव-हाथ दबाना
धो-धोकर हाथ थक गई, सासूजी कर कर काम
लाख समझाया फिर भी दूर से उसे किया सलाम…
लेटे लेटे देख रहा था टीवी, त्राहि त्राहि करोना करोना
थमा दिया बीवी ने झाड़ू प्रियतम कुछ तुम भी करो ना प्यारी वोडका से ऐसे डिस्पेंन्सर भर डाले, कुछ पूछो ना
छिला कलेजा उससे हाथों को सबका रह रह के धोना…
कोई कुछ करने नहीं देता कहता
घर में रहो ना
फिर भी ये शब्द हर ज़ुबां पे गूंजा
करोना… करोना…
कोरोना- एक अलग पहलू यह भी…
क्यों है कोरोना को रोना
कोरोना कोरोना, क्या रोना,
सब जो ठाने वो ही होना,
बस 3 एहतियात बरतना,
बाहर ज़रूरी तो ही जाना.
वरना घर का पकड़ो कोना
सबसे 3 फ़ीट दूर रहो ना,
इसी दूरी से बात करो ना.
हर 20 मिनट,20 सेकेंड,
तुम अपने हाथों को धोना.
शेष हुई प्रकृति की मर्ज़ी
उससे खिलवाड़ करो ना
अब धर्मों का छोड़ो रोना
तुम केवल इंसान बनो ना…
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