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Najam
Home » Najam

किसी रिश्ते में
वादे और स्वीकारोक्ति
ज़रूरी तो नहीं
कई बार बिना आई लव यू
कहे भी तो प्यार होता है
और न जाने
कितने वादे और
आई लव यू
कहे रिश्ते
उम्र पूरी नहीं कर पाते
इसलिए मुझे
आई लव यू
कहना बेमानी लगता है
और मैं
प्यार को
सिर्फ़ एहसास में जीता हूं
किसी के कहे-अनकहे
शब्द में नहीं
वो एहसास
शब्द से कहीं अधिक क़ीमती होते हैं
जो बिना बोले
समझ लिए जाते हैं…
– शिखर प्रयाग
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सुबहों को व्यस्त ही रखा, दुपहरियां थकी-थकी सी रही
कुछ जो न कह सकी, इन उदास शामों से क्या कहूं..
चुन-चुनकर रख लिए थे जब, कुछ पल सहेज कर
वो जो ख़र्चे ही नहीं कभी, उन हिसाबों का क्या कहूं..
न तुमने कुछ कहा कभी, मैं भी चुप-चुप सी ही रही
हर बार अव्यक्त जो रहा, उन एहसासों का क्या कहूं..
यूं तो गुज़र ही रहे थे हम-तुम, बगैर ही कुछ कहे-सुने
अब कि जब मिलें, छूटे हुए उन जज़्बातों से क्या कहूं..
हां है कोई चांद का दीवाना, कोई पूजा करे सूरज की
वो जो भटकते फिर रहे, मैं उन टूटे तारों से क्या कहूं..
न ख़त का ही इंतज़ार था, और न किसी फूल का
सिर्फ़ लिखी एक कविता, खाली लिफ़ाफ़ों से क्या कहूं…
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मुहब्बत इस जहां के जर्रे जर्रे में समाई है
मुहब्बत संत सूफी पीर पैगम्बर से आई है
कोई ताकत मिटा पाई नहीं जड़ से मुहब्बत को
मुहब्बत देवताओं से अमर वरदान लाई है
मुहब्बत बहन की राखी है भाई की कलाई है
मुहब्बत बाप के आंगन से बेटी की विदाई है
मुहब्बत आमिना मरियम यशोदा की दुहाई है
मुहब्बत बाइबिल गीता और कुरान से आई है
मुहब्बत दो दिलों की दूरियों में भी समाई है
ये नफ़रत के मरीज़ों की बड़ी बेहतर शिफ़ाई है
मुहब्बत टूटते रिश्तों के जुड़ने की इकाई है
मुहब्बत मीरा की भक्ति है ग़ालिब की रूबाई है
मुहब्बत झील की गहराई पर्वत की ऊंचाई है
मुहब्बत इश्क ए दरिया का समंदर में मिलाई है
मुहब्बत आसमां में कहकशां बन कर के छाई है
मुहब्बत ढूंढ़ कर धरती पे हर जन्नत को लाई है…
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अलग फ़लसफ़े हैं हमेशा ही तेरे, सुन ऐ ज़िंदगी
बटोरकर डिग्रियां भी यूं लगे कि कुछ पढ़ा ही नहीं
ये पता कि सफ़र है ये, कुछ तो छूटना ही था कहीं
पर वही क्यों छूटा, अब तक जो मिला ही नहीं
ये बात और है कि समझा ही लेंगे, ख़ुद को कैसे भी
मैं उसकी राह भी तकूं कैसे, जिसको आना ही नहीं
अक्सर गुज़र जाती है ज़िंदगी, रास्ते तय करने में ही
वो जो मिले हैं पहली दफा, लगे आख़िरी भी नहीं
दोस्तों, कशमकश का दौर ये बहुत लंबा है शायद
हक़ जताऊं कैसे, न वो पराया है, पर हमारा भी नहीं…
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कहानी अपना लेखक ख़ुद खोज लेती है
जब उतरना होता है उस भागीरथी को पन्नों पर
सुनानी होती है आपबीती इस जग को
तो खोज में निकलती है अपने भागीरथ के
और सौंप देती है स्वयं को एक सुपात्र को
लेखक इतराता है, वाह मैंने क्या सोचा! क्या लिखा! कमाल हूं मैं!
कहानी को गौण कर, मद से भरा वो मन पहाड़ चढ़ता है श्रेय के
और दूर खड़ी कहानी हंसती है एक मां की तरह, उसके भोलेपन पर
भूल जाता है वो तो निमित मात्र था, कहानी की दया का पात्र था…
कहानी कृतज्ञता की अपेक्षा किए बिना लेखक का भोला मन बहलाती है
और उसे भ्रमित छोड़.. पन्नों पर, किताबों में, ध्वनियों पर आरूढ़ हो इतराती है…
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तुम और मैं
मिले तो मुझे अच्छा लगा
गुज़रे वक़्त की कसक कुछ कम हुई
परंतु मन के डर ने कहा
तुम दूर ही अच्छे हो..
जानती हूं मैं
तुम्हारे आने से होंठो पर मुस्कान आई
और मन में उमंग भी छाई
फिर भी कहती हूं
तुम दूर ही अच्छे हो..
देखने लगी मैं
भविष्य के लिए सुनहरे सपने
सजने लगे आंखों में नई उम्मीदें
फिर भी यह लगा
तुम दूर ही अच्छे हो..
समझ गई मैं
तुम क्षणिक जीवन में विश्वास करते हो
परंतु मैंने शाश्वत जीवन की कल्पना की थी
इसलिए मैंने कहा
तुम दूर ही अच्छे हो..
जान गई मैं
हमसफ़र ना हुए तो क्या हुआ
ख़ूबसूरत और मीठी याद तो हो
पास होकर भी
तुम दूर ही अच्छे हो…
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नेत्र कहूं नयन कहूं या कहूं मैं चक्षु
आंखों की भाषा सिर्फ़ नहीं है अश्रु
जीवन का दर्पण है आंखें
भक्ति का अर्पण है आंखें
प्रेम की अभिव्यक्ति आंखें
तो कभी विरह का क्रन्दन बन जाती आंखें
जो अधरों से ना फूटे वो बोल है आंखें
प्रियतम की प्रीत का हसीन एहसास करती आंखें
कभी प्रेम तो कभी समर्पण आंखें
तो कभी नशे से मदहोश हो झूमती आंखें
ग़म को अश्रुओं में बहाती आंखें
तो कभी उसी ग़म को हंसी में छिपाती आंखें
दिल के दरवाज़ों में बंद राज़ को बेपरदा करती आंखें
तो कभी हर राज़ को दफ़न करती आंखें
चाहे जितना छिपाओ मन के भावों को पर
हर भाव की अभिव्यक्ति बन जाती ये आंखें
रात को ख़्वाब सजाती
दिन में हक़ीक़त से रूबरू करवाती ये आंखें
ख़ुशक़िस्मत है वो जिन पर आंखों की नेमत है
है अगर दो आंखें तो ज़िंदगी का हर लम्हा रोशन है…
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वस्त्रहरण
दौपदी का, हुआ था युगों पहले
धृतराष्ट्र के
द्यूत क्रीड़ागृह में
युगों के प्रवाह में नष्ट नहीं हुआ वो
द्यूत क्रीड़ागृह
अपितु इतना फैला
इतना फैला कि आज समूचा देश ही
बन गया है
द्यूत क्रीड़ागृह
दाँव पर लगती है
हर मासूम लड़की की ज़िंदगी
जिसने किया है गुनाह
सपने देखने का
किया है गुनाह
युगों के संवेदनहीन अंधत्व पर हंसने
और
अपनी शर्तों के साथ आत्मनिर्भर जीवन जीने का
युगों पहले कहा था
भीष्म ने सिर झुकाकर अग्निसुता से
धर्म की गति अति सूक्ष्म होती है पुत्री
नहीं है प्रावधान
धर्म में
रोकने का दुःशासन के हाथ
और मैं हूँ बंधा धर्म के साथ
विवश हूँ, क्षमा करो
और आज फिर वही
अनर्गल, नपुंसक विवशता
क़ानून की
मैं विवश हूँ, बंधा हूँ क़ानून के साथ
नहीं रोक सकता किसी नाबालिग के हाथ
पिंजरे में हैं मेरे अधिकार
और
वो है स्वतंत्र करने को, नृशंसता के सभी हदें पार
अभिभावकों, मंच पर आओ
‘ओ री चिरैया’ के गीत गाओ,
और दो आँसू बहाकर
घर जाकर
अपने आँगन की चिरैया के पर कतरकर
कर दो उसे पिंजरे में बंद
क्योंकि हम हैं विवश
अपराधियों को सड़कों पर
विचरने देने को स्वच्छंद
तो क्या
इक क्रांति युग में लाने की
सैलाब दिलों में उठाने की
अथक यात्रा ख़त्म हुई?
टूटी सारी आशाएँ?
मिट गए सभी भ्रम?
नहीं, नहीं, हम अग्निसुता, हम भैरवी
हम रणचंडी, हम माँ काली
हम इतने कमज़ोर नहीं
अभी नहीं मिटा है एक हमारा
उस परमशक्ति पर दृढ़ विश्वास
सह लेंगे हम उसी भरोसे
और कुछ वर्षों का वनवास
बाधा, विघ्नों में तप-तपकर
आत्मशक्ति को और प्रखरकर
पाएंगे हम पात्रता
हो उस महाशक्ति के हाथ हमारे रथ की डोर
फिर जोड़ेंगे महासमर
फिर होगा विप्लव गायन
देंगे फिर युग को झकझोर
शर शैया पर लेटेगा ही
इक दिन ये जर्जर क़ानून
मिटाने को अंधी संवेदनहीनता
जब होगा हर इक दिल में जुनून
लचर न्याय व्यवस्था को
जगत से जाना ही होगा
हम सबको संगठित तपस्या कर
नवयुग को लाना ही होगा…
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अब न कोई शक़-ओ-शुबा है, हर ढंग से तस्तीक़ हो गई
निराशाओं से लड़ने की, मेरी बीमारी ठीक हो गई
लहू नसों में कुछ करने का, धीरे-धीरे ठंड पा गया
ज़ख़्म अभी बाकी है पर, भरने का सा निशां आ गया
उठती-गिरती धड़कन भी, इक सीधी-सी लीक हो गई
निराशाओं से लड़ने की, मेरी बीमारी ठीक हो गई
अब न जुनूं कुछ करने का, बेचैन रूह को करता है
अब न दिल में ख़्वाबों का, दरिया बेदर्द बहता है
ख़्वाब फ़ासला पा गए और हक़ीक़तें नज़दीक़ हो गई
निराशाओं से लड़ने की, मेरी बीमारी ठीक हो गई…
शक-ओ-शुबा- संदेह
तस्तीक़- सत्यता प्रमाणित होना
लीक- लकीर
(इस ग़ज़ल का मतलब है कि अब ख़्वाबों को पूरा करने के लिए पागलपन की हद तक संघर्ष करते रहने की आदत ख़त्म हो रही है…)
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सांस, ख़ुशबू गुलाब की हो
धड़कन ख़्वाब हो जाए
उम्र तो ठहरी रहे
हसरत जवान हो जाए
बहार उतरे तो कैमरा लेकर
तेरी सूरत से प्यार ले जाए
जो नाचता है मोर सावन में
तेरी सीरत उधार ले जाए
लहर गुज़रे तेरे दर से तमन्ना बनकर
तेरे यौवन का भार ले जाए
आज मौसम में कुछ नमी उतरे
तेरी परछाईं बहार ले जाए
रात ख़ामोश हो गई क्यूं कर
अपना सन्नाटा चीर दे बोलो
तेरी आंखों से प्यार ले जाए
ऐ दोस्त ‘तेरी हस्ती’ लिखूं कैसे
फ़क्र हो अगर ‘तुझ पे’
मेरी हस्ती निसार हो जाए…
– शिखर प्रयाग
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मैं ख्वाब देखता था
तुम ख्वाब हो गए
उम्मीद के शहर में
तुम प्यास हो गए
उम्र मेरी एक दिन
लौट कर के आई
तुम आईने के लेकिन
एहसास हो गए…
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जब ज़िक्र फूलों का आया, याद तुम आए बहुत
चांद जब बदली से निकला, याद तुम आए बहुत
कुछ न पूछो किस तरह परदेस में जीते हैं हम
ख़त तो आया है किसी का, याद तुम आए बहुत
यार आए थे वतन से प्यार के क़िस्से लिए
दिल है धड़का बेतहाशा, याद तुम आए बहुत
मैं हूं कोसों दूर तुम से उड़ के आ सकता नहीं
जब भी चाहा है भुलाना, याद तुम आए बहुत
जब हवा पूरब से आ सरगोशियां करने लगी
दिल में एक तूफ़ां उठा था, याद तुम आए बहुत…
वेद प्रकाश पाहवा ‘कंवल’
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