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– अरे सुनो, वो जो पड़ोस की वर्माजी की बेटी है न, वो रोज़ देर रात को घर लौटती है, पता नहीं ऐसा कौन–सा काम करती है…?
– गुप्ताजी की बीवी को देखा, कितना बन–ठन के रहती हैं, जबकि अभी–अभी उनके जीजाजी का देहांत हुआ है…!
– सुनीता को देख आज बॉस के साथ मीटिंग है, तो नए कपड़े और ओवर मेकअप करके आई है…
इस तरह की बातें हमारे आसपास भी होती हैं और ये रोज़ की ही बात है. कभी जाने–अनजाने, तो कभी जानबूझकर, तो कभी टाइमपास और फन के नाम पर हम अक्सर दूसरों के बारे में अपनी राय बनाते–बिगाड़ते हैं और उनकी ज़िंदगी में ताकझांक भी करते हैं. यह धीरे–धीरे हमारी आदत और फिर हमारा स्वभाव बनता जाता है. कहीं आप भी तो उन लोगों में से नहीं, जो इस तरह का शौक़ रखते हैं?
क्यों करते हैं हम ताकझांक?
– ये इंसानी स्वभाव का हिस्सा है कि हम जिज्ञासावश लोगों के बारे में जानना चाहते हैं. ये जिज्ञासा जब हद से ज़्यादा बढ़ जाती है, तो वो बेवजह की ताकझांक में बदल जाती है.
– अक्सर अपनी कमज़ोरियां छिपाने के लिए हम दूसरों में कमियां निकालने लगते हैं. यह एक तरह से ख़ुद को भ्रमित करने जैसा होता है कि हम तो परफेक्ट हैं, हमारे बच्चे तो सबसे अनुशासित हैं, दूसरों में ही कमियां हैं.
– कभी–कभी हमारे पास इतना खाली समय होता है कि उसे काटने के लिए यही चीज़ सबसे सही लगती है कि देखें आसपास क्या चल रहा है.
– दूसरों के बारे में राय बनाना बहुत आसान लगता है, हम बिना सोचे–समझे उन्हें जज करने लगते हैं और फिर हमें यह काम मज़ेदार लगने लगता है.
– इंसानी स्वभाव में ईर्ष्या भी होती है. हम ईर्ष्यावश भी ऐसा करते हैं. किसी की ज़्यादा कामयाबी, काबिलीयत हमसे बर्दाश्त नहीं होती, तो हम उसकी ज़िंदगी में झांककर उसकी कमज़ोरियां ढूंढ़ने की कोशिश करने लगते हैं और अपनी राय बना लेते हैं.
– इससे एक तरह की संतुष्टि मिलती है कि हम कामयाब नहीं हो पाए, क्योंकि हम उसकी तरह ग़लत रास्ते पर नहीं चले, हम उसकी तरह देर रात तक घर से बाहर नहीं रहते, हम उसकी तरह सीनियर को रिझाते नहीं… आदि.
– कहीं न कहीं हमारी हीनभावना भी हमें इस तरह का व्यवहार करने को मजूबर करती है. हम ख़ुद को सामनेवाले से बेहतर व श्रेष्ठ बताने के चक्कर में ऐसा करने लगते हैं.
– हमारा पास्ट एक्सपीरियंस भी हमें यह सब सिखाता है. हम अपने परिवार में यही देखते आए होते हैं, कभी गॉसिप के नाम पर, कभी ताने देने के तौर पर, तो कभी सामनेवाले को नीचा दिखाने के लिए उसकी ज़िंदगी के राज़ या कोई भी ऐसी बात जानने की कोशिश करते हैं. यही सब हम भी सीखते हैं और आगे चलकर ऐसा ही व्यवहार करते हैं.
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कहां तक जायज़ है यूं दूसरों की ज़िंदगी में झांकना?
– इसे जायज़ तो नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन चूंकि यह इंसानी स्वभाव का हिस्सा है, तो इसे पूरी तरह से बंद भी नहीं किया जा सकता.
– किसी की ज़िंदगी में झांकने का अर्थ है आप उसकी प्राइवेसी में दख़लअंदाज़ी कर रहे हैं, जो कि बिल्कुल ग़लत है.
– न स़िर्फ ये ग़लत है, बल्कि क़ानूनन जुर्म भी है.
– हमें यह नहीं पता होता कि सामनेवाला किन परिस्थितियों में है, वो क्या और क्यों कर रहा है, हम महज़ अपने मज़े के लिए उसके सम्मान के साथ खिलवाड़ करने लगते हैं.
– ये शिष्टाचार के ख़िलाफ़ भी है और एक तरह से इंसानियत के ख़िलाफ़ भी कि हम बेवजह दूसरों की निजी ज़िंदगी में झांकें.
– जिस तरह हम यह मानते हैं कि हमारी ज़िंदगी पर हमारा हक़ है, किसी और को हमारे बारे में राय कायम करने या ग़लत तरह से प्रचार करने का अधिकार नहीं है, उसी तरह ये नियम हम पर भी तो लागू होते हैं.
– लेकिन अक्सर हम अपने अधिकार तो याद रखते हैं, पर अपनी सीमा, अपने कर्त्तव्य, अपनी मर्यादा भूल जाते हैं.
– यदि हमारे किसी भी कृत्य से किसी के मान–सम्मान, स्वतंत्रता या मर्यादा को ठेस पहुंचती है, तो वो जायज़ नहीं.
– किसने क्या कपड़े पहने हैं, कौन कितनी देर रात घर लौटता है या किसके घर में किसका आना–जाना लगा रहता है– इन तमाम बातों से हमें किसी के चरित्र निर्माण का हक़ नहीं मिल जाता है.
– हम जब संस्कारों की बात करते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने ही संस्कार देखने चाहिए. क्या वो हमें यह इजाज़त देते हैं कि दूसरों की ज़िंदगी में इतनी
ताका–झांकी करें?
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कैसे सुधारें ये ग़लत आदत?
– किसी के बारे में फ़ौरन राय न कायम कर लें और न ही उसका प्रचार–प्रसार आस–पड़ोस में करें.
– बेहतर होगा यदि इतना ही शौक़ है दूसरों के बारे में जानने का, तो पहले सही बात का पता लगाएं.
– ख़ुद को उस व्यक्ति की जगह रखकर देखें.
– उसकी परवरिश से लेकर उसकी परिस्थितियां व हालात समझने का प्रयास करें.
– दूसरों के प्रति उतने ही संवेदनशील बनें, जितने अपने प्रति रहते हैं.
– अपनी ईर्ष्या व हीनभावना से ऊपर उठकर लोगों को देखें.
– यह न भूलें कि हमारे बारे में भी लोग इसी तरह से राय कायम कर सकते हैं. हमें कैसा लगेगा, यदि कोई हमारी ज़िंदगी में इतनी ताकझांक करे?
– सच तो यह है कि वर्माजी की बेटी मीडिया में काम करती है, उसकी लेट नाइट शिफ्ट होती है, इसीलिए देर से आती है.
– गुप्ताजी की बीवी सज–संवरकर इसलिए रहती है कि उसकी बहन ने ही कहा था कि उसके जीजाजी बेहद ज़िंदादिल और ख़ुशमिज़ाज इंसान थे और वो नहीं चाहते थे कि उनके जाने के बाद कोई भी दुखी होकर उनकी याद में आंसू बहाये, बल्कि सब हंसी–ख़ुशी उन्हें याद करें. इसलिए सबने यह निर्णय लिया कि सभी उनकी इच्छा का सम्मान करेंगे.
– सुनीता का सच यह था कि आज उसकी शादी की सालगिरह भी है, इसलिए वो नए कपड़े और मेकअप में नज़र आ रही है.
…ये मात्र चंद उदाहरण हैं, लेकिन इन्हीं में कहीं न कहीं हम सबकी सच्चाई छिपी है. बेहतर होगा हम बेहतर व सुलझे हुए इंसान बनें, क्योंकि आख़िर हमसे ही तो परिवार, परिवार से समाज, समाज से देश और देश से दुनिया बनती है. जैसी हमारी सोच होगी, वैसी ही हमारी दुनिया भी होगी. अपनी दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सोच को भी बेहतर बनाना होगा.
– विजयलक्ष्मी
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‘उम्मीद पर दुनिया क़ायम है’ इस जुमले से परे एक सच्चाई ये भी है कि दूसरों से की गई ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदें सामने वाले के साथ ही हमारे लिए भी दुखदायी होती हैं. कई बार इन उम्मीदों का बोझ इतना बढ़ जाता है कि उस बोझ तले हमारे कई रिश्ते दबकर दम तोड़ देते हैं, इसलिए दूसरों से उम्मीदें बांधने से अच्छा है कि आप ख़ुद से उम्मीद करें.
वर्तमान में तलाशें ख़ुशी
आज मैं बेटे की देखभाल करूंगा तभी तो वो बुढ़ापे में मेरा सहारा बनेगा… इस तरह की उम्मीद करना बहुत आम है, मगर आप यदि जीवन में ख़ुशी चाहते हैं, तो दूसरों से उम्मीदें रखना छोड़ दीजिए. अपनी क्षमताओं के बल पर ज़िंदगी जीना सीखिए. जब हम बिना किसी उम्मीद के निःस्वार्थ होकर अपना काम और ज़िम्मेदारियां निभाते रहेंगे, तो हमें किसी तरह का दुख भी नहीं होगा. आज मैं इसकी मदद कर रहा हूं ताकि आगे ये भी मेरी मदद करे, इस सोच के साथ यदि आप सामने वाले की मदद कर रहे हैं, तो भविष्य में जब वो आपसे मुंह फेर लेगा या ज़रूरत के व़क्त साथ नहीं देगा, तो आपके दिल को ठेस पहुंचेगी, लेकिन आप बिना कोई उम्मीद लगाए किसी की मदद स़िर्फ इसलिए कर रहे हैं कि आप ऐसा करने में सक्षम हैं, तो उस व्यक्ति द्वारा नकारे जाने पर भी आपको कोई दुख नहीं होगा. अपने बच्चों की परवरिश में हर पैरेंट्स को ख़ुशी मिलती है, तो आप उस व़क्त मिलने वाली ख़ुशियों का आनंद लें, वो भविष्य में आपके लिए कुछ करेगा इसकी उम्मीद करने की क्या ज़रूरत है?
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दूसरों से उम्मीदें दुख देती हैं
आज मैंने किसी काम को अच्छी तरह किया है, लेकिन कल मैं इसे और बेहतर तरी़के से करूंगा या फिर मैंने 1 महीने में 2 किलो वज़न घटाया है, तो अगले महीने तक 5 किलो घटा लूंगा… किसी ने तारीफ़ नहीं की तो क्या हुआ आज खाना अच्छा बनाया था, कल मैं और वैरायटी बनाऊंगी, उसकी तो झूठ बोलने की आदत ही है, मैं उसे बदल नहीं सकता, मगर मैं अब हमेशा सच बोलूंगा/बोलूंगी… ख़ुद से की गई ऐसी उम्मीदें हमें हमेशा ख़ुश और ज़िंदगी के प्रति सकारात्मक रखती हैं. अतः आप भी दूसरों से तारीफ़ पाने, उन्हें अपने मुताबिक़ बदलने या फिर उनसे कुछ बेहतर पाने की उम्मीद करने की बजाय अपने आप से ही उम्मीद रखें कि कल आप और बेहतर करेंगे. माना ऑफिस में आपने पूरी मेहनत और लगन से कोई प्रोजेक्ट कंप्लीट किया और ये सोचकर बॉस के सामने सीना तान कर खड़े थे कि बॉस तो बस अब आपकी तारीफ़ों के पुल बांध देगा, मगर तारीफ़ करना तो दूर बॉस उल्टा आपके प्रोजेक्ट की ख़ामियां गिनाने लगा, ज़ाहिर है आपको बहुत बुरा लगेगा… लेकिन आप यदि ख़ुद को थोड़ा बदल दें, तो इस दुख से बच सकते हैं. अपना काम ईमानदारी से करें. भले ही बॉस ने आपके काम में ग़लतियां निकाली हों, लेकिन आपने तो ईमानदारी से काम किया था, इसलिए ख़ुद को इसके लिए शाबाशी दें. साथ ही बॉस की बताई ग़लतियों पर ग़ौर करें और ख़ुद से प्रॉमिस करें कि अगली बार आप और अच्छा परफॉर्म करेंगे, मगर ये मत सोचिए कि शायद अगली बार बॉस आपकी तारीफ़ करेंगे.
काम मुश्किल ज़रूर है, मगर…
अपने परिवार, हमसफ़र, दोस्तों से उम्मीदें लगाना हमारी आदत है, जिसे बदलना आसान नहीं है, मगर ये काम नामुमक़िन भी नहीं है. इसके लिए
आपको थोड़ी मेहनत करके ख़ुद को बदलना होगा. इसके लिए हर दिन अपने लिए कोई टारगेट रखें और उसे पूरा करने की कोशिश करें. घर-ऑफिस के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के साथ ही थोड़ा समय ख़ुद के लिए भी निकालें. ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए उम्मीद ज़रूर करें, मगर अपने आप से न कि हालात और दूसरे व्यक्तियों से, क्योंकि आप ख़ुद से की गई उम्मीदों को तो अपने बल पर पूरा करने की कोशिश कर सकते हैं, मगर दूसरों को इसके लिए विवश नहीं कर सकते.
– कंचन सिंह