पहला अफेयर: लम्हे तुम्हारी याद के (Pahla Affair: Lamhe Teri Yaad Ke)
प्यार, यूं तो इस शब्द से हर शख़्स वाकिफ़ होता है, पर इसका एहसास तो होता है तब, जब किसी का इंतज़ार यूंं ही करते रहना अच्छा लगने लगता है. प्यार का एहसास मुझे इस रूप में होगा, मैंने कभी सोचा भी न था. ज़िंदगी की बीस बहारें यूूं ही गुज़र गईं और इस बहार ने मेरी ज़िंदगी के मायने ही बदल दिए.
हमने घर हाल में ही बदला था. कुछ दूर मोड़ पर जाकर ही उनका घर था. एक संपूर्ण व्यक्तित्व – सुंदर, बोलने में इतनी आत्मीयता कि कोई भी प्रभावित हुए बिना रह न सके. देखते-देखते कब बातें शुरू हुईं और कब एक अजनबी अपनों से बढ़कर मेरे इतने क़रीब आ गया, पता ही नहीं चला.
हर सुबह एक नई उमंग लेके आती और हर शाम नए ख़्वाब. उनके बिना कुछ भी सोच पाना मुमकिन न था. दिल के एक कोने में जीवनसाथी की तस्वीर उनके रूप में परिपूर्ण थी. उनकी आंखों में छिपी चाहत को मैंने कई बार महसूस किया, पर उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं. वैसे तो निगाहों की भाषा काफ़ी होती है मोहब्बत के इज़हार के लिए, पर शायद वज़ूद के लिए शब्द भी ज़रूरी हैं, इसलिए शब्दों के सहारे मैंने अपनी इच्छाएं उनके सामने रख दीं. वो सुनते रहे और चुप रहे, पर जब उनका मौन टूटा तो मेरी ज़िंदगी, मेरा वज़ूद सब बिखर कर रह गया.
‘कृति मैं भी तुमसे बहुत प्यार करता हूं. तुमने मेरी ज़िंदगी को एक नई दिशा दी है, पर एक सच्चाई जिसे मैं तुम्हें खोने के डर से आज तक नहीं बता पाया कि मैं एक शादीशुदा पुरुष हूं. तुम्हारे साथ, तुम्हारे प्यार और अपनेपन ने मुझे अंदर तक छू लिया. मेरी भावनाएं, मेरी इच्छाएं जो अब तक अधूरी थीं, तुमने उन सबको परिपूर्ण किया है. तुम्हारे साथ ने ही मुझे प्यार का एहसास कराया है. तुम ही मेरी ज़िंदगी का पहला प्यार हो, जिसे मैं हमेशा चाहूंगा, पर तुम्हारे इस साथ में मैं अपने यथार्थ को भूल गया था और उससे भाग रहा था. तुम्हें खोने के डर ने मुझे बहुत स्वार्थी बना दिया था, इसलिए चाहकर भी मैं तुम्हें आज तक ये नहीं बता पाया और जाने-अनजाने में तुम्हारी भावनाओं को आहत किया. काश! हमारी ज़िंदगी हमारी सोच की तरह आसान होती और जो हम चाहते, हमें मिल जाता. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना…’ इतना कहकर वो चले गए.
सब कुछ रेत की तरह हाथों से निकल गया. उनके इस झूठ ने मेरी ज़िंदगी के मायने ही बदल दिए. सच है पहला प्यार कभी भी भुलाया नहीं जा सकता. सब कुछ जानते हुए आज भी मैं उनसे बेइंतहा मोहब्बत करती हूं और वो लम्हे जो हमने साथ गुज़ारे थे, वो अनमोल पल आज भी मेरी स्मृतियों में यूं ही कायम हैं और हमेशा रहेंगे.
हंसना तो बड़ी शै है, रोने भी नहीं देते
लम्हे तुम्हारी याद के, कुछ ऐसे भी आते हैं
पहला अफेयर: इतना-सा झूठ (Pahla Affair: Itna Sa Jhooth)
प्यार करने की भी भला कोई उम्र होती है क्या? पंद्रह से पच्चीस वर्ष, बस इसी बीच आप प्यार कर सकते हैं, इसके आगे-पीछे नहीं. फिल्मों और कहानियों से तो ऐसा ही लगता है. नायक-नायिका न केवल जवां होने चाहिए, बल्कि उनका हसीन होना भी ज़रुरी है. सच पूछो तो इस उम्र के बाद का प्यार अधिक परिपक्व होता है, उसमें वासना का स्थान गौण हो जाता है और इस उम्र के पहले का प्यार तो और भी पवित्र होता है. निश्छल- हां बस यही एक शब्द है उसका बखान करने के लिए. और जब भी उस निश्छल प्यार के बारे में सोचती हूं तो मेरे सामने किशोर आ खड़ा होता है. सातवीं कक्षा में पढ़ता अल्हड़ किशोर.
हमारे ग्रुप में बिल्डिंग के बहुत से बच्चे थे. उन्हीं में से एक था- किशोर. बारह वर्षीय किशोर स्वयं को बहुत समझदार समझता था. उसके बड़े भाई का उन्हीं दिनों विवाह हुआ था एवं उसने अपने किशोर मन में कहीं यह ठान लिया था कि वह शादी करेगा तो स़िर्फ मुझसे. मैं तो खैर इन बातों से अनभिज्ञ तब तीसरी कक्षा में पढ़ती थी. बहुत नादान थी.
उन दिनों टी.वी., फ़िल्में उतनी प्रचलित नहीं थीं. हम कभी घर-घर खेलते, शादी-ब्याह करवाते-बच्चों की अपनी एक अलग दुनिया थी. इसके अलावा प्रायः हम छोटे-छोटे नाटक भी अभिनीत करते. किसी की मां की साड़ी का पर्दा बन जाता और बड़ी बहनों के दुपट्टों से पगड़ी और धोती. किशोर की हमेशा यह ज़िद रहती कि वह मेरे साथ ही काम करेगा. यदि मैं नायिका का रोल कर रही हूं तो वह नायक का करेगा और यदि मैं मां का पार्ट कर रही हूं तो वह पिता का करेगा.
बचपन किशोरावस्था का समय कब पंख लगाकर उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता. समय के साथ-साथ हमारी मित्र मंडली भी तितर-बितर हो गई अपने अभिभावकों के संग. पिताजी के तबादलों के कारण हर वर्ष नया शहर, नया स्कूल होता. शेष रह गईं बचपन की यादें. पर किशोर ने उन यादों को कुछ अधिक ही संजो रखा था. अपने उस इरादे पर वह सचमुच संजीदा था.
विधि का विधान देखो, मेरा विवाह तय हुआ भी तो किशोर के ममेरे भाई से और राज़ खुला कार्ड छपने के बाद, जब उसके हाथ वह कार्ड लगा. कार्ड हाथ में लिए ही वह हमारे घर आया. पास ही के शहर में हम रहते थे. पर क्या हो सकता था तब? उसने अपने प्यार की बहुत दुहाई दी. एक अपरिचित व्यक्ति से बंधने के स्थान पर उससे विवाह करना जिसने मुझे ताउम्र चाहा- मेरे लिए बहुत बड़ा प्रलोभन था.
अरसा बीत गया. यूं कहो कि जीवन ही बीत गया. पर मैंने भरसक उससे दूरी बनाए रखी. किसी उत्सव में उसकी उपस्थिति की संभावना मात्र से ही मैं वहां जाना टाल जाती. शादी-ब्याह में शामिल होना ज़रूरी हो जाता तो शादी की भीड़ में गुम हो जाने की कोशिश करती, पर क़रीबी रिश्ता होने से अनायास सामना हो ही जाता. और मुझसे नज़रें मिलते ही उसकी आंखों के चिराग़ दहक उठते. मैं भी उस ताप से कहां बच पाती हूं. मन का चोर हमें सामान्य बातचीत करने से भी रोक देता है. वह आज भी मुझे उसी शिद्दत से चाहता है . यह मात्र मेरी कल्पना नहीं- उसकी पत्नी मालिनी ने स्वयं मुझसे कहा था. कभी क्रोध के ज्वार में उसने अपने जीवन की पूरी निराशा, पूरी कुण्ठा, पत्नी पर उड़ेल दी और वह मेेरे पास आई थी सफ़ाई मांगने.
“मेरे लिए वह मात्र ससुराल पक्ष का रिश्तेदार है. इससे अधिक मैंने उसे कुछ नहीं माना.” मैंने मालिनी को पूरा विश्वास दिलाते हुए कहा था. मैं जानती हूं यह सच नहीं. पर सच बोलकर भला दो घरों की शांति भंग क्यों करूं? बच्चों की भावनाओं, उनके सुरक्षित भविष्य पर ठेस पहुंचाऊं? अपने निर्दोष पति और निर्दोष मालिनी का सुख-चैन छीनूं?
दस साल बीत गए… तुम्हारा चेहरा आज भी मेरी आंखों में बसा है. उस दिन के बाद न तो तुम मिले और न ही तुम्हारा कोई अता-पता. तुम्हें तो शायद मैं याद भी न हूं, पर मुझे तुम्हारी कत्थई आंखों की कशिश हर रोज़ शाम को गेटवे ऑफ इंडिया की तरफ़ खींच ले जाती है. क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारे लिए चल पड़ते हैं. हर बार तुम्हें देखने और मिलने की एक उम्मीद जन्म लेती है, परंतु फिर मेरी शाम खाली हाथ लौट जाती है. वो पहली नज़र के प्रेम का एहसास आज भी मेरे अंदर सांसें ले रहा है.
कैसे भूल जाऊं वो 26 नवंबर का ताज होटल पर अटैकवाला दिन, जो इतिहास के पन्नों में एक काले, मनहूस दिन के रूप में अंकित हो चुका है. उस दिन न जाने कितनों ने अपनों को खोया था और कितनों ने अपनी जान गंवाई थी. विपरीत इसके मेरे लिए तो वो मेरी ज़िंदगी का सबसे ख़ूबसूरत, यादगार दिन था, जिसने मुझे प्यार जैसे ख़ूबसूरत एहसास से रू-ब-रू करवाया था. एकतरफ़ा ही सही, प्यार तो है.
याद है मुझे आज भी उस दिन का रोंगटे खड़े कर देनेवाला एक-एक लम्हा, जब मैंने और मेरी सहेलियों ने गेट वे ऑफ इंडिया घूमने का प्रोग्राम बनाया था. समुद्र की लहरें अपने मस्त अंदाज़ में साहिल से अठखेलियां करने में मग्न थीं कि अचानक आतंकवादियों ने मुंबई के ताज होटल पर हमला कर दिया था. थोड़ी देर पहले तक जो समां रोमांचक लग रहा था, वो करुणा से भरी चीखों, गोलियों की आवाज़ों और मदद की गुहारों में परिवर्तित हो चुका था. इसी भगदड़ में मेरी सभी सहेलियां मुझसे बिछड़ गई थीं.
मैंने बड़ी मुश्किल से डरते-डरते एक बेंच के पीछे आश्रय लिया था. दहशत के मारे पूरा शरीर कांपने लग गया था. आंसुओं से भरी आंखें किसी तरह की मदद की खोज में थीं. पुलिस ने होटल के बाहर पूरी तरह घेराबंदी कर ली थी. जो लोग बाहर फंसे हुए थे, पुलिस उन्हें किसी तरह सुरक्षित निकालने की कोशिश में थी. मौत को इतने क़रीब देखकर मेरी शक्ति और हिम्मत जवाब देने लगी. बेहोशी मुझे अपनी आगोश में लेने को थी कि तभी किसी की मज़बूत बांहों ने मुझे थाम लिया. वो मज़बूत-गर्म बांहें तुम्हारी थीं. मेरी बेहोशी से भरी धुंधली आंखों से मुझे स़िर्फ तुम्हारी कत्थई आंखें दिखाई दे रही थीं.
“देखो, संभालो अपने आप को. बेहोश मत होना. हम किसी भी तरह यहां से सुरक्षित बाहर निकल जाएंगे…” यह कहते-कहते तुम किसी तरह मुझे होश में लाए. आंखें खुलते ही तुम्हारा चेहरा दिखा, जो मेरी आंखों में उतर गया. तुमने मुझे धीरे-धीरे पुलिस की तरफ़ चलने का इशारा किया. मैं तो तुम्हें देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठी थी. बस, तुम्हारे भरोसे एक कठपुतली बन तुम्हारा हाथ पकड़कर चल पड़ी थी साथ.
किसी तरह हम पुलिस के पास पहुंच ही गए और उन्होंने तुरंत हमें वहां से सुरक्षित बाहर निकाल दिया. मेरे लिए तुम एक फ़रिश्ता बनकर आए थे. बस, यहीं तक था हमारा साथ. सुरक्षित बाहर आते ही तुम मुझे एक टैक्सी में बैठाकर, मेरा हाथ छोड़कर मेरी नज़रों से ओझल हो गए. कहां चले गए… पता नहीं. अपना नाम, पता, सब कुछ अपने साथ ले गए. तुम तो चले गए, किंतु अपना चेहरा, अपनी कत्थई आंखें सदा के लिए मेरी आंखों में, मेरी सांसों में छोड़ गए.
आज भी मेरी शामें तुमसे मिलने के एक अटूट भरोसे पर, गेटवे ऑफ इंडिया की उसी बेंच पर तुम्हारी कत्थई आंखों के इंतज़ार में गुज़रती हैं.
पहला अफेयर: एक ख़ूबसूरत रिश्ता (Pahla Affair: Ek Khoobsurat Rishta)
रात के अंधेरे में शून्य में ताकती निगाहें… रेलगाड़ी के पहियों की आवाज़ें… जाने क्यों आज मिलकर स्मृतियों में दबी पड़ी हुई परतों को उधेड़कर चलचित्र की भांति चलने लगी थी और विक्रम का मन अपने अतीत को लेकर सोचने लगा… इस दुनिया में कोई ऐसा भी था, जो उसके दर्द को हमेशा उससे पहले ही महसूस कर लेता था. दुनिया में विक्रम ने स़िर्फ उसे ही चाहा और उसके सिवा उसने किसी और की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखा. श्रुति नाम था उसका. दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत रिश्ता दोस्ती का होता है और उनका आपस में ऐसा ही रिश्ता था और यह दोस्ती की मिठास में डूबा हुआ था. उनकी वफ़ाएं हमेशा एक-दूसरे के साथ थीं.
श्रुति के साथ कॉलेज में विक्रम का यह तीसरा वर्ष था. हर वर्ष की तरह इस साल भी उनके कॉलेज में वार्षिक समारोह का बड़ा शानदार आयोजन किया जा रहा था, जिसमें उन दोनों को भी भाग लेना था. लेकिन इस बार एक हास्य नाटक में दोनों को 60-65 वर्ष के उम्र के फूफा-फूफी का क़िरदार निभाना था, जिसे करने के लिए कॉलेज में कोई और तैयार नहीं था.
यही वजह थी कि दोनों को अपनी सबसे प्रिय क्लास टीचर सुश्री लता मायकेल के विशेष अनुरोध पर यह रोल करना पड़ा. नाटक के समय दोनों ने अपने रोल्स को इस तरह जीवंत कर दिया था कि पूरे कॉलेज में उनकी चर्चा होने लगी. फिर जब उनकी क्लास के छात्र-छात्राएं श्रुति को ‘फूफी’ कहकर पुकारने लगे, तो इससे नाराज़ होकर श्रुति ने टीचर से इसकी शिकायत कर दी. टीचर ने क्लास के सभी स्टूडेंट्स की परेड ली और सबको आदेश दिया कि जो भी श्रुति को ‘फूफी’ कहते हैं, अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो जाएं. इस पर विक्रम को छोड़कर सभी खड़े हो गए.
टीचर ने पूछा, “विक्रम, तुम श्रुति को ‘फूफी’ कहकर नहीं चिढ़ाते, क्यों?” तब विक्रम ने जवाब दिया, “क्योंकि मैं ‘फूफा’ बना था.” इस पर पूरी क्लास ठहाका लगाकर हंस पड़ी. पूरा रूम ठहाकों से गूंज रहा था और अचानक श्रुति का गुलाबी चेहरा मारे शर्म के लाल होता चला गया… और फिर श्रुति की हालत देख विक्रम मन ही मन शर्मिंदा हुआ. वो अपनी प्रिय दोस्त का सम्मान भी करता था. दोनों में कभी भी किसी भी बात को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ था. एक-दूसरे पर उनका अटूट विश्वास था.
उन दोनों के परिवार भी मध्यमवर्गीय थे… आज दोपहर में विक्रम की मां ने उसे फोन पर बताया था कि श्रुति के घरवाले श्रुति का रिश्ता लेकर कल उनके घर आनेवाले हैं. अर्थात् उनकी यह दोस्ती अब प्यार व शादी में बदलनेवाली है. इससे पहले विक्रम ने कभी सोचा ही कहां था कि वह श्रुति ही होगी, जो एक दिन उसकी जीवनसंगिनी बनेगी.
अचानक रेलगाड़ी के ब्रेक लगने से उसकी तंद्रा भंग हुई… उसका शहर आ गया था…
शायद प्यार का फूल तो कहीं पनप चुका था… जिसे दोनों दोस्ती की गहरी भावना के बीच महसूस नहीं कर पाए थे, लेकिन दूसरों ने उन्हें इसका एहसास दिला दिया था… उनके पहले प्यार को मंज़िल मिल रही थी, इससे ख़ूबसूरत रिश्ता और क्या हो सकता था.
पहला अफेयर: कहीं दूर मैं, कहीं दूर तुम… (Pahla Affair: Kahin Door Main, Kahin Door Tum)
प्रेम, प्यार, रोमांस, इश्क़, मुहब्बत… चाहत से लबरेज़ ये शब्द सुनते ही आंखों में अपने आप कई सपने पलने लगते हैं… गालों पर हया की एक लालिमा-सी छा जाती है… मुझे भी इस इश्क़ के रोग ने छू लिया था. 23 साल की थी मैं. नई-नई नौकरी लगी थी. मेरे साथ ही मेरे सहपाठी अभिनव ने भी जॉइन किया था. अभिनव के विभाग में ही उसका एक
शर्मीला-सा दोस्त था पल्लव. अभिनव से मेरा काफ़ी दोस्ताना व्यवहार था, उसी बीच पल्लव का मुझे चुपचाप देखना, आंखें झुकाकर बातें करना और बहुत ही सली़के से व्यवहार करना बेहद भाने लगा था. पल्लव की यही बातें मुझे बार-बार अभिनव के विभाग की ओर जाने को मजबूर कर देती थीं.
आख़िर मेरी क़िस्मत भी रंग लाई और पल्लव का ट्रांसफर मेरे ही विभाग में हो गया. बेहद ख़ुश थी मैं, हद तो तब हो गई, जब हम दोनों को एक ही प्रोजेक्ट पर काम करने का मौक़ा मिला. अब धीरे-धीरे हमें क़रीब आने का मौक़ा मिला. दोस्ती गहरी हुई और फिर ये दोस्ती प्यार में बदल ही गई. पल्लव ने भी अपने प्यार का इज़हार इशारों-इशारों में कर ही दिया. हां, हमने आपस में कोई वादे नहीं किए थे, पर हमारे प्यार को मंज़िल मिलेगी, यह विश्वास हम दोनों को ही था.
लेकिन नियति पर कब किसी का ज़ोर चला है. मैंने विभागीय परीक्षा दी थी और उसके लिए भी पल्लव ने ही मुझे प्रोत्साहन दिया था. हमने साथ-साथ तैयारी की. दुर्भाग्यवश पल्लव परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाया और मैं पास हो गई थी. विभाग में रिक्त पद होने के कारण मेरा अधिकारी पद पर चयन हो गया था. अगली विभागीय परीक्षा को अभी समय था, मैंने पल्लव का हौसला बढ़ाया, लेकिन अब कार्यक्षेत्र में हमारे बीच दूरी बढ़ गई थी और धीरे-धीरे ये दूरियां हमारे संबंधों में भी बढ़ने लगी थीं. मैंने कई कोशिशें कीं, लेकिन पल्लव के मन में हीनभावना ने घर कर लिया था. वो मुझसे नज़रें चुराने लगा था. दूरी बनाए रखने के प्रयास करने लगा था. कुछ पूछती तो यही कहता कि मैं तुम्हारे लायक ही नहीं.
शायद पल्लव जान-बूझकर मुझसे दूर जाना चाहता था. मेरे सामने दूसरी लड़कियों से बातें करता… मेरा सामना तक नहीं करता था अब वो. मैंने फिर कोशिश की, तो उसने कहा, “मैं चाहता हूं तुम मुझे भूल जाओ, मुझसे घृणा करो, क्योंकि मेरा-तुम्हारा कोई मुक़ाबला नहीं. तुम्हें मुझसे बेहतर जीवनसाथी मिलेगा.”
ख़ैर, घर पर भी मेरी शादी की बातें होने लगी थीं और फिर मैंने भी पल्लव के लिए कोशिशें करनी बंद कर दीं, क्योंकि उसने ख़ुद मुझसे दूर जाने का निर्णय कर लिया था. मेरी शादी हो गई. पति के रूप में बेहद शालीन और प्यार करनेवाला साथी ज़रूर मिला, लेकिन मेरा पहला प्यार तो पल्लव था. कुछ समय बाद पता चला कि पल्लव के पिताजी ने काफ़ी दहेज लेकर एक लड़की से उसकी शादी कर दी. मेरा पहला प्यार दम तोड़ चुका था.
कई वर्षों बाद किसी समारोह में अचानक हमारा आमना-सामना हुआ. साधारण-सी औपचारिक बात के बाद हम दोनों अपनी-अपनी राह
चल दिए…
यूं ही अपने-अपने सफ़र में गुम… कहीं दूर मैं, कहीं दूर तुम… मेरा पहला प्यार स़िर्फ एक छोटे-से मेल ईगो की बलि चढ़ गया था, काश! पल्लव तुमने अपना वो झूठा ईगो छोड़ दिया होता… काश!… लेकिन अब कोई फ़ायदा नहीं यह सोचने का, क्योंकि नियति को यही मंज़ूर था!
पहला अफेयर: ऐसा प्यार कहां? (Pahla Affair: Aisa Pyar Kahan)
कहते हैं, जोड़ियां स्वर्ग में ही तय हो जाती हैं. ईश्वर सबके लिए एक जीवनसाथी चुनकर भेजते हैं. पर क्या हमारा सच्चा जीवनसाथी वह होता है, जिसके साथ हम अपना पूरा जीवन बिता देते हैं या फिर वह जिसे कभी हमने अपने लिए चुना था और आज भी दिल में उसके लिए एक ख़ास जगह है? विपुलजी से मैं विद्यालय के शिक्षक पद के नियुक्तिवाले दिन मिली थी, जिसमें मेरा चुनाव अंग्रेज़ी और विपुलजी का चुनाव गणित के शिक्षक के रूप में हुआ था.
जेपीएससी की परीक्षा की तैयारी के लिए गणित में मैं विपुलजी से मदद लिया करती थी. उनकी कुशाग्र बुद्धि और गणित के प्रति समर्पण ने मुझे उनका दीवाना ना दिया. रोज़ मैं विद्यालय समय से पहले पहुंच जाती और स्टाफ रूम में दरवाज़ के पासवाली कुर्सी पर बैठ उनका इंतज़ार करती.
विपुलजी मेरी भावनाओं को काफ़ी पहले समझ चुके थे. एक दिन सबकी नज़र बचाकर मुझे एक लाल गुलाब थमाकर तेज़ कदमों से वो बाहर निकल गए. मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. अब मेरा ध्यान बच्चों को पढ़ाने में कम और उनकी एक झलक पाने में ज़्यादा लगा रहता.
लेकिन हम अपने प्यार को बाकी शिक्षकों की नज़र से ज़्यादा दिनों तक छिपा नहीं पाए. जब प्रधानाध्यापक को इसकी ख़बर मिली, तो उन्होंने मेरे और विपुलजी समेत सभी शिक्षकों को अपने कमरे में बुलाया और विद्यालय के अध्यापकों द्वारा पालन किए जानेवाले शिष्टाचार के बारे में लंबा-चौड़ा भाषण दिया.
अगले दिन मैं फुफेरी बहन की शादी के लिए एक सप्ताह का अवकाश लेकर चली गई. जब वापस आई, तो पता चला कि विपुलजी दो दिन पहले ही विद्यालय छोड़ चुके हैं.
मैं सातवें आसमान से सीधे ज़मीन पर आ गिरी. ऐसा लगा मानो शीतल हवाओं की जगह तेज़ आंधियों ने ले ली है. मैं अगले ही दिन उनके घर गई, तो पता चला कि वो आगे की पढ़ाई के लिए बैंगलुरू चले गए हैं. मैं उनसे बात करना चाहती थी, उन्हें समझाना चाहती थी, पर उन्होंने मुझे एक मौका तक नहीं दिया.
काफ़ी मुश्किल से अपने अंदर उमड़ रहे आंसुओं के सैलाब को रोककर बाहर निकली,तो उनके छोटे भाई ने मुझे एक बंद लिफ़ाफ़ा दिया और कहा कि भैया ने आपको देने के लिए कहा था. इसमें गणित के कुछ फॉर्मूले हैं. मैंने घर जाकर वो लिफ़ाफ़ा खोला, तो उसमें गणित के फॉर्मूलों की एक मोटी कॉपी मिली. मुझे उन पर बहुत गुस्सा आया और मैंने कॉपी एक तरफ़ पटक दी. जैसे ही कॉपी पटकी, उसमें से एक चिट्टी गिरी. वो विपुलजी का ख़त था, जिसमें लिखा था- मेरी प्यारी संचिता, मैं जानता हूं कि तुम्हें मुझ पर गुस्सा आ रहा होगा कि इस तरह बिना कुछ कहे-सुने मैं चला आया, लेकिन तुम भी यह अच्छी तरह जानती हो कि हम दोनों में ही वो हिम्मत नहीं कि हम समाज के बंधनों को तोड़कर शादी कर सकें.
मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से तुम्हारी किसी तरह की बदनामी हो, क्योंकि समाज लड़की के माथे पर लगा हल्का-सा दाग़ भी किसी को भूलने नहीं देता. शायद अब और नहीं लिख पाऊंगा. बस ये समझ लो कि मैं परिस्थितियों को समझते हुए आगे बढ़ने या पीछे हटने में विश्वास रखता हूं. उम्मीद है, तुम मुझे समझ पाओगी.
उस समय तो मुझे विपुलजी पर बहुत गुस्सा आया और ख़ुद पर तरस, लेकिन आज समझ गई हूं कि वो सही थे. मैं जो आज इज़्ज़त की ज़िंदगी जी रही हूं, वो विपुलजी की ही दी हुई है. मैं आज अपने पति और बच्चों के साथ ख़ुश हूं और इसमें विपुलजी का बहुत बड़ा त्याग व योगदान है.
पहला अफेयर: धुंध के पार (Pahla Affair: Dhundh Ke Paar)
किशोरवय की सुनहरी धूप से भरे वे प्रिय दिन कितने सुहाने थे. मेरे चारों ओर बुद्धि प्रदीप्त सौंदर्य का एहसास पसरा हुआ था. इसी आत्मविश्वास के कारण मैं तनिक एकाकी हो गई थी. घर से दूर हॉस्टल में रहते हुए भी मैंने कभी भी स्वछंदता का लाभ नहीं उठाया था.
गीत-संगीत का शौक ही मेरे अकेलेपन का साथी था. मेरा शुरू से ही यह मानना था कि संगीत में जो कशिश है, वो न स़िर्फ तन्हाई को, बल्कि हर मुश्किल को दूर कर सकती है. संगीत से यह गहरा लगाव ही मुझे बेहद ख़ुश रखता था.
उन्हीं दिनों हमारी कक्षा पिकनिक पर गई. हरी-भरी पहाड़ियां, कल-कल बहता स्वच्छ झरना व पास ही दरी बिछा हम छात्र-छात्राएं संकोच से बतिया रहे थे. साथ में लाए टेप-रिकॉर्डर पर मधुर, पुराने फिल्मी गीत बज रहे थे. तभी किसी ने प्लेयर बंद कर दिया. एक सहपाठी के विषय में कहा गया कि वह बहुत अच्छा गाता है एवं क्यों न उससे ही कुछ सुना जाए.
“तेरी आंख के आंसू पी जाऊं…” यह गीत गाते हुए वह गौरवर्ण, सुदर्शन सहपाठी मेरी ओर ही क्यों देखे जा रहा था, यह मैं तब समझ नहीं पाई.
उस दिन के बाद हमारी मित्रता हुई, जो धीरे-धीरे असीम सुकोमल भावनाओं की डोर से हमें बांध गई. पहले प्यार ने हम दोनों को कुछ ऐसा छुआ कि कब साथ जीने-मरने का इरादा कर लिया, पता ही नहीं चला.
मुहब्बत की इन भावनाओं के बीच हमारी पढ़ाई भी चल रही थी. एमबीबीएस के बाद मेरे उस सुख-दुख के सखा को सुदूर नगर स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए जाना पड़ा.
वियोग के पल कितने निर्मम थे और कितने कठिन भी. तीन वर्ष पत्रों का आदान-प्रदान रहा. फिर समय की धुंध हमारे रिश्ते के बीच छा गई. धीरे-धीरे पत्रों का सिलसिला कम हुआ और फिर बंद ही हो गया. शायद माता-पिता की आज्ञानुसार वह विदेश चला गया.
बचपन से ही शरतचंद, टैगोर पढ़-पढ़कर पली-बढ़ी मैं उस प्रसंग को विस्मृत न कर सकी. सुगंधित पत्रों व जीवंत स्मृतियों का पिटारा अब भी पास था. शायद एक आस थी कि मेरे पहले प्यार की उन सुखद अनुभूतियों का एहसास उसे भी होगा और कहीं न कहीं उसके मन में भी वो तड़प, वो कशिश तो ज़िंदा होगी ही. नहीं जानती थी कि ये मेरा भ्रम था या हक़ीक़त… पर मैं बस उसकी यादों से बाहर नहीं निकलना चाह रही थी.
और आज… उस धुंध के आर-पार, समय की निष्ठुरता को ठुकराती, एक स्नेहिल आवाज़, टेलीफोन के माध्यम से फिर खनक उठी है,
“मैं सदैव के लिए तुम्हारे पास आ रहा हूं. मेरे मार्ग को अपने ख़ुशी के आंसुओं से सींचे रखना. मुझे पता है कि तुम ख़ुशी में भी ज़ार-ज़ार रोती हो.”
मुझसे पूछे बिना ही उसने जान लिया था कि मेरे नैनों में आज भी उसकी प्रतीक्षा के दीये जल रहे हैं. मेरा इंतज़ार, मेरा प्यार जीत गया था.
मेरी आस ग़लत नहीं थी… मेरी आंखों से सच में आंसू बहे जा रहे थे… पर ये ख़ुशी के आंसू थे, जिनमें ग़मों के सारे पल, जुदाई की सारी रातें और हिज्र के दिनों की सारी शिकायतें धुल गई थीं. अब हमारे दरमियान स़िर्फ प्यार था… बस प्यार ही प्यार…
ख़त्म हो गया था वो इंतज़ार!
पहला अफेयर: हां, यही प्यार है! (Pahla Affair: Haan Yehi Pyar Hai)
प्यार, इश्क़, मुहब्बत, लव, अफेयर… एक ही एहसास के न जाने कितने नाम हैं ये, लेकिन मुझे इस एहसास में डूबने की इजाज़त नहीं थी और न ही चाहत थी, क्योंकि मेरी शादी हो चुकी थी. यह बात अलग है कि मैं उस व़क्त शादी के लिए कतई तैयार नहीं थी. दरअसल, शादी की बातचीत के बीच ही जब मुझे यह पता चला कि लड़केवाले दहेज की मांग करने लगे हैं, तो एक नफरत-सी पाल ली थी मैंने उनके प्रति.
जब अपने होनेवाले पति को देखा, तो मन और भी खिन्न हो गया. सांवला-सा रंग, दुबला-पतला शरीर और उस पर दहेज की मांग. ख़ैर, जैसे-तैसे शादी हो गई. मैं इंकार भी नहीं कर पाई, क्योंकि जिस परिवार में पली-बढ़ी थी, वहां लड़कियों की इच्छा-अनिच्छा को महत्व नहीं दिया जाता था. उस पर पिताजी की आर्थिक स्थिति भी बहुत ज़्यादा अच्छी नहीं थी. पिताजी की इच्छा की ख़ातिर शादी तो मैंने कर ली थी, पर पहले ही दिन अपने पति को सब कुछ साफ़-साफ़ बता दिया कि मुझसे किसी भी तरह के प्यार या अपनेपन की उम्मीद न रखें. उन्होंने हंसकर जवाब दिया कि उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है और अपना बिस्तर अलग लगाकर वो सो गए.
मैं बहुत हैरान हुई, लेकिन मेरे मन में इतनी शिकायतें थीं कि मुझे उनकी हर बात पर चिढ़ होती थी और एक ये थे कि मेरी हर चिढ़ और गुस्से पर बेहिसाब प्यार उमड़ आता था इन्हें. हर बात को प्यार से समझाते, हर व़क्त इनके होंठों पर मुस्कान बिखरी रहती. बहुत संयमित और संतुलित व्यक्ति थे ये. मुझे अक्सर कहते कि कभी न कभी तो तुम मेरे प्यार को समझोगी और तुम भी मुझसे प्यार करने लगोगी.
एक दिन इनकी मम्मी से मेरी थोड़ी कहा-सुनी हो गई थी और इन्हें भी मैंने दहेज मांगने का ताना दे दिया था. उस पर इन्होंने बताया कि जो भी पैसे दहेज के रूप में मिले, वो मेरे ही अकाउंट में जमा करवा दिए हैं. अपने मम्मी-पापा को वो उस व़क्त नहीं समझा सके थे कि दहेज लेना अपराध है, पर शादी के बाद उन्हें मना लिया.
मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या कहूं और क्या न कहूं? इन्होंने मुझे इतना प्यार दिया, इस तरह संभाला कि न कभी ज़ोर-ज़बर्दस्ती की, न कभी पति होने का हक जताया. इनके प्यार में पवित्रता की महक थी, कभी वासना की की गंध नहीं आई. मैं भूखी रहती, तो बच्चों की तरह खाना खिलाते. घर में कोई टीका-टिप्पणी करता, तो उन्हें भी समझाते कि नए परिवेश में घुलने-मिलने में व़क्त लगता है.
इनकी इसी सादगी, समझदारी और सबसे बढ़कर पवित्र प्यार ने मुझे जैसे अपनी और खींच लिया था. मैं हर व़क्त सोचती कि दुनिया में कोई इतना अच्छा और सच्चा कैसे हो सकता है? मैं वाकई ख़ुशनसीब हूं, जो ऐसा जीवनसाथी मुझे मिला, एक अजीब-सा आकर्षण महसूस करने लगी थी मैं इनकी ओर. सोचा था कभी इश्क़ नामक रोग नहीं लगेगा मुझे, मगर इनके प्यार के एहसास ने मुझे भीतर तक भिगो दिया था.
मेरा जन्मदिन था, इनके आने का इंतज़ार कर रही थी और अपने तोह़फे का भी. ये आए और मैं बस इननकी बांहों में सिमट गई. आंखों ही आंखों में बातें हुईं और मुझे मेरी पहली मुहब्बत का एहसास हुआ. मैं समझ गई कि हां, यही प्यार है! उस रात मैं संपूर्ण स्त्री बन गई थी.
आज सात साल हो गए, हमारे दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं. मैं परिवार में पूरी तरह से घुल-मिल चुकी हूं, लेकिन हमारे प्यार में अब भी वही पहले प्यार की महक और कशिश बरकरार है. सचमुच यही मेरा पहला प्यार था. मैं इनसे यानी अपने पति राजेश से बेहद प्यार करती हूं और मुझे अपने प्यार पर नाज़ है.
कभी देखा है ख़्वाबों को उड़ते हुए… कभी देखा है चांद को आंगन में बैठे हुए… कभी देखा है आसमान को झुकते हुए… कभी देखा है हथेली पर सूरज को उगते हुए… एक ख़ामोश अफ़साने से तुम जब आते हो. फेसबुक पर जब देखती हूं ये सब कुछ होते हुए, सारी कायनात का नूर समेटे हुए अपनी अदाओं में बेपनाह चाहत भरे हुए जब तुम होते हो, तब स़िर्फ तुम होते हो और कोई नहीं होता आस-पास.
आज दो साल हो गए तुमसे बात करते हुए, हम फेसबुक पर एक-दूसरे से चैट करते हैं. कब समय गुज़र गया, पता ही नहीं चला. न व़क्त का होश रहा, न ही अपना ख़्याल. दीन-दुनिया से बेख़बर हम घंटों चैट करते. हर टॉपिक पर बात करते. बहत करते, खिलखिलाते एक अलग ही जहां में खोये रहते.
अजीब चीज़ है ये व़क्त भी… न कभी ठहरता है, न कभी रुकता है. बस, आगे ही आगे बढ़ता रहता है. एक दिन पापा-मम्मी ने कहा, “शादी की उम्र हो गई है तुम्हारी. कोई पसंद हो, तो बताओ.” शादी का नाम सुनते ही कुंआरी उमंगें अंगड़ाई लेने लगीं, पर पसंद तो कोई नहीं था, सो पापा से कहा, “जो आपकी पसंद हो.”
कैसा जीवनसाथी होना चाहिए? उसमें क्या गुण होने चाहिए? क्या बात करनी चाहिए… जब मैंने टाइप करते हुए पूछा, तो उसने कहा, ‘जो तुम्हारी आंखों से ही समझ जाए कि तुम्हें कुछ कहना है… तुम्हारी ख़ामोश ज़ुबां की आवाज़ उसकी धड़कन को सुनाई दे, जो रिश्तों की कद्र करे, तुम्हें मान दे… ऐसा होना चाहिए जीवनसाथी.’ कहां ढूंढ़ूं उसे? पूझने पर बताया बस अपनी आंखें बंद करो, जिसका भी चेहरा सामने आए, वही है सच्चा जीवनसानी, जैसा कहा, वैसा किया, पर कोई चेहरा सामने नहीं आया. आता भी कैसे? इस फेसबुक के चेहरे के अलावा न किसी से जान, न पहचान.
आज पापा ने कुछ लोगों को घर पर बुलाया है. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि एक अंजान शख़्स से कैसे बात करूं? फेसबुक पर उससे बात करने में जो कंफर्ट लेवल था, वो यहां नहीं था. शाम को वो लोग आए और पापा ने पराग से मेरा परिचय करवाते हुए अकेले में बात करने को कहा. मैं बेहद घबराई हुई थी कि क्या और कहां से बात शुरू करूं. पराग ने भी बस मेरा नाम ही पूछा. हम दोनों लगभग आधे घंटे तक चुपचाप बैठे थे. कुछ दिन बाद पापा ने शादी की तारीख़ भी तय कर दी. मैंने फेसबुक पर उसे मैसेज किया कि कुछ ही दिनों में मेरी शादी होनेवाली है, पर मुझे नहीं पता वो मेरे लिए सही है या नहीं. उधर से तुरंत जवाब मिला, ‘जो केवल नाम पूछकर शादी के लिए हां कर दे, उस पर भी भरोसा नहीं करोगी क्या?’
‘तुम्हें कैसे पता?’
‘…अब भी नहीं पहचाना इस बंदे को?’ यह पढ़ते ही सब कुछ साफ़ हो गया… ‘पराग आप?’
‘हां, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?’
‘हां…’ दिल की सारी उलझनें मिट गईं. सब कुछ मिल गया था मुझे. आंखें बंद कीं, तो चेहरा भी सामने आ गया पराग का. दो साल कम नहीं होते किसी को जानने के लिए, मैं ही नहीं समझ पाई थी इस प्यार की अनुभूति को. आज ऐसा लगा छोटे-छोटे बादल के टुकड़े हवा में तैर रहे हैं. लग रहा है मानो आकाश ज़मीं पर उतर आया है और शाम की ख़ामोशियों में एक मीठी खनक गूंज रही है.
पहला अफेयर: ख़्वाबों के दरमियान… (Pahla Affair: Khwabon Ke Darmiyaan)
वो ख़्वाब था कोई या मेरी ज़िंदगी की ख़ूबसूरत हक़ीक़त… आज तक नहीं समझ पाई हूं. अचानक आया और कई अरमान जगाकर चला गया… ट्रेन का सफ़र लंबा था और वो मेरे सामनेवाली सीट पर बैठा अपने में ही मस्त था. मुझे थोड़ा अजीब लगा, क्योंकि एक ख़ूबसूरत लड़की सामने बैठी है और पिछले 2-3 घंटों से उसने एक बार में मेरी तरफ़ नज़र भरकर नहीं देखा. पर उसका न देखना ही मुझे उसकी ओर आकर्षित कर रहा था. उसका इस तरह मुझ पर ध्यान न देना ही मुझे ख़ास लग रहा था. न चाहते हुए भी मेरी नज़र उसी की तरफ़ जा रही थी. वो अपने खाने-पीने में, फोन पर म्यूज़िक सुनने में ही बिज़ी था. मैं पहली बार अकेले सफ़र कर रही थी. थोड़ा असहज लग रहा था सब कुछ. मैं खिड़की से बाहर झांकने लगी, कोई बड़ा स्टेशन आया था.
“चाय पीती हैं आप?” अचानक एक आवाज़ आई और मेरे सामने वही था, चाय के दो कप थे हाथ में, एक कप मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा उसने… अजीब लड़का है. मैं कुछ कह पाती, उसने वो चाय का कप मेरे हाथ में थमा दिया और फिर अपनी दुनिया में खो गया.
सच कहूं, तो चाय की बहुत ज़रूरत थी उस व़क्त मुझे. शाम ढली, खाने का टाइम हुआ, तो उसने अपने बैग से खाना निकाला और फिर मुझे देखकर बोला, “मेरे साथ खाना शेयर कर सकती हैं आप, मुझे बुरा नहीं लगेगा, ये घर का बना खाना है, आपको अच्छा लगेगा.”
“थैंक यू, आप खा लीजिए, मुझे भूख नहीं है…” मैंने थोड़ा फॉर्मल होते हुए कहा, तो उसने फ़ौरन जवाब दिया, “नहीं खाना है, तो आपकी
मर्ज़ी, पर झूठ मत बोलो कि भूख नहीं है, क्योंकि दिनभर से आपने कुछ नहीं खाया है. आप कुछ डरी हुई-सी लग रही हैं.”
“जी मैं अकेले पहली बार सफ़र कर रही हूं, इसलिए थोड़ा अजीब-सा लग रहा है.”
“कोई बात नहीं, खाना खा लीजिए, आपका डर कुछ कम हो जाएगा, भूखे पेट ज़्यादा डर लगता है.”
मेरे पास अब उसे मना करने का कोई कारण नहीं था. मैंने उससे बातें करनी शुरू कीं, कहां से आया, कहां जा रहा है, क्या करता है… आदि… पर उसने हर बात को बेफिक्री में उड़ा दिया और सीधा-सरल जवाब नहीं दिया.
मैंने भी सोचा कि क्यों इससे इतनी बातें कर रही हूं, सीधा जवाब तो देता नहीं है. कितना अजीब लड़का है. ख़ैर सुबह स्टेशन आया, तो देखा वो भी अपना सामान पैक कर रहा है. फिर उतरने में मेरी मदद करने लगा. मैंने भी ज़्यादा कुछ तो नहीं कहा, पर थैंक्स बोलकर आगे बढ़ गई.
मैंने पलटकर स़िर्फ उसको एक स्माइल पास की और आगे बढ़ गई…
एक साल बीत गया. पर वो सफ़र मैं आजतक नहीं भूली हूं, क्योंकि एक अकेले सफ़र में उस अंजान शख़्स से मुझे कुछ देर तो सहज महसूस करवाया. एक पहेली की तरह था वो, जिसे सुलझाने तक का मौक़ा मुझे नहीं मिला. पर उसके प्रति वो आकर्षण आज तक बना हुआ है. सोचती हूं कि क्या मुझे अपना नाम उसे बता देना चाहिए था? कहीं मैंने ग़लती तो नहीं कर दी, क्या पता नाम से बात आगे बढ़ती, तो वो मेरा फोन नंबर, पता-ठिकाना पूछ लेता. पर फिर यह सोचकर मन को समझा लेती हूं कि कितना अजीब लड़का था, क्या पता उसके मन में मेरे प्रति यह आकर्षण था भी या नहीं. मैं बस यूं ही वन वे ट्रैफिक चलाए जा रही हूं.
ख़ैर, जो भी था, बहुत मीठा-गुदगुदानेवाला एहसास था. शायद यही मेरा पहला प्यार था. पर आज इतना सब क्यों सोच रही हूं मैं. अब तो मुझे अपनी नई ज़िंदगी की शुरुआत करनी है, किसी और के ख़्वाबों को अपना बनाना है, उसके ही ख़्वाबों में खो जाना है.
“कविता बेटा, तैयार नहीं हुई क्या अब तक, लड़केवाले आते ही होंगे तुझे देखने…” मां की आवाज़ ने मुझे चौंकाया.
“मैं तैयार ही हूं मां, बस दो मिनट…”
नीचे गई, तो मैं हैरान थी, अरे, ये तो वही लड़का है. मुझे अपनी क़िस्मत पर यक़ीन नहीं हो रहा था. इतने में ही मेरा परिचय करवाया गया, “कविता, ये विक्रमजीत है हमारा छोटा बेटा और तुम्हें जिस ख़ास से मिलना है, वो बस अभी पहुंच ही रहा है. कमलजीत हमारा बड़ा बेटा, वो पीछेवाली कार में था, ट्रैफिक में फंस गया, आता ही होगा.
मुझे फिर एक झटका लगा. ऐसा लगा अब ख़ुद को नहीं रोक पाऊंगी, मैं फूट-फूटकर रो पड़ी, क़िस्मत मेरे साथ ऐसा भद्दा मज़ाक कैसे कर सकती है…!
मैं अपने कमरे में चली आई. सब हैरान थे कि आख़िर ऐसा क्या हो गया…
“उस दिन नाम बता देती, तो आज इस तरह हमारा सामना नहीं होता.” पीछे से विक्रम की आवाज़ सुनाई दी, तो मैं उस पर बिफर पड़ी…
“तुम ख़ुद को क्या समझते हो, ख़ुद चाहे कुछ भी करो, पर मैंने स़िर्फ नाम नहीं बताया, तो उसकी इतनी बड़ी सज़ा मिलेगी मुझे. तुमने भी तो कुछ नहीं बताया था, न नाम, न पता, न फोन नंबर, न ठिकाना और मुझे तो यह भी नहीं पता था कि तुम मुझसे प्यार करते भी हो या नहीं.”
“अरे, अगर ये आपसे प्यार नहीं करता, तो आज आपका हाथ मांगने आपके घर पर नहीं आया होता…” किसी अंजाने शख़्स की आवाज़ थी यह.मैंने पलटकर देखा, तो विक्रम ने परिचय करवाया… “ये मेरे बड़े भाई कमल हैं.”
कमल ने अपनी बात आगे बढ़ाई, “कविता, आपकी फोटो देखते ही विक्रम ने मुझे सब कुछ बता दिया था. पर वो आपके दिल की बात जानना चाहता था और इसीलिए उसी का यह आइडिया था कि मैं बाद में आऊंगा और आपको वो इस तरह सरप्राइज़ करेगा. मम्मी-पापा ने आपको पहले ही पसंद कर लिया था, विक्रम ने उन्हें भी अपने दिल की बात बता दी थी, बस आपकी मर्ज़ी वो जानना चाहता था.”
यह सब सुनकर मुझे विक्रम पर ग़ुस्सा भी आ रहा था और प्यार भी… सच में कितना अजीब लड़का है… पर मैं ख़ुश थी कि मैंने जिसको ख़्वाबों में अब तक संजोया था, वही मेरी ज़िंदगी की ख़ूबसूरत हक़ीक़त बन रहा है, मेरा हमसफ़र बन रहा है. मैं ख़ुशनसीब हूं कि मुझे मेरा प्यार ताउम्र के लिए मिल चुका था. थैंक यू भगवान!
पहला अफेयर: मुझे क्या हुआ है? (Pahla Affair: Mujhe Kya Hua Hai)
उस समय यह पता ही नहीं लगता था कि दिन कब शुरू हो रहा है व कब ख़त्म हो रहा है. बस, दिल में एक ही बात रहती थी कि कब सुबह हो और कब डीटीसी की बस में ऑफिस जाने के लिए बैठूं. रोज़ के आने-जानेवालों में लगभग सभी एक-दूसरे को पहचानते हैं. ऐसे ही एक दिन वो मेरी बगल में बैठी थी. बस, उस दिन से ना जाने क्या हुआ कि रोज़ हम एक-दूसरे की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करने लगे.
बस सरोजनी नगर डिपो से आरंभ होकर सचिवालय जाती थी, तो यह भी हम दोनों ही समझ गए कि हम लगभग एक ही जगह के
निवासी हैं व सेवा भी सचिवालय में ही करते हैं. हर रोज़ जब मैं बस में बैठता, तो वो स्वयं ही मेरे पास की सीट पर बैठ जाती अगर कभी वो पहले बस मैं बैठती, तो मैं उसके बगल की सीट पर बैठ जाता. कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा. बात बस नयनों की ही भाषा में चलती रही, पर ज़ुबां से कुछ ना कह पाए.
कुछ समय बाद हम घर वापस आने के लिए भी एक-दूसरे का इंतज़ार करते, परंतु हम कभी भी एक-दूसरे से बात नहीं कर पाते थे. मन की भाषा शायद किसी अपने का मन ही पढ़ सकता है या यूं कहें कि कुछ लोगों से कभी-कभी न जाने क्यों ऐसा प्यार हो जाता है जिसे कहा भी नहीं जा सकता और उनके बग़ैर रहा भी नहीं जा सकता.
हम दोनों का साथ-साथ आना-जाना चलता रहा, पर दिल की बात ज़ुबां पर नहीं आ पाई. मन हमेशा ख़ुश रहने लगा था. सब कुछ अच्छा लगता था. परंतु सब कुछ अपने मन मुताबिक़ नहीं चलता. कुछ दिनों बाद उसने अचानक आना बंद कर दिया. मेरे पास न उसका पता और न ही कोई फोन नंबर था. बहुत दिनों तक मैंने उसका इंतज़ार किया, पर कुछ हासिल नहीं हुआ. मन कहता वो ज़रूर आएगी, पर कब तक इंतज़ार करता. 32 की उम्र हो चुकी थी मेरी, घरवालों ने शादी कर दी. धीरे-धीरे सब सामान्य होने लगा. सुंदर-सुशील पत्नी मिली थी. कुल मिलाकर मैं संतुष्ट था अपनी ज़िंदगी से.
एक दिन जब मैं अपने नए घर के गृह प्रवेश के बाद पास ही के होटल में खाना खाने पत्नी व दोनों बच्चों के साथ गया, तो उसे अपने सामने देखकर सन्न रह गया. वो अपने पति व बच्चों के साथ बैठी हुई थी उसी होटल में. मन बेहद ख़ुश था उसे देखकर. हम दोनों दूर-दूर से ही आपस में एक-दूसरे को देखकर हंसते-मुस्कुराते रहे. खाना खाने के बाद जब वो होटल से बाहर जाने लगे, तो उसके पति ने कई बार मुझे मुड़-मुड़कर देखा.
मैं तो बेहद ख़ुश था. ऐसा लग रहा था जैसे कोई ख़ज़ाना मिल गया हो. कुछ दिनों बाद मेरी बेटी ने मुझसे कहा, “पापा, मेरी मैडम मुझको बहुत प्यार करती हैं और चॉकलेट भी देती हैं.” मैंने उसकी बातों को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी और कहा, “बेटा, तुम सुंदर हो और पढ़ने में होशियार हो, इसलिए मैडम प्यार करती हैं.” आज मेरी बेटी का स्कूल में आख़िरी दिन था, क्योंकि वो स्कूल पांचवीं तक ही था. वैसे तो मेरी पत्नी ही जाती थी उसे स्कूल से लेने के लिए, पर उस दिन मुझे जाना पड़ा.
“पापा, वो देखो मेरी मैडम.” मैडम को देखकर मुझे लगा कि मैं फिर लुट गया, क्योंकि वही मेरा पहला प्यार था, जिसको मैंने मन व आंखों की भाषा में पाया था. मैं ठगा-सा मुंह लटकाए घर वापस आ गया. जीवन तो जीना है, पर कुछ लोग न जाने क्यों मन में घर कर जाते हैं. यह मैं समझ नहीं पाया कि मुझे क्या हुआ है?
पहला अफेयर: यादों की परछाइयां… (Pahla Affair: Yaadon Ki Parchhaiyan)
जहाज़ ने अपनी चाल पकड़ ली है. बस, मेरी यादों की चाल ढीली पड़ गई है. कभी-कभी तन्हाई जीवन को उलट-पलट कर देखने के अवसर देती है- उसकी कुनीन-सी कड़वी बातों ने उसे दोबारा पाने के मेरे दंभ को चकनाचूर कर दिया है. मैं अपने जीवन को तराज़ू में तोलने लगी हूं- एक पलड़ा उसे पाने की चाह में ज़मीन छू रहा है और उसके दंभ का पलड़ा हवा से बातें कर रहा है… उसने तो मुझे अपनी ग़लती को जानने का मौक़ा तक नहीं दिया.
बेटी के बार-बार आग्रह पर पहली बार मैं अमेरिका जा रही हूं. क्या देखती हूं कि सामने से हाथ में छोटा सूटकेस पकड़े उसी अकड़ू चाल से आदी चला आ रहा है. मुझे ज़ोर का झटका लगा. ख़ैर, मैं उसे अनदेखा कर सामने फॉर्मैलिटीज़ पूरी करते अपने मामाजी की तरफ़ मुड़ने को हुई, तभी आगे बढ़कर आदी ने कहा- अरे सुरभि, तुम यहां कहां? मेरा संक्षिप्त उत्तर था- बेटी के पास जा रही हूं. और… जाना कि वो अपनी कंपनी की तरफ़ से शिकागो जा रहा है.
न जाने कितने सालों के पत्थर सरकते रहे हैं सीने से. सुना था उसका विवाह किसी अमीर बाप की इकलौती बेटी से हुआ है. नतीजा, उसके लालची पिता को ख़ूब दान-दहेज से लादा गया होगा. प्लेन में हमारी सीटें नज़दीक थीं. वह जानकर अचरज हुआ कि दो वर्ष के अंदर ही उसका माधवी से विवाह-विच्छेद हो गया.
मैं टीचिंग लाइन में आ गई थी. साहित्य में एमए करने के बाद मैंने पब्लिक स्कूल में वाइस प्रिंसिपल का पद संभाला. माता-पिता के अति आग्रह के बाद विवाह बंधन में भी बंधी.
मुझे लगा शायद हम ऑक्टोपस की तरह अष्ट पद वाले ऐसे प्राणी हैं, जो समाज के कई कालों में जीने की मजबूरी झेलते हैं. और जब हार्दिक पीड़ा शब्दों में ढलनी दुष्कर हो जाती है, तो शायद ऐसी आग का सृजन होता है, जो आस-पास का सब कुछ तहस-नहस कर देती है. उसके तलाक़ का कारण जानना मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता. उसकी बातों में मुझे ठुकराने के पश्चाताप का लहज़ा-सा ज़ाहिर था.
आज मेरे मन में कई उद्गार पानी के बुलबुले की तरह उठ-गिर रहे हैं. फिर भी मैं जानना चाहती थी कि मैंने तुमसे तुम्हारी हंसी तो न मांगी थी? अनजाने ही संगिनी बनने का सुख मांग बैठी. और आज है सामने रेतीला मैदान और तेरी यादों की परछाइयां और… तुम्हारे झूठे दंभ के कारण बहुत कुछ झेला है मैंने. मन सागर में आए तूफ़ान की हुंकार सुनी है मैंने.
यूं तो ज़माना ख़रीद सका न हमें… तेरे प्यार के लफ़्ज़ों पर बिकते चले गए हम…
फ्लाइट के लैंड करते ही आदी न जाने कहां गायब हो गया. मुझे कुछ कहने तक का मौक़ा नहीं दिया. यूं भी अब खोखली यादों के सिवा क्या था मेरे पास. ये मेरी यादें परछाइयां बन आज भी डोल रही हैं मेरे संग.
रात होते ही अतीत की यादें मुझे पीछे धकेल ले गईं. सुना है स्मृतियों को कहीं भी उखाड़ कर फेंक दो, कैक्टस के कंटीले झाड़ की तरह फिर से उगने की उद्दंडता कर बैठती है. ऐसे ही एक शाम हम बगीचे में बैठे थे, तभी पेड़ से एक पक्षी मुंह में एक कीड़ा लेकर दूर आसमान में उड़ चला. हम ध्यान से उसे देखते रहे- आदी के एक मनचले दोस्त ने एक शेर कह डाला था… न रख उम्मीद किसी परिंदे से इकबाल… जब निकल आते पर अपना आशियां भूल जाते हैं… आज उस शेर का एक-एक मिसरा मुंह चिढ़ा रहा है. मेरे सीने में नश्तर चुभो रहा है… मुझे माज़ी की अधकचरी यादों में, पीछे धकेल रहा है.