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पंचतंत्र की कहानी: लालची कुत्ता (Panchtantra Ki Kahani: The Greedy Dog)
एक गांव में एक कुत्ता रहता था. वो हमेशा कुछ न कुछ खाने की फिराक में ही रहता था, क्योंकि वह बहुत लालची था. वह भोजन की तलाश में हमेशा यहां-वहां भटकता रहता था, उसका पेट कभी नहीं भरता था. एक दिन की बात है, वो हमेशा की तरह खाने की तलाश में इधर-उधर घूम रहा था, लेकिन उसे कहीं भी भोजन नहीं मिला. अंत में उसे एक होटल के बाहर एक मांस का एक टुकड़ा दिखाई दिया, उसने झट से उस टुकड़े को मुंह में पकड़ लिया और सोचा कि कहीं एकांत में जाकर मज़े से इसे खाया जाए. वह उसे अकेले में बैठकर खाना चाहता था, इसलिए मांस का टुकड़ा लेकर वहां से जल्दी से जल्दी भाग गया.
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एकांत जगह की खोज करते-करते वह एक नदी के पास पहुंचा. नदी के किनारे जाकर उसने नदी में झांका, तो अचानक उसने अपनी परछाई नदी में देखी. वो समझ नहीं पाया कि यह उसी की परछाई है, उसे लगा कि पानी में कोई दूसरा कुत्ता है, जिसके मुंह में भी मांस का टुकड़ा है.
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उस लालची कुत्ते ने सोचा क्यों न इसका टुकड़ा भी छीन लिया जाए. अगर इसका मांस का टुकड़ा भी मिल जाए, तो खाने का मजा दुगुना हो जाएगा. वह उस परछाई पर ज़ोर से भौंका. भौंकने से उसके मुंह में दबा मांस का टुकड़ा नदी में गिर पड़ा. अब वह अपना टुकड़ा भी खो बैठा. उसे तब जाकर समझ में आया कि जिसे वो दूसरा कुत्ता समझ रहा था, वो तो उसकी ख़ुद की परछाई है. उसने ज़्यादा के लालच में, जो था वो भी खो दिया. अब वह बहुत पछताया और मुंह लटकाकर वापस गांव में आ गया.
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सीख: लालच बुरी बला है. लालच नहीं करना चाहिए. दूसरों की चीज़ें छीनने का फल बुरा ही होता है. लालच हमारी ख़ुशियां छीन लेता है, इसलिए अपनी मेहनत पर भरोसा करना चाहिए और मेहनत से जो भी हासिल हुआ हो, उसमें संतोष करना चाहिए. अगर लालच करेंगे तो हमारे पास अभी जितना है, उससे भी हाथ धोना पड़ सकता है.
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एक कुएं में ढेर सारे मेंढ़क रहते थे. मे़ंढकों के राजा का नाम था गंगदत्त. वह बहुत झगड़ालू स्वभाव का था. आसपास दो-तीन और कुए थे जिनमें भी मेंढक रहते थे. हर कुएं के मेंढ़कों का अपना राजा था. हर राजा से किसी न किसी बात पर गंगदत्त का झगड़ा होता रहता था. वह अपनी बेवकूफी कोई ग़लत काम करने लगता और कोई बुद्धिमान मेंढ़क उसे रोकने की कोशिश करता, तो मौक़ा मिलते ही वह अपने पाले हुए गुंडे मेंढ़कों से सलाह देने वाले की पिटाई करवा देता. कुएं के मे़ंढक गंगदत्त के इस व्यवहार से बहुत ग़ुस्से में थे. दरअसल, गंगदत्त अपनी हर मुसीबत के लिए दूसरों को दोष देता रहता था.
एक दिन गंगदत्त की पास के पड़ोसी मे़ंढक राजा से खूब लड़ाई हुई. जमकर तू-तू मैं-मैं हुई. गंगदत्त ने अपने कुएं में आकर बाकी मेंढ़कों को बताया कि पड़ोसी राजा ने उसका अपमान किया है और इस अपमान का बदला लेने के लिए उसने अपने मे़ंढकों को पड़ोसी कुएं पर हमला करने को कहा, मगर सब जानते थे कि झगड़ा गंगदत्त ने ही शुरू किया होगा. इसलिए कुछ बुद्धिमान मेंढ़कों ने एकजुट होकर एक स्वर में कहा, “राजन, पड़ोसी कुएं में हमसे दुगुने मेंढ़क हैं. वे स्वस्थ और हमसे ज़्यादा ताकतवर हैं. हम यह लड़ाई नहीं लड़ेंगे.”
गंगदत्त सन्न रह गया और बुरी तरह तिलमिला गया. मन ही मन में उसने ठान ली कि इन गद्दारों को भी सबक सिखाना होगा. गंगदत्त ने अपने बेटों को बुलाकर भड़काया, “बेटा, पड़ोसी राजा ने तुम्हारे पिता का घोर अपमान किया है. जाओ, उस राजा के बेटों की ऐसी पिटाई करो कि वे पानी मांगने लग जाएं.”
गंगदत्त के बेटे एक-दूसरे का मुंह देखने लगे. आख़िर बड़े बेटे ने कहा, “पिताश्री, आपने कभी हमें टर्राने की इजाज़त नहीं दी. टर्राने से ही मेंढ़कों में बल आता हैं, हौसला आता हैं और जोश आता है. आप ही बताइए कि बिना हौसले और जोश के हम किसी की क्या पिटाई करेंगे?”
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अब गंगदत्त सबसे चिढ़ गया. एक दिन वह कुढ़ता और बड़बड़ाता कुएं से बाहर निकल इधर-उधर घूमने लगा. उसने एक भयंकर नाग को पास ही बने अपने बिल में घुसते देखा. ये देखकर उसकी आंखें चमकी. जब अपने दुश्मन बन जाए, तो दुश्मन को दोस्त बना लेना चाहिए. यही सोचकर वह बिल के पास जाकर बोला, “नागदेव, मेरा प्रणाम.”
नागदेव फुफकारें, “अरे मेंढ़क मैं तुम्हारा बैरी हूं, तुम्हें खा सकता हूं और तू मेरे ही बिल के आगे आकर मुझे आवाज़ दे रहा है.”
गंगदत्त टर्राया, “हे नाग, कभी-कभी शत्रुओं से ज़्यादा अपने दुख देने लगते हैं. मेरा अपनी जातिवालों और सगों ने इतना घोर अपमान किया हैं कि उन्हें सबक सिखाने के लिए मुझे तुम जैसे शत्रु के पास सहायता मांगने आना पड़ा. तुम मेरी दोस्ती स्वीकार करो और मज़े करो.”
नाग ने बिल से अपना सिर बाहर निकाला और बोला, “मज़े, कैसे मज़े?”
गंगदत्त ने कहा, “मैं तुम्हें इतने मेंढ़क खिलाऊंगा कि तुम अजगर जैसे मोटे हो जाओगे.”
नाग ने शंका व्यक्त की, “पानी में मैं जा नहीं सकता. कैसे पकड़ूंगा मेंढ़क?”
गंगदत्त ने ताली बजाई, “नाग भाई, यहीं तो मेरी दोस्ती तुम्हारे काम आएगी. मैंने पड़ोसी राजाओं के कुओं पर नजर रखने के लिए अपने जासूस मेंढ़कों से गुप्त सुरंगें खुदवा रखी हैं. हर कुएं तक उनका रास्ता जाता है. सुरंगें जहां मिलती हैं वहां एक कक्ष है, तुम वहां रहना और जिस-जिस मेंढ़क को खाने के लिए कहूं, उन्हें खाते जाना.”
नाग गंगदत्त से दोस्ती के लिए तैयार हो गया, क्योंकि उसमें उसका लाभ ही लाभ था. एक मूर्ख बदले की भावना में अंधे होकर अपनों को ही दुश्मन के हवाले करने को तैयार हो, तो दुश्मन क्यों न इसका लाभ उठाए?
नाग गंगदत्त के साथ सुरंग कक्ष में जाकर बैठ गया. गंगदत्त ने पहले सारे पड़ोसी मेंढ़क राजाओं और उनकी प्रजाओं को खाने के लिए कहा. नाग कुछ ही हफ़्ते में सारे दूसरे कुओं के मेंढ़क को सुरंग के रास्ते जा-जाकर खा गया. जब सारे मेंढ़क समाप्त हो गए, तो नाग गंगदत्त से बोला, “अब किसे खाऊं? जल्दी बता. चौबीस घंटे पेट फुल रखने की आदत पड़ गई है.”
गंगदत्त ने कहा, “अब मेरे कुएं के सभी स्याने और बुद्धिमान मेंढ़कों को खाओ.”
जब सारे बुद्धिमान मेंढ़क ख़त्म हो गए, तो प्रजा की बारी आई, गंगदत्त ने सोचा प्रजा की ऐसी तैसी. हर समय कुछ न कुछ शिकायत करती रहती है. पूरी प्रजा का सफ़ाया करने के बाद नाग ने खाना मांगा, तो गंगदत्त बोला, “नागमित्र, अब केवल मेरा कुनबा और मेरे मित्र ही बचे हैं. खेल ख़त्म और मेंढ़क हजम.
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नाग ने फन फैलाया और फुफकारने लगा, “मेंढ़क, मैं अब कहीं नहीं जानेवाला. तू अब मेरे खाने का इंतज़ाम कर वरना हिस्सा साफ़.”
गंगदत्त की बोलती बंद हो गई. उसने नाग को अपने मित्र खिलाए फिर उसके बेटे नाग के पेट में गए. गंगदत्त ने सोचा कि मैं और मेंढ़की ज़िंदा रहे तो बेटे और पैदा कर लेंगे. बेटे खाने के बाद नाग फुफकारा “और खाना कहां हैं? गंगदत्त ने डरकर मेंढ़की की ओर इशार किया. गंगदत्त ने स्वयं के मन को समझाया “चलो बूढ़ी मेंढ़की से छुटकारा मिला. नई जवान मेंढकी से विवाह कर नया संसार बसाऊंगा।फ
मेंढ़की को खाने के बाद नाग ने मुंह फाड़ा “खाना.”
गंगदत्त ने हाथ जोड़कर कहा, “अब तो केवल मैं बचा हूं, तुम्हारा दोस्त गंगदत्त. अब लौट जाओ.”
नाग बोला मतू कौन-सा मेरा मामा लगता हैं और उसे भी खा गया.
सीख- अपनों से बदला लेने के लिए जो शत्रु का साथ लेता है उसका अंत निश्चित है.