Rang Tarang

पिछले तीन साल भुगत चुका हूं. अब मैं किसी को नए साल के लिए हैप्पी न्यू ईयर का अभिशाप नहीं देनेवाला. साल 2021 में मुझे लोगों ने हैप्पी न्यू ईयर की बद्दुआ दी थी. 14 अप्रैल को कोरोना ने मुझे धर दबोचा.

आप सबको हफ़्ते भर पहले कैसे मालूम हो जाता है कि आनेवाला साल हैप्पी होने जा रहा है? हम बाइस साल की उम्र तक गांव में रहे. इस दौरान कभी नए साल को हैप्पी होकर आते नहीं देखा! एक जनवरी को भी दुखीराम हैप्पी होने की जगह रुआंसे ही नज़र आते थे, “का बताई भइया, गेहूं तौ ठीक है, लेकिन सरसों मा माहू (कीट) लाग गवा.”
ये कमबख्त माहू को भी यही खेत मिलता है. हर साल दुखीराम के खेत में घुस जाता था. बगल पांचू लाला की दूकान में माहू कभी नहीं लगा. पांचू लाला तांगा लेकर गेहूं ख़रीदने गांव-गांव घूमते थे. जब वो लाला से सेठ हो गए, तो गांव ख़ुद पांचू लाला के पास जाने लगा. दुखी राम की लाइफ में नया साल कभी हैप्पी नहीं हुआ. उसकी और पांचू सेठ के घोड़े की कुंडली एक जैसी थी. दोनों अपने-अपने दुर्भाग्य को ढोने में लगे थे. घोड़ा पांच साल में मरा और दुखीराम पचास साल में. सुविधा भोगी संत और विचारक कहते हैं कि परिश्रम करने से आदमी महान हो जाता है. दुखीराम दिन के बारह घंटे फावड़ा चला कर भी पचास साल में महान नहीं हो पाए. पांचू सेठ विधवा आश्रम खोलकर पांच साल में महान हो गए. आदमी होने से महान होना कहीं ज़्यादा आसान है.
ज़माना कितना बदल गया. लोग सांताक्लाज को भी लूट लेते हैं, जो कभी नियति के हाथों लूटे आदमी के आंसू पोछता था. फरवरी 2020 से कोरोना स्वच्छ भारत आभियान में लगा हुआ है. तब से बुद्धिलालजी फेस मास्क लगाकर गुटखा खाते हैं. वो एक कवि हैं. कोरोना काल कवियों के लिए किसी पतझड़ से कम पीड़ादायक नहीं रहा. ‘दो गज की दूरी मास्क ज़रूरी’ का अर्थ अब जाकर समझ में आया. बहादुर शाह ज़फ़र का एक शेर है- दो गज ज़मीन भी न मिली कूचे यार में… दो गज का नारा कब्र (मौत) के लिए है.
कोरोना कहता है- मास्क ख़रीद कर पहनो, नहीं तो कब्र में जाना तय है.
मौलाना साहब ये नहीं बता रहे कि कोरोना से वीरगति को प्राप्त होने पर जन्नत मिलेगी या दोजख. कोरोना को कॉरपोरेट देवताओं ने मास्क का ब्रांड एंबेसडर बनाकर अरबों डॉलर कमाए. ज़िंदा लोग सदियों से मुर्दों का कारोबार संभालते आए हैं. बहुत से विद्वान तो कोरोना को पूज्यनीय बनाना चाहते थे, पर इस असमंजस में आस्था दिग्भ्रमित थी कि वो’ स्त्रीलिंग में आता है या पुलिंग में. ताली,थाली और गाली में से जाने उसे क्या सूट करता है.

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सही बोलूं, तो कोरोना जैसी महान उपलब्धि के सामने मंदिर-मस्जिद का राग भी छोटा पड़ गया था. इससे दुखी होकर कुछ महापुरुषों ने कोरोना का पीछा किया और जमातीयों में उनका डीएनए ढूंढ़ लिया. आंख और मुंह से गांधीजी का बंदर बन चुकी देश की मीडिया को भी मरकज और जमाती साक्षात कोरोना बम नज़र आने लगे थे.
जमातियों की शक्ल में कुछ लोगों को कोरोना के फूफा नज़र आने लगे थे. कोरोना लाइलाज़ था, लेकिन फूफाजी का इलाज था. पुलिस जमातियो को पकड़-पकड़ कर थाने ले जाने लगी. फिर पुलिसवालों ने गुहार लगाई कि फूफाजी बिरयानी मांग रहे हैं. बिरयानी खिलाई गई, तो पुलिसवालों ने बयान दिया कि फूफाजी थाली में थूक रहे हैं. (गमीमत थी कि वो थाली में छेद करते नहीं पाए गए) सभ्य पुलिस वाले अतिथि देवो भव का पालन करते हुए बिरयानी खिला रहे थे और जनता घरों में क़ैद आर्तनाद कर रही थी- अब तो जीडीपी भी कोमा में चली गई, कोरोना तुम कब जाओगे…
पिछले तीन साल भुगत चुका हूं. अब मैं किसी को नए साल के लिए हैप्पी न्यू ईयर का अभिशाप नहीं देनेवाला. साल 2021 में मुझे लोगों ने हैप्पी न्यू ईयर की बद्दुआ दी थी. 14 अप्रैल को कोरोना ने मुझे धर दबोचा. उस दिन पहला रोजा था. ख़ैर, ऑक्सीजन लेवल 80 और 83 के बीच पींग मारता रहा, मगर मैं शायद अस्पताल न जाने की वजह से ज़िंदा बच गया या फिर इसलिए, क्योंकि कोरोना को जब पता चला कि मैं हिंदी का लेखक हूं, तो वो ख़ुद मुझे छोड़कर चलता बना. सोचा होगा- हिंदी के लेखक को मरने के लिए कोरोना की क्या ज़रूरत..! जाते हुए ज़रूर पाश्चाताप किया होगा, “हम से भूल हो गई, हम का माफ़ी दई दो. ग़लत घर में दाख़िल हो गया यजमान..”
समझ में नहीं आया कि नए साल के आने में मुबारक जैसी क्या चीज़ है. हमारे देश में तो मुसीबतों का आना-जाना लगा ही रहता है, इसमें हैप्पी होने की क्या बात. कभी बर्ड फ्लू, तो कभी स्वाइन फ्लू. हमीं हैं, जो बर्ड फ्लू से ग्रसित मुर्गे को खाकर प्रोटीन प्राप्त करते हैं. गनीमत है कि कोरोना कभी सशरीर सामने नहीं आया, वरना झुरहू चच्चा महुआ की दारू के साथ चखना के तौर पर नया प्रयोग कर डालते.
राहुल गांधी जैसे ही राजस्थान से दिल्ली की ओर चले, वैसे ही मीडिया ने चीन से भारत की ओर पदयात्रा करते कोरोना को देख लिया. वो भी भारत जोड़ो के समर्थन में चल पड़ा है. मॉनसून परख कर दूरदर्शी दुकानदारों ने फेस मास्क से लेकर अर्थी का सामान तक स्टॉक करना शुरू कर दिया है. पांचू सेठ पंडित भगौतीदीन से कन्फर्म करने के लिए पूछ रहे हैं, “पंडितजी, आपका जंत्री क्या कहता है, अफ़वाह है या सचमुच कोरोन चल पड़ा है?”

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पंडितजी जानते थे कि सेठ को कौन-सी चिंता खाए जा रही है. उन्होंने फ़ौरन गंभीरता ओढ़ ली, “दुखद सूचना है यजमान. कोरोना की कुंडली से शनि की साढ़े साती दूर हो चुकी है. मंगल ख़ुद लालटेन हाथ में लेकर कोरोना को इधर आने का रास्ता दिखा रहा है. देख लेना, इस बार गेहूं में बाली की जगह कोरोना ही नज़र आएगा. नया साल मुबारक हो यजमान.”
इस दुखद भविष्यवाणी पर पांचू सेठ ने पहली बार पंडितजी को 21 की जगह 51 रुपए की दक्षिणा दी थी.

– सुलतान भारती

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‘‘दादाजी, आप गुज़रे ज़माने की चीज़ हैं. पहले घर में एक आदमी कमाता था और बाकी बैठकर खाते थे, लेकिन आज का हर इंसान कामकाजी है. किसी के पास इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि निठल्लों की तरह बैठकर पांच दिन का मैच देखे.’’
‘‘दादाजी… बिल्कुल सही नामकरण किया है तुमने इनका.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने ठहाका लगाते हुए मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की पीठ थपथपायी.

वर्ल्ड कप शुरू होनेवाला था. मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की शान देखते बनती थी. हर शहर में उनके बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए थे. टीवी चैनलों, व्हाट्स-अप, ट्वीटर और फेसबुक पर उन्हीं के चर्चे थे. बड़े-बड़े सितारों से सजी दुनियाभर की टीमें जमा होनेवाली थीं. मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी इस बार अपना कप किसे देगें इस पर अख़बारों में रोज़ाना कॉलम लिखे जा रहे थे.
यह सब देख मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी फूले नहीं समाते थे. एक दिन उन्होंने अपनी मूंछों पर हाथ फेरते हुए श्री वन-डे इंटरनेशनल से कहा, ‘‘देखा, पूरी दुनिया मेरे रंग में रंगी हुई है. मेरे अलावा अब और किसी को कोई पूछता ही नहीं है.”
यह सुन वन-डे इंटरनेशनल के घाव हरे हो गए. मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी के जन्म से पहले पूरी दुनिया उनकी दीवानी थी, लेकिन अब दिन-प्रतिदिन उनका महत्व कम होता जा रहा था. इससे वे काफ़ी नाराज़ चल रहे थे. अतः अपनी भड़ास निकालते हुए बोले, ‘‘तुमने क्रिकेट को बर्बाद करके रख दिया है. अगर यही हाल रहा तो कुछ दिनों बाद कोई हम लोगों की तरफ़ देखेगा भी नहीं.’’
‘‘मैंने तो क्रिकेट को लोकप्रियता के शिखर पहुंचाया है और आप कह रहे हैं कि मैंने उसे बर्बाद कर दिया है?’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी आश्चर्य से भर उठे.
‘‘तुम्हारा क्रिकेट भी कोई क्रिकेट है.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने मुंह बनाया फिर बोले, ‘‘ऐसा लगता है जैसे दो पहलवान धोबी की थपिया लेकर खड़े हो गए और पीट-पीटकर बॉल की धुलाई कर रहे हैं. क्रिकेट की लय, उसकी कलात्मकता उसकी रचनात्मकता को तबाह करके रख दिया है तुमने.’’


‘‘ओय, ‘डे एण्ड नाइट’, कलात्मकता और रचनात्मकता की बात तुम तो मत ही करो.’’ अब तक शांत बैठे टेस्ट क्रिकेट ने नाक सिकोड़ी. फिर वन-डे इंटरनेशनल को डपटते हुए बोले, ‘‘क्रिकेट तो मेरे ज़माने में होता था. इत्मिनान से, सलीके से, करीने से लोग खाते-पीते, उत्सव मनाते हुए खेल खेलते थे. लेकिन उसकी सारी कलात्मकता ख़त्म करके ठोंका-पीटी का खेल तुमने ही शुरू किया था.’’
मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी समझ गए कि वन-डे के बहाने तीर उन पर भी बरसाये जा रहे हैं. अतः ताव खाते हुये बोले, ‘‘आपका क्रिकेट भी कोई क्रिकेट है. पांच दिनों तक दौड़-धूप मचायी उसके बाद भी मैच ड्रा हो गया और सारे किये धरे पर पानी फिर गया. हम लोगों को देखो, आर-पार का फ़ैसला ज़रूर कराते हैं.’’
‘‘आर और पार का फ़ैसला?’’ टेस्ट-क्रिकेट ने ठहाका लगाया, फिर बोले, ‘‘जितने रन तुम्हारी पूरी टीम बनाती है उससे ज़्यादा तो मेरा एक-एक खिलाड़ी बना देता था. डबल-सेंचुरी, ट्रिपल-सेंचुरी का नाम तो तुमने सुना होगा, लेकिन क्या ज़िंदगी में कभी देखा है उनको बनते हुये? स्पिन का जादू, कलाइयों की कला और मेडन ओवरों का आनंद लिया है कभी तुमने ? तुम दोनों खाली पहलवानी और ठोंका-पीटी करते हो और नाम क्रिकेट का बदनाम करते हो.’’
मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी का नौजवान खून था. उनसे रहा नहीं गया, अतः भड़कते हुये बोले, ‘‘दादाजी, आप गुज़रे ज़माने की चीज़ हैं. पहले घर में एक आदमी कमाता था और बाकी बैठ कर खाते थे, लेकिन आज का हर इंसान कामकाजी है. किसी के पास इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि निठल्लों की तरह बैठकर पांच दिन का मैच देखे.’’
‘‘दादाजी’’ बिल्कुल सही नामकरण किया है तुमने इनका.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने ठहाका लगाते हुए मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की पीठ थपथपायी.

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फिर बोला, ‘‘इनके ज़माने में तो लोग साल-साल भर तक एक ही सिनेमा को देख-देख कर सिल्वर-जुुबली, गोल्डन जुबली मनाया करते थे, मगर अब पिक्चरों के भी हिट या फ्लाप होने का फ़ैसला एक ही हफ़्तें में हो जाता है. आज स्मार्ट और फास्ट लोगों का ज़माना है, इसलिए जो ज़माने की रफ़्तार के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चलेगा, वो इन्हीं के तरह आउटडेटेड हो जाएगा.’’
‘दादाजी’ कहे जाने से टेस्ट-क्रिकेट बुरी तरह चिढ़ गया था. अतः चीखते हुए बोला, ‘‘ज़्यादा रफ़्तार की बात मत करो. ट्वेन्टी-ट्वेन्टी आया, तो लोग फिफ्टी-फिफ्टी को भूल गये. कल टेन-टेन आयेगा, तो लोग ट्वेन्टी-ट्वेन्टी को भूल जायेगें. फिर ओवर-ओवर आयेगा, लोग टेन-टेन को भी भूल जायेगें. तुम लोगों के सिकुड़ने की कोई सीमा नहीं है, जबकि मैं सदाबहार हूं. सैकड़ो साल से बिल्कुल एक जैसा.’’
‘‘आपने सैकड़ो साल में जितनी कमाई की होगी उससे ज़्यादा की कमाई मेरे एक-एक टूर्नामेंट में हो जाती है, इसलिये आप से श्रेष्ठ मैं हुआ.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने हुंकार भरी.
‘‘आपके पूरे टूर्नामेंट से ज्यादा कमाई मैं अपने खिलाड़ियों को एक ही मैच में करवा देता हूं. मेरे बल पर सारे खिलाड़ी आज करोड़पति-अरबपति हो गये हैं, इसलिये सर्वश्रेष्ठ मैं हुआ.’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी ने भी ताल ठोंकी.
‘‘मैं क्रिकेट का जन्मदाता हूं, इसलिये सर्वश्रेष्ठ मैं हुआ.’’ टेस्ट-क्रिकेट भी अपनी दावेदारी से पीछे हटने को तैयार न था.
धीरे-धीरे उन तीनों की बहस तू-तू, मैं-मैं में बदल गयी. खाली बैठा स्टेडियम काफ़ी देर से उन तीनों की बातें सुन रहा था. उसने समझाया, ‘‘आप लोग आपस में लड़ने की बजाय किसी विशेषज्ञ से फ़ैसला क्यूं नहीं करवा लेते?’’
‘‘किससे फ़ैसला करवायें?’’ तीनों ने एक साथ पूछा.
‘‘गावस्कर सर से. वे प्रतिष्ठित भी हैं और वरिष्ठ भी. वे बिल्कुल सही फ़ैसला करेगे.’’ स्टेडियम ने राय दी.
‘‘हां, यह ठीक रहेगा. गावस्कर सर की मैं बहुत इज्ज़त करता हूं. उनके ही पास चलो.’’ टेस्ट क्रिकेट फौरन राजी हो गया.
‘‘गावस्कर सर की मैं भी बहुत इज्ज़त करता हूं, लेकिन उन्होंने कभी ट्वेन्टी-ट्वेन्टी खेला ही नहीं है. मेरे विचार से तेंदुलकर सर के पास चला जाये. उन्होनें तीनों तरह की क्रिकेट खेली है, इसलिये वे ज्यादा बेहतर बता पायेगें.’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी ने राय दी.


तीनों लोग फौरन सचिन तेंदुलकर के पास पहुंचे. उनकी बात सुन वह सोच में पड़ गये. उन्होनें क्रिकेट के इन तीनों रूपों का आनंद लिया था. कभी किसी एक को दूसरे से कम या ज्यादा नहीं समझा था. वे तीनों में से किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते थे. अतः कुछ सोच कर बोले, ‘‘भई, मैं तो रिटायरमेन्ट ले चुका हूं. आप लोग किसी ऐसे आदमी के पास जाइये, जो आज भी खेल रहा हो. वह ज्यादा सही फ़ैसला कर पायेगा.’’
आपस में सलाह करके तीनों धोनी सर के पास पहुंचे. उनकी बात सुन कैप्टन कूल भी धर्म-संकट में पड़ गये. उन्होंने भी तीनों खेलों का भरपूर आनंद उठाया था और कभी किसी को कम या ज्यादा नहीं समझा था.
कुछ सोचकर उन्होंने कहा, ‘‘भई, मैं भी धीरे-धीरे रिटायरमेंन्ट की ओर बढ़ रहा हूं, इसलिये मेरा कुछ कहना ठीक नहीं होगा. बेकार में बात का बतंगड़ बन जायेगा. आप लोग किसी नये खिलाड़ी के पास जाइये. उनके पास तुरन्त फ़ैसला करने की क्षमता ज्यादा अच्छी होती है, इसलिये वे ही सही राय दे सकेगें.’’
वे तीनों एक-एक करके विराट कोहली, शिखर धवन, रोहित शर्मा, सुरेश रैना, ईशांत शर्मा, रवीन्द्र जड़ेजा, आर.अश्विन और राहणे जैसे युवा खिलाड़ियों के पास गये. किन्तु अपनी बात का उत्तर उन्हें किसी के पास नहीं मिल पाया, क्योंकि जो खिलाड़ी वन-डे या ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में हिट था, वह टेस्ट क्रिकेट में भी अपना स्थान बनाना चाहता था. जो टेस्ट-क्रिकेट में हिट था, उसका सपना वन-डे और ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में भी स्थान बनाना था, इसलिये वह किसी एक को अच्छा बता कर दूसरों को नाराज़ नहीं करना चाहता था.
थक हार कर तीनों वापस स्टेडियम के पास लौट आये. उन्हें लग रहा था कि आज के ज़माने में किसी में सही बात कहने की हिम्मत नहीं है, इसलिये सभी टाल-मटोल कर रहे हैं.
उनकी बड़बड़ाहट सुन स्टेडियम ने कहा,‘‘फ़ैसला करने का एक तरीक़ा है मेरे पास.’’
‘‘तो आपने पहले क्यूं नहीं बताया?’’ वन-डे इंटरनेशनल झुंझला उठा.
‘‘मुझे लगा कि शायद आप लोग मेरी बात मानेगें नहीं, इसीलिये पहले संकोच कर रहा था.’’ स्टेडियम ने बताया.
‘‘हम आपकी बात ज़रूर मानेंगे. जल्दी बताइये क्या करना है.’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी उतावले हो उठे.
‘‘मैं आप तीनों की एक-एक टीम बनवाये दे रहा हूं. तीनों लोग आपस में मैच खेल लीजिये. जो जीतेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा.’’ स्टेडियम ने उपाय बताया.
‘‘हमे मंजूर है.’’ तीनों एक साथ बोल पड़े. सभी को अपनी-अपनी काबलियत पर पूरा भरोसा था.
‘‘मिस्टर टेस्ट-क्रिकेट आप सबसे बड़े हैं, इसलिये पहला मौक़ा आपको दे रहा हूं.’’ स्टेडियम ने टेस्ट क्रिकेट की ओर देखा. फिर मुस्कुराते हुये बोला, ‘‘आप देश के सबसे अच्छे 11 तेज गेंदबाज छांट लीजिये. उसके बाद मिस्टर वन-डे इंटरनेशनल 11 सर्वश्रेष्ठ स्पिन बॉलर छांट लें, फिर मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी 11 बेहतरीन बल्लेबाज छांट लें. कल तीनों टीमों का मैच हो जाये, तब पता लग जायेगा किसमें कितना दम है.’’
‘‘क्या फालतू बात करते हैं. खाली 11 गेंदबाजों से कहीं टीम बनती है?’’ टेस्ट क्रिकेट ने मुंह बनाया.
‘‘मैं खाली 11 स्पिनर ले लूंगा, तो मेरी टीम से रन कौन बनायेगा?’’ वन-डे इंटरनेशनल ने भी आंखे तरेरीं.
‘‘और अगर मैने खाली 11 बल्लेबाज ले लिये, तो हमारी तरफ़ से बॉलिंग कौन करेगा?’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी भी झल्ला उठे.
स्टेडियम ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह बस मुस्कुराता रहा. यह देख टेस्ट क्रिकेट का पारा चढ़ गया. वह तेज स्वर में बोला, ‘‘आप सैकड़ों मैच देख चुके होगें, मगर आपको यह भी नहीं पता कि खाली तेज गेंदबाज, स्पिनर या बल्लेबाजों से टीम नहीं बनती. इन तीनों का अपना-अपना महत्व है. टीम की मज़बूती के लिए ये तीनों ज़रूरी है.’’

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‘‘मेरे भाई, जिस तरह टीम की मज़बूती के लिए ये तीनों ज़रूरी हैं, उसी तरह क्रिकेट की मज़बूती के लिए तुम तीनों भी ज़रूरी हो. क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ाने में तुम तीनों का योगदान महत्वपूर्ण है. इसलिये तुममें कोई छोटा या बड़ा नहीं है. तुम तीनों ही सर्वश्रेष्ठ हो.’’ स्टेडियम ने एक-एक करके तीनों के कंधे थपथपाते हुये कहा.
स्टेडियम की बात तीनों की समझ में आ गयी. उनके चेहरे पर पश्चाताप के चिह्न उभर आये. टेस्ट-क्रिकेट सबसे बड़ा था. अतः उसने बड़प्पन दिखाते हुये मिस्टर ट्वेंटी-ट्वेंटी और वन-डे इंटरनेशनल को गले लगाते हुये कहा, ‘‘भाईयों, मुझे माफ़ कर दो. मैं बड़ा होकर भी छोटी बातें कर रहा था.’’
‘‘दादा, हमें भी माफ़ कर दीजिये. हमने छोटा होकर भी आपसे बहस की.” वन-डे इंटरनेशनल ने कहा.
‘‘दादा, मेरा वर्ल्ड कप शुरू होनेवाला है. चलिये, उसका आनंद लीजिए और देखिए जो खिलाड़ी वन-डे और टेस्ट-क्रिकेट खेल सकते हैं, उनकी अच्छी द्रैनिंग का इंतजाम किया जाए.’’ मिस्टर ट्वेंटी-ट्वेंटी ने कहा.
‘‘चलो.’’ टेस्ट-क्रिकेट ने दोनों की पीठ थपथपायी.
“अरे मुझे भूल कर तुम तीनों कहां जा रहे हों?’’ स्टेडियम ने आवाज़ लगायी.
‘‘अरे सर, हम लोग आपको भला कैसे भूल सकते हैं? हम चाहे कोई भी रूप बदल लें, हमें खेलने तो आपके पास ही आना पड़ेगा.’’ टेस्ट-क्रिकेट ने हंसते हुए कहा.
‘‘ठीक है. जाओ लेकिन जल्दी ही आना और अच्छी-अच्छी टीमें लेकर आना. मज़ेदार मैच देखे बहुत दिन हो गए हैं.’’ स्टेडियम भी हंस पड़ा.
तीनों भाई एक-दूसरे का हाथ थाम चल पड़े. उनमें अब कोई गिला-शिकवा न था.

– संजीव जायसवाल ‘संजय’


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सब पत्र-पत्रिकाओं को देख छांटना कोई छोटी-मोटी बात नहीं, सो सुविधा से काम करने का सोच ही रहा था कि पत्नी फिर आ धमकी. उसने आव देखा न ताव देखते ही देखते आलमारियों की सारी किताबें दोनों हाथों से नीचे गिरा दीं. फिर मुझे तीखी नज़रों से देखती बोली, “ऐसे टर्रम-टर्रम से नहीं होता काम. मैं तुम्हारी तरह मिनटों के काम में घंटों नहीं लगाती.”

वैसे तो हर सुबह गृहिणी द्वारा घर-घर में साफ़-सफ़ाई की परंपरा का निर्वहन हो रहा है, पर जब दिवाली की सफ़ाई की बात हो, तो गृहस्वामी को भी सफ़ाई कार्य में झाडू लिए सावधान की स्थिति में पत्नी के सामने खड़ा हो उसके निर्दोशानुसार सफ़ाई कार्य में जूझना होता है.
दिवाली के आते ही मेरी स्थिति भी ऐसी ही बन गई. कुछ दिन रह गए दिवाली के. स्कूल में दिवाली की छुट्टियां चल रही थी, सो कोई बहाना न बनाकर ना-नुकर भी संभव नहीं रहा. मैंने अपना लिखना-पढ़ना छोड़ा और घर की साफ़-सफ़ाई में लग गया.
दो दिन से घर की सफ़ाई में सारे काम छोड़ रोज़ सुबह से लेकर शाम तक कोल्हू के बैल की तरह जुटा हूं. लगने लगा जैसे मैं अखाड़े में पहली बार दण्ड-बैठकें कर रहा हूं. शरीर थकने लगा. कमर टूट कर मैथी पालक हो गई. हे भगवान! पता नहीं अभी कितने दिन और चलेगा सफ़ाई अभियान? पत्नी कहती, “सरकार गृहिणियों की सुविधा को ध्यान में रख टीचर्स को स्कूल में छुट्टियां साफ़-सफ़ाई में सहायक बनने के लिए ही तो देती है.”
दो दिन में आधा घर ही साफ़ हुआ था. अभी तो वह कमरा जहां मैं शांति से लिखने-पढ़ने का काम करता हूं और जिसमें वर्षों से जमी पत्र-पत्रिकाएं और कहानी-कविता की किताबें आलमारियों और टांड में ठसाठस भरी हुई थी. सफ़ाई करना ज्यों का त्यों बाकी था. कई पत्रिकाएं तो जिनकी उम्र पैतालिस-पचास पार हो गई, वह सारी पत्नी की पुरानी साड़ियों में बंधी टांड पर पड़ी थी. उन्हें टांड से नीचे गिराया, तो पूरा कमरा धूल-धमाके से भर गया. खांसी चलने लगी शुद्ध हवा की चाह में दौड़कर बाहर आया.

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इन पत्रिकाओं को मैंने साहित्य के प्रति लगाव के कारण अभी तक संभालकर रखा हुआ था. बस, दिवाली के साफ़-सफ़ाई के दिनों में दिन भर हो जाते. बाकी सालभर साड़ी की गर्माहट में लिपटकर अपने दिन काटती रहती. लंबे समय से ये पत्रिकाएं ही पत्नी की निगाह में कांटे की तरह चुभती रहतीं. और गाहे-बगाहे इन्हें रद्दी के हवाले करने की धौंस देती रहती. मैं ओल्ड इज गोल्ड कहकर उसे समझाने का प्रयास करता, पर वह तर्क देती, “इन्हें कभी खोलकर पढ़ते तो देखा नहीं. फिर इनके प्रति इतनी बेचैनी भरा लगाव क्यों?” मैं हां हूं… करता, जैसे-तैसे उसे संतुष्ट कर अपनी साहित्यिक आस्था को संजोए रखने में हर बार सफल हो जाता.
पर अब की बार कुछ दिन पहले ही अल्टीमेटम मिला. यह अल्टीमेटम पहले की तरह फुस्स हुए पटाखे की तरह नहीं था, बल्कि इस बार तो करफ्यू में देखते ही गोली मार देने के आदेश की तरह तेज-तर्रार लग रहा था. मैंने इसके बावजूद भी सोचा जो होगा देखा जाएगा. भली करेंगे राम.
सुबह चाय पीकर काम पर लगा ही था कि पत्नी आ धमकी. दो घंटे में कमरे की सफ़ाई पूरी करने की चेतावनी देती बोली, “एक सरकारी नौकरी करनेवाली युवती कमरा किराए पर ले रही है. मैंने उसे यह कमरा बता दिया. दो पैसे आएंगे, तो कई काम होंगे. बेटी की शादी करनी है, तो पैसा जो जुटाना ही पड़ेगा न?” अपना पक्ष रख चली गई.
मैं भी थका-थका हो गया, सो थोड़ा सुस्ताने लगा. सब पत्र-पत्रिकाओं को देख छांटना कोई छोटी-मोटी बात नहीं, सो सुविधा से काम करने का सोच ही रहा था कि पत्नी फिर आ धमकी. उसने आव देखा न ताव देखते ही देखते आलमारियों की सारी किताबें दोनों हाथों से नीचे गिरा दीं. फिर मुझे तीखी नज़रों से देखती बोली, “ऐसे टर्रम-टर्रम से नहीं होता काम. मैं तुम्हारी तरह मिनटों के काम में घंटों नहीं लगाती.” तभी कुकर की सीटियों ने उसे किचन में बुला लिया.
मुझे लगा आज का दिन तलवार की धार पर चलने जैसा है. सोचा सुबह से लग रहा हूं, थोड़ा नहा लूं, फिर इनसे निपटता हूं कि कैसा क्या करना है? अभी ऐसा मन बना ही रहा था कि पत्नी चाय बना लाई. बोली, “थको मत, गरमा गरम लेखकीय मूड़ वाली चाय बनाई है. ताज़ातरीन हो जाओ और जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ.”
अभी काम करने की प्रेरणा जगा वह बाहर निकली ही थी कि तभी डोरबेल बजी. देखा साहित्यिक मित्र गंगाधरजी प्रगट हुए हैं. पत्नी को सामने खड़ा देखा, तो पूछ बैठे, “कहां हैं कमलजी?”
“अंदर कमरे मे साफ़-सफ़ाई में व्यस्त हैं.” गंगाधरजी सीधे कमरे में पहुंच गए. देखा कमलजी तो चारों ओर किताबों पत्रिकाओं के ढेर से घिरे बैठे हैं.
“अरे! अभी तक तैयार नहीं हुए. सोमेवरजी के यहां गोकुलधाम पुस्तकालय उद्घाटन में चलना नहीं क्या? यह काम तो फिर कभी ़फुर्सत में कर लेना. सोमेवरजी ने अपने ही मकान के कमरे में प्रबुद्ध लोगों और लेखकों के लिए पुस्तकालय खोल रहे हंैं. वहां कई साहित्यिक प्रेमी पहुंच चुके थे.”
कमलजी ने पत्नी की ओर देखा. गंगाधरजी की बात से उसका चेहरा लाल हो गया था, पर पत्नी के सारे ग़ुस्से को धता बताकर वह गंगाधरजी के साथ हो लिए. मुख्य अतिथि के रूप में कमलजी कम्प्यूटर, मोबाइल और टीवी के ज़माने में पुस्तकों व पुस्तकालय के महत्व पर प्रकाश डाला. साथ ही भाई सोमेवरजी की दरियादिली पर ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए उनका आभार जताया.

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कमलजी दो घंटे बाद घर लौटे, तो नज़ारा बहुत कुछ बदला हुआ था. कमरा पूरी तरह साफ़ हो चुका था और वह युवती किराए पर रहने आ गई थी और कमरे में अपना सामान जमा रही थी. पत्नी सारी पुरानी पत्र-पत्रिकाएं रद्दी वाले को दे चुकी थी. रद्दी वाला जिन्हें ठेले पर लाद कर और रद्दी की चाह में आवाज़ लगाता आगे बढ़ गया. मैं अपनी साहित्यिक दुनिया के ख़ज़ाने को सदा के लिए विदा होता देखता रहा.
आलमारी की सारी पुस्तकें अब प्लास्टिक के कट्टे में डालकर पीछे वाले अंधेरे कमरे में पहुंचा दी गई.
पत्नी कमलजी को देख चेहरे पर विजयी मुस्कान लाती हुई उत्साह से बोली, “आपका सारा बोझ हल्का कर दिया. दिवाली की सफ़ाई पूरी हो गई. अब ये पुस्तकें नई खुली लाइब्रेरी में ले जाना. आपके सहयोग पर सब आभार जताएंगे.” कमलजी सोचते रहे, ‘हे भगवान यह दिवाली की सफ़ाई हुई या मेरे साहित्य जगत की.’

– दिनेश विजयवर्गीय

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जैसे-जैसे समय बीत रहा था लाइव जुड़नेवालों की संख्या बढ़ रही थी. इसे देखकर घर में बैठे नए युग के बच्चों में भी गहरी आस्था का संचार हो रहा था. जो बच्चे पूजा-पाठ के नाम से दूर भागते थे वे भी फेसबुक लाइव और यू ट्यूब में अपने आप को देखकर उत्साह से भर उठे थे. वे सभी आगे बढ़ बढ़ कर मोबाइलानंद के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे. वे बड़े शान से माथे पर टीका लगवा हाथ में कलावा धागा बांध लाइव स्ट्रीमिंग मोबाइल के कैमरे की फोकस में ख़ुद को सेट कर रहे थे. मोबाइलानंद भी बड़े प्रभावी ढंग से विस्तारपूर्वक मोबाइल व्रत के लाभ की कथा सुना रहे थे.

जैसे ही पंडित मोबाइलानंद जी ने पूजा प्रारंभ की पूरे घर में सन्नाटा छा गया. वैसे तो यह अनुष्ठान ऑनलाइन होना था, लेकिन कोविड की सुधरती स्थिति से उत्साहित होकर माता जी अर्थात श्रीमती राधारानी जी ने इसे घर में ही आयोजित करने का निर्णय लिया. वस्तुतः उनका दृढ़ विश्वास था कि मुहल्ले में नियमित आयोजित हो रहे इस व्रत के प्रभाव से ही घर में सुख-शांति आ रही है, जिसके प्रभाव से कोविड भी बीट हो रहा है.
मोबाइलानंद जी ने एक बड़े से 5जी मोबाइल की फोटो रखी और धूप बत्ती जलाते हुए कहा, “ॐ मोबाइलाय नमः” इतना कहते ही उन्होंने घर के सभी सदस्यों से अपने-अपने मोबाइल ला कर पूजा में रखने को कहा. अब बच्चों से लेकर बड़ों तक कोई भी मोबाइल नहीं रखना चाहता था, लेकिन जैसे ही माता राधारानी ने अपना मोबाइल पंडित जी को समर्पित किया और सभी को घूर कर देखा न चाहते हुए भी सभी को अपना मोबाइल वहां रखना पड़ा. खैर पंडित जी ने कथा प्रारंभ की और कहा, “इस कथा का पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि घर के सभी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, जैसे- लैपटॉप, टैब, चार्जर इत्यादि यहां लाकर मोबाइल देव को समर्पित करें.”
वैसे उन्होंने हवन कुंड भी मंगा रखा था, सो बच्चे डर गए कहीं इनकी आहूति न दे दी जाए. बेटा तो घबरा गया कहीं आई फोन आहूति में चला गया तो… और वो बेटी तो रोने लगी, “मेरा आई पैड गया मम्मी.” बेचारे कृष्ण गोपाल जी तो बेज़ुबान से अपना एमआई का चाइनीज़ मोबाइल चुपचाप पहले ही समर्पित कर चुके थे. लोग ज़्यादा नाटक न करें, इसलिए पंडित मोबाइलानंद बोले, “जो अपने गैजेट यहां स्वेच्छा से रख देंगे, उन्हें शाम आठ बजे के बाद व्रत का उद्यापन पूरा होने पर अपना सामान मिल जाएगा और जिसने भी इस महायज्ञ में व्यवधान पैदा किया उसका गैजेट निश्चित रूप से इस हवन कुंड में आहूत कर दिया जाएगा.”
इतना सुनना था कि क्षण भर में घर में छुपे सभी गैजेट बाहर आ गए.
जैसा कि किसी भी कथा के नियम हैं सर्वप्रथम पंडित मोबाइलानंद जी ने उस पर प्रकाश डालना प्रारंभ किया. वे बोले, “आधुनिक युग में सब से प्रभावशाली व्रत कथा मोबाइल व्रत कथा है. इसके करने से घर-परिवार में सुख-शांति आती है, पारिवारिक कलह समाप्त होती है. इतना ही नहीं इस व्रत के करने से रिश्ते-नातों में सुधार होता है. बच्चों के नंबर अच्छे आने प्रारंभ हो जाते हैं. आंखों में निरंतर बढ़ रही जलन शांत होती है. सर्वाइकल, कान दर्द और कमरदर्द में लाभ होता है. घर में लोगों के बीच सौहार्द बढ़ता है. समयाभाव कम होता है. जिन लोगों का भोजन के प्रति विराग पैदा हो गया है, उन्हें फास्ट फूड छोड़ कर भारतीय भोजन के प्रति अनुराग पैदा होता है.”
पंडित जी ने यह भी बताया कि कैसे किसी ने इस कथा का अनादर किया, तो उसका मोबाइल खो गया. फिर जब उसने इस व्रत की कथा को सुना और प्रसाद ग्रहण किया, तो उसका खोया मोबाइल उसी घर में पंद्रह दिन बाद पूजा घर में छुपा मिला. वैसे ही बहुत से लोगों के ऐप और फोटो गैलरी से हिडेन फोटो गायब होने की शिकायत मिली.

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इतना ही नहीं इस युग में मोबाइल व्रत कथा के लाभ अति शीघ्र प्राप्त होते हैं, सो इसे विधि-विधान पूर्वक करनेवाले विद्यार्थियों को अच्छे जॉब मिलने व बड़े कंपटीशन जैसे आईआईटी और मेडिकल में सिलेक्शन जैसे फल भी प्राप्त हुए है. ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले नीरज चोपड़ा के तीन वर्षीय मोबाइल स्पर्श न करने के अनुष्ठान का क़िस्सा भी सभी को पता ही है.
इस व्रत से घर की नईनवेली बहुएं व माताएं बहुत प्रसन्न नज़र आईं. सभी ने सुंदर वस्त्र पहने थे और घर में लॉकडाउन के पश्चात एक बड़े आयोजन का आनंद उठाते हुए ख़ूब श्रृंगार किए. उधर मोबाइलानंद जी ने अपने व्यक्तिगत मोबाइल को मोबाइल स्टैंड पर फिक्स करा कर इस कथा के लाइव प्रसारण की व्यवस्था भी कर दी थी. सौ से अधिक लोग मोबाइलानंद महाराज के यू ट्यूब चैनल से लाइव जुड़ कर इस कथा का आनंद उठा रहे थे. जैसे-जैसे समय बीत रहा था लाइव जुड़नेवालों की संख्या बढ़ रही थी. इसे देखकर घर में बैठे नए युग के बच्चों में भी गहरी आस्था का संचार हो रहा था. जो बच्चे पूजा-पाठ के नाम से दूर भागते थे वे भी फेसबुक लाइव और यू ट्यूब में अपने आप को देखकर उत्साह से भर उठे थे. वे सभी आगे बढ़ बढ़ कर मोबाइलानंद के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे. वे बड़े शान से माथे पर टीका लगवा हाथ में कलावा धागा बांध लाइव स्ट्रीमिंग मोबाइल के कैमरे की फोकस में ख़ुद को सेट कर रहे थे.
मोबाइलानंद भी बड़े प्रभावी ढंग से विस्तारपूर्वक मोबाइल व्रत के लाभ की कथा सुना रहे थे. उन्होंने डू एंड डू नॉट्स ऑफ मोबाइल बताया जैसे कि किस तरह हम इसके सही उपयोग से ठगी और ब्लैकमेलिंग से बच सकते हैं.
कैसे मुसीबत के समय महिलाएं, बुज़ुर्ग और बच्चे हेल्पलाइन नंबर का उपयोग कर सकते है.
हरि अन्तन हरि कथा अनंता की ही तर्ज पर उन्होंने बताया कि मोबाइल अनंत इति कथा अनन्ता अर्थात यह मोबाइल भी आज अपने विस्तार के कारण अनंत फलदाई हो गया है. इसके स्वरूप और गुणों का वर्णन तो साक्षात सेल गुरू मखानी भी नहीं कर सकते.
हां, इस व्रत कथा से बच्चों में जन्मे संस्कार देख कर बड़े-बुज़ुर्ग भी ख़ुश हो उठे थे. सभी को पंडित मोबाइलानंद जी ने अलग-अलग ब्रांड की मोबाइल के सिंबल का टीका लगाया. साथ ही मिष्ठान भंडार वाले ने ख़ास मोबाइल के आकार की बर्फी बनाई थी प्रसाद में चढ़ाने के लिए. वैसे ही फूल-मालाएं और रंगोली भी मोबाइल के आकार में सजा दी गई थीं. वस्तुतः पूरा घर ही आज मोबाइलमय नज़र आ रहा था. कथा के पूर्ण होने पर मोबाइल आरती गाई गई.
ॐ जै मोबाइल देवा, स्वामी जै मोबाइल देवा।
तुमको निश दिन ध्यावत। बाल वृन्द शिक्षक अफसर अरु चैनलवा ।।
इसके बाद आरती में दक्षिणा के लिए मोबाइलानंद जी ने अपना क्योआर स्कैनर भी डिस्प्ले कर दिया था, जिससे ऑनलाइन जुड़े श्रोता भी बड़ी आसानी और श्रद्धा भाव से आरती ग्रहण कर अपनी दान-दक्षिणा दे रहे थे. QR स्कैनर पर धड़ाधड़ सौ-सौ की आरतियां ली जा रही थीं. वहां तो जैसे आरती लेनेवालों की होड़ लगी थी. कुछ ने तो पांच-पांच हज़ार की आरती भी ली. नीचे कमेंट लिखा- यह हमारी मान्यतापूर्ण होने के फलस्वरूप. यह देख श्रोताओं के श्रद्धा भाव की सीमा न रही. वह यजमान जो पंडित जी को मात्र सवा सौ की दक्षिण में विदा कर देते थे उन्होंने बड़े ही शान से पांच सौ का नोट निकाला. घर के बच्चे तो गुल्लक तोड़ कर दक्षिणा देने को आमादा थे, लेकिन पंडित जी ने बच्चों को अलग बिठा कर उनसे दक्षिणा के बदले वचन देने को कहा. उन्होंने सभी बच्चों को बुला कर यह वचन लिया कि वे इस कथा के श्रवण के बाद अपने मोबाइल पर कभी भी पोर्न साइट नहीं देखेंगे और न ही किसी के कहने में आ कर एडल्ट चैट करेंगे.
बच्चों को मोबाइलानंद जी के इस छुपे ज्ञान को जान कर उन पर अगाध श्रद्धा हो उठी. यह बात उन्होंने घर के बड़े-बुज़ुर्गों को भी नहीं बताई, लेकिन जब बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी बाहर निकले, तो माता-पिता की श्रद्धा इस व्रत पर और बढ़ गई. महिलाओं ने आज अपने सीक्रेट बटुए खोल कर दक्षिणा दी थी, क्योंकि बच्चों ने चुपचाप यह बात मम्मी को बताई थी, जिसका लाभ उठाते हुए उन्होंने यह हिदायत बच्चों के पापा को भी दे दी थी.

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आज मोबाइल व्रत कथा समाप्त होने के पश्चात घर के लोगों में एक साथ बैठकर हंसने-बोलने और मिलकर एक साथ खाना खाने की प्रवित्ति भी पाई गई. हर व्यक्ति थोड़ी-थोड़ी देर में अपने मोबाइल की ओर लपकता, लेकिन पंडित जी द्वारा बताए हुए अनिष्ट के डर से किसी की भी हिम्मत मोबाइल को हाथ लगाने की नहीं हो रही थी. दिल में हूक तो उठती, लेकिन सब कंट्रोल करके एक-दूसरे पर हंसते. आज हाथ की उंगलियां और आंखें भी रिलैक्स फील कर रही थीं.
मोबाइल न होने के कारण आज कृष्ण गोपाल जी को भी पार्क में घूमने और दोस्तों से मिलने जाने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई. वैसे ही उनके बेटे को भी मार्केट जाने का मन नहीं हुआ. आज बेटी भी घर के काम में अपनी मां का हाथ बंटाती दिख रही थी. आज घर में खाना बड़ी तबीयत से बना. पूरी-सब्ज़ी के साथ ही बड़े दिनों बाद कढ़ी, दही वड़े और दो तरह की चटनी बनी. आज चाय के साथ पकौड़े बने किसी ने मैगी की ज़िद नहीं की. मज़ा यह कि आज दिन ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. टाइम काटे नहीं कट रहा था, सो सब आपस में गप्पें मारते मिले. बड़े दिनों बाद आज घर में अंताक्षरी और लूडो खेला गया. इतना ही नहीं शाम होते-होते पुरानी फोटो का एल्बम भी निकल आया. कारण यह कि मोबाइल न होने से किसी के पास अपनी फोटो गैलरी देखने का ऑप्शन ही नहीं था. घर में जो महीनों से खींचतान का माहौल चल रहा था, जिसमें सभी भीतर-भीतर कहीं न कहीं शिकायतें लेकर बैठे थे और कह नहीं पा रहे थे उसे कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. सबको विश्वास हो गया था कि कोई ग़लत नहीं है, सभी अच्छे लोग हैं. ख़ैर आपसी प्रेम एक बार फिर इतना बढ़ गया कि शाम को अड़ोस-पड़ोस के लोगों के साथ कॉलोनी के लॉन में पिकनिक मनाने का कार्यक्रम बना. कारण यह कि जिस-जिस ने भी मोबाइल व्रत कथा सुनी थी, सभी ने अपने मोबाइल ऑफ करके रखे थे, जिससे इस कथा का पूर्ण लाभ मिल सके. सो इस प्रकार मात्र एक दिन के व्रत से प्राप्त हुए फल को देखते हुए यह मोबाइल व्रत कथा लगातार प्रसिद्धि प्राप्त कर रही है और अनंत फलदायी हो चुकी है. सो मेरा सभी पाठकों से अनुरोध है कि शीघ्रातिशीघ्र वे भी बंधु-बांधवों सहित इस महान कथा का आयोजन कर अपने जीवन में पुण्य के भागी बनें और अपने घर को धन-धान्य परिपूर्ण बनाने के साथ ही अपने बच्चों व परिवार के सदस्यों का जीवन सुंदर बनाने का प्रयास करें.
इति मोबाइल व्रत कथा अंतिम अध्याय समाप्तम!

  • मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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विदेशी मेहमान द नींबूजी की तारीफ़ करते ना थक रहे थे. मैंगोस्टीन ने बताया, “द नींबूजी, विश्व सुंदरी ऐश्वर्या रॉय के द्वारा भी प्रमोट किए गए हैं. ‘नींबूड़ा नींबूडा…’ गाने में, जो आजकल ट्रेंडिंग है…” सभी ने एक सुर में हां में हां मिलाई और तालियों की गड़गड़ाहट. नींबू की ख़ुशी का मानो ठिकाना ना था, पर फिर भी एक अजीब-सी बेचैनी मन में घर किए बैठी थी.

नींबू ने जो गज़ब की सफलता पाई है अभी कुछ समय में वो सच में बधाई के योग्य है. हर जगह बस नींबू के ही चर्चे हैं. आम से लेकर ख़ास तक, अख़बार से लेकर सरकार तक, व्यंग्यकार से लेकर वॉट्सएप के ज्ञानी मैसेज तक, इंस्टा की रील्स, यूट्यूब के शॉट्स से लेकर एनिमेटेड वेब सीरीज़ तक हर जगह बस नींबू ने अपनी पकड़ ऐसे बनाई है जैसे हर्षद मेहता के समय में शेयर के भाव थे.
तो इसी उपलक्ष्य में नींबू ने रखी एक कॉकटेल पार्टी, क्योंकि देश-विदेश से सभी परिचितों और ख़ास अजनबियों के इतने बधाई और पार्टी के कॉल आ चुके कि अब स्वयं नींबू, नींबू ना रहकर, ‘द नींबू’ हो गया, जिससे सभी मिलना चाहते हैं.
कुछ साग-सब्ज़ियां और फल भी, नींबू की इस अपार सफलता से कुढ़ रहे हैं, कुछ ईर्ष्यावश बुराई कर रहे हैं, कुछ फ्री की पार्टी मिलने की ख़ुशी में मग्न हैं, कुछ सच में ख़ुश हैं और कुछ भुगतभोगी, ये जानते हैं कि ये सब चकाचौंध ज़रा-सी देर की है, फिर वही ढाक के तीन पात.

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नींबू का सबसे पक्का साथ रहा है मिर्ची के साथ, नींबू की तरक़्क़ी की ख़बर मिलते ही सबसे पहले वो आई थी, नाचती-झूमती, बधाई दी, साथ में नज़र भी उतारी थी नींबू की. पर पार्टी का न्योता अब तक उसे ना मिला था, ख़बर पहले मिल गई थी, सो वो तैयारी में लग गई.
मिर्ची को उसके मॉं, बाबा, प्याज़ चाची, काली मिर्च मौसी लगभग सभी ने समझाया, पर वो प्रेम दीवानी बोली, “नींबू मुझे ना बुलाए, ऐसा भी हो सकता है भला? और वे भी अपनों को क्या न्यौता देना, हम तो मेजबान हैं, मेहमान थोड़ी!”
अब उसे कैसे समझाए कि एकदम से मिली अतिशय शौहरत आदमी के सिर चढ़ जाती है, तो भला नींबू जैसा भोला जीव उससे अछूता कैसे रहता? वैसे भी बरसों से मानवों के बीच रहते उनके रंग सभी पर चढ़ गए है आजकल.
ख़ैर, नींबू ने आख़िर अपनी देसी मिर्ची को बताया शाम को पार्टी है, तुम ज़रूर आना!
मिर्ची ने सबको गर्व से त्यौरियां दिखाई मानो कह रही हो, ‘देखा…’
शाम की पार्टी की कवरेज के लिए मीडिया में गहमागहमी थी. विदेशी सब्ज़ियां और फल भी शिरकत जो करनेवाले थे. पार्टी हॉल की सजावट का क्या कहें. अगर स्वर्ग की कल्पना की होगी किसी ने तो बस वैसी ही आकर्षक साज-सज्जा, चारों ओर मधुर सुर संगीत ने भी सबको मुग्ध कर रखा था.
तभी द नींबू साहब पधारे, स्वागत में चारों ओर से पुष्प वर्षा होने लगी, पर… पर उनके साथ तो प्यारी मिर्ची को होना था, पर वो तो अपने साथ एक ओर जेलपीनो और दूसरी ओर कैरोलीना रीपर के साथ आए थे. एक बला की ख़ूबसूरत लग रही थी और दूसरी सबसे तेज का खिताब लिए इठलाती मित्र नींबू का हाथ थामे सबसे मिल रही थी.


यूं भी कोरोना के बाद ऐसे जानदार और शानदार पहली पार्टी थी शायद. एक तरफ़ देसी सब्ज़ियां नींबू के इस व्यवहार से नाख़ुश थीं, बोलीं, “हमारी बेटी के साथ रंगभेद के नाम पर भेदभाव हुआ है. हमारी देसी मिर्चियां किसी से कम है के? अरे वर्ल्ड रिकॉर्ड तो इनके नाम भी है, तीखी तेज तर्रार होने का, बस रंग ज़रा गहरा है, तो नींबू ने आज उन विदेशियों को चुन लिया?” ये कहकर मिर्ची के परिवारवाले उसे अपने साथ वापस ले गए और कुछ भाजियां उनसे सहमत, अपना विरोध जताती मीडिया में अपनी सशक्त बात बताकर पार्टी से चली गईं.
दूसरी तरफ़ विदेशी मेहमान द नींबूजी की तारीफ़ करते ना थक रहे थे. मैंगोस्टीन ने बताया, “द नींबूजी, विश्व सुंदरी ऐश्वर्या रॉय के द्वारा भी प्रमोट किए गए हैं. ‘नींबूड़ा नींबूडा…’ गाने में, जो आजकल ट्रेंडिंग है…” सभी ने एक सुर में हां में हां मिलाई और तालियों की गड़गड़ाहट. नींबू की ख़ुशी का मानो ठिकाना ना था, पर फिर भी एक अजीब-सी बेचैनी मन में घर किए बैठी थी.
वहीं कुछ कोने में बातें बना रहे थे. खटाई का काम तो टमाटर, इमली, अमचूर और नींबू के (फूल) सत या दही भी कर लेते हैं, ये फसल कम होना या ख़राब होना, सब कालाबाजारी करके नींबू ने अपना दाम, नाम और शौहरत बढ़ाने के लिए किया है…
प्याज़ के बिना आधे से ज़्यादा विश्व नहीं रह सकता और वही बात आलू की भी है, पर नींबू? नींबू में ऐसा क्या है? विटामिन सी तो संतरा भी देता है और ऊपर से वो सुंदर बड़ा फल भी है, नींबू तो…
ये बातें भी नींबू श्री तक पहुंच रही थी, पर अभी वो बस आज की पार्टी एंजॉय करना चाहते थे. फिर ख़ूब कार्ड्स खेले गए और मॉकटेल, कॉकटेल भी चली. जैसी सभी बड़ी पार्टियां होती हैं वैसी ही ये भी रही.

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पर पार्टी ख़त्म होते ही, नींबू जाकर अपने पुराने दिनों को याद करने लगा, नाम दाम ना सही, लोगों का कितना स्नेह था, बीमारी से लेकर मेहमानों तक में उसकी पूछ थी, पर अभी? अभी केवल नेताओं में चर्चा है, कवि/ लेखक के उपमाओं में स्थान है और लोगों की रील्स और तानों में उसका नाम है.
तभी उसकी चहेती मिर्ची ने आकर पीछे से एक धौल दी, “क्यों बच्चू? इतना बड़ा आयोजन करके भी उदास काहे?” नींबू कुछ ना कह पाया, बस आंख के कोर में तरलता आ गई, इतना ही कहा, “सॉरी, मुझे पता है पर मैं क्या करता. इतने सालों बाद ये जो सब सिर्फ़ मेरी बात रहे हैं, बस उसी का नतीज़ा…” मिर्ची ने एक और मीठी चपत लगाई और हंस दी.
दोनों पुनः पहले की तरह ठहाका लगाकर बतियाने लगे और ये मनभावन दृश्य देखकर तारे मुस्कुराने लगे.

अंकिता बाहेती

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घर में वक़्त पर फफूंद लगी रोटी हो या न हो, लेकिन आज के जमाने में फोन तो होना चाहिए. तो इस घर में भी एक फोन है. ये फोन घर के मुखिया के पास होता है और इतनी छोटी साइज़ का होता है कि पसंद आने पर घर के चूहे उसे खींच कर बिल में छुपा सकते हैं. गरीब आदमी के फोन में रिश्तेदार के कम ठेकेदार के ज़्यादा नंबर होते हैं. गरीब के फोन पर बाहर से आनेवाली कॉल कम और मिस कॉल ज़्यादा होती है.

अगर कोई घर गरीबी की गिरफ़्त में हो, तो उसका असर घर के चूहे और बिल्ली तक पर पड़ता है. चूहे उस घर में आज़ादी से आते-जाते हैं, वहीं दूध मुक्त रसोई होने के कारण बिल्लियां घर को दूर से ही प्रणाम कर लेती हैं. गुरबत भरे घर के लोग कुपोषित, लेकिन चूहे हृष्ट-पुष्ट और इतने दबंग होते हैं कि डेढ़ साल तक के बच्चे से रोटी छीन कर चले जाते हैं! ढीठ इतने कि ये चूहे अक्सर घर की पुरानी रजाई में ही बच्चे दे देते हैं. गरीब के घर का दरवाज़ा इतना कमज़ोर और कुपोषित होता है कि मुहल्ले का कृषकाय कुत्ता तक बेरोक-टोक अंदर आ जाता है! इसके बाद भी वो कुत्ता अगर दोबारा उस घर में नहीं घुसता, तो उसकी शराफ़त नहीं, चूहों की भरमार है. (आत्मनिर्भर चूहे कमज़ोर कुत्ते को दौड़ा लेते हैं!)
ऐसे घरों में एक फोन भी पाया जाता है. जी हां, घर में वक़्त पर फफूंद लगी रोटी हो या न हो, लेकिन आज के जमाने में फोन तो होना चाहिए. तो इस घर में भी एक फोन है. ये फोन घर के मुखिया के पास होता है और इतनी छोटी साइज़ का होता है कि पसंद आने पर घर के चूहे उसे खींच कर बिल में छुपा सकते हैं. गरीब आदमी के फोन में रिश्तेदार के कम ठेकेदार के ज़्यादा नंबर होते हैं. गरीब के फोन पर बाहर से आनेवाली कॉल कम और मिस कॉल ज़्यादा होती है. गरीब आदमी मिस कॉल को ठेकेदार की कॉल समझ पलट कर फोन करता और दुखी होता है.

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गरीब आदमी का फोन और बीड़ी का बंडल एक ही जेब में होता है. कभी-कभी मजदूरी न मिलने के टेंशन में वो बंडल की जगह मोबाइल से बीड़ी निकालने की कोशिश करता है. क्या करे गरीबीवाले जिगर मा बड़ी आग है. जब बुद्धि धुआं देने लगती है, तो नोकिया फोन और नूरा बीड़ी में फर्क़ नहीं नजधर आता.
गरीब का फोन कई शिफ्ट में ड्यूटी देता है. शाम को थका-हारा गरीब जैसे ही आठ बजे सोता है उसकी पत्नी तकिए के नीचे से फोन निकालकर अपनी बड़ी बहन को फोन करती है, “दीदी, फिर ठेकेदार इनका पैसा मार कर भाग गया. इनको अब तक सारे ठेकेदार रण छोड़दास ही मिलते आए हैं. जीजाजी से कहकर कहीं ऑफिस में चपरासी या गार्ड की बढ़िया नौकरी लगवा देती.” उधर से ऑक्सीजन विहीन आश्वासन पाकर वो अपनी छोटी बहन को फोन करके बड़ी बहन की स्तुति शुरू कर देती है, “जीजाजी एक मामूली क्लर्क हैं तब इतना नखरा है, कहीं ठेकेदार होते तो आंख बड़ेरी से नीचे न उतरती. इस महीने सारे फोन मैंने ही किए उधर से एक बार भी फोन नही आया… हमारे ठेंगे से. मैं पागल हूं क्या?”
घर का बड़ा लड़का हाई स्कूल में पढ़ रहा है. वह जानता है कि दिनभर के हाड़ तोड़ काम के बाद मां भी नौ बजे तक फोन बाप की तकिया के नीचे सरका कर सो जाएगी. दस बजे फोन लेकर लड़का अपने दोस्त अकील को फोन किया, देर से फोन उठाते ही उसने पूछा, ”हां यार अब बता, क्या शर्त लगाया तूने अपनी गर्लफ्रेंड से? तूने कहा था न कि रात में शालू के बारे में कुछ बताएगा.” उधर से नींद में सिर से पैर तक डूबा अकील दीवार घड़ी देखकर भन्नाया हुआ बोला, “दो घंटे करवट बदल-बदल कर जागने के बाद अब जाकर नींद आई थी. अब तू भी सो जा यार. शालू चीज ही ऐसी है कल तुझसे मिलवाता हूं. गुड नाइट.” अब शालू से मिलने की कल्पना में बाकी रात करवट बदलने की बारी इस लड़के की थी.
गरीब आदमी का फोन भी उसी की तरह ठोकर खाकर जीता रहता है. वह इतनी बार ज़मीन पर गिरता है कि नंबर तक लहूलुहान लगते हैं. फोन के बार-बार गिरने से क्रुद्ध आदमी कभी-कभी फोन को ठेकेदार समझकर गाली देता है, “किसी दिन तुझ पर ईंट बजाऊंगा साले.”
हमारे गांव में हालात के मारे एक जमालू भाई हैं. उनका फोन उनसे ज़्यादा दुखियारा और दीन-हीन है. जमालू भाई का ये फोन एक्सपायरी डेट के बाद भी चल रहा है. फोन में बैटरी और नेटवर्क के अलावा ज़िंदा रहने की कोई निशानी नही है. उनका फोन सबके सोने के बाद नेटवर्क पकड़ता है और सुबह पांच बजे तक सबका साथ सबका विकास पर अमल करता है.
अक्सर जमालू फोन की बैटरी निकाल धूप में सुखाते हैं. पिछली नवंबर की सर्दियों में गांव जाने पर मैंने जब लगातार तीन दिन तक बैट्री को सुखाते देखा, तो कारण पूछा. बड़ी दिलचस्प कहानी बताई जमालू भाई ने.

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“चार दिन पहले की बात है, रात में पेट के अन्दर गुड़गुड़ शुरू हुई. मैं जाकर गांव से बाहर तालाब के किनारे बैठा. निवृत होकर जैसे ही मैं पानी के लिए तालाब की ओर झुका ऊपर की जेब में रखा फोन तालाब में जा गिरा. मैं कपड़ा उतार कर फ़ौरन तालाब में कूद गया. फोन निकाल कर कपड़ा पहना और घर आकर रजाई फाड़ा, रूई निकाला और फोन की बैट्री और फोन दोनों को रूई में लपेट दिया , ताकि रूई पानी खींच ले. अब तीन दिन तक धूप में बैट्री और फोन को सुखाना है. संकट में इंसान की आस्था सेकुलर हो जाती है. ऐसे में प्राणी पहलवान बाबा के साथ साथ पीर बाबा की भी परिक्रमा कर लेता है. न जाने किस भेष में बाबा मिल जाए भगवान! चौथे दिन जमालू का फोन काम करने लगा था!

– सुलतान भारती

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हिजाब की मथानी से मक्खन कम मट्ठा ज़्यादा निकल रहा है. जनता नौकरी, रोज़गार, शिक्षा और सुकून चाहती है, लेकिन सांता क्लॉज के थैले से हिजाब, घूंघट और पगड़ी निकल रही है. चुनाव से पहले बस यही दे सकते हैं.

अरे भइया, ये जो सियासत है, ये उनका है काम! हिजाब का जो, बस जपते हुए नाम! मरवा दें, कटवा दें- करवा दें बदनाम. तो सुन लो खासोआम, हिजाब के मामले में हैंडल विद केयर…
आज ऐसा लग रहा है गोया देश मे पहली बार हिजाब देखा गया है. कुछ लोगों का दर्द देख कर तो ऐसा लगता है जैसे कोरोना से भी उन्हें इतनी तकलीफ़ नहीं हुई जितनी हिजाब से है. कोरोना से बचने के लिए जब चेहरा ढक रहे थे उस वक़्त उनकी आस्था को इंफेक्शन नहीं हो रहा था, पर आज अचानक हिजाब देख कर आस्था, पढ़ाई और संविधान तीनों ख़तरे में पड़ गए हैं. पांच राज्यों में चुनाव की आहट आते ही कर्नाटक सरकार को अचानक आकाशवाणी हुई कि कुछ छात्राओं के हिजाब में आने से ड्रेस कोड, अनुशासन और शिक्षा का ऑक्सीजन लेवल नीचे जा रहा है. बस, अनुशासन और शिक्षा का स्तर उठाने के लिए फ़ौरन हिजाब पर रोक लगा दी गई. राज्य की पुलिस दूसरे विकास कार्यों मे लगी थी, इसलिए रोक पर अमल करने के लिए गमछाधारी शांतिदूतों को बाहर से बुलाकर कॉलेज में नियुक्त किया गया. इन दूतों का रेवड़ पूरी निष्ठा से एक अकेली शांति के पीछे गमछा लेकर दौड़ता रहा.
बस फिर क्या था. सियासत की हांडी में नफ़रत की खिचड़ी पकने लगी. सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी जाग उठी और गूगल पर रिसर्च करनेवाले कोमा से बाहर निकल आए (हालांकि इन विद्वानों ने पहले भी हज़ारों बार हिजाब देखा था, पर तब उन्हें पता नहीं था कि यह चीज़ चुनाव, समाज और देश के लिए घातक है). कुरान से लंबी दूरी रखनेवाले विद्वान भी सवाल करने लगे, “बताओ कुरान में कहां लिखा है कि हिजाब लगाना चाहिए.” विद्वता की इस अंताक्षरी में इतिहास खोदा जा रहा था. नफ़रत के ईंधन से टीआरपी को ऑक्सीजन दी जा रही थी. चैनल डिबेट चला कर हिजाब को मुस्लिम बहनों के भविष्य और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया जा रहा था. अभी भी चुनाव में उतरी पार्टियां जनहित में समुद्र मंथन कर रही हैं.


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तारणहार अपने-अपने बयानों का हलाहल अमृत बता कर परोस रहे हैं. हिजाब मुक्त पढ़ाई के लिए हर चैनल पर शास्त्रार्थ जारी है. देश को विश्व गुरू बनाने का लक्ष्य 10 मार्च से पहले पूरा करना है.
पहली बार पता चला कि हिजाब मुस्लिम बहनों की तरक़्क़ी में कितना घातक है. हिजाब विरोधी विशेषज्ञ बता रहे हैं कि इसे लगाते ही छात्राएं २२वीं सदी से मुड़ कर सीधा गुफा युग में चली जाती हैं. इसी हिज़ाब की वजह से मुस्लिम बहनें घरों में क़ैद होकर रह गईं हैं. न डिस्को में जा रही हैं, न कैबरे कर पा रही हैं और न बिकिनी पहन कर टेलेंट दिखा पा रही हैं. हिजाब ने तरक़्क़ी के सारे रास्ते बंद कर दिए- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी… हिजाब लगाते ही टैलेंट 75 साल पीछे चला गया- कब आएगा मेरे बंजारे! मुस्लिम बहनों की आज़ादी और तरक़्क़ी के लिए शोकाकुल लोग कॉलेज के गेट पर ही हिजाब उतारने के लिए तैयार खड़े हैं. हिजाब देखते ही वह गमछा उठा कर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का कल्याणकारी अभियान शुरू कर देते हैं. अगर कोई दबंग लड़की उनके इस शिष्टाचार का विरोध करती है, तो समाज और देश की तरक़्क़ी रुकने लगती है.
हिजाब चुनाव के पहले चरण में सिर्फ़ तरक़्क़ी विरोधी था, दूसरे चरण में संविधान विरोधी हो गया. १६ फरवरी आते-आते इसमें से आतंकवाद की दुर्गंध आने लगी. हर अंधा अपने-अपने दिव्य दृष्टि का प्रयोग कर रहा है आगे-आगे देखिए होता है क्या!
कोई हिजाबी प्रधानमंत्री बनाने की हुंकार भर रहा है, तो कोई क़यामत तक हिजाब वाले पीएम के सामने बुलडोजर लेकर खड़ा होने का संकल्प ले रहा है. कुछ नेता और संक्रमित चैनलों को हिजाब के एक तरफ़ शरिया और दूसरी तरफ़ संविधान खड़ा नज़र आ रहा है. मुसलमान सकते में है, क्योंकि अब तक उन्हें भी नहीं पता था कि हिजाब इतना गज़ब और ग़ैरक़ानूनी हो चुका है. हिजाब की बिक्री का सेंसेक्स टारगेट से ऊपर जा रहा है. शरिया और हिजाब से अब तक अनभिज्ञ कई धर्मयोद्धा हिजाब के समर्थन और विरोध में उतर पड़े हैं. इस धार्मिक जन जागरण से कई दुकानदारों की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही है.

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तीसरे दौर का चुनाव सामने है और नेता दुखी हैं. हिजाब की मथानी से मक्खन कम मट्ठा ज़्यादा निकल रहा है. जनता नौकरी, रोज़गार, शिक्षा और सुकून चाहती है, लेकिन सांता क्लॉज के थैले से हिजाब, घूंघट और पगड़ी निकल रही है. चुनाव से पहले बस यही दे सकते हैं. अभी सात मार्च तक यही मिलेगा, इसलिए बलम जरा धीर धरो… जीते जी जन्नत अफोर्ड नहीं कर पाओगे, दे दिया तो मानसिक संतुलन खो बैठोगे. आपस के इसी धर्मयुद्ध ने देश को जवाहर लाल से मुंगेरी लाल तक पहुंचाया है! विकास के अगले चरण में महिलाओं को लक्ष्मी बाई से जलेबी बाई की ओर ले जाया जाएगा. तब तक ताल से ताल मिला…

– सुलतान भारती


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गुरुदेव! इस सोशल मीडिया रुपी माया का विस्तार तो इसके निर्माता भी नहीं जानते, तो मैं अल्प बुद्धि प्राणी क्या बताऊं? ऊपरी तौर पर समझ लीजिए यह आभासी माया इतनी प्रबल है कि ऐसे मनुष्यों को आपस में इकट्ठा कर बांध देती है, जो एक-दूसरे से ना कभी मिले, और ना ही कभी मिलेंगे, फिर भी उनके बीच राग, द्वेष, प्रेम, नफ़रत, ईर्ष्या, प्रशंसा, निंदा, तुलना जैसे विकारों के ऐसे प्रबल बंधन बन जाते हैं जैसे सांसारिक परिचितों, नाते-रिश्तेदारों के बीच भी नहीं बनते.

गुरु-शिष्य संवाद…

वत्स! माया क्या है?

गुरुदेव! जो अस्तित्व विहीन है, भ्रम है, आभासी है फिर भी सत्य प्रतीत होती है, वही माया है. यह मनुष्य की विवेक बुद्धि हर उसके मस्तिष्क पर स्वयं आरुढ़ हो जाती है और उसे संचालित करने लगती है. जब तक मनुष्य की आंखों पर माया आवरण रहता है, उसे ऐसी दुनिया नज़र आती है, जो वास्तव में है ही नहीं और वह उसी माया में उलझा एक दिन संसार से विदा ले लेता है.

वत्स! मुझे ऐसा क्यों लग रहा है तुम सोशल मीडिया की बात कर रहे हो?

आप तो सच में अंतर्यामी हैं प्रभु! इस माया का दूसरा नाम सोशल मीडिया भी है.

वत्स! इस माया का कैसा स्वरूप है, कैसा विस्तार है, जरा बखान करो?

गुरुदेव! इस सोशल मीडिया रुपी माया का विस्तार तो इसके निर्माता भी नहीं जानते, तो मैं अल्प बुद्धि प्राणी क्या बताऊं? ऊपरी तौर पर समझ लीजिए यह आभासी माया इतनी प्रबल है कि ऐसे मनुष्यों को आपस में इकट्ठा कर बांध देती है, जो एक-दूसरे से ना कभी मिले, और ना ही कभी मिलेंगे, फिर भी उनके बीच राग, द्वेष, प्रेम, नफ़रत, ईर्ष्या, प्रशंसा, निंदा, तुलना जैसे विकारों के ऐसे प्रबल बंधन बन जाते हैं जैसे सांसारिक परिचितों, नाते-रिश्तेदारों के बीच भी नहीं बनते. फेसबुक, इंस्टाग्राम, टि्वटर जैसी ऐप इस माया की मोहिनी अप्सराएं हैं, जो अपने आकर्षण से लोगों को ऐसे बांध लेती हैं जैसे अजगर अपनी पकड़ में आए प्राणी को लपेट लेता है और फिर वह कभी मुक्त नहीं हो पाता.

वत्स! इस सोशल मीडिया रुपी मायावी आभासी संसार में कर्म सिद्धांत कैसे हैं, कर्म बंधन कैसे बनते हैं?

गुरुदेव, यहां का अपना कर्म सिद्धांत है, जो कर्मों के लेन-देन के आधार पर ही चलता है. यहां कर्मों का लेन-देन कमेंट और लाइक द्वारा होता है. उन्हीं के आदान-प्रदान से बंधन तैयार होते हैं. एक मनुष्य की पोस्ट पर जब दूसरा मनुष्य लाइक या कमेंट करके चला जाता है, तो एक बंधन तैयार होता है. दूसरा इस बंधन से तभी मुक्त हो सकता है, जब वह पलट कर उसी मनुष्य की पोस्ट पर लाइक और कमेंट करे. जब तक वह ऐसा नहीं करता उस पर ऋण चढ़ा रहता है, जो उसके बंधन का कारण बनता है.

ऐसे बंधनों के कुचक्र में फंसने का मूल कारण क्या है वत्स? क्या धन?

नहीं गुरुदेव! इसका कारण है- मान. मनुष्य अपनी पोस्ट पर मिले लाइक और कमेंट को अपनी मान-प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं. उसकी तुलना दूसरों को मिले लाइक-कमेंट से करते हैं. और इसी तुलना रूपी कीचड़ में ईर्ष्या, द्वेष, निंदा रूपी कमल खिलते हैं.

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वत्स! यह तो बड़ी विचित्र माया लग रही है, इसके बारे में कुछ और जानकारी दो.

गुरुदेव! इस माया की ऐसी महिमा है कि इसने बहुत-सी आध्यात्मिक परिभाषाएं बदल दी हैं.

वत्स! कुछ उदाहरण देकर समझाओ.

जी गुरुदेव! जैसे-
ज्ञानी- सोशल मीडिया के सभी संसाधनों के प्रयोग का ज्ञाता, फॉलोअर्स बनाने की कला में दक्ष, कम संसाधनों में भी अच्छी सेल्फी लेने में सिद्धहस्त ही ज्ञानी है.
अज्ञानी- जो आज के समय में भी सोशल मीडिया का उपयोग करना नहीं जानता वही अज्ञानी है.
विद्या- हर वो गुण, कला जिसका प्रदर्शन सोशल मीडिया पर हो सकता वह विद्या है.
अविद्या- जिस गुण-कला का प्रदर्शन सोशल मीडिया पर न हो सके, वह चाहे कितनी ही सार्थक और मनोहारी क्यों न हो, अविद्या है.
धनी- जिसके जितने फॉलोअर्स, वह उतना ही धनी है.
निर्धन- इस आभासी संसार में फॉलोअर्स रहित मनुष्य निर्धन है.
निर्भय- जो दूसरों की पोस्ट पर जाकर बिना किसी भय के कमेंट में उनकी ऐसी-तैसी कर आए, वह निर्भय है.
भीरू- जो अपना प्रोफाइल लॉक करके रखे वह भीरू है.
सच्चा मित्र- जो आपकी हर पोस्ट पर सहर्ष लाइक-कमेंट करके जाए वही आपका सच्चा मित्र है.
शत्रु- जो आपकी पोस्ट पर मन मुताबिक़ प्रतिक्रिया न दे वह आपका शत्रु है.
संयमी- जो तभी कोई पोस्ट लिखे, जब उसके पास कहने को कुछ सार्थक हो, वह संयमी है.
चंचल प्रकृति- जो दिन में जब-तब, कभी भी, कुछ भी निरर्थक सामग्री लेकर वॉल पर प्रकट हो जाए, वह चंचल प्रकृति मनुष्य है.

ये तो बड़ी विचित्र माया है वत्स! इससे निकलने का कोई उपाय?

गुरुदेव! अभी तक मनुष्य ने उस उपाय की खोज नहीं की है, क्योंकि जो उपाय खोजने गया वह भी उसी भवसागर में डूब गया.

इसका अर्थ यह है कि यह शुभ कार्य हमारे ही हाथों होना है. ऐसा करो वत्स! सोशल मीडिया की सारी ऐप्स पर हमारा भी अकाउंट बनाओ. भवसागर में उतरने पर ही उससे पार जाने के रास्ते मिलते हैं.

मगर गुरुदेव यह बरमुडा ट्रायंगल से भी ख़तरनाक भवसागर है, जो इसके आसपास से भी गुज़रा, उसे यह खींच लेता है और अंततः डूबो देता है.

वत्स! क्या तुम हमारे जैसे सिद्ध पुरुष के आत्मबल पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हो? संसार की ऐसी कोई माया मोहिनी नहीं, जो हमें बांध सके. तुम निश्चिंत हो कर आदेश का पालन करो.

जो आज्ञा गुरुदेव!

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वह दिन था और आज का दिन, गुरुदेव आज भी सोशल मीडिया रूपी भवसागर में डुबकियां लगा रहे हैं, लेकिन उसके पार नहीं जा पा रहें हैं…

दीप्ति मित्तल

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इस बार कोरोना के साथ उसका एक रिश्तेदार (ओमिक्रॉन) भी आया है. लेकिन सांताक्लॉज धोती में गोबर लगाए गली-गली आवाज़ लगा रहे हैं- तू छुपा है कहां, ढूढ़ता मैं यहां… फिर से जन्नत को लाने के दिन आ गए. लैपटॉप, स्कूटी, राशन, जवानी में वृद्धपेंशन, तीर्थयात्रा, घर-घर में कब्रिस्तान और श्मशान की सुविधा सिर्फ़ एक वोट की दूरी पर. कुछ तो लेना ही पड़ेगा.

अब प्रजातंत्र के सबसे बड़े पर्व (चुनाव) का ऐलान हो गया, ख़ुश तो बहुत होंगे तुम. ये पर्व ख़ास तुम्हारे लिए है. तारणहार तुम्हारे लिए हर पांच साल में पर्व लेकर आ जाते हैं. फिर भी तुम नाशुक्रे लोग पर्व देख कर पालक और पेट्रोल का रोना रोते हो. अब दस फ़रवरी 2022 से 07 मार्च 2022 तक इस पर्व को एंजॉय करो. बीच में पर्व से निकल भागने की कोशिश मत करना. इस पर्व से प्रजातंत्र को मज़बूती मिलेगी और प्रजा को काफ़ी सारी जड़ी-बूटी. चुनावी वादों को विटामिन, प्रोटीन, शिलाजीत और फाइबर समझकर गटक लेना. जब पर्व तुम्हारा है, तो नखरा काहे का. कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. फरवरी और मार्च का महीना पाने का है, खोने के लिए पांच साल पड़े हैं. कुछ निजी कारणों से इस बार सांताक्लॉज नहीं आ पाए थे, अब इस पर्व में पूरा कुनबा लेकर आएंगे.
तो प्रजातंत्र का सबसे बड़ा पर्व आ गया. प्रजा को पता ही नहीं था कि उसके लिए इतने सारे हातिमताई मौजूद हैं. अब जनहित में दूर-दूर से साइबेरियन सारस आएंगे. वो अपनी एक इंची आंखों में पूरा हिंद महासागर भरकर लाएंगे. आते ही वो दरवाज़ा खटखटाएंगे- सोना लै जा रे.. चांदी लै जा रे…
ऐसे मौक़े पर नौसिखिए लोग लपक कर दरवाज़ा खोल बैठते हैं, जबकि भुक्त भोगी जागते हुए भी खर्राटे लेने लगते हैं, जिससे विकास से बचा जा सके. अगले महीने इतने तारणहार लैंड करेंगे कि जनता कन्फ्यूज़ हो जाएगी कि किसकी पूंछ पकड़ कर भव सागर पार करे.
जब शीरीनी बांटनेवाले थोक में हों, तो इस तरह का भ्रम होना स्वाभाविक है. वैसे भी चुनाव अधिसूचना जारी होने के बाद मौसम में जो बदलाव नज़र आ रहा है, उससे साफ़ है कि इस बार जनवरी में ही पलाश में फूल आ जाएंगे. अब वैलेंटाइन भी फरवरी का इंतज़ार नही करेगा. फरवरी के आसपास आदिकाल से बसंत भी आता रहा है, पर जब से चुनाव और वैलेंटाइन साथ-साथ आने लगे, बसंत ने वीआरएस ले लिया. विवश होकर लिए गए बसंत के इस फ़ैसले को वैलेंटाइन ने देशहित में उठाया गया कदम बताया है. (संभव है कि उपेक्षा से आहत वसंत आगे चलकर ख़ुदकशी कर ले और उसकी इस आकस्मिक मृत्यु से प्रजातंत्र को मज़बूती मिलती नज़र आए) मज़बूती का अद्वेतवाद समझना कौन-सा आसान काम है. बरसे कंबल भीगे पानी… का रहस्यवाद आज तक कौन खोज पाया है. बस साहित्य के सारे लाल बुझक्कड़ गैंती लेकर अपना-अपना हड़प्पा खोद रहे हैं.


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चुनाव और कोरोना के बीच में विकास अटक गया है. चुनाव आचार संहिता की वजह से 10 मार्च तक विकास करने पर रोक लगी है. इसलिए जनवरी-फरवरी में करने की जगह विकास बांटने का काम किया जाएगा. सारे सांताक्लॉज उसी गिफ्ट पैकिंग में लगे हैं. स्लेज गाड़ी में हिरनों को जोतने पर वन्य जीव संरक्षण अधिनियम में फंसने का ख़तरा है, इसलिए सांता अब फरारी और बीएमडब्लू से आने लगे हैं (स्लेज की अपेक्षा कार में विकास रखने के लिए ज़्यादा स्पेस होता है) जन और तंत्र के बीच में कोरोना कन्फ्यूज़ होकर गा रहा है- अब के सजन फरवरी में… आग लगेगी बदन में… (इसका मतलब कोरोना के तेज़ बुखार के साथ आने की संभावना है.
विकास थोड़ा घबराया हुआ है. कोरोना का आंकड़ा बढ़ रहा है. इस बार कोरोना के साथ उसका एक रिश्तेदार (ओमिक्रॉन) भी आया है. लेकिन सांताक्लॉज धोती में गोबर लगाए गली-गली आवाज़ लगा रहे हैं- तू छुपा है कहां, ढूढ़ता मैं यहां… फिर से जन्नत को लाने के दिन आ गए. लैपटॉप, स्कूटी, राशन, जवानी में वृद्धपेंशन, तीर्थयात्रा, घर-घर में कब्रिस्तान और श्मशान की सुविधा सिर्फ़ एक वोट की दूरी पर. कुछ तो लेना ही पड़ेगा. इतना बड़ा पैकेज लाए हैं- कुछ लेते क्यों नहीं. ऑप्शन बहुत हैं- साइकिल से लेकर सूरज तक कुछ भी मांग लो. बड़ी दूर से आए हैं साथ में हाथी लाए हैं. बुधई काका छोपड़ी में ताला मार कर भागने की सोच रहे हैं. पिछले चुनाव में रोज़ कोई न कोई देवता उनकी झोपड़ी में खाना खाने आ जाता था.
एक महीने में बखार चर गए थे.
अब कोई भी पार्टी विकास के नाम पर वोट मांगने की मूर्खता नहीं करेगी. वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था. अब सतयुग है, इसलिए धर्म के अलावा सारे मुद्दे गौण हैं. धर्म ही न्याय है, धर्म ही विकास है, इसलिए इस बार जो जितना बड़ा धर्माधिकारी होगा, उतना वोट बटोरेगा. पिछले कुछ सालों की घोर तपस्या से यह शुभ लाभ मिला कि जनता ने धर्म को ही विकास समझ लिया है. तपस्या का अगला चरण गेहूं को लेकर है. काश! धर्म को ही गेहूं समझ लिया जाए. उसके बाद फिर कभी किसान आंदोलन की नौबत नहीं आएगी. एमएसपी का टंटा ख़त्म. जब भी भूख लगी, सत्संग में बैठ गए.
आज सुबह चौधरी ने मुझसे पूछा, “सुण भारती, तू चुनाव में उतै गाम न जा रहो के?”
“न भाई, कोरोना फिर बढ़ रहा है.”
“ता फेर चुनाव क्यूं करावे सरकार?”
“सरकार जानती है कोरोना की पसंद-नापसंद, पर मुझे नहीं मालूम.”
“पसंद न पसंद, समझा कोन्या. कोरोना बीमारी है या फूफा लगे म्हारा?”
“तीन साल से यही समझने की कोशिश में लगा रहा. बीच में कोरोना ने मुझे ऐसा रगड़ा कि याददाश्त तक आत्मनिर्भर ना रह सकी.”
“नू बता किस नै वोट गेरेगा इब के?’
“जिस को तू कहेगा. विकास और गेहूं की समझ तुम्हें ज़्यादा है.”
“अपना वोट योगीजी नै दे दे. सुना है अक बुलडोजर देख कर यूपी ते कोरोना भाग रहो. योगीजी अकेले ही दूध का दूध अर पानी का पानी अलग कर देवें.”


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“अच्छा याद दिलाया, कल से बुखार, ज़ुकाम और छींक आ रही है. बंगाली बाबा जिन्नात अली शाह को दिखाया था. उन्होंने कहा कि फर्स्ट अप्रैल तक किसी काली भैंस का सफ़ेद दूध सुबह-शाम उधार पीने से कोरोना मंहगाई की तरह भाग जाता है.”
चौधरी भड़क उठा, “इब और उधार न दू. कहीं अर तलाश ले काड़ी भैंस नै. कोरोना ते बचाने कू सबै भैंसन पै मैंने सफ़ेदी करा दई. इब हट जा भारती पाच्छे.” अभी भी दूध का संकट बना हुआ है.

  • सुलतान भारती

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आनेवाले साल को लेकर मेरे अंदर कोई जोश नहीं है (जो था कोरोना और केजरीवाल को दे चुका हूं) अन्दर जिगर में बीड़ी सुलगाने लायक भी आग नहीं बची. अब खाली हाथ कंबल ओढ़कर 31 दिसंबर का इंतज़ार कर रहा हूं. उस तरफ़ जो 2022 का नया साल खड़ा है, वह सारे रतौंधीवालों को हैप्पी नज़र आ रहा है. मैं हर साल दिसंबर के आख़री हफ्ते में हैप्पी होने की कोशिश करता हूं, ताकि नए साल में हैप्पी नज़र आऊं, क्योंकि रस्म दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है. इतना सब कुछ है सिर्फ़ हैप्पी गायब है. लगता है कि हैप्पी कुंभ मेले में… बाकी सब खैरियत है.

मैं बड़े धर्मसंकट में हूं, दिसंबर २०२१ में अब गिनती की सांसें बची हैं. ३१ दिसंबर की आधी रात को इसी के पेट से नया साल बाहर आएगा. कहते हैं की बिच्छू के बच्चे बिच्छू को मार कर पैदा होते हैं. नए साल की पैदाइश के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है. साल 2021 किसी बिच्छू से कम नहीं रहा. पूरी दुनिया उसके डंक से अब तक कराह रही है. कोरोना की दूसरी लहर लाने का श्रेय इसी साल को जाता है, बाकी सब खैरियत है. दूसरी लहर को मैं कैसे भूल सकता हूं. अप्रैल चौदह को कोरोना ने मुझे अपने श्री मुख में डाला, तो २८ तारीख़ तक वो यही सोचता रहा कि एक व्यंग्यकार को निगलना ठीक रहेगा या नहीं. बाद में बगैर कारण बताए छोड़ दिया. इस बीमारी से मैं ६५ किलो से ५५ किलो का होकर रह गया, जो आज तक रिगेन नहीं हुआ, बाकी सब खैरियत है.
साधु, संत और उस्ताद मुझे नसीहत देते रहे कि मोह माया से दूर रहना. ये सीख इतनी बार दी गई कि समझ में आ गया कि मोह माया के अलावा बाकी सब मिथ्या है, क्षणभंगुर है. नतीज़ा यह हुआ कि मोह माया के अलावा हर चीज़ से दूर हो गया. लेकिन ट्रेजडी देखिए, कि प्रचुर मात्रा में मोह के बावजूद अभी तक माया पकड़ से बाहर है. प्रॉब्लम ये है कि गेहूं ख़रीदने के लिए मोह नहीं माया चाहिए. लेखक के लिए भी गेहूं से दूर रहना संभव नहीं है. बस यहीं से मोह माया के प्रति मिली दीक्षा का अतिक्रमण हो गया. गेहूं चीज़ ही ऐसी है. आदि पुरुष पैगंबर आदम को भी इसी गंदुम ने जन्नत से बेदख़ल करवाया था. केजरीवाल को इस गेहूं के अंदर छुपी ऊर्जा का पता था, इसलिए दिल्लीवालों को फ्री गेंहू बांट कर भाजपा की किडनी निकाल ली, बाकी सब खैरियत है.
कई राज्यों में विधानसभा का चुनाव होना है. कोरोना से सहमी हुई जनता को विटामिन, प्रोटीन और कैल्शियम देने का बसंत अभी से दरवाज़ा खटखटा रहा है, “खोलो प्रियतम खोलो द्वार…” लेकिन प्रियतम सहमे हुए हैं. जन्नत के पैकेज में भी प्रियतम को फफूंद नज़र आ रही है. हर पार्टी का अपना-अपना रामराज है. प्रियतम घनघोर कन्फ्यूजन में हैं- जाने कौन-से वाले में फाइबर ज़्यादा है… इसलिए काके लागू पाय का भ्रम बना हुआ है, बाकी सब खैरियत है.
यूपी में कुरुक्षेत्र उतरा हुआ है. सारे महारथी अपना-अपना चक्रव्यूह बना रहे हैं. रफेल के पीछे साइकिल दौड़ रही है. फेरीवाले ठेले पर रेवड़ी और रामराज साथ-साथ लाए हैं. हाथी अभी कंफ्यूज़न में है कि किसके साथ चले, तब तक सबको जनहित के लिए नुक़सानदेह बता रहा है.कांग्रेस के शिव भक्त अभी फ़ैसला नहीं कर पाए कि इस बार जनेऊ सदरी के ऊपर पहनना ठीक रहेगा या सदरी के नीचे, बाकी सब खैरियत है.
दिसंबर के आख़री हफ़्ते ख़र्च हो रहे हैं. सांता क्लॉज सदमे में है कि इस बार क्या बांटें. जिन राज्यों में चुनाव है, वहां हर पार्टी ने अपने-अपने सांता क्लॉज भेज दिए हैं. वह लोग अभी से धोती में गोबर लगाए गांव में घूम रहे हैं. उनका पैकेज ओरिजनलवाले सांता से ज़्यादा दिव्य है सांता क्लाज के झोले में सब कुछ 18 साल से नीचेवालों के लिए है, जबकि सियासी सांताओं के झोले में बालिगों के लिए बेकारी भत्ता से लेकर दारू तक सब कुछ है… सारा पैकेज- जाकी रही भावना जैसी के आधार पर है. हर साल दिसंबर में आनेवाले सांता अब सोने की छड़ें, तो अफोर्ड नहीं कर सकते. ये काम काफ़ी रिस्की भी है. सांता पर सोने की स्मगलिंग का केस लग सकता है (होम करते हाथ जले) हिरनों को स्लेज गाड़ी में जोत कर जिंगल बेल… कहते हुए शहर या बस्ती में जाना और भी जोख़िमभरा है. पर्यावरण मंत्रालय ऐसा केस बनाएगा कि अगले दिसंबर तक जमानत भी नही होगी. और कही सांता क्लॉज बारी से पहले प्रमोशन की घात में बैठे किसी पुलिस के हत्थे चढ़ गए, तो उनकी मॉब लिंचिंग तय है (क्योंकि हिरन को गाय साबित करना अब ज़्यादा मुश्किल काम नहीं रहा), बाकी सब खैरियत है.
आनेवाले साल को लेकर मेरे अंदर कोई जोश नहीं है (जो था कोरोना और केजरीवाल को दे चुका हूं) अन्दर जिगर में बीड़ी सुलगाने लायक भी आग नहीं बची. अब खाली हाथ कंबल ओढ़कर 31 दिसंबर का इंतज़ार कर रहा हूं. उस तरफ़ जो 2022 का नया साल खड़ा है, वह सारे रतौंधीवालों को हैप्पी नज़र आ रहा है. मैं हर साल दिसंबर के आख़री हफ्ते में हैप्पी होने की कोशिश करता हूं, ताकि नए साल में हैप्पी नज़र आऊं, क्योंकि रस्म दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है. इतना सब कुछ है सिर्फ़ हैप्पी गायब है. लगता है कि हैप्पी कुंभ मेले में… बाकी सब खैरियत है.
चौधरी की अलग प्रॉब्लम है. नए साल में उसके हैप्पी होने में अड़ंगा लगा है. किसी ने कह दिया कि नया कोरोना उसी दिन रात में आ रहा है, जिस दिन नया साल हैप्पी होनेवाला है. चौधरी इस बात से खफ़ा है. उसने बड़े मुश्किल से तीन बोतल हैप्पी का जुगाड किया था. कल वो काफ़ी नाराज़ दिखा, “उरे कू सुण भारती! कोरोना कितै मिलेगो?” सुनकर मैं तो घबरा गया, “लोग भागते हैं और तुम कोरोना को ढूंढ़ रहे हो.”
“सर फाड़ द्यूं!” चौधरी उबल पड़ा, “आगे पाच्छे न हैप्पी हो सके कती. उसी दिन हैप्पी होना ज़रूरी है के?”
“किस दिन! मैं समझा नहीं?”
सारा माजरा बता कर चौधरी बिगड़कर बोला, “इब तू बता, अक इकत्तीस की रात कू जिब नया साड़ पहले ते हैप्पी हो रहो, तो तमैं उस तारीख़ में हैप्पी होने की के ज़रूरत पड़ गी. आगे पाच्छे हो ले?”
मैने समझाने की कोशिश की, “किसी ने ग़लत ख़बर दी है. तू आराम से हैप्पी होना. कोरोना अभी अपने से बड़े महापुरुषों से सलाह ले रहा है. उसके विश्वसनीय और निकटवर्ती सूत्रों से प्राप्त जानकारी के मुताबिक़ कोरोना के फरवरी 2022 में हैप्पी होने की उम्मीद है.”
चौधरी ने शंका प्रकट की, “लोगन की बातचीत है कोरोना के गैल?”
“बातचीत न होती, तो ढाई महीने पहले ही उसके आने की ख़बर कैसे मिल जाती है?”
तब से चौधरी उस विश्वसनीय सूत्र को लाठी लेकर ढूंढ़ रहा है, बाकी सब खैरियत है…

  • सुलतान भारती

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सोशल मीडिया पर तमाम कौरव योद्धा ललकार रहे हैं, लेकिन धर्मयोद्धाओं की समझ में नहीं आ रहा है कि पक्ष में पोस्ट डालें या विपक्ष में. अभी तक जिस कृषि क़ानून को लागू करने से गंगा पृथ्वी पर उतरनेवाली थी, अब बताया जा रहा है कि राम तेरी गंगा मैली… अर्द्ध बेहोशी-सी चैतन्यता है. आंखों से गांधारी पट्टी हटाकर भी देख लिया, अंधापन बना हुआ है. लगता है कि आंखों का बुद्धि से संपर्क टूट गया है. अधर्मी कोलाहल मचा रहे हैं- आवाज़ दो कहां हो…


म्हारे समझ में कती न आ रहो अक कृषि क़ानून इब कूण से कलर का है! अभी हफ़्ता पाच्छे सरकार की नज़र में यू क़ानून घणा दुधारू हुआ करता हा! पर किसानन कू समझाने में सब फेल हुए! ता फेर, देश हित में दरबारश्री ने दुधारू से अचानक बांझ नज़र आने लगे तीनों क़ानून कू वापस ले लिया! (बेलाग होकर कहें तो ये फ़ैसला बड़ी हिम्मत और जोख़िम भरा था! जिसने दरबारश्री के समर्थकों और विरोधिओ को सकते में डाल दिया है)
विपक्ष और विरोधिओं को किसी करवट चैन नहीं मिलता. अब विपक्षी सवाल उठा रहे हैं कि सैकड़ों किसानों की बलि लेने के बाद ही सरकार को कृषि क़ानून का नुक़सान क्यों नज़र आया. उसके पहले यही क़ानून किसानों को मालामाल करता हुआ नज़र रहा था. सरकार किसानों को मंहगाई, मंदी और लुटेरों की मंडी से बचाकर आत्मनिर्भर बनाना चाहती थी, लेकिन किसानों को फ़ायदा ही नहीं रास आ रहा था. कमाल है, बौद्धिक चैतन्यता का बड़ा अजीब दौर आ चुका है- लोग अपना फ़ायदा ही नहीं चाहते. जिस नए क़ानून से देश के किसान गुफ़ा युग से निकल कर सीधे विश्व गुरु होनेवाले थे, उसके ही ख़िलाफ़ सड़क पर बैठ गए. विपक्षी दलों ने तीनों क्रान्तिकारी कृषि क़ानूनों के विटामिन, प्रोटीन और कैल्शियम में घुन ढूंढ़ना शुरु कर दिया. ये हस्तिनापुर की सत्ता के ख़िलाफ़ संयुक्त कौरव दलों का सरासर विद्रोह था. फिर भी दरबारश्री के ज्ञानी मंत्री और चारण अज्ञानी किसानों से तमसो मा ज्योतिर्गमय की उम्मीद लगाए बैठे थे.


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सोशल मीडिया के सूरमाओं ने आंख और अक्ल दोनों पर गांधारी पट्टी बांध ली थी. ऐसा करने से बुद्धि और विवेक का सारा लावा  ज्वालामुखी की शक्ल में श्रीमुख से बाहर आ रहा था. इन जीवों की अपनी कोई विचारधारा आत्मचिंतन के अधीन नहीं थी. इन्हें अधीनता और ग़ुलामी से इतनी नफ़रत थी कि उन्होंने आज़ादी की एक नई तारीख़ ही ढूंढ़ कर निकाल ली. इन प्रचण्ड वीर समर्थकों के कलम और कलाम दोनों से फेसबुक पर लावा फैल रहा था. अब उन सभी वीर पुरुषों की अक्षौहिणी सेना औंधे मुंह पड़ी है. कलम कुंद है और गला अवरुद्ध. अंदर से आग की जगह आह निकल रही है- ये क्या हुआ… कैसे हुआ.. क्यों हुआ?.. छोड़ों ये न पूछो…
लेकिन लोग चुटकी लेने से कहां बाज आते हैं. तरह-तरह के तीर सोशल मीडिया पर उड़ रहे हैं.
‘अगला आत्म ज्ञान कब प्राप्त होगा’… मूर्खों को ज्ञान देने का जोख़िम कौन उठाए. बुज़ुर्गों की सलाह तो यह है कि बेवकूफ़ों के मुहल्ले में अक्लमंद होने की मूर्खता नहीं करना चाहिए, वरना अकेले पड़ जाने का ख़तरा है.
दरबारश्री कभी भी कोई कदम ऐसा नहीं उठाते, जो नौ रत्नों के विमर्श और सहमति के बगैर हो. बड़े सियासी योद्धा और ज्योतिषाचार्य इस फ़ैसले के पीछे का लक्ष्य ढूंढ़ रहे हैं. विपक्ष सामूहिक ख़ुशी मनाने की बजाय सामूहिक चिंतन शिविर में बैठ गया है.
मगर भक्त सदमे में हैं. अनुप्राश अलंकार जैसी स्थिति है- नारी बीच साड़ी है या साड़ी बीच नारी है?.. कन्फ्यूजन गहरा गया है. विषम परिस्थिति है. गांडीव भारी हो गया है. सोशल मीडिया पर तमाम कौरव योद्धा ललकार रहे हैं, लेकिन धर्मयोद्धाओं की समझ में नहीं आ रहा है कि पक्ष में पोस्ट डालें या विपक्ष में. अभी तक जिस कृषि क़ानून को लागू करने से गंगा पृथ्वी पर उतरनेवाली थी, अब बताया जा रहा है कि राम तेरी गंगा मैली… अर्द्ध बेहोशी-सी चैतन्यता है. आंखों से गांधारी पट्टी हटाकर भी देख लिया, अंधापन बना हुआ है. लगता है कि आंखों का बुद्धि से संपर्क टूट गया है. अधर्मी कोलाहल मचा रहे हैं- आवाज़ दो कहां हो… क्रोध में गाली देने का जी करता है रे बाबा…
मित्रों में वर्माजी सांड की तरह फुफकार रहे हैं. निरस्त हुए कृषि क़ानून की दुधारू उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कह रहे हैं, “क़ानून को वापस लेने से मुझे तो कुछ ऐसा फील हो रहा है जैसे आलू की फसल को पाला मार गया. देश हित में लाए गए तीनों कृषि क़ानून खेत और किसानों को नई दशा और दिशा देते. अब तो सब कुछ दिशाहीन हो जाएगा…”
मैंने पूछने का दुस्साहस किया, “आपको खेती किसानी का बहुत नॉलेज है. गांव में खेती होती होगी ना?”
वो आगबबूला होकर बोले, “भैंस का दूध सेहत के लिए फ़ायदेमंद होता है या नुक़सानदेह, ये जानने के लिए भैंस ख़रीदने की ज़रूरत नहीं होती मूर्ख.”
चौधरी कन्फ्यूजन में है. वो अभी तक फ़ैसला नहीं कर पाया कि उसे ख़ुश होना चाहिए या नाराज़. कल मुझसे पूछ रहा था, “उरे कू सुण भारती, इब क़ानून कूण से रंग कौ हो गयो?”


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“कौन-सा क़ानून? सभी क़ानून एक जैसे ही हैं.”
“घणा वकीड़ मत नै बण. मैं किसान वाड़े क़ानून कौ बात करूं सूं. पहले तो घणा दुधारू बताया हा, इब के हुआ. किसने दूध में नींबू गेर दई. इब घी न लिकड़ता दीखे कती. इब और कितनी दुधारू योजना ते मक्खी लिकाड़ी ज्यांगी?”
मेरे पास तो नहीं है, किसी बुद्धिजीवी के धौरे जवाब हो तो दे दे…
                                            
– सुलतान भारती

Satire

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”सिया उठो, सरगी का टाइम हो गया, मां बुला रही हैं.” मैंने जान-बूझकर करवट ले ली. मन ही मन भगवान से प्रार्थना की- ‘हे भगवान! अमित मुझे सोने दे. अपनी मां से ख़ुद ही कह दे, ‘नहीं रहेगी सिया भूखी, उसे सोने दो.’ पर अजी कहां, बेरहम ने उठाकर ही दम लिया. लम्बी उम्र जो करवानी है.

सोसाइटी में करवा चौथ की तैयारियां ज़ोरों पर है, बिल्डिंग लाल, पीली झालरों से सजी हुई है. लेडीज क्लब करवा चौथ के मूड में था, सब अपनी पुरानी महंगी साड़ियों को हवा, धूप दिखा रहीं है. मैं करण जौहर की मूवी की हीरोइन की तरह अपनी रोमांटिक लाइफ के करवा चौथ की रेटिंग ख़ुद तय करती हूं.
यह क्या बात हुई, सजो-धजो, छलनी पकड़ो, न उसमें अपना चेहरा समाय न उसका, सुबह पति भले ही फूटी आंख न भा रहा हो, पर शाम सात बजे छलनी में ही जैसे सारा प्यार, उसका चेहरा सिमट जाता है, जो सिर्फ़ कुछ ही पलों में गायब भी हो जाता है. वैसे मैंने शादी के पहले दिन ही इन्हें कह दिया था कि मुझसे फिल्मी करवा चौथ की उम्मीद न रखें. मेरे लिए करवा चौथ चिंता का विषय है. पहली करवा चौथ मुझे आज भी याद है. अमित को बहुत उम्मीद थी कि मैं भी यह व्रत धूमधाम से रखूंगी.
नहीं भाई, मैं लाइफ में सब कुछ कर सकती हूं, पर भूखी नहीं रह सकती. और वह कहते हैं न कि बंदा जिस चीज़ से भागता है, वही उसके सामने आ खड़ा होता है. वही हुआ जिसका डर था. अमित से शादी करके मैं बहुत ख़ुश थी (शायद वह भी).
हनीमून भी हो गया, सब कुछ लवी-डवी चल रहा था, पर फिर करवा चौथ ने दस्तक दे दी और मैं अलर्ट हो गई. सासू मां और जेठानी का इस त्योहार के लिए उत्साह देखकर मेरे दिल में उनके लिए जितना भी प्यार और सम्मान था, वह डगमगा गया.


अरे! कौन ख़ुश होता है भूखे रहने के लिए इतना! सासू मां जब कहतीं कि ‘हे भगवान्! हर जनम में यही पति देना.’ मैं मन ही मन कहती, ‘अरे! ऐसा ही क्यों! हर जनम में पति की नई वैरायटी क्यों नहीं हो सकती? एक जनम के लिए एक पति काफ़ी नहीं है क्या? हम तो वैरायटी के लिए किसी को देख भी लें, तो तोहमत लगती है. जेठानी की व्रत की लिस्ट पर नज़र डाली, तो मुझे लिस्ट अच्छी लगी. एक गोल्ड की चेन, नई साड़ी, मेहंदी, मैचिंग एक्सेसरीज़, पार्लर, नई चप्पल. उनसे ज़्यादा उनकी लिस्ट अच्छी लगी. फिर नीचे लिखा था व्रत का सामान. उस पर मैं चाह कर भी नज़र डाल ही न पाई.
और फिर वह दिन आ ही गया जब सुबह अमित ने मुझे झिंझोड़ा, ”सिया उठो, सरगी का टाइम हो गया, मां बुला रही हैं.” मैंने जान-बूझकर करवट ले ली. मन ही मन भगवान से प्रार्थना की- ‘हे भगवान! अमित मुझे सोने दे. अपनी मां से ख़ुद ही कह दे, ‘नहीं रहेगी सिया भूखी, उसे सोने दो.’ पर अजी कहां, बेरहम ने उठाकर ही दम लिया. लम्बी उम्र जो करवानी है. मैं उन्हें घूरते हुए रूम से निकल गई. दुष्ट मुस्कुराता रहा.


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सासू मां और जेठानी के साथ सरगी खाने बैठी, तो सोचा जमकर खा लूं, पता नहीं अब खाना कब नसीब हो. यह मेरे जीवन का पहला व्रत था. मेरे मायके में कभी कोई मुझे भूखा रख ही नहीं पाया. मैं दबाकर खा रही थी. मैंने तब तक खाया, जब तक मैं खा सकती थी. सुबह-सुबह मुझे ऐसे खाते देख वे दोनों मुस्कुराती रहीं. पता नहीं क्यों भूखे रहना मेरे लिए मौत के फ़रमान के बराबर है. भूख मुझे कभी भी ज़रा भी बर्दाश्त नहीं! जब खाना चाहिए तो चाहिए. मैं उन दोनों से बचाकर ड्रायफ्रूट्स छुपाकर ले आई.
भरपेट खाकर मैं सोने चली गई, तो अमित ने मेरे गले में बांहें डाल दी. मुझे करंट लगा. ये बांहें नहीं, मुझे भूख से क़ैद करने की जंजीरें हैं. मैं अमित को घूरती हुई करवट बदलकर सो गई. इस आदमी की वजह से ही सुबह-सुबह इतना भरकर ठूसना पड़ा है कि हालत ख़राब हो गई, पर यह क्या! सुबह साढ़े सात बजे दोबारा उठी, तो लगा पेट खाली है, अंतड़ियां कुलबुला रही हैं, भूख भी जाग रही है. मुझे अपने डाइजेशन पर नाज़ हो आया.
आज घर के पुरुषों ने पति प्रेम के चक्कर में दिखावे के तौर पर छुट्टी ले ली थी. मेरे मायके से मेरी मम्मी व्रत रखने का इंस्ट्रक्शन मैन्युअल फोन पर पढ़कर सुनाती रही. मुझे ठीक से व्रत रखने के निर्देश देती रहीं, जिन्हे मैं एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालती रही. नौ बजे पुरुष वर्ग नाश्ता करने बैठा, तो गर्मागर्म परांठों की ख़ुशबू से मेरा ईमान डोल गया. मुंह में पानी आ गया. ऐसा लगा ज़िंदगी में जैसे कभी परांठे नहीं खाए. पेट में परांठा क्रांति उठ कर खड़ी हो गई. ‘सिया, आज ही परांठे खाने हैं. परांठे पैक किए और अपने रूम में लाकर छुपा दिए.
बारह बजते-बजते मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. पति पति नहीं, दुश्मन लगने लगा. सारे ससुरालवाले खूंखार जेलर. मौक़ा देखकर परांठों पर टूट पड़ी. परांठे खाकर हौसले वापस बुलंद हो गए. मुझे उस समय पति से ज़्यादा प्रिय परांठे लगे. थोड़ी देर बाद अमित बेडरूम में टीवी देख रहे थे. मैं वहीं लेटी हुई थी. अचानक उनकी नज़र मेरी शकल पर पड़ी. वे चौंके, प्यार से पूछा, ”कुछ चाहिए, सिया?” प्यार से उनके पूछने पर ही मेरी आंखें भर आईं.
अमित घबरा गए, ”क्या हुआ, सिया, कुछ चाहिए?”

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मैं उठकर बैठ गई. मैंने झेंपते हुए कहा, “अमित, मैंने परांठे खा लिए. मैं भूखी नहीं रह सकती. यह व्रत अब करवा चौथ नहीं, कड़वा चौथ लग रहा है मुझे…” कहते कहते मैं रोने लगी.
अमित को जैसे हंसी का दौरा पड़ गया. बेड पर पेट पकड़-पकड़कर हंसे. उनकी प्रतिक्रिया पर मेरा रोना अपने आप रुक गया. हंसते-हसते बोले, ”मेरी भूखी पत्नी…” वह वहीँ बैठे ज़ोर-ज़ोर से हंसते रहे. फिर मैं भी हंस दी और कहा, “सुनो! आगे भी कोई व्रत मुझसे नहीं हो पाएगा…” उन्होंने भी “ठीक है.” कह दिया.
शाम को मैंने भी सज-धजकर चहकते हुए व्रत की कहानी सुनी. मेरी हंसी खाई-पीई थी. वे बात-बात पर भूखी-सी कुछ चिढ़ रही थीं. सब के साथ बैठकर पानी और चाय पिया.
अमित अच्छे पति साबित हुए. उन्होंने किसी को भनक नहीं लगने दी कि मैं भरे पेट से चांद को पूज रही हूं. मैंने अमित को रात में कहा, ”यार! तुमने तो आज दिल जीत लिया मेरा.”
हम दोनों ख़ूब हंसे. उसके बाद हुआ यह कि हमारा ट्रांसफर बैंगलुरू हो गया. हमारी आपस में ख़ूब जमी. हमारा प्यार ख़ूब फलाफूला, जिसके प्रमाण स्वरूप दो बच्चे हो गए.
धीरे-धीरे ससुराल और मायके में डॉक्टर का नाम लेकर यह बम फोड़ दिया कि हाइपर एसिडिटी के कारण डॉक्टर ने किसी भी तरह का व्रत रखने के लिए मना कर दिया है. जान छूटी, लाखों पाए. अब होता यह है कि हर साल करवा चौथ पर (उसके बाद कभी कड़वा चौथ नहीं लगा ) मैं शाम को सज-धज तो जाती हूं, मूवी देख आती हूं, डिनर बाहर कर लेते हैं. यह दिन कुछ अलग तरह से सेलिब्रेट कर लेते हैं. मेरा अनुभव है कि पति से प्यार भूखे पेट रहकर नहीं, भरे पेट से ज़्यादा अच्छी तरह किया जा सकता है. उसकी उम्र इस प्यार से ख़ुश रहकर भी लंबी हो सकती है.

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एक दिन मैंने अमित से अपने दिल की बात कुछ यूं कही, ”मैं 2121 की सिया हूं, मेरा करवा चौथ पर विश्वास बरक़रार है. पति प्रेम में पति को यमराज से मांग कर लाने में भी विश्वास है, पर मैं कर्मठ सिया हूं! पर न मैं आंख पर, न पेट पर पट्टी बांध कर जी सकती हूं. मेरी अपनी आकांक्षाएं और अभिलाषाएं हैं. मैं कमाऊंगी भी, खाऊंगी भी, प्यार भी करुंगी. हे पति परमेश्वर, यह मेरी पर्सनल मूवी है. न मैं करण जौहर की हीरोइन हूं, न टीवी के सोप ओपेरा की तीस बार करवा चौथ रखनेवाली एकता कपूर की सताई बहू. मैं सिया हूं और सिया ही रहना चाहती हूं. माय डियर हस्बैंड! मैं भूखे पेट इश्क़ नहीं कर सकती.”

Karwa Chauth


अमित एक शानदार पति साबित हुए हैं. उन्हें मेरी यह स्पीच सुनकर प्यार कुछ ज़्यादा ही उमड़ आया. उन्होंने भी अपने उदगार कुछ यूं प्रकट किए, “हे सिया! अगर तुम्हारा भाषण ख़त्म हो गया हो, तो क्या मैं तुम्हारा मुखारविंद चूम सकता हूं?” और जुम्मा चुम्मा दे दे… गाने की तर्ज़ पर उनकी मस्ती शुरू हो गई, “यार, यह 2121 है… देख मैं आ गया… अब तू भी जल्दी आ… करवा चौथ से न घबरा… तू दे दे… हां, दे दे… चुम्मा चुम्मा दे दे सिया…”
और यह दिन हमारे लिए परमानेंट पार्टी डे में बदल गया. तो हे पति प्रेयसी सिया! इस 2121 के करवा चौथ में भूखी न रहियो…

Poonam Ahmed
पूनम अहमद


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