Vyangay

‘‘दादाजी, आप गुज़रे ज़माने की चीज़ हैं. पहले घर में एक आदमी कमाता था और बाकी बैठकर खाते थे, लेकिन आज का हर इंसान कामकाजी है. किसी के पास इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि निठल्लों की तरह बैठकर पांच दिन का मैच देखे.’’
‘‘दादाजी… बिल्कुल सही नामकरण किया है तुमने इनका.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने ठहाका लगाते हुए मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की पीठ थपथपायी.

वर्ल्ड कप शुरू होनेवाला था. मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की शान देखते बनती थी. हर शहर में उनके बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए थे. टीवी चैनलों, व्हाट्स-अप, ट्वीटर और फेसबुक पर उन्हीं के चर्चे थे. बड़े-बड़े सितारों से सजी दुनियाभर की टीमें जमा होनेवाली थीं. मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी इस बार अपना कप किसे देगें इस पर अख़बारों में रोज़ाना कॉलम लिखे जा रहे थे.
यह सब देख मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी फूले नहीं समाते थे. एक दिन उन्होंने अपनी मूंछों पर हाथ फेरते हुए श्री वन-डे इंटरनेशनल से कहा, ‘‘देखा, पूरी दुनिया मेरे रंग में रंगी हुई है. मेरे अलावा अब और किसी को कोई पूछता ही नहीं है.”
यह सुन वन-डे इंटरनेशनल के घाव हरे हो गए. मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी के जन्म से पहले पूरी दुनिया उनकी दीवानी थी, लेकिन अब दिन-प्रतिदिन उनका महत्व कम होता जा रहा था. इससे वे काफ़ी नाराज़ चल रहे थे. अतः अपनी भड़ास निकालते हुए बोले, ‘‘तुमने क्रिकेट को बर्बाद करके रख दिया है. अगर यही हाल रहा तो कुछ दिनों बाद कोई हम लोगों की तरफ़ देखेगा भी नहीं.’’
‘‘मैंने तो क्रिकेट को लोकप्रियता के शिखर पहुंचाया है और आप कह रहे हैं कि मैंने उसे बर्बाद कर दिया है?’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी आश्चर्य से भर उठे.
‘‘तुम्हारा क्रिकेट भी कोई क्रिकेट है.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने मुंह बनाया फिर बोले, ‘‘ऐसा लगता है जैसे दो पहलवान धोबी की थपिया लेकर खड़े हो गए और पीट-पीटकर बॉल की धुलाई कर रहे हैं. क्रिकेट की लय, उसकी कलात्मकता उसकी रचनात्मकता को तबाह करके रख दिया है तुमने.’’


‘‘ओय, ‘डे एण्ड नाइट’, कलात्मकता और रचनात्मकता की बात तुम तो मत ही करो.’’ अब तक शांत बैठे टेस्ट क्रिकेट ने नाक सिकोड़ी. फिर वन-डे इंटरनेशनल को डपटते हुए बोले, ‘‘क्रिकेट तो मेरे ज़माने में होता था. इत्मिनान से, सलीके से, करीने से लोग खाते-पीते, उत्सव मनाते हुए खेल खेलते थे. लेकिन उसकी सारी कलात्मकता ख़त्म करके ठोंका-पीटी का खेल तुमने ही शुरू किया था.’’
मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी समझ गए कि वन-डे के बहाने तीर उन पर भी बरसाये जा रहे हैं. अतः ताव खाते हुये बोले, ‘‘आपका क्रिकेट भी कोई क्रिकेट है. पांच दिनों तक दौड़-धूप मचायी उसके बाद भी मैच ड्रा हो गया और सारे किये धरे पर पानी फिर गया. हम लोगों को देखो, आर-पार का फ़ैसला ज़रूर कराते हैं.’’
‘‘आर और पार का फ़ैसला?’’ टेस्ट-क्रिकेट ने ठहाका लगाया, फिर बोले, ‘‘जितने रन तुम्हारी पूरी टीम बनाती है उससे ज़्यादा तो मेरा एक-एक खिलाड़ी बना देता था. डबल-सेंचुरी, ट्रिपल-सेंचुरी का नाम तो तुमने सुना होगा, लेकिन क्या ज़िंदगी में कभी देखा है उनको बनते हुये? स्पिन का जादू, कलाइयों की कला और मेडन ओवरों का आनंद लिया है कभी तुमने ? तुम दोनों खाली पहलवानी और ठोंका-पीटी करते हो और नाम क्रिकेट का बदनाम करते हो.’’
मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी का नौजवान खून था. उनसे रहा नहीं गया, अतः भड़कते हुये बोले, ‘‘दादाजी, आप गुज़रे ज़माने की चीज़ हैं. पहले घर में एक आदमी कमाता था और बाकी बैठ कर खाते थे, लेकिन आज का हर इंसान कामकाजी है. किसी के पास इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि निठल्लों की तरह बैठकर पांच दिन का मैच देखे.’’
‘‘दादाजी’’ बिल्कुल सही नामकरण किया है तुमने इनका.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने ठहाका लगाते हुए मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी की पीठ थपथपायी.

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फिर बोला, ‘‘इनके ज़माने में तो लोग साल-साल भर तक एक ही सिनेमा को देख-देख कर सिल्वर-जुुबली, गोल्डन जुबली मनाया करते थे, मगर अब पिक्चरों के भी हिट या फ्लाप होने का फ़ैसला एक ही हफ़्तें में हो जाता है. आज स्मार्ट और फास्ट लोगों का ज़माना है, इसलिए जो ज़माने की रफ़्तार के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चलेगा, वो इन्हीं के तरह आउटडेटेड हो जाएगा.’’
‘दादाजी’ कहे जाने से टेस्ट-क्रिकेट बुरी तरह चिढ़ गया था. अतः चीखते हुए बोला, ‘‘ज़्यादा रफ़्तार की बात मत करो. ट्वेन्टी-ट्वेन्टी आया, तो लोग फिफ्टी-फिफ्टी को भूल गये. कल टेन-टेन आयेगा, तो लोग ट्वेन्टी-ट्वेन्टी को भूल जायेगें. फिर ओवर-ओवर आयेगा, लोग टेन-टेन को भी भूल जायेगें. तुम लोगों के सिकुड़ने की कोई सीमा नहीं है, जबकि मैं सदाबहार हूं. सैकड़ो साल से बिल्कुल एक जैसा.’’
‘‘आपने सैकड़ो साल में जितनी कमाई की होगी उससे ज़्यादा की कमाई मेरे एक-एक टूर्नामेंट में हो जाती है, इसलिये आप से श्रेष्ठ मैं हुआ.’’ वन-डे इंटरनेशनल ने हुंकार भरी.
‘‘आपके पूरे टूर्नामेंट से ज्यादा कमाई मैं अपने खिलाड़ियों को एक ही मैच में करवा देता हूं. मेरे बल पर सारे खिलाड़ी आज करोड़पति-अरबपति हो गये हैं, इसलिये सर्वश्रेष्ठ मैं हुआ.’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी ने भी ताल ठोंकी.
‘‘मैं क्रिकेट का जन्मदाता हूं, इसलिये सर्वश्रेष्ठ मैं हुआ.’’ टेस्ट-क्रिकेट भी अपनी दावेदारी से पीछे हटने को तैयार न था.
धीरे-धीरे उन तीनों की बहस तू-तू, मैं-मैं में बदल गयी. खाली बैठा स्टेडियम काफ़ी देर से उन तीनों की बातें सुन रहा था. उसने समझाया, ‘‘आप लोग आपस में लड़ने की बजाय किसी विशेषज्ञ से फ़ैसला क्यूं नहीं करवा लेते?’’
‘‘किससे फ़ैसला करवायें?’’ तीनों ने एक साथ पूछा.
‘‘गावस्कर सर से. वे प्रतिष्ठित भी हैं और वरिष्ठ भी. वे बिल्कुल सही फ़ैसला करेगे.’’ स्टेडियम ने राय दी.
‘‘हां, यह ठीक रहेगा. गावस्कर सर की मैं बहुत इज्ज़त करता हूं. उनके ही पास चलो.’’ टेस्ट क्रिकेट फौरन राजी हो गया.
‘‘गावस्कर सर की मैं भी बहुत इज्ज़त करता हूं, लेकिन उन्होंने कभी ट्वेन्टी-ट्वेन्टी खेला ही नहीं है. मेरे विचार से तेंदुलकर सर के पास चला जाये. उन्होनें तीनों तरह की क्रिकेट खेली है, इसलिये वे ज्यादा बेहतर बता पायेगें.’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी ने राय दी.


तीनों लोग फौरन सचिन तेंदुलकर के पास पहुंचे. उनकी बात सुन वह सोच में पड़ गये. उन्होनें क्रिकेट के इन तीनों रूपों का आनंद लिया था. कभी किसी एक को दूसरे से कम या ज्यादा नहीं समझा था. वे तीनों में से किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते थे. अतः कुछ सोच कर बोले, ‘‘भई, मैं तो रिटायरमेन्ट ले चुका हूं. आप लोग किसी ऐसे आदमी के पास जाइये, जो आज भी खेल रहा हो. वह ज्यादा सही फ़ैसला कर पायेगा.’’
आपस में सलाह करके तीनों धोनी सर के पास पहुंचे. उनकी बात सुन कैप्टन कूल भी धर्म-संकट में पड़ गये. उन्होंने भी तीनों खेलों का भरपूर आनंद उठाया था और कभी किसी को कम या ज्यादा नहीं समझा था.
कुछ सोचकर उन्होंने कहा, ‘‘भई, मैं भी धीरे-धीरे रिटायरमेंन्ट की ओर बढ़ रहा हूं, इसलिये मेरा कुछ कहना ठीक नहीं होगा. बेकार में बात का बतंगड़ बन जायेगा. आप लोग किसी नये खिलाड़ी के पास जाइये. उनके पास तुरन्त फ़ैसला करने की क्षमता ज्यादा अच्छी होती है, इसलिये वे ही सही राय दे सकेगें.’’
वे तीनों एक-एक करके विराट कोहली, शिखर धवन, रोहित शर्मा, सुरेश रैना, ईशांत शर्मा, रवीन्द्र जड़ेजा, आर.अश्विन और राहणे जैसे युवा खिलाड़ियों के पास गये. किन्तु अपनी बात का उत्तर उन्हें किसी के पास नहीं मिल पाया, क्योंकि जो खिलाड़ी वन-डे या ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में हिट था, वह टेस्ट क्रिकेट में भी अपना स्थान बनाना चाहता था. जो टेस्ट-क्रिकेट में हिट था, उसका सपना वन-डे और ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में भी स्थान बनाना था, इसलिये वह किसी एक को अच्छा बता कर दूसरों को नाराज़ नहीं करना चाहता था.
थक हार कर तीनों वापस स्टेडियम के पास लौट आये. उन्हें लग रहा था कि आज के ज़माने में किसी में सही बात कहने की हिम्मत नहीं है, इसलिये सभी टाल-मटोल कर रहे हैं.
उनकी बड़बड़ाहट सुन स्टेडियम ने कहा,‘‘फ़ैसला करने का एक तरीक़ा है मेरे पास.’’
‘‘तो आपने पहले क्यूं नहीं बताया?’’ वन-डे इंटरनेशनल झुंझला उठा.
‘‘मुझे लगा कि शायद आप लोग मेरी बात मानेगें नहीं, इसीलिये पहले संकोच कर रहा था.’’ स्टेडियम ने बताया.
‘‘हम आपकी बात ज़रूर मानेंगे. जल्दी बताइये क्या करना है.’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी उतावले हो उठे.
‘‘मैं आप तीनों की एक-एक टीम बनवाये दे रहा हूं. तीनों लोग आपस में मैच खेल लीजिये. जो जीतेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा.’’ स्टेडियम ने उपाय बताया.
‘‘हमे मंजूर है.’’ तीनों एक साथ बोल पड़े. सभी को अपनी-अपनी काबलियत पर पूरा भरोसा था.
‘‘मिस्टर टेस्ट-क्रिकेट आप सबसे बड़े हैं, इसलिये पहला मौक़ा आपको दे रहा हूं.’’ स्टेडियम ने टेस्ट क्रिकेट की ओर देखा. फिर मुस्कुराते हुये बोला, ‘‘आप देश के सबसे अच्छे 11 तेज गेंदबाज छांट लीजिये. उसके बाद मिस्टर वन-डे इंटरनेशनल 11 सर्वश्रेष्ठ स्पिन बॉलर छांट लें, फिर मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी 11 बेहतरीन बल्लेबाज छांट लें. कल तीनों टीमों का मैच हो जाये, तब पता लग जायेगा किसमें कितना दम है.’’
‘‘क्या फालतू बात करते हैं. खाली 11 गेंदबाजों से कहीं टीम बनती है?’’ टेस्ट क्रिकेट ने मुंह बनाया.
‘‘मैं खाली 11 स्पिनर ले लूंगा, तो मेरी टीम से रन कौन बनायेगा?’’ वन-डे इंटरनेशनल ने भी आंखे तरेरीं.
‘‘और अगर मैने खाली 11 बल्लेबाज ले लिये, तो हमारी तरफ़ से बॉलिंग कौन करेगा?’’ मिस्टर ट्वेन्टी-ट्वेन्टी भी झल्ला उठे.
स्टेडियम ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह बस मुस्कुराता रहा. यह देख टेस्ट क्रिकेट का पारा चढ़ गया. वह तेज स्वर में बोला, ‘‘आप सैकड़ों मैच देख चुके होगें, मगर आपको यह भी नहीं पता कि खाली तेज गेंदबाज, स्पिनर या बल्लेबाजों से टीम नहीं बनती. इन तीनों का अपना-अपना महत्व है. टीम की मज़बूती के लिए ये तीनों ज़रूरी है.’’

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‘‘मेरे भाई, जिस तरह टीम की मज़बूती के लिए ये तीनों ज़रूरी हैं, उसी तरह क्रिकेट की मज़बूती के लिए तुम तीनों भी ज़रूरी हो. क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ाने में तुम तीनों का योगदान महत्वपूर्ण है. इसलिये तुममें कोई छोटा या बड़ा नहीं है. तुम तीनों ही सर्वश्रेष्ठ हो.’’ स्टेडियम ने एक-एक करके तीनों के कंधे थपथपाते हुये कहा.
स्टेडियम की बात तीनों की समझ में आ गयी. उनके चेहरे पर पश्चाताप के चिह्न उभर आये. टेस्ट-क्रिकेट सबसे बड़ा था. अतः उसने बड़प्पन दिखाते हुये मिस्टर ट्वेंटी-ट्वेंटी और वन-डे इंटरनेशनल को गले लगाते हुये कहा, ‘‘भाईयों, मुझे माफ़ कर दो. मैं बड़ा होकर भी छोटी बातें कर रहा था.’’
‘‘दादा, हमें भी माफ़ कर दीजिये. हमने छोटा होकर भी आपसे बहस की.” वन-डे इंटरनेशनल ने कहा.
‘‘दादा, मेरा वर्ल्ड कप शुरू होनेवाला है. चलिये, उसका आनंद लीजिए और देखिए जो खिलाड़ी वन-डे और टेस्ट-क्रिकेट खेल सकते हैं, उनकी अच्छी द्रैनिंग का इंतजाम किया जाए.’’ मिस्टर ट्वेंटी-ट्वेंटी ने कहा.
‘‘चलो.’’ टेस्ट-क्रिकेट ने दोनों की पीठ थपथपायी.
“अरे मुझे भूल कर तुम तीनों कहां जा रहे हों?’’ स्टेडियम ने आवाज़ लगायी.
‘‘अरे सर, हम लोग आपको भला कैसे भूल सकते हैं? हम चाहे कोई भी रूप बदल लें, हमें खेलने तो आपके पास ही आना पड़ेगा.’’ टेस्ट-क्रिकेट ने हंसते हुए कहा.
‘‘ठीक है. जाओ लेकिन जल्दी ही आना और अच्छी-अच्छी टीमें लेकर आना. मज़ेदार मैच देखे बहुत दिन हो गए हैं.’’ स्टेडियम भी हंस पड़ा.
तीनों भाई एक-दूसरे का हाथ थाम चल पड़े. उनमें अब कोई गिला-शिकवा न था.

– संजीव जायसवाल ‘संजय’


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सब पत्र-पत्रिकाओं को देख छांटना कोई छोटी-मोटी बात नहीं, सो सुविधा से काम करने का सोच ही रहा था कि पत्नी फिर आ धमकी. उसने आव देखा न ताव देखते ही देखते आलमारियों की सारी किताबें दोनों हाथों से नीचे गिरा दीं. फिर मुझे तीखी नज़रों से देखती बोली, “ऐसे टर्रम-टर्रम से नहीं होता काम. मैं तुम्हारी तरह मिनटों के काम में घंटों नहीं लगाती.”

वैसे तो हर सुबह गृहिणी द्वारा घर-घर में साफ़-सफ़ाई की परंपरा का निर्वहन हो रहा है, पर जब दिवाली की सफ़ाई की बात हो, तो गृहस्वामी को भी सफ़ाई कार्य में झाडू लिए सावधान की स्थिति में पत्नी के सामने खड़ा हो उसके निर्दोशानुसार सफ़ाई कार्य में जूझना होता है.
दिवाली के आते ही मेरी स्थिति भी ऐसी ही बन गई. कुछ दिन रह गए दिवाली के. स्कूल में दिवाली की छुट्टियां चल रही थी, सो कोई बहाना न बनाकर ना-नुकर भी संभव नहीं रहा. मैंने अपना लिखना-पढ़ना छोड़ा और घर की साफ़-सफ़ाई में लग गया.
दो दिन से घर की सफ़ाई में सारे काम छोड़ रोज़ सुबह से लेकर शाम तक कोल्हू के बैल की तरह जुटा हूं. लगने लगा जैसे मैं अखाड़े में पहली बार दण्ड-बैठकें कर रहा हूं. शरीर थकने लगा. कमर टूट कर मैथी पालक हो गई. हे भगवान! पता नहीं अभी कितने दिन और चलेगा सफ़ाई अभियान? पत्नी कहती, “सरकार गृहिणियों की सुविधा को ध्यान में रख टीचर्स को स्कूल में छुट्टियां साफ़-सफ़ाई में सहायक बनने के लिए ही तो देती है.”
दो दिन में आधा घर ही साफ़ हुआ था. अभी तो वह कमरा जहां मैं शांति से लिखने-पढ़ने का काम करता हूं और जिसमें वर्षों से जमी पत्र-पत्रिकाएं और कहानी-कविता की किताबें आलमारियों और टांड में ठसाठस भरी हुई थी. सफ़ाई करना ज्यों का त्यों बाकी था. कई पत्रिकाएं तो जिनकी उम्र पैतालिस-पचास पार हो गई, वह सारी पत्नी की पुरानी साड़ियों में बंधी टांड पर पड़ी थी. उन्हें टांड से नीचे गिराया, तो पूरा कमरा धूल-धमाके से भर गया. खांसी चलने लगी शुद्ध हवा की चाह में दौड़कर बाहर आया.

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इन पत्रिकाओं को मैंने साहित्य के प्रति लगाव के कारण अभी तक संभालकर रखा हुआ था. बस, दिवाली के साफ़-सफ़ाई के दिनों में दिन भर हो जाते. बाकी सालभर साड़ी की गर्माहट में लिपटकर अपने दिन काटती रहती. लंबे समय से ये पत्रिकाएं ही पत्नी की निगाह में कांटे की तरह चुभती रहतीं. और गाहे-बगाहे इन्हें रद्दी के हवाले करने की धौंस देती रहती. मैं ओल्ड इज गोल्ड कहकर उसे समझाने का प्रयास करता, पर वह तर्क देती, “इन्हें कभी खोलकर पढ़ते तो देखा नहीं. फिर इनके प्रति इतनी बेचैनी भरा लगाव क्यों?” मैं हां हूं… करता, जैसे-तैसे उसे संतुष्ट कर अपनी साहित्यिक आस्था को संजोए रखने में हर बार सफल हो जाता.
पर अब की बार कुछ दिन पहले ही अल्टीमेटम मिला. यह अल्टीमेटम पहले की तरह फुस्स हुए पटाखे की तरह नहीं था, बल्कि इस बार तो करफ्यू में देखते ही गोली मार देने के आदेश की तरह तेज-तर्रार लग रहा था. मैंने इसके बावजूद भी सोचा जो होगा देखा जाएगा. भली करेंगे राम.
सुबह चाय पीकर काम पर लगा ही था कि पत्नी आ धमकी. दो घंटे में कमरे की सफ़ाई पूरी करने की चेतावनी देती बोली, “एक सरकारी नौकरी करनेवाली युवती कमरा किराए पर ले रही है. मैंने उसे यह कमरा बता दिया. दो पैसे आएंगे, तो कई काम होंगे. बेटी की शादी करनी है, तो पैसा जो जुटाना ही पड़ेगा न?” अपना पक्ष रख चली गई.
मैं भी थका-थका हो गया, सो थोड़ा सुस्ताने लगा. सब पत्र-पत्रिकाओं को देख छांटना कोई छोटी-मोटी बात नहीं, सो सुविधा से काम करने का सोच ही रहा था कि पत्नी फिर आ धमकी. उसने आव देखा न ताव देखते ही देखते आलमारियों की सारी किताबें दोनों हाथों से नीचे गिरा दीं. फिर मुझे तीखी नज़रों से देखती बोली, “ऐसे टर्रम-टर्रम से नहीं होता काम. मैं तुम्हारी तरह मिनटों के काम में घंटों नहीं लगाती.” तभी कुकर की सीटियों ने उसे किचन में बुला लिया.
मुझे लगा आज का दिन तलवार की धार पर चलने जैसा है. सोचा सुबह से लग रहा हूं, थोड़ा नहा लूं, फिर इनसे निपटता हूं कि कैसा क्या करना है? अभी ऐसा मन बना ही रहा था कि पत्नी चाय बना लाई. बोली, “थको मत, गरमा गरम लेखकीय मूड़ वाली चाय बनाई है. ताज़ातरीन हो जाओ और जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ.”
अभी काम करने की प्रेरणा जगा वह बाहर निकली ही थी कि तभी डोरबेल बजी. देखा साहित्यिक मित्र गंगाधरजी प्रगट हुए हैं. पत्नी को सामने खड़ा देखा, तो पूछ बैठे, “कहां हैं कमलजी?”
“अंदर कमरे मे साफ़-सफ़ाई में व्यस्त हैं.” गंगाधरजी सीधे कमरे में पहुंच गए. देखा कमलजी तो चारों ओर किताबों पत्रिकाओं के ढेर से घिरे बैठे हैं.
“अरे! अभी तक तैयार नहीं हुए. सोमेवरजी के यहां गोकुलधाम पुस्तकालय उद्घाटन में चलना नहीं क्या? यह काम तो फिर कभी ़फुर्सत में कर लेना. सोमेवरजी ने अपने ही मकान के कमरे में प्रबुद्ध लोगों और लेखकों के लिए पुस्तकालय खोल रहे हंैं. वहां कई साहित्यिक प्रेमी पहुंच चुके थे.”
कमलजी ने पत्नी की ओर देखा. गंगाधरजी की बात से उसका चेहरा लाल हो गया था, पर पत्नी के सारे ग़ुस्से को धता बताकर वह गंगाधरजी के साथ हो लिए. मुख्य अतिथि के रूप में कमलजी कम्प्यूटर, मोबाइल और टीवी के ज़माने में पुस्तकों व पुस्तकालय के महत्व पर प्रकाश डाला. साथ ही भाई सोमेवरजी की दरियादिली पर ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए उनका आभार जताया.

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कमलजी दो घंटे बाद घर लौटे, तो नज़ारा बहुत कुछ बदला हुआ था. कमरा पूरी तरह साफ़ हो चुका था और वह युवती किराए पर रहने आ गई थी और कमरे में अपना सामान जमा रही थी. पत्नी सारी पुरानी पत्र-पत्रिकाएं रद्दी वाले को दे चुकी थी. रद्दी वाला जिन्हें ठेले पर लाद कर और रद्दी की चाह में आवाज़ लगाता आगे बढ़ गया. मैं अपनी साहित्यिक दुनिया के ख़ज़ाने को सदा के लिए विदा होता देखता रहा.
आलमारी की सारी पुस्तकें अब प्लास्टिक के कट्टे में डालकर पीछे वाले अंधेरे कमरे में पहुंचा दी गई.
पत्नी कमलजी को देख चेहरे पर विजयी मुस्कान लाती हुई उत्साह से बोली, “आपका सारा बोझ हल्का कर दिया. दिवाली की सफ़ाई पूरी हो गई. अब ये पुस्तकें नई खुली लाइब्रेरी में ले जाना. आपके सहयोग पर सब आभार जताएंगे.” कमलजी सोचते रहे, ‘हे भगवान यह दिवाली की सफ़ाई हुई या मेरे साहित्य जगत की.’

– दिनेश विजयवर्गीय

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हिजाब की मथानी से मक्खन कम मट्ठा ज़्यादा निकल रहा है. जनता नौकरी, रोज़गार, शिक्षा और सुकून चाहती है, लेकिन सांता क्लॉज के थैले से हिजाब, घूंघट और पगड़ी निकल रही है. चुनाव से पहले बस यही दे सकते हैं.

अरे भइया, ये जो सियासत है, ये उनका है काम! हिजाब का जो, बस जपते हुए नाम! मरवा दें, कटवा दें- करवा दें बदनाम. तो सुन लो खासोआम, हिजाब के मामले में हैंडल विद केयर…
आज ऐसा लग रहा है गोया देश मे पहली बार हिजाब देखा गया है. कुछ लोगों का दर्द देख कर तो ऐसा लगता है जैसे कोरोना से भी उन्हें इतनी तकलीफ़ नहीं हुई जितनी हिजाब से है. कोरोना से बचने के लिए जब चेहरा ढक रहे थे उस वक़्त उनकी आस्था को इंफेक्शन नहीं हो रहा था, पर आज अचानक हिजाब देख कर आस्था, पढ़ाई और संविधान तीनों ख़तरे में पड़ गए हैं. पांच राज्यों में चुनाव की आहट आते ही कर्नाटक सरकार को अचानक आकाशवाणी हुई कि कुछ छात्राओं के हिजाब में आने से ड्रेस कोड, अनुशासन और शिक्षा का ऑक्सीजन लेवल नीचे जा रहा है. बस, अनुशासन और शिक्षा का स्तर उठाने के लिए फ़ौरन हिजाब पर रोक लगा दी गई. राज्य की पुलिस दूसरे विकास कार्यों मे लगी थी, इसलिए रोक पर अमल करने के लिए गमछाधारी शांतिदूतों को बाहर से बुलाकर कॉलेज में नियुक्त किया गया. इन दूतों का रेवड़ पूरी निष्ठा से एक अकेली शांति के पीछे गमछा लेकर दौड़ता रहा.
बस फिर क्या था. सियासत की हांडी में नफ़रत की खिचड़ी पकने लगी. सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी जाग उठी और गूगल पर रिसर्च करनेवाले कोमा से बाहर निकल आए (हालांकि इन विद्वानों ने पहले भी हज़ारों बार हिजाब देखा था, पर तब उन्हें पता नहीं था कि यह चीज़ चुनाव, समाज और देश के लिए घातक है). कुरान से लंबी दूरी रखनेवाले विद्वान भी सवाल करने लगे, “बताओ कुरान में कहां लिखा है कि हिजाब लगाना चाहिए.” विद्वता की इस अंताक्षरी में इतिहास खोदा जा रहा था. नफ़रत के ईंधन से टीआरपी को ऑक्सीजन दी जा रही थी. चैनल डिबेट चला कर हिजाब को मुस्लिम बहनों के भविष्य और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया जा रहा था. अभी भी चुनाव में उतरी पार्टियां जनहित में समुद्र मंथन कर रही हैं.


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तारणहार अपने-अपने बयानों का हलाहल अमृत बता कर परोस रहे हैं. हिजाब मुक्त पढ़ाई के लिए हर चैनल पर शास्त्रार्थ जारी है. देश को विश्व गुरू बनाने का लक्ष्य 10 मार्च से पहले पूरा करना है.
पहली बार पता चला कि हिजाब मुस्लिम बहनों की तरक़्क़ी में कितना घातक है. हिजाब विरोधी विशेषज्ञ बता रहे हैं कि इसे लगाते ही छात्राएं २२वीं सदी से मुड़ कर सीधा गुफा युग में चली जाती हैं. इसी हिज़ाब की वजह से मुस्लिम बहनें घरों में क़ैद होकर रह गईं हैं. न डिस्को में जा रही हैं, न कैबरे कर पा रही हैं और न बिकिनी पहन कर टेलेंट दिखा पा रही हैं. हिजाब ने तरक़्क़ी के सारे रास्ते बंद कर दिए- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी… हिजाब लगाते ही टैलेंट 75 साल पीछे चला गया- कब आएगा मेरे बंजारे! मुस्लिम बहनों की आज़ादी और तरक़्क़ी के लिए शोकाकुल लोग कॉलेज के गेट पर ही हिजाब उतारने के लिए तैयार खड़े हैं. हिजाब देखते ही वह गमछा उठा कर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का कल्याणकारी अभियान शुरू कर देते हैं. अगर कोई दबंग लड़की उनके इस शिष्टाचार का विरोध करती है, तो समाज और देश की तरक़्क़ी रुकने लगती है.
हिजाब चुनाव के पहले चरण में सिर्फ़ तरक़्क़ी विरोधी था, दूसरे चरण में संविधान विरोधी हो गया. १६ फरवरी आते-आते इसमें से आतंकवाद की दुर्गंध आने लगी. हर अंधा अपने-अपने दिव्य दृष्टि का प्रयोग कर रहा है आगे-आगे देखिए होता है क्या!
कोई हिजाबी प्रधानमंत्री बनाने की हुंकार भर रहा है, तो कोई क़यामत तक हिजाब वाले पीएम के सामने बुलडोजर लेकर खड़ा होने का संकल्प ले रहा है. कुछ नेता और संक्रमित चैनलों को हिजाब के एक तरफ़ शरिया और दूसरी तरफ़ संविधान खड़ा नज़र आ रहा है. मुसलमान सकते में है, क्योंकि अब तक उन्हें भी नहीं पता था कि हिजाब इतना गज़ब और ग़ैरक़ानूनी हो चुका है. हिजाब की बिक्री का सेंसेक्स टारगेट से ऊपर जा रहा है. शरिया और हिजाब से अब तक अनभिज्ञ कई धर्मयोद्धा हिजाब के समर्थन और विरोध में उतर पड़े हैं. इस धार्मिक जन जागरण से कई दुकानदारों की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही है.

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तीसरे दौर का चुनाव सामने है और नेता दुखी हैं. हिजाब की मथानी से मक्खन कम मट्ठा ज़्यादा निकल रहा है. जनता नौकरी, रोज़गार, शिक्षा और सुकून चाहती है, लेकिन सांता क्लॉज के थैले से हिजाब, घूंघट और पगड़ी निकल रही है. चुनाव से पहले बस यही दे सकते हैं. अभी सात मार्च तक यही मिलेगा, इसलिए बलम जरा धीर धरो… जीते जी जन्नत अफोर्ड नहीं कर पाओगे, दे दिया तो मानसिक संतुलन खो बैठोगे. आपस के इसी धर्मयुद्ध ने देश को जवाहर लाल से मुंगेरी लाल तक पहुंचाया है! विकास के अगले चरण में महिलाओं को लक्ष्मी बाई से जलेबी बाई की ओर ले जाया जाएगा. तब तक ताल से ताल मिला…

– सुलतान भारती


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अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ानेवाले हिंदी के अध्यापक बुद्धिलाल जी क्लॉस में छात्रों को शिक्षा दे रहे हैं- हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, आओ इसे विश्वभाषा बनाएं. रमेश, गेट आउट फ्रॉम द क्लास. नींद आ रही है, सुबह ब्रेकफास्ट नहीं लिया था क्या. यू आर फायर्ड फ्रॉम द क्लॉस.. नॉनसेंस!.. (अंग्रेज़ी बेताल बनकर हिंदी की पीठ पर सवार है)







अपने देश की राष्ट्रभाषा हिंदी है, इसका पता दो दिन पहले मुझे तब लगा, जब मै अपने बैंक गया था. आत्मनिर्भर होने के एक कुपोषित प्रयास में मुझे अकाउंट से तीन सौ रुपया निकालना था. बैंक के गेट पर ही मुझे पता चल गया कि देश की राष्ट्रभाषा हिंदी है. गेट पर एक बैनर लगा था- हिंदी में काम करना बहुत आसान! हिंदी में खाते का संचालन बहुत आसान है! हिंदी अपनाएं ! हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है!

      अंदर सारा काम अंग्रेज़ी में चल रहा था. मैंने मैडम को विदड्रॉल फॉर्म देते हुए कहा, “सो सॉरी, मैंने अंग्रेज़ी में भर दिया है!” उन्होंने घबरा कर विदड्रॉल फॉर्म को उलट-पलट कर देखा, फिर मुस्कुराकर बोली, “थैंक्स गॉड! मैंने समझा हिंदी में हैै. दरअसल वो क्या है कि माई हिंदी इज सो वीक.”

“लेकिन बैंक तो हिंदी पखवाड़ा मना रहा है?”

 “तो क्या हुआ. सिगरेट के पैकेट पर भी लिखा होता है-स्मोकिंग इज़ इंजरस टू हेल्थ.. लेकिन लोग पीते है ना.” 

लॉजिक समझ में आ चुका था. सरकारी बाबू लोग अंग्रेज़ी को सिगरेट समझ कर पी रहे थे, जिगर मा बड़ी आग है… ये आग भी नासपीटी इंसान का पीछा नहीं छोड़ती. शादी से पहले इश्क़ के आग में जिगर जलता है और शादी के बाद ज़िंदगीभर धुंआ देता रहता है. अमीर की आंख हो या गरीब की आंत, हर जगह आग का असर है. सबसे ज़्यादा सुशील, सहृदय और सज्जन समझा जानेवाला साहित्यकार भी आग लिए बैठा है. लेखक को इस हक़ीक़त का पता था, तभी उसने गाना लिखा था- बीड़ी जलइले जिगर से पिया, जिगर मा बड़ी आग है… आजकल जिगर की इस आग को थूकने की बेहतरीन जगह है- सोशल मीडिया (कुछ ने तो बाकायदा सोशल मीडिया को टाॅयलेट ही समझ लिया है, कुछ भी कर देते हैं) साहित्यकार और सरकारी संस्थान न हों, तो कभी न पता चले कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है. वो बैनर न लगाएं, तो हमें कभी पता न चले कि अंग्रेज़ी द्वारा सज़ा काट रही हिंदी को पैरोल पर बाहर लाने का महीना आ गया है.

         अंग्रेज़ी अजगर की तरह हिंदी को धीरे-धीरे निगल रही है और सरकार राष्ट्रभाषा के लिए साल का एक महीना (सितंबर) देकर आश्वस्त है. देश में शायद ही कोई एक विभाग होगा, जिसका सारा काम अंग्रेज़ी के बगैर हो रहा हो, मगर ऐसे हज़ारों महकमे हैं, जो हिंदी के बगैर डकार मार रहे हैं. सितंबर आते ही ऐसे संस्थान विभाग को आदेश जारी करते हैं- बिल्डिंग के आगे-पीछे ‘हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है’ का बैनर लगवा दो. एक महीने की तो बात है. हंसते-हंसते कट जाए रस्ते, यू नो…

      सितंबर की बयार आते ही मरणासन्न हिंदी साहित्यकार का ऑक्सीजन लेवल नॉर्मल हो जाता है. कवि कोरोना पर लिखी अपनी नई कविता गुनगुनाने लगता है- तुम पास आए, कवि सम्मेलन गंवाए, अब तो मेरा दिल, हंसता न रोता है.. आटे का कनस्तर देख कुछ कुछ होता है…

मुहल्ले का एक और कवि छत पर खड़ा अपनी नई कविता का ताना-बाना बुन ही रहा था कि सामने की छत पर सूख रहे कपड़ों को उतारने के लिए एक युवती नज़र आई. बस उसकी कविता की दिशा और दशा संक्रमित हो गई. अब थीम में कोरोना भी था और कामिनी भी. इस सिचुएशन में निकली कविता में दोनों का छायावाद टपक रहा था- कहां चल दिए इधर तो आओ, पहली डोज का मारा हूं मैं, अगली डोज भी देकर जाओ…

      अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ानेवाले हिंदी के अध्यापक बुद्धिलाल जी क्लॉस में छात्रों को शिक्षा दे रहे हैं- हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, आओ इसे विश्वभाषा बनाएं. रमेश, गेट आउट फ्रॉम द क्लास. नींद आ रही है, सुबह ब्रेकफास्ट नहीं लिया था क्या. यू आर फायर्ड फ्रॉम द क्लॉस.. नॉनसेंस!.. (अंग्रेज़ी बेताल बनकर हिंदी की पीठ पर सवार है)

           राष्ट्रभाषा हिंदी का ज़िक्र चल रहा है. सरकारी प्रतिष्ठान जिस हिंदी के प्रचार प्रसार की मलाई सालों साल चाटते हैं, उन में ज़्यादातर परिवारों के बच्चे अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं. हिंदी को व्यापक पैमाने पर रोटी-रोज़ी का विकल्प बनाने की कंक्रीट योजना का अभाव है. लिहाज़ा हिंदीभाषी ही सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं. सरकारी प्रतिष्ठान सितंबर में हिंदी पखवाड़ा मना कर बैनर वापस आलमारी में रख देते हैं. अगले साल सितंबर में वृद्धाश्रम से दुबारा लाएंगे.

     ऐ हिंदी! पंद्रह दिन बहुत हैं, ग्यारह महीने सब्र कर. अगले बरस तेरी चूनर को धानी कर देंगे…





     – सुलतान भारती






Satire Story

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मेहराजी शादी की एल्बम और वीडियो फिल्म न बनने से काफ़ी ख़ुश हैं. उनका निजी अनुभव है कि जब-जब उन्होंने किसी की शादी की वीडियो देखी है, उनकी तबीयत ख़राब हो गई है. कारण क्या है यह तो उन्हें भी नहीं पता. कई बार तो पूरी वीडियो देखने के चक्कर में उन्हें इतने चक्कर आए कि डाॅक्टर को दिखाने तक जाना पड़ा.

ज़माना कितना बदल गया है, आजकल के बच्चे (हमारी निगाह में बच्चे ही हैं, भले उनकी शादी तय हो गई है और दो-तीन साल में ऊपरवाले ने चाहा, तो बच्चे उनकी गोद में खेल रहे होंगे) न जाने क्या-क्या शेयर करते हैं. कहां-कहां शेयर करते हैं. मुझे तो लगता है आजकल शादी बाद में होती है!
क्या करूं नहीं चाहता यह सब लिखना, लेकिन न लिखूं, तो मुझे पढ़ेगा कौन, पब्लिक मुझे आउटडेटेड ट्रीट करने लगेगी. एक राइटर को सब कुछ पसंद है, बस एक आदमी या किसी आंटी की तरह उसे बूढ़ा आंटी या आउटडेटेड कहे जाना बिल्कुल पसंद नहीं है.
जैसे कि आजकल की शादी में दूल्हे-दुल्हन के मां-पिता को देखकर शक हो जाता है कि असली हैं या किराए के. कारण यह कि उनके चेहरे, चाल-ढाल (नोट- चाल-ढाल लिख रहा हूं, इसे चाल-चलन मत पढ़िएगा, वरना बच्चे अपने सीनियर्स के कैरेक्टर पर शक करने लगेंगे), कपड़े-लत्ते देख विश्वास ही नहीं होता कि इनके बच्चे इतने बड़े हो गए कि शादी हो रही है.
बाकी रही-सही कसर ये ब्यूटीपार्लरवाले पूरी कर देते हैं. आजकल ब्यूटीपार्लर पर लिखा होता है कि यूनिसेक्स. हमारे ज़माने में नाई की दुकान होती थी, जिसे हमारे दादाजी हज्जाम कहते थे. वह भी उनसे इतना डरता था कि पता चले हजामत बनवानी है, तो कंघी-कैंची ले के घर आ जाता. उसके बाद भी शीशा दिखाने से घबराता था कि न जाने कितने डांट पड़ जाए. और अगर वो कटिंग देखकर मुस्कुरा देते, तो उसे लगता आज का दिन बढ़िया है.
ब्यूटीपार्लर का काॅन्सेप्ट तो फिल्मों में दिखाई देता था, वह भी जिसे माडर्न दिखाना होता था. वैसे हक़ीक़त यह है कि उस ज़माने की एक्ट्रेस और आज किसी मुहल्ले के ब्यूटीपार्लर से निकाल रहे सामान्य कैरेक्टर का आमना-सामना हो जाए, तो यक़ीन मानिए बड़ी-बड़ी एक्ट्रेसेस हार जाएं, निराश हो जाएं. वैसे ही आजकल इंस्टा के ट्रेंड में पोस्ट हुई फोटो देखकर, तो पुरानी एक्ट्रेसेस का हार्ट फेल हो जाएगा. उन्हें लगेगा उस ज़माने में तो कोई कंपटीशन ही नहीं था.
वैसे जिसे हम तब की वाइम्प समझकर पूरी फिल्म देखने जाते थे, आजकल उससे ज़्यादा ग्लैमर से भरे साॅन्ग, तो फिल्म के टीजर में यूट्यूब पर लोड हो जाता है. आजकल के बच्चे कहते हैं, “ओह पापा, ये ओल्ड साॅन्गस मत बजाया करिए दहशत हो जाती है.
‘देखा उसे तो सामने रुखसार नम भी था, वल्लाह उसके दिल में एहसास-ए-ग़म भी था.. थे उसकी हसरतों के ख़ज़ाने लुटे हुए, डूबी हुई थी फिर भी वफ़ाओं के रंग में… पता नहीं क्या-क्या हमें तो कुछ समझ ही नहीं आता कि ये कह क्या रहा है, सिरदर्द और हो जाता है.”

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आपसे क्या बताऊ ये सिरदर्द बड़ी ग़ज़ब चीज़ है. कहते हैं दर्दे शर (सीने का दर्द) होता है, शादी से पहले और दर्दे सिर शादी के बाद. यह सब तो शायराना और ख़्वाबों ख़्यालों की बाते हैं. मुद्दा है शादी के एल्बम का, जिसके चलते आज तक मेरे दोस्त मेहराजी अपनी लाइफ में भाभीजी से ताने सुनते हैं और महीने-दो महीने इस मुद्दे पर लड़ाई के एक-दो एपिसोड देखने को मिल ही जाते हैं.
हुआ कुछ यूं कि मेहराजी ठहरे अल्हड़ बेवकूफ़ क़िस्म के आदमी (वैसे ज़्यादातर मर्द ऐसे ही होते हैं, यह राज़ की बात मैं बताना नहीं चाहता था, पर अनजाने ही लिख गया हूं. हो सकता है मेरे दोस्त मुझसे नाराज़ हो जाएं, पर कोई बात नहीं. अब तो काफ़ी उम्र हो गई है. क्या फ़र्क़ पड़ता है. वैसे भी जब यहां से जाऊंगा, तो साथ क्या जाएगा. सो सोचता हूं, दोस्तो में थोड़ा बुरा बन भी गया तो क्या?
अब सोचकर देखिए आज के ज़माने को जहां 64 मेगापिक्सल, एक से एक अड्वान्स फीचरवाले कैमरे हैं मोबाइल में, से कम के मोबाइल से तो फियानसी की फोटो लेने पर सगाई टूट जाती है और शादी से पहले जो लड़का प्री-वेडिंग शूट नहीं कराता, उससे कोई लड़की शादी को राजी ही नहीं होती.
बाकी की कहानी मुझे नहीं पता यह भी किसी तरह ब्लाग या चोरी-छिपे बच्चों की गॉसिप सुन के समझ पाया हूं और लिख इसलिए रहा हूं कि आजकल मैगजीन बच्चे पढ़ते ही नहीं. वे तो अपने मम्मी पापा को गिफ्ट कर देते हैं, सो मुझे लगा की मेरे ये इन्फार्मेशन ग्रूम्स के डैड का नाॅलेज तो ज़रूर बढ़ाएगी और वो अपने बच्चों का प्री l-वेडिंग शूट अलाऊ कर देंगे. वो ये नहीं सोचेंगे की हमारे ज़माने में तो एक-दूसरे को देखना भी मना था. चिट्ठी-पत्री भी बुरी निगाह से देखी जाती थी. आज की तरह नहीं की मोबाइल पर लगे हैं रात-दिन.

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एनी वे मेहराजी ने अपने अल्हड़पने में शादी की वीडियो फिल्म ही नहीं बनवाई. उस ज़माने में वीडियो बनवाना आसान काम नहीं था. काफ़ी ख़र्चा आता था और मेहराजी के बाबूजी ने उन्हें घुड़क क्या दिया, वे तो शादी की फोटोग्राफी भी भूल गए. वह तो भला हो उनके एक दोस्त का, जो अमेच्योर फोटोग्राफी सीख रहा था अपने शौक से और उसने उस ज़माने के फेमस कैमरे निकान से उनकी कुछ फोटो निकाल दी, वरना ज़िंदगीभर मेहराजी अपने शादी का प्रूफ़ ढूंढ़ते रह जाते, जैसे सर्फ एक्सेल के प्रयोग के बाद कपड़े में दाग़. यह अलग बात है कि उस ज़माने की शादियां बिना गवाह, फोटो और प्री-वेडिंग शूट के भी स्टेबिल हैं और आज की शादियां ढेर सारे प्रूफ़, हैपी मैरिड लाइफ के क्लोजअप फोटो और फेसबुक, इंस्टा पर पोस्ट के बाद भी झटके खा रही हैं.
मामला बड़ा सेंटीमेंटल है, उस ज़माने में ब्यूटीपार्लर बड़े मुश्किल से मिलते थे. मेहंदी भी ख़ास मौक़े पर पूरे हाथ में सजाई जाती थी. लाल जोड़े की ख़ूबसूरती में दिखनेवाला चेहरा भी वाक़ई असली गुलाबी होता था. आज की तरह नहीं कि सुबह मेकअप धुला और दूल्हे ने दुल्हन बदल जाने की शिकायत के बारे में एफआईआर लिखाने की योजना बना डाली. यह अलग बात है कि आज पुलिसवाला पहले दूल्हे को ही समझाता है कि बेटा सम्हल जाओ कहीं दुल्हन ने यही शिकायत करा दी, तो तुम सपरिवार बिना जमानत के पांच साल के लिए भीतर हो जाओगे. कोई बचा नहीं पाएगा और जब वह लुटा-पिटा घर वापस लौटता है, तो दुल्हन मुस्कुराते हुए पूछती है, “क्या हुआ आज भी सुबह माॅर्निंग वाॅक पर गए थे. कुछ दिन घर से बाहर मत निकालो वरना दोस्त मज़ाक बनाएंगे, वैसे किस-किस से मिल आए.” और वह बेचारा अचानक सुर बदल देता है, “अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं मैं देख रहा था मम्मी-पापा उठे कि नहीं.”
वह उसके झूठ का लाज उसी वक़्त रख लेती है.
“अरे, मुझसे पूछ लेते. अभी तो मैं दोनों के पैर छू के आशीर्वाद ले कर आई हूं.” वह ख़ुश हो जाता है कि चलो इसने संस्कार तो अच्छे पाए हैं. मम्मी-पापा ख़ुश रहे और क्या चाहिए.

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भाईसाहब आप उस ज़माने यानी कि मेरे ज़माने में दुल्हन के सेंटिमेंट्स समझिए. कसम से एक लड़की शादी के दिन जितनी सुंदर लगती है, उतनी सुंदर वो लाइफ में फिर रेयर ही नज़र आती है. और आजकल का ज़माना तो था नहीं कि मोबाइल से दोस्तों ने ढेर सारी फोटोज़ निकाल ली या किसी ने एप्पल से फोटो खींचकर शेयर कर दी. उस ज़माने में तो जो कुछ था वह फोटोग्राफर और वीडियोग्राफर ही था. उस रात उस दिन अगर फोटो खींच गई, वीडियो बन गई, तो बन गई, वरना गई भैंस पानी में.
क्या बताएं मेहराजीवाली भाभीजी ने कितनी मुश्किल से अपनी लाज बचाई है अपनी सहेलियों बीच. उन्होंने तो यहां तक कह दिया है कि बहन क्या बताऊं उस दिन तो मैं इतनी सुंदर लगी थी कि आसमान में बैठी परियों ने नज़र लगा दी और वीडियो फिल्म की रील ही ख़राब हो गई. रहा फोटोग्राफर, तो उसके भाई को भी उसी दिन बीमार होना था, वह तो भला हो इनके दोस्त का, जिसकी बदौलत यह फोटो मिल गई, वरना अपनी शादी तो बिना फोटो के रह जाती. हां, यह देखो मैंने अलग से अपने सहेली के भाई को बोल के बनवा ली थी, कैसी लग रही हूं. और कसम से वो स्टूडियोवाली फोटो उन्होंने अपने बेडरूम और ड्राॅइंगरूम में लगा रखी है. इसके विपरीत मेहराजी बेचारे एकदम उदासीन जीवन के प्रतिरूप से उनके बगल में विराजमान हैं. कलर फोटो में भी ब्लैक एंड व्हाइट से, उस ज़माने की सच्चाई को बयान करते हुए. कारण यह की जिस तरह कोई दुल्हन अपनी शादी के दिन सबसे ख़ूबसूरत नज़र आती है, ठीक वैसे ही कोई लड़का अपने शादी के दिन सबसे नर्वस नज़र आता है अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के मज़ाक के चलते. वो उसे याद दिलाते रहते हैं कि बेटा हंस लो, क्योंकि यह तुम्हारी आज़ादी का आज आख़िरी दिन है. कल से तुम हंसना-बोलना सब भूल जाओगे. वह तो बस, इस ख़्याल में डूबा रहता है कि भगवान जाने कल से कौन-सा मुसीबत का पहाड़ उस पर टूटनेवाला है. ऐसे में जब वह हंसने की कोशिश करता है या मुस्कुराता है, तो चेहरे पर अजीब से भाव उभरते हैं, जो हंसने तो नहीं रोने के काफ़ी क़रीब होते हैं.
वैसे हक़ीक़त यह है कि मेहराजी शादी की एल्बम और वीडियो फिल्म न बनने से काफ़ी ख़ुश हैं. उनका निजी अनुभव है कि जब-जब उन्होंने किसी की शादी की वीडियो देखी है, उनकी तबीयत ख़राब हो गई है. कारण क्या है यह तो उन्हें भी नहीं पता. कई बार तो पूरी वीडियो देखने के चक्कर में उन्हें इतने चक्कर आए कि डाॅक्टर को दिखाने तक जाना पड़ा. यहां तक कि अब तो डाॅक्टर ने उन्हें और घरवालो को सलाह तक दे रखी है कि इन्हें शादी-ब्याह में ले जाइए, तो बस बारह बजे तक ही रखिए. फेरे-वेरे मत देखने दीजिए. और हां, भूलकर भी किसी की शादी की एल्बम या वीडियो मत दिखाइए. यहां तक कि मेहराजी जब फिल्म देखने जाते हैं, तो शादी का सीन आने से पहले ही बाहर निकलकर चाय-काॅफी या दिल को ठंडक देने के लिए कोल्ड ड्रिंक्स पीने लगते हैं. भाभीजी तो इतना डर गई हैं कि उन्होंने शादी की फोटो तक छुपा के रख दी है. और कहीं भी जाती हैं, तो घूमने-फिरने की लेटेस्ट फोटो ही देखती हैं. कहीं कोई शादी की एल्बम दिखाने या वीडियो की बात करे, तो बिना चाय पिए ही चलने की ज़िद करने लगती हैं. वैसे यक़ीन मानिए, जब से भाभीजी ने यह टोटका अपनाया है, मेहराजी को कोई चक्कर नहीं आया है. वैसे मैं ऐसे मम्मी-पापा को बस यही कहना चाहता हूं कि भावनाओं को समझें. जिस प्रकार जो डाॅक्टर या इंजीनियर नहीं बन पाते, वे अपनी अधूरी हसरते अपने बच्चों की आंखों और पढ़ाई में देखते हैं. वैसे ही जिनकी शादी के वक़्त की जो हसरते बाकी रह गई हैं, वे अपने बच्चों की शादी में सज-संवर कर फोटो शूट करा कर या घूम-फिर कर पूरी कर लें, क्योंकि ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा! हां, मेहराजी जैसे लोगों के लिए भाभीजी की शिकायत दूर करने का यह सुनहरा मौक़ा है. कुछ नहीं, तो एक बार शादी के सिंघासन पर चुपके से भाभीजी के साथ बैठ जाएं और वीडियो बनवा लें. हां, इस मामले में सावधानी रखना आपकी ज़िम्मेदारी है. कोई भी भूल-चूक और ग़लती का ज़िम्मेदार मैं नहीं हूं!

Murali Manohar Srivastava
मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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Kahani

इंसान तो सिर्फ़ मुंह से बोलता है, पर पैसा चारों तरफ़ से बोलता है. पैसा चाहे कार की ड्राइविंग सीट पर बैठे या पिछली सीट पर, लोग पहचान ही लेते हैं. और मेरे जैसा शख़्स सूट-बूट और टाई पहनकर कार की पिछली सीट पर बैठे, तो भी हमारे पड़ोसी वर्माजी पहचान कर बोल ही देंगे, “कौआ चला हंस की चाल…” पैसा जो बोलता है.

मुझे पूरा यकीन है कि ध्यान से सुनेंगे, तो पैसे की आवाज़ साफ़-साफ़ सुनाई देगी. पैसा बोलता ही नहीं, दहाड़ता भी है. उसके सामने आदमी घिघियाता है, रोता है, फरियाद करता है और चारण बनकर पैसे की वंदना करता है. पैसा वो मास्टर की है, जो हर बंद ताला खोल देता है. पैसा न हो तो खून के रिश्तों में भी चीनी कम हो जाती है और पैसा हो, तो बेगानी शादी में भी अब्दुल्ला दीवाना हो कर नाचता है. पैसेवाले मूर्ख की बकवास भी प्रवचन का आनंद देती है और पैसे से बंजर विद्वान की नेक सलाह भी मोहल्ले को बकवास लगती है. पैसेवाले का चरण रज चन्दन होता है और गुरबत का चबैना फांक रहे इन्सान के सलाम का जवाब देने से भी लोग कतराते हैं- क्या पता उधार मांगने के लिए नमस्ते कर रहा हो..!
पहले सिर्फ़ सुनता था, अब देख भी लिया कि लेखक कड़की के तालाब में उगा हुआ वो कमल है, जिसमें कभी पैसे की ख़ुशबू नहीं आती. दूर से बडा़ ख़ूबसूरत लगता है- खिलखिलाता और अपने टैलेंट से सबका ध्यान अपनी ओर खींचता. लोग उसकी ख़ूब तारीफ़ करते हैं, “कमाल है! गज़ब की रचना! कोई मुक़ाबला नहीं जी…” मगर उसकी जड़ों में लिपटे हुए गुरबत के कीचड़ को कोई नहीं देखता.
ट्रेजडी देखिए आह से निकला होगा गान- को पूरी बेशर्मी से लेखक की नियति बताई जाती है. शायद ऐसी रुग्ण मानसिकता ने रचनाकार को नोट से दूर नियति की ओर धकेल दिया है. लिहाज़ा आख़री सांस तक सिर्फ़ उसके हाथ की कलम बोलती है, पैसा नहीं बोलता.
इंसान तो सिर्फ़ मुंह से बोलता है, पर पैसा चारों तरफ़ से बोलता है. पैसा चाहे कार की ड्राइविंग सीट पर बैठे या पिछली सीट पर, लोग पहचान ही लेते हैं. और मेरे जैसा शख़्स सूट-बूट और टाई पहनकर कार की पिछली सीट पर बैठे, तो भी हमारे पड़ोसी वर्माजी पहचान कर बोल ही देंगे, “कौआ चला हंस की चाल…” पैसा जो बोलता है.
एलआईसी वाले मछली पकड़ने के लिए एक स्लोगन लाए हैं- ज़िंदगी के साथ भी.. ज़िंदगी के बाद भी… ये पैसे के बारे में कहा गया है. पैसा जितना ज़िन्दगी में बोलता है, उससे ज़्यादा मरने के बाद बोलता है. धर्मशाला, प्याऊ, मस्जिद, मंदिर, अनाथालय बनवाकर लोग पुण्य के ब्याज़ में पैसे की झंकार सुनते रहते हैं. पैसे के बगैर स्वर्ग कितना दुरूह और नर्क कितना नज़दीक है. तभी तो किसी दिलजले ने कहा है- पैसे बिना प्यार बेकार है! (सुनते ही फ़ौरन चीनी कम हो जाती है)
हमारे वर्माजी इतने कठोर सत्यवादी हैं कि लोग सामने पड़ने से घबराते हैं. क्या पता बबूल की कांटेदार टहनी जैसी कौन-सी बात बोल दें कि कान तक का कोरोना निकल भागे. खाते-पीते बुद्धिजीवी हैं. पूंजीपतियों से छत्तीस का आंकड़ा है. मोहल्ले के बडे़ व्यापारी सेठ नत्थूमल को भी नथुआ कहकर बुलाते हैं. पैसे को पैर की जूती समझनेवाले वर्माजी अपना अलग दर्शन बताते हैं, “पैसा कमाने के लिए आदमी तोते की तरह बोलता है, पैसा आने के बाद आदमी मुंह में फेवीकोल डालकर ‘नथुआ’ हो जाता है. पैसा आने के बाद आदमी को बोलने की ज़रूरत ही नहीं, लोग बोलते हैं, पैसा सुनता है. पैसे की ख़ामोशी में बड़ी आवाज़ होती है बबुआ…”
बुजुर्गों ने एक कहावत गढ़ी थी- अक्ल का अंधा गांठ का पूरा.. जब पैसा किसी मूर्ख के पास आ जाए और पैसे को तरसते बुद्धिजीवी का उसी मूर्ख से वास्ता पड़ जाए, तो क्या होगा. दुर्भाग्यवश बुद्धिजीवी अगर साहित्यिक प्रजाति का हो, तो सोने पर सुहागा. साहित्यकार की जेब बेशक सूखा पीड़ित हो, पर दिल में खुद्दारी का हिन्द महासागर और क्रोध में दुर्वासा से कम नहीं होता. एक तो करैला, दूजा नीम चढ़ा. पूंजीपति को देखते ही लेखक ऐसे फुंफकारता है, गोया सांड ने लाल रंग देख लिया हो. कुछ करनी कुछ करम गति कुछ लेखक का भाग. लेखक अपनी खुद्दारी नहीं छोड़ता और दुर्भाग्य पीछा. पैसा और कलम- मत छेड़ो सनम.
पैसा बगैर ज़बान के बोलता है. बोलता ही नहीं चिढ़ाता भी है. पैसा जिसके पास जाता है, उसे मुखिया बना देता है. जो बोले वही सत्य वचन, जिधर से जाए वही रास्ता ( महाजनों येन गता: सा पंथा:) पैसा परिभाषा बदल देता है. हर कान पैसे की आवाज़ सुनता है. समाज भी पैसेवाले तराजू की जय जयकार करता है. पैसा ही रस्म और परंपरा तय करता है. गरीब आदमी की पत्नी अगर कम कपड़े पहने, तो ‘मज़दूर ‘ और पैसे वाले की बीबी अगर लंगोट पहन कर निकले तो मॉडल कहलाए!
कि मैं कोई झूठ बोल्या…

सुल्तान भारती


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