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Vyangy
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पिछले तीन साल भुगत चुका हूं. अब मैं किसी को नए साल के लिए हैप्पी न्यू ईयर का अभिशाप नहीं देनेवाला. साल 2021 में मुझे लोगों ने हैप्पी न्यू ईयर की बद्दुआ दी थी. 14 अप्रैल को कोरोना ने मुझे धर दबोचा.
आप सबको हफ़्ते भर पहले कैसे मालूम हो जाता है कि आनेवाला साल हैप्पी होने जा रहा है? हम बाइस साल की उम्र तक गांव में रहे. इस दौरान कभी नए साल को हैप्पी होकर आते नहीं देखा! एक जनवरी को भी दुखीराम हैप्पी होने की जगह रुआंसे ही नज़र आते थे, “का बताई भइया, गेहूं तौ ठीक है, लेकिन सरसों मा माहू (कीट) लाग गवा.”
ये कमबख्त माहू को भी यही खेत मिलता है. हर साल दुखीराम के खेत में घुस जाता था. बगल पांचू लाला की दूकान में माहू कभी नहीं लगा. पांचू लाला तांगा लेकर गेहूं ख़रीदने गांव-गांव घूमते थे. जब वो लाला से सेठ हो गए, तो गांव ख़ुद पांचू लाला के पास जाने लगा. दुखी राम की लाइफ में नया साल कभी हैप्पी नहीं हुआ. उसकी और पांचू सेठ के घोड़े की कुंडली एक जैसी थी. दोनों अपने-अपने दुर्भाग्य को ढोने में लगे थे. घोड़ा पांच साल में मरा और दुखीराम पचास साल में. सुविधा भोगी संत और विचारक कहते हैं कि परिश्रम करने से आदमी महान हो जाता है. दुखीराम दिन के बारह घंटे फावड़ा चला कर भी पचास साल में महान नहीं हो पाए. पांचू सेठ विधवा आश्रम खोलकर पांच साल में महान हो गए. आदमी होने से महान होना कहीं ज़्यादा आसान है.
ज़माना कितना बदल गया. लोग सांताक्लाज को भी लूट लेते हैं, जो कभी नियति के हाथों लूटे आदमी के आंसू पोछता था. फरवरी 2020 से कोरोना स्वच्छ भारत आभियान में लगा हुआ है. तब से बुद्धिलालजी फेस मास्क लगाकर गुटखा खाते हैं. वो एक कवि हैं. कोरोना काल कवियों के लिए किसी पतझड़ से कम पीड़ादायक नहीं रहा. ‘दो गज की दूरी मास्क ज़रूरी’ का अर्थ अब जाकर समझ में आया. बहादुर शाह ज़फ़र का एक शेर है- दो गज ज़मीन भी न मिली कूचे यार में… दो गज का नारा कब्र (मौत) के लिए है.
कोरोना कहता है- मास्क ख़रीद कर पहनो, नहीं तो कब्र में जाना तय है.
मौलाना साहब ये नहीं बता रहे कि कोरोना से वीरगति को प्राप्त होने पर जन्नत मिलेगी या दोजख. कोरोना को कॉरपोरेट देवताओं ने मास्क का ब्रांड एंबेसडर बनाकर अरबों डॉलर कमाए. ज़िंदा लोग सदियों से मुर्दों का कारोबार संभालते आए हैं. बहुत से विद्वान तो कोरोना को पूज्यनीय बनाना चाहते थे, पर इस असमंजस में आस्था दिग्भ्रमित थी कि वो’ स्त्रीलिंग में आता है या पुलिंग में. ताली,थाली और गाली में से जाने उसे क्या सूट करता है.
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सही बोलूं, तो कोरोना जैसी महान उपलब्धि के सामने मंदिर-मस्जिद का राग भी छोटा पड़ गया था. इससे दुखी होकर कुछ महापुरुषों ने कोरोना का पीछा किया और जमातीयों में उनका डीएनए ढूंढ़ लिया. आंख और मुंह से गांधीजी का बंदर बन चुकी देश की मीडिया को भी मरकज और जमाती साक्षात कोरोना बम नज़र आने लगे थे.
जमातियों की शक्ल में कुछ लोगों को कोरोना के फूफा नज़र आने लगे थे. कोरोना लाइलाज़ था, लेकिन फूफाजी का इलाज था. पुलिस जमातियो को पकड़-पकड़ कर थाने ले जाने लगी. फिर पुलिसवालों ने गुहार लगाई कि फूफाजी बिरयानी मांग रहे हैं. बिरयानी खिलाई गई, तो पुलिसवालों ने बयान दिया कि फूफाजी थाली में थूक रहे हैं. (गमीमत थी कि वो थाली में छेद करते नहीं पाए गए) सभ्य पुलिस वाले अतिथि देवो भव का पालन करते हुए बिरयानी खिला रहे थे और जनता घरों में क़ैद आर्तनाद कर रही थी- अब तो जीडीपी भी कोमा में चली गई, कोरोना तुम कब जाओगे…
पिछले तीन साल भुगत चुका हूं. अब मैं किसी को नए साल के लिए हैप्पी न्यू ईयर का अभिशाप नहीं देनेवाला. साल 2021 में मुझे लोगों ने हैप्पी न्यू ईयर की बद्दुआ दी थी. 14 अप्रैल को कोरोना ने मुझे धर दबोचा. उस दिन पहला रोजा था. ख़ैर, ऑक्सीजन लेवल 80 और 83 के बीच पींग मारता रहा, मगर मैं शायद अस्पताल न जाने की वजह से ज़िंदा बच गया या फिर इसलिए, क्योंकि कोरोना को जब पता चला कि मैं हिंदी का लेखक हूं, तो वो ख़ुद मुझे छोड़कर चलता बना. सोचा होगा- हिंदी के लेखक को मरने के लिए कोरोना की क्या ज़रूरत..! जाते हुए ज़रूर पाश्चाताप किया होगा, “हम से भूल हो गई, हम का माफ़ी दई दो. ग़लत घर में दाख़िल हो गया यजमान..”
समझ में नहीं आया कि नए साल के आने में मुबारक जैसी क्या चीज़ है. हमारे देश में तो मुसीबतों का आना-जाना लगा ही रहता है, इसमें हैप्पी होने की क्या बात. कभी बर्ड फ्लू, तो कभी स्वाइन फ्लू. हमीं हैं, जो बर्ड फ्लू से ग्रसित मुर्गे को खाकर प्रोटीन प्राप्त करते हैं. गनीमत है कि कोरोना कभी सशरीर सामने नहीं आया, वरना झुरहू चच्चा महुआ की दारू के साथ चखना के तौर पर नया प्रयोग कर डालते.
राहुल गांधी जैसे ही राजस्थान से दिल्ली की ओर चले, वैसे ही मीडिया ने चीन से भारत की ओर पदयात्रा करते कोरोना को देख लिया. वो भी भारत जोड़ो के समर्थन में चल पड़ा है. मॉनसून परख कर दूरदर्शी दुकानदारों ने फेस मास्क से लेकर अर्थी का सामान तक स्टॉक करना शुरू कर दिया है. पांचू सेठ पंडित भगौतीदीन से कन्फर्म करने के लिए पूछ रहे हैं, “पंडितजी, आपका जंत्री क्या कहता है, अफ़वाह है या सचमुच कोरोन चल पड़ा है?”
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पंडितजी जानते थे कि सेठ को कौन-सी चिंता खाए जा रही है. उन्होंने फ़ौरन गंभीरता ओढ़ ली, “दुखद सूचना है यजमान. कोरोना की कुंडली से शनि की साढ़े साती दूर हो चुकी है. मंगल ख़ुद लालटेन हाथ में लेकर कोरोना को इधर आने का रास्ता दिखा रहा है. देख लेना, इस बार गेहूं में बाली की जगह कोरोना ही नज़र आएगा. नया साल मुबारक हो यजमान.”
इस दुखद भविष्यवाणी पर पांचू सेठ ने पहली बार पंडितजी को 21 की जगह 51 रुपए की दक्षिणा दी थी.
– सुलतान भारती
Photo Courtesy: Freepik

विदेशी मेहमान द नींबूजी की तारीफ़ करते ना थक रहे थे. मैंगोस्टीन ने बताया, “द नींबूजी, विश्व सुंदरी ऐश्वर्या रॉय के द्वारा भी प्रमोट किए गए हैं. ‘नींबूड़ा नींबूडा…’ गाने में, जो आजकल ट्रेंडिंग है…” सभी ने एक सुर में हां में हां मिलाई और तालियों की गड़गड़ाहट. नींबू की ख़ुशी का मानो ठिकाना ना था, पर फिर भी एक अजीब-सी बेचैनी मन में घर किए बैठी थी.
नींबू ने जो गज़ब की सफलता पाई है अभी कुछ समय में वो सच में बधाई के योग्य है. हर जगह बस नींबू के ही चर्चे हैं. आम से लेकर ख़ास तक, अख़बार से लेकर सरकार तक, व्यंग्यकार से लेकर वॉट्सएप के ज्ञानी मैसेज तक, इंस्टा की रील्स, यूट्यूब के शॉट्स से लेकर एनिमेटेड वेब सीरीज़ तक हर जगह बस नींबू ने अपनी पकड़ ऐसे बनाई है जैसे हर्षद मेहता के समय में शेयर के भाव थे.
तो इसी उपलक्ष्य में नींबू ने रखी एक कॉकटेल पार्टी, क्योंकि देश-विदेश से सभी परिचितों और ख़ास अजनबियों के इतने बधाई और पार्टी के कॉल आ चुके कि अब स्वयं नींबू, नींबू ना रहकर, ‘द नींबू’ हो गया, जिससे सभी मिलना चाहते हैं.
कुछ साग-सब्ज़ियां और फल भी, नींबू की इस अपार सफलता से कुढ़ रहे हैं, कुछ ईर्ष्यावश बुराई कर रहे हैं, कुछ फ्री की पार्टी मिलने की ख़ुशी में मग्न हैं, कुछ सच में ख़ुश हैं और कुछ भुगतभोगी, ये जानते हैं कि ये सब चकाचौंध ज़रा-सी देर की है, फिर वही ढाक के तीन पात.
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नींबू का सबसे पक्का साथ रहा है मिर्ची के साथ, नींबू की तरक़्क़ी की ख़बर मिलते ही सबसे पहले वो आई थी, नाचती-झूमती, बधाई दी, साथ में नज़र भी उतारी थी नींबू की. पर पार्टी का न्योता अब तक उसे ना मिला था, ख़बर पहले मिल गई थी, सो वो तैयारी में लग गई.
मिर्ची को उसके मॉं, बाबा, प्याज़ चाची, काली मिर्च मौसी लगभग सभी ने समझाया, पर वो प्रेम दीवानी बोली, “नींबू मुझे ना बुलाए, ऐसा भी हो सकता है भला? और वे भी अपनों को क्या न्यौता देना, हम तो मेजबान हैं, मेहमान थोड़ी!”
अब उसे कैसे समझाए कि एकदम से मिली अतिशय शौहरत आदमी के सिर चढ़ जाती है, तो भला नींबू जैसा भोला जीव उससे अछूता कैसे रहता? वैसे भी बरसों से मानवों के बीच रहते उनके रंग सभी पर चढ़ गए है आजकल.
ख़ैर, नींबू ने आख़िर अपनी देसी मिर्ची को बताया शाम को पार्टी है, तुम ज़रूर आना!
मिर्ची ने सबको गर्व से त्यौरियां दिखाई मानो कह रही हो, ‘देखा…’
शाम की पार्टी की कवरेज के लिए मीडिया में गहमागहमी थी. विदेशी सब्ज़ियां और फल भी शिरकत जो करनेवाले थे. पार्टी हॉल की सजावट का क्या कहें. अगर स्वर्ग की कल्पना की होगी किसी ने तो बस वैसी ही आकर्षक साज-सज्जा, चारों ओर मधुर सुर संगीत ने भी सबको मुग्ध कर रखा था.
तभी द नींबू साहब पधारे, स्वागत में चारों ओर से पुष्प वर्षा होने लगी, पर… पर उनके साथ तो प्यारी मिर्ची को होना था, पर वो तो अपने साथ एक ओर जेलपीनो और दूसरी ओर कैरोलीना रीपर के साथ आए थे. एक बला की ख़ूबसूरत लग रही थी और दूसरी सबसे तेज का खिताब लिए इठलाती मित्र नींबू का हाथ थामे सबसे मिल रही थी.
यूं भी कोरोना के बाद ऐसे जानदार और शानदार पहली पार्टी थी शायद. एक तरफ़ देसी सब्ज़ियां नींबू के इस व्यवहार से नाख़ुश थीं, बोलीं, “हमारी बेटी के साथ रंगभेद के नाम पर भेदभाव हुआ है. हमारी देसी मिर्चियां किसी से कम है के? अरे वर्ल्ड रिकॉर्ड तो इनके नाम भी है, तीखी तेज तर्रार होने का, बस रंग ज़रा गहरा है, तो नींबू ने आज उन विदेशियों को चुन लिया?” ये कहकर मिर्ची के परिवारवाले उसे अपने साथ वापस ले गए और कुछ भाजियां उनसे सहमत, अपना विरोध जताती मीडिया में अपनी सशक्त बात बताकर पार्टी से चली गईं.
दूसरी तरफ़ विदेशी मेहमान द नींबूजी की तारीफ़ करते ना थक रहे थे. मैंगोस्टीन ने बताया, “द नींबूजी, विश्व सुंदरी ऐश्वर्या रॉय के द्वारा भी प्रमोट किए गए हैं. ‘नींबूड़ा नींबूडा…’ गाने में, जो आजकल ट्रेंडिंग है…” सभी ने एक सुर में हां में हां मिलाई और तालियों की गड़गड़ाहट. नींबू की ख़ुशी का मानो ठिकाना ना था, पर फिर भी एक अजीब-सी बेचैनी मन में घर किए बैठी थी.
वहीं कुछ कोने में बातें बना रहे थे. खटाई का काम तो टमाटर, इमली, अमचूर और नींबू के (फूल) सत या दही भी कर लेते हैं, ये फसल कम होना या ख़राब होना, सब कालाबाजारी करके नींबू ने अपना दाम, नाम और शौहरत बढ़ाने के लिए किया है…
प्याज़ के बिना आधे से ज़्यादा विश्व नहीं रह सकता और वही बात आलू की भी है, पर नींबू? नींबू में ऐसा क्या है? विटामिन सी तो संतरा भी देता है और ऊपर से वो सुंदर बड़ा फल भी है, नींबू तो…
ये बातें भी नींबू श्री तक पहुंच रही थी, पर अभी वो बस आज की पार्टी एंजॉय करना चाहते थे. फिर ख़ूब कार्ड्स खेले गए और मॉकटेल, कॉकटेल भी चली. जैसी सभी बड़ी पार्टियां होती हैं वैसी ही ये भी रही.
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पर पार्टी ख़त्म होते ही, नींबू जाकर अपने पुराने दिनों को याद करने लगा, नाम दाम ना सही, लोगों का कितना स्नेह था, बीमारी से लेकर मेहमानों तक में उसकी पूछ थी, पर अभी? अभी केवल नेताओं में चर्चा है, कवि/ लेखक के उपमाओं में स्थान है और लोगों की रील्स और तानों में उसका नाम है.
तभी उसकी चहेती मिर्ची ने आकर पीछे से एक धौल दी, “क्यों बच्चू? इतना बड़ा आयोजन करके भी उदास काहे?” नींबू कुछ ना कह पाया, बस आंख के कोर में तरलता आ गई, इतना ही कहा, “सॉरी, मुझे पता है पर मैं क्या करता. इतने सालों बाद ये जो सब सिर्फ़ मेरी बात रहे हैं, बस उसी का नतीज़ा…” मिर्ची ने एक और मीठी चपत लगाई और हंस दी.
दोनों पुनः पहले की तरह ठहाका लगाकर बतियाने लगे और ये मनभावन दृश्य देखकर तारे मुस्कुराने लगे.
– अंकिता बाहेती
Photo Courtesy: Freepik
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”सिया उठो, सरगी का टाइम हो गया, मां बुला रही हैं.” मैंने जान-बूझकर करवट ले ली. मन ही मन भगवान से प्रार्थना की- ‘हे भगवान! अमित मुझे सोने दे. अपनी मां से ख़ुद ही कह दे, ‘नहीं रहेगी सिया भूखी, उसे सोने दो.’ पर अजी कहां, बेरहम ने उठाकर ही दम लिया. लम्बी उम्र जो करवानी है.
सोसाइटी में करवा चौथ की तैयारियां ज़ोरों पर है, बिल्डिंग लाल, पीली झालरों से सजी हुई है. लेडीज क्लब करवा चौथ के मूड में था, सब अपनी पुरानी महंगी साड़ियों को हवा, धूप दिखा रहीं है. मैं करण जौहर की मूवी की हीरोइन की तरह अपनी रोमांटिक लाइफ के करवा चौथ की रेटिंग ख़ुद तय करती हूं.
यह क्या बात हुई, सजो-धजो, छलनी पकड़ो, न उसमें अपना चेहरा समाय न उसका, सुबह पति भले ही फूटी आंख न भा रहा हो, पर शाम सात बजे छलनी में ही जैसे सारा प्यार, उसका चेहरा सिमट जाता है, जो सिर्फ़ कुछ ही पलों में गायब भी हो जाता है. वैसे मैंने शादी के पहले दिन ही इन्हें कह दिया था कि मुझसे फिल्मी करवा चौथ की उम्मीद न रखें. मेरे लिए करवा चौथ चिंता का विषय है. पहली करवा चौथ मुझे आज भी याद है. अमित को बहुत उम्मीद थी कि मैं भी यह व्रत धूमधाम से रखूंगी.
नहीं भाई, मैं लाइफ में सब कुछ कर सकती हूं, पर भूखी नहीं रह सकती. और वह कहते हैं न कि बंदा जिस चीज़ से भागता है, वही उसके सामने आ खड़ा होता है. वही हुआ जिसका डर था. अमित से शादी करके मैं बहुत ख़ुश थी (शायद वह भी).
हनीमून भी हो गया, सब कुछ लवी-डवी चल रहा था, पर फिर करवा चौथ ने दस्तक दे दी और मैं अलर्ट हो गई. सासू मां और जेठानी का इस त्योहार के लिए उत्साह देखकर मेरे दिल में उनके लिए जितना भी प्यार और सम्मान था, वह डगमगा गया.
अरे! कौन ख़ुश होता है भूखे रहने के लिए इतना! सासू मां जब कहतीं कि ‘हे भगवान्! हर जनम में यही पति देना.’ मैं मन ही मन कहती, ‘अरे! ऐसा ही क्यों! हर जनम में पति की नई वैरायटी क्यों नहीं हो सकती? एक जनम के लिए एक पति काफ़ी नहीं है क्या? हम तो वैरायटी के लिए किसी को देख भी लें, तो तोहमत लगती है. जेठानी की व्रत की लिस्ट पर नज़र डाली, तो मुझे लिस्ट अच्छी लगी. एक गोल्ड की चेन, नई साड़ी, मेहंदी, मैचिंग एक्सेसरीज़, पार्लर, नई चप्पल. उनसे ज़्यादा उनकी लिस्ट अच्छी लगी. फिर नीचे लिखा था व्रत का सामान. उस पर मैं चाह कर भी नज़र डाल ही न पाई.
और फिर वह दिन आ ही गया जब सुबह अमित ने मुझे झिंझोड़ा, ”सिया उठो, सरगी का टाइम हो गया, मां बुला रही हैं.” मैंने जान-बूझकर करवट ले ली. मन ही मन भगवान से प्रार्थना की- ‘हे भगवान! अमित मुझे सोने दे. अपनी मां से ख़ुद ही कह दे, ‘नहीं रहेगी सिया भूखी, उसे सोने दो.’ पर अजी कहां, बेरहम ने उठाकर ही दम लिया. लम्बी उम्र जो करवानी है. मैं उन्हें घूरते हुए रूम से निकल गई. दुष्ट मुस्कुराता रहा.
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सासू मां और जेठानी के साथ सरगी खाने बैठी, तो सोचा जमकर खा लूं, पता नहीं अब खाना कब नसीब हो. यह मेरे जीवन का पहला व्रत था. मेरे मायके में कभी कोई मुझे भूखा रख ही नहीं पाया. मैं दबाकर खा रही थी. मैंने तब तक खाया, जब तक मैं खा सकती थी. सुबह-सुबह मुझे ऐसे खाते देख वे दोनों मुस्कुराती रहीं. पता नहीं क्यों भूखे रहना मेरे लिए मौत के फ़रमान के बराबर है. भूख मुझे कभी भी ज़रा भी बर्दाश्त नहीं! जब खाना चाहिए तो चाहिए. मैं उन दोनों से बचाकर ड्रायफ्रूट्स छुपाकर ले आई.
भरपेट खाकर मैं सोने चली गई, तो अमित ने मेरे गले में बांहें डाल दी. मुझे करंट लगा. ये बांहें नहीं, मुझे भूख से क़ैद करने की जंजीरें हैं. मैं अमित को घूरती हुई करवट बदलकर सो गई. इस आदमी की वजह से ही सुबह-सुबह इतना भरकर ठूसना पड़ा है कि हालत ख़राब हो गई, पर यह क्या! सुबह साढ़े सात बजे दोबारा उठी, तो लगा पेट खाली है, अंतड़ियां कुलबुला रही हैं, भूख भी जाग रही है. मुझे अपने डाइजेशन पर नाज़ हो आया.
आज घर के पुरुषों ने पति प्रेम के चक्कर में दिखावे के तौर पर छुट्टी ले ली थी. मेरे मायके से मेरी मम्मी व्रत रखने का इंस्ट्रक्शन मैन्युअल फोन पर पढ़कर सुनाती रही. मुझे ठीक से व्रत रखने के निर्देश देती रहीं, जिन्हे मैं एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालती रही. नौ बजे पुरुष वर्ग नाश्ता करने बैठा, तो गर्मागर्म परांठों की ख़ुशबू से मेरा ईमान डोल गया. मुंह में पानी आ गया. ऐसा लगा ज़िंदगी में जैसे कभी परांठे नहीं खाए. पेट में परांठा क्रांति उठ कर खड़ी हो गई. ‘सिया, आज ही परांठे खाने हैं. परांठे पैक किए और अपने रूम में लाकर छुपा दिए.
बारह बजते-बजते मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. पति पति नहीं, दुश्मन लगने लगा. सारे ससुरालवाले खूंखार जेलर. मौक़ा देखकर परांठों पर टूट पड़ी. परांठे खाकर हौसले वापस बुलंद हो गए. मुझे उस समय पति से ज़्यादा प्रिय परांठे लगे. थोड़ी देर बाद अमित बेडरूम में टीवी देख रहे थे. मैं वहीं लेटी हुई थी. अचानक उनकी नज़र मेरी शकल पर पड़ी. वे चौंके, प्यार से पूछा, ”कुछ चाहिए, सिया?” प्यार से उनके पूछने पर ही मेरी आंखें भर आईं.
अमित घबरा गए, ”क्या हुआ, सिया, कुछ चाहिए?”
मैं उठकर बैठ गई. मैंने झेंपते हुए कहा, “अमित, मैंने परांठे खा लिए. मैं भूखी नहीं रह सकती. यह व्रत अब करवा चौथ नहीं, कड़वा चौथ लग रहा है मुझे…” कहते कहते मैं रोने लगी.
अमित को जैसे हंसी का दौरा पड़ गया. बेड पर पेट पकड़-पकड़कर हंसे. उनकी प्रतिक्रिया पर मेरा रोना अपने आप रुक गया. हंसते-हसते बोले, ”मेरी भूखी पत्नी…” वह वहीँ बैठे ज़ोर-ज़ोर से हंसते रहे. फिर मैं भी हंस दी और कहा, “सुनो! आगे भी कोई व्रत मुझसे नहीं हो पाएगा…” उन्होंने भी “ठीक है.” कह दिया.
शाम को मैंने भी सज-धजकर चहकते हुए व्रत की कहानी सुनी. मेरी हंसी खाई-पीई थी. वे बात-बात पर भूखी-सी कुछ चिढ़ रही थीं. सब के साथ बैठकर पानी और चाय पिया.
अमित अच्छे पति साबित हुए. उन्होंने किसी को भनक नहीं लगने दी कि मैं भरे पेट से चांद को पूज रही हूं. मैंने अमित को रात में कहा, ”यार! तुमने तो आज दिल जीत लिया मेरा.”
हम दोनों ख़ूब हंसे. उसके बाद हुआ यह कि हमारा ट्रांसफर बैंगलुरू हो गया. हमारी आपस में ख़ूब जमी. हमारा प्यार ख़ूब फलाफूला, जिसके प्रमाण स्वरूप दो बच्चे हो गए.
धीरे-धीरे ससुराल और मायके में डॉक्टर का नाम लेकर यह बम फोड़ दिया कि हाइपर एसिडिटी के कारण डॉक्टर ने किसी भी तरह का व्रत रखने के लिए मना कर दिया है. जान छूटी, लाखों पाए. अब होता यह है कि हर साल करवा चौथ पर (उसके बाद कभी कड़वा चौथ नहीं लगा ) मैं शाम को सज-धज तो जाती हूं, मूवी देख आती हूं, डिनर बाहर कर लेते हैं. यह दिन कुछ अलग तरह से सेलिब्रेट कर लेते हैं. मेरा अनुभव है कि पति से प्यार भूखे पेट रहकर नहीं, भरे पेट से ज़्यादा अच्छी तरह किया जा सकता है. उसकी उम्र इस प्यार से ख़ुश रहकर भी लंबी हो सकती है.
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एक दिन मैंने अमित से अपने दिल की बात कुछ यूं कही, ”मैं 2121 की सिया हूं, मेरा करवा चौथ पर विश्वास बरक़रार है. पति प्रेम में पति को यमराज से मांग कर लाने में भी विश्वास है, पर मैं कर्मठ सिया हूं! पर न मैं आंख पर, न पेट पर पट्टी बांध कर जी सकती हूं. मेरी अपनी आकांक्षाएं और अभिलाषाएं हैं. मैं कमाऊंगी भी, खाऊंगी भी, प्यार भी करुंगी. हे पति परमेश्वर, यह मेरी पर्सनल मूवी है. न मैं करण जौहर की हीरोइन हूं, न टीवी के सोप ओपेरा की तीस बार करवा चौथ रखनेवाली एकता कपूर की सताई बहू. मैं सिया हूं और सिया ही रहना चाहती हूं. माय डियर हस्बैंड! मैं भूखे पेट इश्क़ नहीं कर सकती.”
अमित एक शानदार पति साबित हुए हैं. उन्हें मेरी यह स्पीच सुनकर प्यार कुछ ज़्यादा ही उमड़ आया. उन्होंने भी अपने उदगार कुछ यूं प्रकट किए, “हे सिया! अगर तुम्हारा भाषण ख़त्म हो गया हो, तो क्या मैं तुम्हारा मुखारविंद चूम सकता हूं?” और जुम्मा चुम्मा दे दे… गाने की तर्ज़ पर उनकी मस्ती शुरू हो गई, “यार, यह 2121 है… देख मैं आ गया… अब तू भी जल्दी आ… करवा चौथ से न घबरा… तू दे दे… हां, दे दे… चुम्मा चुम्मा दे दे सिया…”
और यह दिन हमारे लिए परमानेंट पार्टी डे में बदल गया. तो हे पति प्रेयसी सिया! इस 2121 के करवा चौथ में भूखी न रहियो…
Photo Courtesy: Freepik

गांव के कुत्ते और शहर के डॉगी में वही फ़र्क होता है, जो खिचड़ी और पिज़्ज़ा में होता है. कुत्ता ऊपरवाले के भरोसे जीता है, इसलिए किसी कुत्ते को कोरोना नहीं होता. डॉगी को पूरे साल घर में रहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है. कुत्ता हर संदिग्ध पर भौंकता है, जबकि डॉगी चोर और मालिक की सास के अलावा हर किसी पर भौंकता है.
माफ़ करना मै किसी का अपमान नहीं कर रहा हूं (मैं कुत्तों का बहुत सम्मान करता हूं). मैं कुत्तों के मामले में दख़ल नहीं देता. कुत्ते इंसान के मुआमलों में बिल्कुल दख़ल नहीं देते. लेकिन दोनों की फिजिक और फ़ितरत में भी बहुत फ़र्क है (आदमी कुत्ते जैसा वफ़ादार नहीं होता). लोग कहते हैं- तुख्म तासीर सोहबते असर! मगर कुत्ता पाल कर भी इंसान के अंदर कुत्तेवाली वफ़ादारी नहीं आती. चचा डार्विन से पूछना था कि जब बंदर अपनी पूंछ खोकर इंसान हो रहे थे, तो कुत्ते कहां सोए हुए थे? या फिर इंसान होना कुत्ते अपना अपमान समझ रहे थे.
कुत्तों से मेरा बहुत पुराना याराना रहा है. दस साल की उम्र में मुझे मेरे ही पालतू कुत्ते ने काट खाया था (मगर तब कुत्ता तो क्या नेता के काटने पर भी रेबीज़ का ख़तरा नहीं था). मुझे आज भी याद है कि कुत्ते ने मुझे क्यों काटा था. झब्बू एक खुद्दार कुत्ता था, जो अपने सिर पर किसी का पैर रखना बर्दाश्त नहीं करता था और उस दिन मैंने यही अपराध किया था. झब्बू ने मेरे दाएं पैर में काट खाया था. तब टेटनस और रेबीज़ दोनों का एक ही इलाज था, आग में तपी हुई हंसिया से घाव को दागना (इस इलाज़ के बाद टिटनस और रेबीज़ उस गांव की तरफ़ झांकते भी नहीं थे). ये दिव्य हंसिया ऑल इन वन हुआ करती थी, फसल और टिटनस के अलावा नवजात शिशुओं की गर्भनाल काटने में काम आती थी.
मुझे आज भी याद है कि जब गर्म दहकती से मेरा इलाज़ हो रहा था, तो मेरे कुत्ते की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. वो ख़ुशी से अपनी पूंछ दाएं-बाएं हिला रहा था. दूसरी बार कुत्ते ने मझे पच्चीस साल की उम्र में तब काटा, जब मैं दिल्ली में था. उस दिन कुछ आवारा कुत्ते सड़क किनारे भौं-भौं कर आपस में डिस्कस कर रहे थे. ऐसी सिचुएशन में समझदार और संस्कारी लोग कुत्तों के मुंह नहीं लगते. मगर मैं गांव का अक्खड़ खामखाह उनकी पंचायत में सरपंच बनने चला गया. उन्होंने मुझे दौड़ा लिया. छे कुत्ते अकेला मै. एक कुत्ते ने दौड़कर पैंट का पाएंचा फाड़ा और पिंडली में काट खाया, मगर इस बार भी मैंने रेबीज़ का इंजेक्शन नहीं लगवाया (आदमी हूं, मुझे दिल्ली के प्रदूषण और अपने ज़हर पर भरोसा था).
कुत्तों के काटने की दोनों घटनाएं सच हैं. मैंने कुत्तों पर बड़ी रिसर्च की है. हम इंसान गहन छानबीन के बाद भी किसी इंसान की पूरी फ़ितरत नहीं जान पाते. कुत्ते इंसान को सूंघकर ही उसका बायोडाटा जान लेते हैं. आपने कई बार देखा होगा कि स्मैकिए और पुलिसवालों को देखते ही कुत्ते भौंकने लगते है. वहीं पत्नी पीड़ित पति, रिटायर्ड मास्टर और हिंदी के लेखकों को देखते ही कुत्ते पूंछ हिलाने लगते हैं, गोया दिलासा दे रहे हों- रूक जाना नहीं तुम कहीं हार के बाबाजी- हम होंगे कामयाब एक दिन…
गांव के कुत्ते और शहर के डॉगी में वही फ़र्क होता है, जो खिचड़ी और पिज़्ज़ा में होता है. कुत्ता ऊपरवाले के भरोसे जीता है, इसलिए किसी कुत्ते को कोरोना नहीं होता. डॉगी को पूरे साल घर में रहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है. कुत्ता हर संदिग्ध पर भौंकता है, जबकि डॉगी चोर और मालिक की सास के अलावा हर किसी पर भौंकता है. डॉगी को सबसे ज़्यादा एलर्जी इलाके के कुत्तों से होती है, जो उसे खुले में रगड़कर सबक देने की घात में होते हैं. कुत्ते जेब नहीं काटते और भूखे होने पर भी चोरी नहीं करते. कुत्ते और भिखारी में आदमी से ज़्यादा पेशेंस होता है.
१८ साल दिल्ली के गोल मार्केट में रहा. यहां मुझे एक जीनियस कुत्ता मिला, जिसे कॉलोनी के चौकीदार ने पाला हुआ था. वो जब भी मुझे देखता, दोस्ताना तरीक़े से पूंछ भी हिलाता और हल्के-हल्के गुर्राता भी. उसके दोहरे चरित्र से मैं चार साल कन्फ्यूज़ रहा. चौकीदार अक्सर रात में दारू पीकर कुत्ते को समझाता, “देख, कभी दारू मत पीना. इसे पीनेवाला बहुत दिनों तक बीबी के लायक नहीं रहता.” कुत्ता पूरी गंभीरता से पूंछ हिलाकर चौकीदार का समर्थन कर रहा था. पी लेने के बाद चौकीदार अपने कुत्ते पर रौब भी मारता था. एक दिन डेढ़ बजे रात को जब मैं एक लेख कंप्लीट कर रहा था, तो फ्लैट के नीचे नशे में चूर चौकीदार कुत्ते पर रौब मार रहा था, “पता है, परसों रात में मेरे सामने शेर आ गया. मैंने उसका कान पकड़ कर ऐंठ दिया था. वो पें पें… करता भाग गया. डरपोक कहीं का.” जवाब में कुत्ता ज़ोर से भौंका, गोया कह रहा हो, ‘साले नशेड़ी, वो मेरा कान था. अभी तक ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है!’
कई सालों से मुझे ऐसा लगता है गोया मैं कुत्तों की भाषा समझता हूं. इस दिव्य विशेषता के बारे में मैंने किसी दोस्त को इस डर से नहीं बताया कि लोग मिलना-जुलना बंद कर देंगे. शाहीन बाग में नॉनवेज होटल और ढाबे बहुत हैं. यहां के कुत्ते भी आत्मनिर्भर नज़र आते हैं. एक दिन घर के नीचे बैठे एक दीन-हीन कुत्ते को मैं रोटी देने गया. कुत्ते ने मेरा मन रखने के लिए रोटी को सूंघा और मुझे देखकर गुर्राया. मैं समझ गया, वह कह रहा था, “खुद चिकन गटक कर आया है और मुझे नीट रोटी दे रहा है. मैं आज भी फेंकी हुई रोटी (बोटी के बगैर) नहीं उठाता…”
मैं घबरा कर वापस आ गया.
– सुलतान भारती
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चश्मे में कसा वर्माजी का काला चेहरा दरवाज़े के बीच नज़र आया. इन्होंने मुझे ऐसे देखा, गोया मेरा फेस मास्क ही फर्जी हो, “इकत्तीस तारीख़ तक लॉकडाउन है…”
उन्हें धकेल कर अंदर रखी कुर्सी पर बैठते हुए मैंने कहा, “मैं तब तक इंतज़ार नहीं कर सकता.”
”क्यों? क्या जांच में तुम्हारे अंदर ब्लैक फंगस पाया गया है? ऐसी स्थिति में तुम्हें मेरे पास नहीं आना था.”
“ज़्यादा ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है, मैं बिल्कुल ठीक हूं और काफ़ी गुड फील कर रहा हूं.”
वह फ़ौरन बैड फील करने लगे, “यहां किस लिए आए हो?”
“मुझे आज ही पता चला कि मैं मशहूर हो चुका हूं, अब मैं महान होना चाहता हूं…”
आज पानीपत से आए एक फोन ने मुझे बेमौसम सरसों के पेड़ पर बिठा दिया. हुआ यूं कि सुबह नौ बजे एक पाठक ने पानीपत से फोन करके पूछा, “क्या आप मशहूर व्यंग्यकार सुलतान भारती बोल रहे हैं?” मेरे कानों में जैसे मलाई बह रही थी. (अब तक मुझे भी अपने मशहूर होने का पता नहीं था!) तब से मुझे एकदम से ब्लैक फंगस दयनीय और कोरोना बड़ा क्षुद्र जीव लगने लगा है. हो सकता है अप्रैल में उसे पता ना रहा हो कि जिसके नाक में घुस रहा है वो मशहूर हो चुका है और अब महान होने की सोच रहा है.
यूपी वाले तो जेठ की भरी दुपहरी में भी शीतनिद्रा में चले जाते हैं. हमें तो दिल्लीवालों पर क्रोध आता है, इन्हें भी ख़बर नहीं हुई और हरियानावालों को मेरे मशहूर होने की ख़बर मिल गई.
जब से मुझे अपने मशहूर होने का पता चला है, मैंने फ़ैसला किया है कि कैसे भी सही अब मुझे महान
होना है (हालांकि इसके पहले कभी हुआ नही था.) मेरे जान-पहचान के अनंत लेखक हैं, जिसमें जितनी कम प्रतिभा है, वो उतना ज़्यादा ग़लतफ़हमी का
शिकार है. कई लेखक तो ख़ुद को विदेशों में लोकप्रिय बताते हैं. शायद देश मे लोकप्रिय होने में रिस्क ज़्यादा था (रुकावट के लिए खेद है) यहां अपने ही साहित्यिक मित्र मशहूर या महान होने के रास्ते में कोरोना बन कर खड़े हो जाते हैं.
जो जितना विश्वत कुटुम्बकम का राग अलापता है, उतना संकुचित सोच का लेखक है. साहित्यकारों ने अपने-अपने गैंग बना लिए हैं, जो आपस में ही एक-दूसरे को मशहूर और महान बना देते हैं. (अगले मुहल्ले का फेसबुक गैंग स्पेलिंग की ग़लती ढूंढ़ कर उनकी महानता को ख़ारिज कर देता है) अब ऐसे में कोई दूसरे प्रदेश का प्राणी आपको मशहूर घोषित कर दे, तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने ऑक्सीजन सिलेंडर ऑफर किया हो.
मशहूर तो मैं हो ही चुका था अब महान होने की कसर थी. काश अगला फोन यूपी से आ जाए. यूपी में महान होना आसान है. वहां ऐसे-ऐसे लोग महान हो गए, जो ठीक से मानव भी नहीं हो पाए थे. लेकिन जैसे ही महान होने का माॅनसून आया, वो छाता फेंक कर खड़े हो गए (इस दौर में मानव होने के मुक़ाबले महान होना ज़्यादा आसान है). अगली सीढ़ी भगवान होने की है. ऐसे कई महान लोग हैं, जो ठीक से इंसान हुए बगैर सीधे भगवान हो गए. लेकिन मेरी ऐसी कोई योजना नहीं है. मैं महान होकर रुक जाऊंगा, आगे कुछ और नहीं होना (कुछ भगवानों की दुर्दशा देख कर ऐसा निर्णय लिया है) मैं अपने ईर्ष्यालु मित्रों की फ़ितरत से वाकिफ़ हूं. जैसे ही उन्हें मेरे मशहूर होने की ख़बर मिलेगी, उनका ऑक्सीजन लेवल नीचे आ जाएगा.
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मैं जानता हूं कि महान होने के लिए अगर मैंने अपने साहित्यिक मित्रों से सलाह ली, तो मेरा क्या हश्र होगा, इसलिए मैंने मुहल्ले की ही दो हस्तियों से सलाह लेने की ठानी. सबसे पहले मैंने फेस मास्क लगा कर वर्माजी का दरवाज़ा खटखटाया. चश्में में कसा वर्माजी का काला चेहरा दरवाज़े के बीच नज़र आया. इन्होंने मुझे ऐसे देखा, गोया मेरा फेस मास्क ही फर्जी हो, “इकत्तीस तारीख़ तक लॉकडाउन है…”
उन्हें धकेल कर अंदर रखी कुर्सी पर बैठते हुए मैंने कहा, “मैं तब तक इंतज़ार नहीं कर सकता.”
”क्यों? क्या जांच में तुम्हारे अंदर ब्लैक फंगस पाया गया है? ऐसी स्थिति में तुम्हें मेरे पास नहीं आना था.”
“ज़्यादा ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है, मैं बिल्कुल ठीक हूं और काफ़ी गुड फील कर रहा हूं.”
वह फ़ौरन बैड फील करने लगे, “यहां किस लिए आए हो?”
“मुझे आज ही पता चला कि मैं मशहूर हो चुका हूं, अब मैं महान होना चाहता हूं…”
“किसी ने फर्स्ट अप्रैल समझ कर फोन कर दिया होगा, ऐसी अफ़वाह मत सुना करो…”
“अब समझा, तुम्हें मुझसे जलन हो रही है.”
मैं जानता था कि वर्माजी को मुझसे कितना गहरा लगाव है. मैंने तो सिर्फ़ उनका वज़न कम करने के लिए सूचना दी थी. वहां से निकल कर मैंने चौधरी को ख़ुशख़बरी दी, “मुबारक हो!”
चौधरी ने संदिग्ध नज़रों से मुझे देखा, ”सारी उधारी आज दे देगो के?”
“जब तक उधारी है, तब तक आपसदारी है. मैं नहीं चाहता कि आपसदारी ख़त्म हो. ख़ैर तुम्हें ये जान कर बहुत ख़ुशी होगी कि मैं मशहूर हो चुका हूं.”
“कितै गया था चेक कराने?”
”कहीं नहीं, मुझे बताना नहीं पड़ा, लोगों ने ख़ुद ही मुझे फोन करके बताया.”
“इब तू के करेगो?”
”मैं महान होना चाहता हूं.”
चौधरी ने मुझे ऊपर से नीचे तक टटोलते हुए कहा, “घणा अंट संट बोल रहो. नू लगे अक कोई नई बीमारी आ गी काड़ोनी में. तू इब तक घर ते बाहर हांड रहो या बीमारी में मरीज़ कू ब्लैक फंगस जैसे ख़्याल आवें सूं.”
यहां कोई किसी को महान होते नहीं देता और चुपचाप रातोंरात महान होने को लोग मान्यता नहीं देते. जिएं तो जिएं कैसे. चतुर सुजान प्राणी बाढ़, सूखा, स्वाइन फ्लू और कोरोना के मौसम में भी महान हो लेते हैं. जिन्हें महान होने की आदत है, वो विपक्ष में बैठ कर भी महानता को मेनटेन रखते हैं. बहुत से लोग तो कोरोना और ऑक्सीजन सिलेंडर की आड़ में भी महान हो गए हैं. इस कलिकाल में भी नेता और पुलिस आए दिन महान हो रही हैं.
और… एक मैं हूं जिसे महान होने के लिए रास्ता बतानेवाला कोई महापुरुष नहीं मिल रहा है, जाऊं तो जाऊं कहां!
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मैंने अक्सर कई बुद्धिजीवी प्रजाति के लोगों से सुना है कि सोच बड़ी होनी चाहिए. सुन-सुनकर मेरे पतझड़ ग्रस्त दिल में भी सावन जाग उठा है. ज़िंदगी के इंटरवल के बाद वाली लाइफ में पसरे रेगिस्तान के लिए शायद सोच ही ज़िम्मेदार है. सोच को लार्जर देन लाइफ होना चाहिए था, पर हुआ उल्टा. लाइफ बढ़ती गई और सोच सिमटती गई.
मैं अपनी तुच्छ सोच को लेकर दुखी हूं. सीनियर सिटीजन होने की सीमा रेखा पर खड़ा होकर भी सोच के मामले में अभी नाबालिग हूं. बुद्धिलालजी हमेशा कहते रहते हैं कि आदमी को बडा सोचना चाहिए (वैसे अभी तक उन्होंने सोच की साइज़ नही बताई है). वो सबको सलाह देते हैं- जीवन में तरक़्क़ी करना है, तो बड़ा सोचो. हालांकि बड़ा सोचने के मामले में उनकी सोच को लेकर मुझे थोड़ा डाउट है, क्योंकि अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने हाई स्कूल से बड़ा सोचा ही नहीं. तीन दिन पहले भी मुझे सुनाकर कह रहे थे, ” आदमी बेशक गली कूचे का लेखक हो और उसकी रचना मोहल्ले के साप्ताहिक अख़बार के अलावा कहीं न छपती हो, पर उसकी सोच बड़ी होनी चाहिए.”
मैंने अक्सर कई बुद्धिजीवी प्रजाति के लोगों से सुना है कि सोच बड़ी होनी चाहिए. सुन-सुनकर मेरे पतझड़ ग्रस्त दिल में भी सावन जाग उठा है. ज़िंदगी के इंटरवल के बाद वाली लाइफ में पसरे रेगिस्तान के लिए शायद सोच ही ज़िम्मेदार है. सोच को लार्जर देन लाइफ होना चाहिए था, पर हुआ उल्टा. लाइफ बढ़ती गई और सोच सिमटती गई. अब बुद्धिलालजी कहते हैं कि बड़ा आदमी होने के लिए सोच बड़ी होनी चाहिए. ये एक बड़ी समस्या है मेरे लिए, क्योंकि सोच बढ़ाने वाला फाॅर्मूला कहां से लाऊं. बड़ा आदमी तो मैं बचपन से होना चाहता था, पर तब घरवालों ने मिसगाइड कर दिया. अब्बा श्री बोले थे, “पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब (बड़ा आदमी).”
जब पढ़ने लगा, तो साहित्य ने मिसगाइड कर दिया- बड़ा (आदमी) हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर… (रहीम के दोहे भी मेरे बड़े होने के पक्ष में नहीं थे) अब्बा श्री और मास्साब दोनों चाहते थे कि मैं पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनूं. तब किसी ने नहीं बताया था कि बड़ा आदमी होने के लिए शिक्षा नहीं, सोच बड़ी होनी चाहिए. सोच कुपोषण का शिकार हो गई.
हमारे एक विद्वान मित्र हैं, जो बड़ा आदमी होने का वर्कशॉप चलाते हैं. इस काम में उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है. मुझे उनसे गहरी ईर्ष्या है, (क्योंकि पैंसठ साल के बाद भी वो सफ़ेद दाढ़ी में जवान बने हुए हैं) अख़बार में छपी उनकी एक गाइडलाइन के मुताबिक़- बड़ा होने के लिए आदमी को अपनी सोच बड़ी करनी होगी. पिछला पूरा साल मैं सिर्फ़ कोरोना के बारे में ही सोचता रहा, लिहाज़ा सोच बड़ा करने का कोई मौक़ा नहीं मिला. पूरा देश बड़ा सोचने की जगह कोरोना को छोटा करने में लगा था. इस साल मेरे लिए बेकारी एक बड़ी समस्या है, पर इस हालत में भी मैं बड़ा सोचना चाहता हूं. प्रॉब्लम ये है कि कभी किसी ने सिखाया ही नहीं कि बेकारी में बड़ा कैसे सोचा जाता है. मेरे जैसा छोटा आदमी, जिसकी सोच- दाल, चावल और रोटी से ऊपर जाती ही नहीं, वो क्या खाक नीरव मोदी या विजय माल्या जैसी बड़ी सोच ला पाएगा.
पर अब मैं मानूंगा नहीं, मुझे हर हाल में बड़ा बनना है. लिहाज़ा मैं हर उस महापुरुष से दीक्षा लेना चाहता हूं, जो बड़ा सोचने का हुनर जानते हैं. एक बार मैं बड़ा सोच कर देखना चाहता हूं. वैसे मैं अपनी तरफ़ से जब भी बड़ा सोचने की कोशिश करता हूं, तो बेगम जली-कटी सुना देती हैं, “कुछ काम भी करोगे या पड़े-पड़े सोचते ही रहोगे. वसीयत कर जाऊंगी कि लड़की कुंवारी मर जाए, पर किसी लेखक से शादी ना करे.” देख लिया न, बड़ी सोच के रास्ते में किस क़दर स्पीड ब्रेकर खड़े हैं.
मैंने बड़ी सोच के बारे में वर्माजी से जानकारी मांगी, तो वो भड़क उठे, “जीडीपी तेरे कैरेक्टर की तरह नीचे गिर रहा है और तू सोच बड़ी करने में लगा है. मूर्ख! ज़्यादातर लोगों ने अपने काले धंधे का नाम ही बड़ी सोच रख दिया है.” मैं फिर भी चौधरी से पूछ बैठा, “मै बड़ा सोचना चाहता हूं.” चौधरी ने ग़ुस्से में जवाब दिया, “मेरी तरफ़ से रुकावट कोन्या, तू बड़ा सोचे या सल्फास खाए, पर पहले म्हारी उधारी चुकता दे! मोय भैंसन कू हिसाब देना पड़ ज्या. कदी समझा कर.”
बड़ा कैसे सोचूं, बस यही सोच-सोचकर वज़न घटा लिया है. शायद मेरा बैकग्राउंड ही बड़ी सोच में बाधक है. यूपी के छोटे से गांव में पैदा हुआ, छोटा-सा आंगन, ऊपर मेरे हिस्से का आसमान. साझी धूप की विरासत में पलते छोटे-छोटे सपने! मां-बाप की ख़ुशी और नाख़ुशी के एहतराम में झूमती गेहूं की सुनहरी बालियों की मानिंद जवानी आई, तो उन्हीं छोटे सपनों को लिए दिल्ली आ गया. दिल्ली में पैर जमे संगम विहार में, जो प्रदेश की सबसे बड़ी सुविधाविहीन क्लस्टर कॉलोनी है. यहां कुछ और सोचने से पहले प्राणी को पीनेवाले पानी के बारे में सोचना पड़ता है. सारे सपने पानी, राशन और सड़क के हैंगर पर टंगे मिलते हैं. मेरी यही प्राॅब्लम है, जब भी बड़ा सोचने की कोशिश करता हूं, सारी सोच राशन कार्ड लेकर दुकान के सामने खड़ी हो जाती है. पेट से बंधी छोटी सोच!
फिर भी बड़ी सोच के लिए आज भी दिल है कि मानता नहीं…
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तुम समझती क्यूं नहीं, मैं आधुनिक युग के डाॅगी कल्चर की बातें कर रहा हूं. जहां यह डाॅगी भी घर के फैमिली मेंबर की तरह रहते हैं. जो अपने यहां के सर्वहारा कुत्तों की तरह होमलेस नहीं होते हैं. यहां के डाॅगी हमारे यहां के देसी कुत्तों की तरह बदतमीज़ और बददिमाग़ भी नहीं होते कि किसी को नए फैशन के या अलग डिज़ाइन के कपड़ों में भी देख लें, तो भौंक-भौंक कर उसका हाल बेहाल कर दें.
सिंगापुर के सन्टोसा के समुद्रतट पर शर्माजी अपनी पत्नी के साथ पहुंचे, तो वहां छुट्टी का दिन होने के कारण अच्छी-ख़ासी भीड़ थी. सिंगापुर में रहनेवाले यूरोपियन और विदेशी लोग अपने-अपने परिवार, जिसमें कुत्ते भी शामिल थे, सब एक साथ मिलजुल कर स्नान कर रहे थे. शर्माजी वहीं बैठ पानी में स्नान करती बालाओं के साथ, स्नान करते कुत्ते को देखने में ऐसे व्यस्त थे कि होश ही नहीं रहा कि उनकी नज़रों की हरकतें, बगल में बैठी पत्नी के दिमाग़ पर कुछ ऐसा असर डाल रहा था कि वह कभी भी करारी चोट कर सकती थी. पत्नी के मूड का पता चलते ही उनका तनावरहीत दृश्याअवलोकन, तनावपूर्ण हो गया. वह पत्नी की तरफ़ देखकर सूखी हंसी हंसते हुए बोले, ‘‘कैसे ऊन के गोले जैसे मुलायम बालोंवाले डॅागी यहां स्नान कर रहे हैं. जितने ही प्यारे-प्यारे डाॅगी है, उतने ही प्यार और अदा से उनकी मालकिन, उन्हे मुलायम तौलिया से सुखा भी रही है. जानवरों के प्रति अद्भूत प्रेम का ऐसा अनूठा उदाहरण देख मन तृप्त हो गया.’’
“वो तो मैं देख ही रही हूं कि किस कदर ऊन का गोला बनने को बेहाल हो. ऐसा प्यार तो कभी पटना में जानवरों के प्रति दिखा नहीं. घर आए चूहें, बिल्लियों और कुत्ते के पीछे लट्ठ लेकर ऐसे पड़े रहते हो, जैसे आंतकवादियों के पीछे हमारे देश के जवान लगे रहते हैं. अगर ग़लती से भी कोई जानवर तुम्हारे आसपास आ जाए, तो उसकी खैर नहीं. फिर यहां आकर अचानक यह पशु प्रेम कहां से उमड़ा? कही फिरंगी बालाओं का रंग तो नहीं चढ़ गया?’’
‘‘तुम महिलाओं की भी ग़ज़ब फ़ितरत होती है. किसी महिला पात्र के पक्ष में पति के मुंह से दो शब्द निकले नहीं कि उसका चरित्र ही संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देती हो. तुम समझती क्यूं नहीं, मैं आधुनिक युग के डाॅगी कल्चर की बातें कर रहा हूं. जहां यह डाॅगी भी घर के फैमिली मेंबर की तरह रहते हैं. जो अपने यहां के सर्वहारा कुत्तों की तरह होमलेस नहीं होते हैं. यहां के डाॅगी हमारे यहां के देसी कुत्तों की तरह बदतमीज़ और बददिमाग़ भी नहीं होते कि किसी को नए फैशन के या अलग डिज़ाइन के कपड़ों में भी देख लें, तो भौंक-भौंक कर उसका हाल बेहाल कर दें. जिनका जीवन ही बिल्लियों और गिलहरियों पर भौंकने और एक अदद टाट के टुकड़े पर गुज़र जाती है, उनकी तुलना तुम इन विदेशी नस्ल के डाॅगी से कर रही हो.
इनका जीवन ही एसी में सोने और कार में घूमने से शुरू होता है. देख ही रही हो न, इन्हें कितने प्यारे-प्यारे नामों से बुलाया जा रहा है. कुछ डाॅगी ने तो कपड़े भी पहन रखे हैं और बच्चों की तरह. कई इन सुंदरियों के गोद में चिपके हुए हैं, तो कई कंधों पर लटके हुए हैं.”
‘‘इन चोंचलों से क्या होता है. कुत्ता तो कुता ही रहेगा, चाहे किसी देश का हो. यहां की फिरंगी बालाएं ख़ुद कपड़े पहनने से तो रहीं, कुत्ते को ही पहनाकर ख़ुश हो लेती हैं, यही बहुत है. जहां तक बच्चों का सवाल है, इनकी फ़ितरत ही नहीं होती है अपने बच्चे को गोद में बैठाने की, पर पशु प्रेम के नाम पर कुत्ते को ज़रूर गोद में बैठाएंगी.’’
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‘‘तुम्हे समझाना बेकार है. तुम्हे इन डॅागियों की जानकारी ही नहीं हैं, वरना इतने प्यारे-प्यारे नामों वाले इन डाॅगियों को कम से कम कुत्ता कहकर अपमानित नहीं करती.”
अब उनकी पत्नी का संयम जवाब देने लगा था, “अब लो सुनो इनकी बात… कुत्ता को कुता न कहूं, तो और क्या कहूं जी! जहां तक मेरी जानकारियों का सवाल है, उसे तो तुम चुनौती दो ही मत. क्योंकि तुम्हे शायद पता नहीं, जितना कुत्ता यहां बालाओं की गोद में नज़र आ रहा है, उससे दोगुने कुत्ते तो मेरे नाना आदित्य बाबू के घर के दरवाज़े पर बैठे नज़र आते थे.’’
‘‘भला वो क्यों? क्या तुम्हारे नानाजी, कुत्तों का व्यापार करते थे?’’
‘‘चुप करो, यह उनका पशु प्रेम था. वह आसपास रहने वाले उन सर्वहारा कुत्तों को बचाने के लिए बहुत काम करते थे. यहां तक की उनके लिए लंगर चलवाते थे, ताकि उन्हे घूरे पर अपना भोजन खोजना ना पड़े. उनके घर से पचास-पचास कोस तक लोग उनके कुत्ता प्रेम की चर्चा करते थे.’’
‘‘तब तो लोग अपने बच्चों को यह भी कहते होंगे कि सो जा, नहीं तो आदित्य बाबू के कुत्तें भौंकने लगेंगे.’’
‘‘जी नहीं ऐसा कुछ नहीं कहते थे. वह शुरू से ही बेज़ुबानों की देखभाल करते थे, इसलिए लोग उनका सम्मान करते थे. तुम मेरा मज़ाक उड़ाने की कोशिश मत करो, क्योंकि तुम्हारी अपनी ही सारी जानकारियां आधी-अधूरी है.’’
‘‘और तुम्हारी जानकारियां सिर्फ़ उन लावारिस और सर्वहारा देसी कुत्तों तक सीमित है.”
‘‘ख़बरदार जो मेरे नानाजी के कुत्तों को तुमने लावरिस और सर्वहारा कहा. तुम्हे पता भी है मेरे नानाजी जिस किसी भी कुत्ते को घर में पालते थे, वे सभी काफ़ी बढ़िया नस्ल के कुत्ते होते थे. पूरी तरह उच्चवर्गीय. उनकी धीमी गुर्राहट और सधी चाल में उच्चवर्गीय रोब देख, लोगो के पसीने छूट जाते थे. उनकी एक ख़ासियत और होती थी कि जैसा उनके पालनहार का स्वभाव होता, वही स्वभाव वे कुत्ते भी अपना लेते थे. वहां एक-दो कुत्ते नहीं थे. घर के ज़्यादातर सदस्यों ने अपनी-अपनी पसंद के हिसाब से अपने लिए कुत्ते पाल रखे थे.”
‘‘फिर भी तुम्हे मेरी जानकारियों पर संदेह है, तो तुम्हे बता दूं कि नानाजी ने ख़ास अपने लिए एक कुत्ता पाल रखा था शेरू. उसे उन्होंने नेपाल से मंगवाया था. उसकी शक्ल-सूरत तो नाम के अनुकूल ही था, पर स्वभाव पूरी तरह नानाजी पर था. नानाजी की तरह ही धीर-गंभीर शांत और कम बोलनेवाला. जब घर के बाहर आहाते में, घर के सारे कुत्ते, दुश्मन की आशंका पा, अपनी पूरी ताकत लगा भौंकते रहते, शेरू बरामदे में खड़ा-खड़ा सब का निरीक्षण करते रहता. फिर दो-चार बार भौंक कर उन्हे भौंकते रहने की प्रेरणा दे, वापस आकर नानाजी के आराम कुर्सी के नीचे बैठ जाता.”
‘‘उसका यह रवैया, छोटे नानाजी के कुत्ते बहादुर को पूरी तरह नापसंद होता. मौक़ा मिलते ही वह शेरू पर झपट पड़ता. छोटे नानाजी नानाजी के भाई लगते थे और उनके बिज़नेस में हाथ बंटाते थे. जितने वह ख़ुद ईर्ष्यालु और झगड़ालू थे, उनका बहादूर भी उनसे ज़रा सा भी उन्नीस नहीं था. घर के सभी कुत्तों पर अपना रोब बनाए रखने के लिए बात-बेबात दूसरे कुत्तों पर गुर्राता रहता था. अजनबियों पर भौंकता, तो बहुत तेजी से था, पर जैसे ही कुछ मार कुटाई की आशंका होती सभी कुत्तों को आगे कर ख़ुद पीछे जाकर दुबक जाता. पर वैसे दिनभर घर के दूसरे कुतों से लड़ते-झगड़ते रहता था. ख़ासकर मौसी के कुत्ता पप्पी से खार खाए रहता. मौसी का कुत्ता पप्पी, मौसी का लाडला तो था ही उनकी ही तरह पूरे ठाठ-बाट से रहता भी था.
मौसी उसके लिए तरह-तरह के बिस्किट लातीं और घर पर भी उसके लिए उसकी पसंद का मांसहारी भोजन बनवाती, जो सिर्फ़ उसे ही खाने को मिलता. उसके शैम्पू, साबुन सब दूसरे कुत्तों से अलग होते. उसकी प्यारी-सी सूरत देख, सभी उसे प्यार से सहलाते रहते. जिससे घर के दूसरे कुत्ते उससे खार खाए रहते. जब भी वह अकेला मिलता, उसे काट खाते, ख़ासकर बहादुर हमेशा उसके पीछे लगा रहता. शायद उसे लगता एक ही वर्ग का होकर यह हमें ठसक दिखाता है. हम लोंगो से ज़्यादा सुविधा मिल जाने से यह पाखंडी, तरह-तरह के ढोंग कर घर के सभी लोगों का प्यार पाता है. इसलिए बहादुर हर समय तना रहता और मौक़ा मिलते ही काट खाता. इतना ही नहीं पड़ोस का पप्पू भी मौक़ा मिलते ही पप्पी को मारता-पिटता रहता, क्योकि उसके नाम से मिलता-जुलता नाम होने के कारण सब उसे चिढ़ाते रहते.’’
“नानी ने भी एक कुत्ता पाल रखा था, जिसका नाम उन्होने सुलतान रखा था. लेकिन सुलतानों वाली कोई बात उसमें नहीं थी. वह नानी मां की तरह ही सरल था और हमेशा काम में व्यस्त रहता. कभी वह मासी के बेटा के साथ गेंद खेलता, तो कभी मामा के बेटी के साथ खेलता.कभी बहादुर का ग़ुस्सा शांत करने के लिए अपनी रोटी भी उसे दे देता. पूरी तरह नानी की तरह सब का ख़्याल रखता.’’
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पत्नी से उलझकर शर्माजी ने ख़ुद अपनी शामत बुला ली थी. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पत्नी को कैसे चुप करवाएं. वह साष्टांग दंडवत करते हुए बोले, ‘‘बस बस… अब बस भी करो. मैं मान गया, तुम महान हो और महान ही बनी रहो. मुझे अपनी लघुता स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है, इसलिए अब अपनी नानी घर की कहानी बंद करो. आज से और अभी से मैं प्रण करता हूं कि कभी भूल कर भी तुम्हे चुनौती नहीं दूंगा.”
तब कहीं जाकर कुत्तों की कहानी बंद हुई और वह सेन्टोसा के दूसरे समुद्री तटों का अवलोकन कर पाएं.

एक समर्थक चोर को सूचना दे रहा है, “पिछली रात सुकई चाचा के घर में चोर घुसा और सब कुछ लूट लिया. ग़लती सरासर सुकई की है, उसे आंख खोल कर सोना चाहिए था.”
चोर ने मुंह खोला, “मैं तो गांव हित में सोता ही नहीं! पूरी रात चिंतन, मनन और खनन में बीत जाती है. ख़ैर, पुलिस भी आई होगी?”
मेरे गांव में चोर को चोर नहीं कहा जाता! कैसे कहें- चोर बुरा मान जाएग. फिर गांधीजी ने कहा भी है कि बुरा मत मत कहो, बुरा मत सुनो और बुरा मत देखो! गांव वाले अक्षरशः पालन करते हैं. चोरी करते देख कर लोग आंखों पर गांधारी पट्टी बांध लेते हैं. चोर को बुरा कहने की जगह पीड़ित की ग़लती निकालते हैं. चोर के अतीत और वर्तमान पर कुछ इस तरह अध्यात्म छिड़कते हैं, “वो अगर चोर है, तो इसके लिए वो नहीं उसके हालात कुसूरवार हैं. चोर को नहीं हमें उसके हालात की निन्दा करनी चाहिए. पाप और पापी का ये रहस्यवाद गांववाले निगल रहे हैं. अब आगे से जब भी चोरी होगी चोर की जगह हालात को ढूंढ़ा जाएगा. अपराध की इस नई नियमावली से सबसे ज़्यादा स्थानीय पुलिस ख़ुश है.
गांववाले जानते हैं कि वह चोर है, पर संस्कार से मजबूर हैं. चोर को चोर नहीं कह सकते. चोर को चोर कहने के लिए जो नैतिक साहस चाहिए, वो अब ऑउट ऑफ डेट हो चुका है. उल्टे गांव के लोग चोर से बडे़ सम्मान के साथ पेश आते हैं. चोर भय बिन होय न प्रीत की हकीक़त जानता है. कई लोग उसके फन से भयभीत होकर इसके पक्के समर्थक बन गए हैं. उनमें से कई उसके चौपाल में चिलम पीने भी पहुंच जाते हैं. चोर का जनाधार बढ़ रहा है, मगर गांव बंट रहा है. समर्थक उसके पक्ष में चमत्कारी दलील दे रहे हैं, “वो चोर नहीं दरअसल संत है.’ विरोधियों को चोरी नहीं करने दे रहा है, इसलिए वो लोग एक संत को चोर कह रहे हैं. संत के आने के बाद विरोधियों की आपदा बढ़ गई और चोरी करने का अवसर गायब हो गया.”
चोर का एक और समर्थक आध्यात्म का सहारा ले रहा है, “हमें चोर से नहीं चोरी से घृणा करना चाहिए. क्या पता कब चोर का हृदय परिवर्तन हो जा. अंगुलिमाल पहले डकैत थे बाद में संत हो गए. ये जो चोर और डाकू होते हैं न, उन्हें ‘संत’ होते देर नहीं लगती. हमें तो भइया पूरा यक़ीन है कि सिद्ध प्राप्ति का कठिन मार्ग चोरी और डकैती से ही निकल कर जाता है. अपन तो कभी भी उसे चोर नहीं मानते, क्या पता कब चोर और भगवान दोनों बुरा मान जाएं… (भगवान तो मान भी जाते हैं, पर चोर की नाराज़गी अफोर्ड नहीं कर सकते. क्या पता कल आंख खुले, तो तो घर स्वच्छ भारत अभियान से गुज़र चुका हो)
गांव के दो-चार मुहल्ले अभी भी विरोध में हैं, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुने, जबकि अब खुलकर चोर को संत घोषित किया जा रहा है. सुबह देर से उसके चौपाल में पहुंचा. एक समर्थक चोर को सूचना दे रहा है, “पिछली रात सुकई चाचा के घर में चोर घुसा और सब कुछ लूट लिया. ग़लती सरासर सुकई की है, उसे आंख खोल कर सोना चाहिए था.”
चोर ने मुंह खोला, “मैं तो गांव हित में सोता ही नहीं! पूरी रात चिंतन, मनन और खनन में बीत जाती है. ख़ैर, पुलिस भी आई होगी?”
“हां, आई थी और चोरी के ज़ुर्म में सुकई को पकड़ कर थाने ले गई! दरोगाजी कह रहे थे, “ज़रूर तूने इस गांव के किसी संत को फंसाने के लिए अपने घर में चोरी की होगी! जब तक ज़ुर्म कबूल नहीं करेगा छोडूंगा नहीं…”
“किसी संत पर इल्ज़ाम नहीं लगाना चाहिए.”
“और क्या! पिछले हफ़्ते जगेसर के घर में चोरी हुई और चोर अपनी सीढ़ी छोड़ गया. पूरे गांव में किसी ने सीढ़ी को नहीं पहचाना कि उसका मालिक कौन है. दरोगाजी ने तीसरे दिन जगेसर को पीट कर थाने में बंद कर दिया. शाम होते-होते जगेसर ने कबूल कर लिया कि उसी ने अपने घर में चोरी की थी.”
कुछ प्रशंसक अब बाकायदा चारण हो गए हैं, हर जगह चोर के शौर्य, सदाचार और सत चित आनंद का गुणगान करते रहते हैं, “अगर वो कभी चोर था, तो वो उसका अतीत था. वर्तमान में वो संत है. हमें उस पर गर्व करना चाहिए.” चोर को अपने फन पर गर्व है. कभी-कभी वो चोरी और गर्व साथ-साथ कर लेता है. गांव के कुछ चारण, तो उसके फन में भी रहस्यवाद ढूंढ़ रहे हैं. चाय की गुमटी के पास शाम को एक चारण गांववालों से कह रहा था, “संत और फकीरों की बातें वही जानें. उनके हर काम के पीछे दूरदृष्टि या कोई दिव्य मक़सद होता है. प्रथम दृष्टया, जो हमें चोरी लग रही है, वो आत्मनिर्भरता हो सकती है.” (जैसे सुकई और जगेसर के दिन फिरे) गांववाले बहुमत का रुझान देख कर भी कन्विंस नहीं हो रहे हैं. ये वो लोग हैं, जिन्होंने कई बार रात के अंधेरे में चोर को आत्मनिर्भर होकर लौटते हुए देखा है. (उनके मन मंदिर से वो दिव्य छवि अब तक नहीं उतरी)
आत्मनिर्भर संत अब सरपंच बनने की ओर अग्रसर है, मगर दुर्भाग्य देखिए कि इतने भागीरथ प्रयत्न के बाद भी गांव और गांववाले ग़रीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं!..
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इश्क़ का साइड इफेक्ट देखिए. लोग कहते हैं इश्क़ अंधा होता है. मै नहीं मानता. लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट, शिरीन-फरहाद और हीर-रांझा में कोई अंधा नहीं था. सभी आंखवालों ने जान-बूझकर चूल्हे में सिर दिया. हर आदमी इश्क़ नहीं कर सकता. कुछ लोग इश्क़ करते हैं, कुछ लोग इश्क़ के तंदूर पर बैठ जाते हैं. इश्किया साहित्य में और बुरा हाल है. जिसे इश्क़ का सलीक़ा नहीं आता, वही इश्क़ की परिभाषा तय करता है.
अब इस वक़्त जब कि दिन के ग्यारह बज रहे हैं, मैं पूरी निर्भीकता से रजाई ओढ़कर लेटा हूं. बगलवाले घर की बालकनी से अंदर चल रही टीवी की आवाज़ सुनाई पड़ रही है- दे दे प्यार दे.. प्यार दे.. प्यार दे दे.. मुझे प्यार दे… ऐसा लगता है गोया आशिक अपना गिरवी माल छुड़ाने आया हो. पहले इज़हारे इश्क़ का भी एक सलीका हुआ करता था- तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं… कोरोना ने कैरेक्टर पर कितना घातक असर डाला है. प्रेमी रिक्वेस्ट करने की जगह राहजनी पर उतारू है- दे दे प्यार दे.. प्यार दे, प्यार दे दे.. मुझे प्यार दे… (जितना है सब निकाल दे) इसे कहते हैं दिनदहाड़े इश्क़ की तहबाजारी. प्यार और व्यापार के बीच की दूरी सिमट रही है.
टीवी बंद हो चुकी है, मगर आवाज़ अभी भी सुनाई पड़ रही है- दे दे प्यार दे… अब उस घर का युवा भविष्य इज़हारे इश्क़ के लिए बालकनी में खड़ा है. मैं हैरान था. दुनिया कोरोना की वैक्सीन मांग रही है और वो प्यार की डिलीवरी का इंतज़ार कर रहा था. लौंडे पर लैला-मजनू का बसंत देख, मैं सोचने लगा, ‘शादी से पहले भला शादी के बाद का संकट क्यों नहीं नज़र आता’ वैसे ये सवाल मैंने वर्माजी से भी पूछा था.
उनका जवाब था, “नज़र भी आ जाए, तो लोग उसे नज़र का धोखा मान लेते हैं. उदाहरण मेरे सामने है. जब तुझे इश्क़ का इन्फेक्शन हुआ था, तो मैंने कितना समझाया था कि इस दरिया-ए-आतिश में मत कूद, पर तू कहां माना था. और फिर… शादी के पांच साल बाद किस तरह के. एल. सहगल की आवाज़ में मेरे सामने रोना रो रहा था, “जल गया जल गया.. मेरे दिल का जहां…”
इश्क़ का साइड इफेक्ट देखिए. लोग कहते हैं इश्क़ अंधा होता है. मै नहीं मानता. लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट, शिरीन-फरहाद और हीर-रांझा में कोई अंधा नहीं था. सभी आंखवालों ने जान-बूझकर चूल्हे में सिर दिया. हर आदमी इश्क़ नहीं कर सकता. कुछ लोग इश्क़ करते हैं, कुछ लोग इश्क़ के तंदूर पर बैठ जाते हैं. इश्किया साहित्य में और बुरा हाल है. जिसे इश्क़ का सलीक़ा नहीं आता, वही इश्क़ की परिभाषा तय करता है. वही तय करता है कि लौकिक और पारलौकिक इश्क़ में- किसके अंदर फिटकरी कम है. जो इश्क़ के मामले में बंजर होता है, वही इश्क़ में ‘अद्वैतवाद’ खोजता है. ऐसे लोगों ने साहित्य को बंजर बनाने में बड़ी अहम भूमिका निभाई है. उन्होंने छायावाद, अद्वैतवाद और अलौकिक दिव्यता के लेप में लपेटकर सीधे-सादे इश्क़ को ममी बनाकर आम आदमी से दूर कर दिया.
तो… इश्क़ क्या है? वो ज़माना गया जब इश्क़ इबादत हुआ करता था. अब इश्क कमीना हो चुका है और उससे आजिज आ गए लोगों का आरोप है कि मुश्किल कर दे जीना… (ये उन्हीं महापुरुषों का काम है, जो इश्क़ को इबादत से कमीना तक लाए हैं) इश्क़ में आदमी निकम्मा हो जाता है, ऐसा मै नहीं चचा गालिब कहते हैं- इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के…
बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे. कोरोना ने इश्क़ को भी संक्रमित कर दिया. इस दौर मे आकर इश्क़ नमाज़ी से इश्क़ जेहादी हो गया. ये अब तक का सबसे बड़ा हृदय परिवर्तन था. लव सीधे जेहाद हो चुका है. अब पुलिस बाकायदा इश्क़ का धर्म, राशन कार्ड और आधार कार्ड चेक करेगी. ऐसे मामले में पुलिस ईश्वर का भी दख़ल बर्दाश्त नहीं करेगी. उधर… इश्क़ गहरे सदमे में है. वो जेहादी हो गया और ख़ुद उसे भनक तक ना लगी. ये सब इतनी जल्दी में हुआ कि इश्क़ को संभलने का भी मौक़ा नहीं मिला. अब उसके सामने चेतावनी है कि चलाओ न नज़रों से बान रे, वरना रोज़ थाने का चक्कर काटना पड़ेगा.
लगता है मां का लाडला बिगड़ गया है. बालकनी से फिर लौंडे के गाने की आवाज़ आ रही है, “दे दे प्यार दे… इस बार उसकी आवाज़ में रोब नहीं याचना है. जैसे वो इश्क़ नहीं गेहूं मांग रहा हो. (वैसे इस हालात-ए-हाजरा में इश्क़ के मुक़ाबले गेहूं ज़्यादा महफूज़ है. इश्क़ को तो पुलिस और पब्लिक दोनों पीट रही है).
मैं एक व्यंग्य लिखने की सोच रहा हूं और देश का भविष्य प्यार का कटोरा उठाए याचना कर रहा है. हम यूपी वाले ऐसे छिछोरे इश्क़ का धुआं देख लें, तो खांसने लगते हैं. मैं फ़ौरन उठकर बालकनी में आ गया. छिछोरा आशिक टॉप फ्लोर की ओर देख कर गाने लगा- हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे.. मरने वाला कोई ज़िंदगी चाहता हो जैसे… उस फ्लैट की खिड़की अभी भी बंद है, पर लौंडा डटा है. आशिक और भिखारी दोनों के धंधे में धैर्य ज़रूरी है.
सतयुग को देखते हुए मुझे पूरा यकीन है कि अभी इश्क़ के इम्तेहान और भी हैं… इश्क़ का दिल से बडा गहरा रिश्ता होता है. और दिल हैं कि मानता नहीं… तो नतीज़ा ये निकला कि सारा किया धरा दिल का है, इश्क़ खामख्वाह बदनाम है. दिल तेरा दीवाना है सनम. दिल खुराफाती है और इश्क़ मासूम.. सदियों से कौआ बेचारा कोयल के बच्चे पालता आया है और दुनिया की नज़र में वो कोयल आज भी मासूम है, जो बडे़ शातिराना तरीक़े से अपने अंडे कौए के घोसले में रख देती है. इश्क़ के इस अवसरवादिता पर एक ताज़ा शेर पेश करता हूं-
दिल ने बड़ी लगन से दरीचे बिछाए थे
कमबख्त मौक़ा पाते ही कुत्ते पसर गए…
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तोते ने घूर कर देखते हुए कहा, “कोई फ़ायदा नहीं. इसकी फटेहाल जैकेट देखकर मैं इसका भाग्य बता सकता हूं. बेकारी का शिकार है. शनि इसके घर में रजाई ओढ़कर सो गया है. ये किसान आन्दोलन में सपरिवार बैठा है, घर में आटा और नौकरी दोनों ख़त्म है. इसे नक्षत्रों की जलेबी में मत फसाओ उस्ताद.” ज्योतिषी को भी दया आ गई, “जा भाई, तेरी शक्ल से ही लग रहा है कि तेरे पास किडनी के अलावा कुछ बचा नहीं है.
अचानक आज मुझे तुलसीदासजी की एक अर्धाली याद आ गई, ‘सकल पदारथ है जग माहीं करमहीन नर पावत नाही’ (मुझे लगता है, ये कोरोना काल में नौकरी गंवा चुके उन लोगों के बारे में कहा गया है, जो इस सतयुग में भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाए) ये जो ‘सकल पदारथ’ है ना, ये किसी भी युग में शरीफ़ और सर्वहारा वर्ग को नहीं मिला. सकल पदारथ पर हर दौर में नेताओं का कब्ज़ा रहा है. इस पर कोई और चोंच मारे, तो नेता की सहिष्णुता ऑउट ऑफ कंट्रोल हो जाती है. अब देखिए ना, सैंतालीस साल से ऊपर तक कांग्रेसी ‘सकल पदारथ ‘ की पंजीरी खाते रहे, मगर मोदीजी को सात साल भी देने को राजी नहीं. बस, यहीं से भाग्य और दुर्भाग्य की एलओसी शुरु होती है. हालात विपरीत हो, तो दिनदहाड़े प्राणी रतौंधी का शिकार होकर दुर्भाग्य का गेट खोल लेता है- आ बैल मुझे मार!
बुज़ुर्गों ने कहा है- भाग्य बड़ा बलवान हो सकता है.. मैंने तो देखा नहीं. हमने तो हमेशा दुर्भाग्य को ही बलवान पाया है. कमबख्त दादा की जवानी में घर में घुसा और पोते के बुढ़ापे तक वहीं जाम में फंसा रहा. जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाएं आईं और गईं, मगर सौभाग्य ग्राम प्रधान के घर से आगे बढ़ा ही नहीं. मैंने चालीस साल पहले अपने गावं के राम ग़रीब का घर बगैर दरवाज़े के देखा था. आज भी छत पर छप्पर है, सिर्फ़ टटिया की जगह लकड़ी का किवाड़ से गया है. इकलौती बेटी रज्जो की शादी हो गई है. राम ग़रीब की विधवा और दुर्भाग्य आज भी साथ-साथ रहते हैं. उनकी ज़िंदगी में ना उज्ज्वला योजना आई, ना आवास योजना. अलबत्ता सरकारें कई आईं! सचमुच दुर्भाग्य ही दबंग है. दलित, दुर्बल और असहाय पीड़ित को देखते ही कहता है, हम बने तुम बने इक दूजे के लिए…
भाग्य कभी-कभी लॉटरी खेलता है. ऐसे मौसम में प्राणी माझी से सीधे मुख्यमंत्री हो जाता है. अब प्रदेश के सकल पदारथ उसी के हैं, बाकी सारे करम हीन छाती पीटें. कभी-कभी ठीक विपरीत घटित होता है. सकल पदारथ की पावर ऑफ अटॉर्नी लेकर विकास की जलेबी तल रहा प्राणी मुख्यमंत्री से लुढ़ककर सीधे कमलनाथ हो जाता है. ये सब सकल पदारथ के लिए किया जाता है.
एक बार सकल पदारथ हाथ आ जाए, फिर विधायक या सांसद के हृदय परिवर्तन का मुहूर्त आसान होता है. सकल पदारथ से युक्त सूटकेस देखते ही काम, क्रोध मद, लोभ में नहाई आत्मा सूटकेस में समा जाती है. अगला चरण विकास का है. जिन्होंने बिकने का कर्म किया उन्हें सकल पदारथ मिला. जो करम हीन पार्टी से चिपके रहे, वो विपक्ष और दुर्भाग्य के हत्थे चढ़े. जाकी रही भावना जैसी…
मुझे कहावतें बहुत कन्फ्यूज़ करती हैं. भाग्य, सौभाग्य और दुर्भाग्य के बारे में कहावत है, ‘भाग्य में जो लिखा है वही मिलेगा ‘.. तो फिर पदारथ और करम की भूलभूलैया काहे क्रिएट करते है. भाग्य में सकल पदारथ का पैकेज होगा, तो डिलीवरी आएगी, फिर भला रूकी हुई कृपा के लिए काहे फावड़ा चलाएं. और… अगर क़िस्मत में सौभाग्य है ही नहीं, तो काहे रजाई से बाहर निकलें (पानी माफ़, बिजली हाफ रोज़गार साफ़).
अब अगर करम हीन कहा, तो तुम्हारे दरवाज़े का बल्ब तोड़ दूंगा… ‘कर्मवान’ और ‘कर्महीन’ के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए. गीता में साफ़-साफ़ लिखा है- जैसा कर्म करोगे वैसा फल देगा भगवान… इलाके का विधायक अगर तुम्हें आठ-आठ आंसू रुला रहा है, तो इसमें विधायक का क्या दोष. वोट देने का कर्म किया है, तो पांच साल तक फल भुगतो. विकास फंड का सकल पदारथ उसी के हाथ में है. तुम अपने आपको इस काम, क्रोध, मद, लोभ से दूर रखो.
वो ज़माना गया जब सकल पदारथ परिश्रम का नतीज़ा हुआ करता था. अब सुविधा, संपदा और सत्ता का सकल पदारथ अभिजात वर्ग को दे दिया गया है, और मेहनत और मजदूरी करनेवालों को रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पीव… की सात्विक सलाह दी जाती है. धर्माधिकारी की सलाह है कि आम आदमी को तामसी प्रवृत्तिवाले सकल पदारथ के नज़दीक नहीं जाना चाहिए, वरना मरने के बाद स्वर्ग तक जानेवाला हाई वे हाथ नहीं आता. अब आम आदमी धर्म संकट में है. जीते जी सकल पदारथ ले या मरने पर स्वर्ग… (गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय) आख़िरकार संस्कार उसे सत्तू फांक कर स्वर्ग में जाने की सलाह देता है.
देवताओं का कुछ भरोसा नहीं कि कब रूठ जाएं. भाग्य का सौभाग्य में बदलना तो बहुत कठिन है डगर पनघट की, मगर दुर्भाग्य बग़ैर प्रयास बेहद सुगमता से हासिल हो जाता है. जब देखो तब आंगन में महुआ की तरह टपकने लगता है. जिन्होंने साहित्य से गेहूं हासिल करने की ठानी, उसे दुर्भाग्य वन प्लस वन की स्कीम के साथ मिलता है. शादी के सात साल बाद ही मेरी बेगम को साहित्य और साहित्यकार की महानता का ज्ञान हो चुका था. एक दिन उन्होंने मेरे इतिहास पर ही सवाल उठा दिया, “मै वसीयत कर जाऊंगी कि मेरी सात पीढ़ी तक कोई साहित्यकार से शादी ना करे.” लक्ष्मी और सरस्वती के पुश्तैनी विरोध में खामखा लेखक पिसता है. लक्ष्मीजी का वाहक उल्लू उन्हें लेखक की बस्ती से दूर रखता है.
भाग्य और दुर्भाग्य के बीच में सकल पदारथ की चाहत में खड़ा इंसान तोतेवाले ज्योतिषी के पास जाता है. कोरोना की परवाह न करते हुए ज्योतिषि अपने तोते से कहता है, “इस का भाग्यपत्र निकालो वत्स.”
तोते ने घूर कर देखते हुए कहा, “कोई फ़ायदा नहीं. इसकी फटेहाल जैकेट देखकर मैं इसका भाग्य बता सकता हूं. बेकारी का शिकार है. शनि इसके घर में रजाई ओढ़कर सो गया है. ये किसान आन्दोलन में सपरिवार बैठा है, घर में आटा और नौकरी दोनों ख़त्म है. इसे नक्षत्रों की जलेबी में मत फसाओ उस्ताद.” ज्योतिषी को भी दया आ गई, “जा भाई, तेरी शक्ल से ही लग रहा है कि तेरे पास किडनी के अलावा कुछ बचा नहीं है. तोते का पैर छू और फकीरा चल चला चल…”
बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख. जाने किस मूर्ख ने ये कहावत गढ़ी थी. मोती को कौन कहे, मिट्टी भी मांगने से नहीं मिलती. रही सकल पदारथ के लिए समुद्र मंथन की बात, तो यहां भाग्य चक्र प्रबल हो जाता है. धर्मभीरू जनता घर का गेहूं बेचकर तीर्थयात्रा पर जा रही है और सेवकनाथजी नौ बैंकों का हरा-हरा सकल पदारथ समेट कर विदेश यात्रा पर. यही विधि का विधान है!
कल मैने अपने मित्र चौधरी से पूछा, “सौभाग्य और दुर्भाग्य को संक्षेप में समझा सकते हो?” चौधरी कहने लगा, “बहुत आसान है. तुम मुझसे उधार दूध ले जाते हो, ये तुम्हारा सौभाग्य है और मेरा दुर्भाग्य…”
जाने क्यों, ये मुझे तुरंत समझ में आ गया.
– सुलतान भारती
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“क्या लिखते हो?”
“व्यंग्य”
“कितना लिखा है?”
“कभी गिनकर नहीं देखा.”
”गिनने को कौन कह रहा. कभी तौल कर नहीं देखा कि कितना लिखा है? दस किलो-पंद्रह किलो, आख़िर कितना लिखा है.”
“कभी तौला नहीं.”
“इसका मतलब तुम्हारी रचनाओं में कोई वज़न नहीं है.”
मैं तुरंत हीनता के दबाव में आ गया. उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि उनकी सारी रचनाओं का वज़न एक कुंटल से ऊपर जा चुका था.
अब आप ये सोच कर हैरान होंगे कि इतना वज़नदार लेखक है कौन? इस कोरोना काल में दिमाग़ पर इतना ज़ोर मत डालें, मैं बता देता हूं. डेढ़ कुंतल शब्द लेखक के शरीर के बारे में नहीं, अपितु लेखक की कुछ प्रकाशित और ज़्यादातर अप्रकाशित रचनाओं के बारे में है. लेखक अब कालजयी हो चुके हैं (जी हां, दो वर्ष पूर्व वह काल के मुंह में जा चुके हैं) तब से हम उन्हे कालजयी मानते हैं. वैसे उन्होंने जीते जी लेखन की कोई विधा ऐसी नहीं छोड़ी जिसे छेड़ा ना हो. वो साहित्य में छेड़खानी के लिए जानें जाएंगे.
काॅलेज छोड़ने के बाद उन्होंने वकालत शुरू की. इसमें मन रमा नहीं. अचानक एक रात स्वप्न में आकर सरस्वती ने उनकी सोई हुई साहित्यिक प्रतिभा को जगा दिया. बस, उसके बाद चिराग़ों में रोशनी ना रही. गनीमत थी कि तब तक घर बनवा चुके थे और परिवार ठीक ठाक था. पर जैसे ही उनका हृदय परिवर्तन हुआ, लक्ष्मी ने अपना तबादला ले लिया और सरस्वती अंदर आ गईं. नए-नए लेखक बने थे, हर विधा पर फावड़ा लेकर टूट पड़े. कोर्ट जाना छोड़ दिया. रात-दिन रचनाएं जन्म लेने लगीं. कविता, मुक्तक, छंद, चौबोला, शेर, ग़ज़ल के बाद बहुमुखी प्रतिभा नाटक, कहानी, संस्मरण और उपन्यास की ओर मुड़ गई. उनकी प्रतिभा से मोहल्ले में आतंक छा गया. बीवी की चिंता बढ़ रही थी और पड़ोसी त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहे थे (क्यों ना करते, वकील साहब उन्हें घर से निकलते ही पकड़कर रचना सुनाने लगते थे. कई पड़ोसी रात में निकलने लगे).
अब तक सृजन ही चल रहा था, कोई रचना प्रकाशित नहीं हुई थी, फिर भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ. ऐसी महान प्रतिभा से मेरी मुलाक़ात पहली बार साल २०१४ के विश्व पुस्तक मेले में हुई. मैं उनकी प्रतिभा देख कर सन्न था. उस वक़्त वह सत्तर साल के हो चुके थे. हम दोनों के बीच कुछ इस तरह बातचीत हुई, उन्होंने पूछा था़, “आपका नाम?”
“सुलतान भारती”
“क्या लिखते हो?”
“व्यंग्य”
“कितना लिखा है?”
“कभी गिनकर नहीं देखा.”
”गिनने को कौन कह रहा. कभी तौल कर नहीं देखा कि कितना लिखा है? दस किलो-पंद्रह किलो, आख़िर कितना लिखा है.”
“कभी तौला नहीं.”
“इसका मतलब तुम्हारी रचनाओं में कोई वज़न नहीं है.”
मैं तुरंत हीनता के दबाव में आ गया. उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि उनकी सारी रचनाओं का वज़न एक कुंटल से ऊपर जा चुका था. काफ़ी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी थीं और काफ़ी सुयोग्य प्रकाशकों की प्रतीक्षा में अभी अविवाहित थीं. एक विस्मयकारी जानकारी ये हाथ लगी कि उनकी पहली रचना पत्नी की मृत्यु के बाद छपी थी (वकील साहब ने पत्नी का जीवन बीमा करवाया था) पत्नी ने ख़ामोशी से मर कर वकील साहब को अमर कर दिया था.
वो मुझे बहुत चाहते थे. लगभग हर महीने फोन करके मुझे याद दिलाते थे, “तुम व्यंग्य अच्छा लिखते हो, मगर मुझसे अच्छा नहीं लिख पाते. अभी भी तुम्हारे व्यंग्य में ऑक्सीजन की कमी है.”
मुझे कलम के साथ ऑक्सीजन सिलेंडर जोड़ना आज भी नहीं आता. लिहाज़ा मैं संजीदगी से उनकी बात मान जाता था. उन्होंने लगभग अपनी हर रचना मुझे भेंट दी. मगर वो गिफ्ट दे कर भूलते नहीं थे, बल्कि दो दिन बाद पूछना शुरू कर देते थे, “कैसी लगी रचना. इसकी समीक्षा कब लिखोगे?”
उनका ह्यूमर सेंस भी तगड़ा था. एक बार मुझसे बोल रहे थे, “एक जन्म में लेखक का विख्यात होना लगभग असंभव है. साहित्यिक पुरस्कार मिलता ही नहीं. मेरा एक सुझाव है.”
“क्या?”
“हम साहित्य साधकों को ‘प्रतिभा श्री’ पुरस्कार देना शुरू करते हैं.”
“नाम तो अच्छा है, लेकिन हम विजेताओं को किस आधार पर चुनेंगे?”
“बहुत आसान है, जिसकी रचना को प्रकाशकों ने सबसे ज़्यादा ठुकराई हो, उसी रचनाकार को प्रतिभा श्री से सम्मानित किया जाए.”
वो अब इस दुनिया में नहीं रहे, इसलिए प्रतिभा श्री की योजना परवान नहीं चढ़ पाई, पर आज भी जब किसी नए लेखक से सामना होता है, तो मुझे उनके शब्द याद आ जाते हैं, “तुम्हारी रचना में वज़न की भारी कमी है, इसमें थोड़ा ऑक्सीजन डालो.”
अल्लाह उन्हें जन्नत अता करे!..
– सुल्तान भारती
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आजकल सब्ज़ीवाले से धनिया-मिर्ची नहीं मांगनी चाहिए. वैसे ही पडोसी से प्यार और नेता से उपहार न मांगने में ही भलाई है. पर इसका यह अर्थ नहीं कि कहीं कुछ मांगना ही नहीं चाहिए. सुनार के पास जाएं, तो पर्स ज़रूर मांगिए, वह आपके लिए बड़ी चीज़ होगी, तो उसके लिए फ्यूचर इनवेंस्टमेंट.
कहते हैं बिन मांगे मोती मिले और मांगे मिले न भीख. अर्थ यह कि जिनके पास मांगने का हुनर होता है वे बिना कुछ बोले बस इशारों-इशारों में बड़ी से बड़ी चीज़ हासिल कर लेते हैं और जो इस कला को नहीं जानते वे छोटी-छोटी चीज़ें भी नहीं प्राप्त कर पाते.
मांगने के मामले को छोटा मत समझिए दुनिया में ऐसा कोई नहीं, जो हाथ फैलाए न खड़ा हो. क्या राजा क्या रंक सभी मंगते हैं. कोई धन-दौलत मांगता है, तो कोई औलाद, कोई सुख-चैन मांगता है, तो कोई तरक्की. किसी का काम थोड़े-बहुत से ही चल जाता है, तो कोई छप्पर फाड़ कर मांगता है. मिलना न मिलना और बात है, पर मांगना तो हक़ है. कभी वोट मांगे जाते हैं, तो कभी नोट. और कहते हैं, जब दवा काम नहीं करती तो दुआ मांगी जाती है.
वैसे रोमांटिक लोग बस साथ मांगते हैं और इज्ज़तदार लोग बडी नफासत से लडकी का हाथ मांगते हैं. समाज का आलम इतना ख़राब है कि आज लड़की का हाथ मांगने से पहले दहेज़ मांगने की फार्मेलटी की जाती है यह कहते हुए कि भाई आप जो दे रहे हैं अपनी बेटी को. अब भला बताइए जब देनेवाले की नीयत पर इतना ही भरोसा है, तो दहेज़ की लिस्ट क्यों नत्थी की जाती है.
मांगनेवालों की भारी-भरकम लिस्ट और सूची देखकर ही भजन बना है- दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया… यदि मांगने का सिलसिला न हो, तो मदिरों की लाइन खाली हो जाए.
वैसे मांगना इतना बुरा भी नहीं है. मांगना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है. हममें से कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसने जन्म से ही मांगने की ट्रेनिंग नहीं ली है. कहते हैं बिना रोए, तो मां भी दूध नहीं पिलाती अर्थात बच्चा जब बोलना भी नहीं जानता, तब भी मांगने की कला में पारंगत होता है.
मैं कह रहा था मांगना इतना बुरा भी नहीं होता. शहरों की बात छोड दीजिए गांव और कस्बे में बिना पास-पड़ोस से मांगे गुज़ारा नहीं चल सकता. हमारे नाना के गांव में तो मांगने की पुरानी प्रथा थी, जैसेे- लेमन सेट या टी सेट मांगना. पूरे मुहल्ले में बस एक ही टी सेट था और जब किसी के घर कोई मेहमान (मेहमान से तात्पर्य समधी के लेवल का होता है) आ जाता, तो वह लेमन सेट कहीं भी हो स्वत: उसके घर पहुंच जाता. बस, गांव में ख़बर होनी चाहिए कि फलाने के घर मेहमान आए हैं. इस मांगने का प्रभाव ही था कि किसी का भी मेहमान पूरे मुहल्ले का सम्माननीय होता था और पूरा गांव उसे बड़ी इज़्ज़त देता था. जैसे ही वह पक्की सड़क छोड़ पगडण्डी पर आता कि ख़बर हो जाती फलाने के मेहमान बस से उतर गए हैं, बस पहुंच रहे हैं. हालत यह होती कि कदम-कदम पर उसे रास्ता बतानेवाले मिलते और जगह-जगह रोक कर घडे का ठण्डा पानी पिलानेवाले. उस ज़माने में बिना मीठे के पानी पिलाना अपराध माना जाता था. कुछ नही तो ताज़ा गुड़ ही खिला कर बडे स्नेह से पानी पूछते थे लोग. और देखने वाला गांव के इस संस्कार को देख कर भाप लेता था कि जिस घर में रिश्ता कर रहे हैं वह लोग हैं कैसे. वैसे चाय, चीनी और नमक तेल मांगने का रिवाज़ शहर के पड़़ोस में भी पनपा, पर लानत है मंहगाई की कि इसने पड़ोस पड़ोस न रहने दिया. आज किसी से कुछ मांगने से पहले संकोच होने लगता है कहीं बेचारा रहीम के कहे दोहे के अनुसार शर्मिन्दा न हो जाए. यथा रहिमन वे नर मर चुके जे कछु मांगन जायें उन ते पहले वे मुये जिन मुख निकसत नाय. इस मंहगाई के जमाने में कहीं मांग कर हम पड़ोसी को धर्मसंकट में न डाल दें.
देखिए मांगने में एक बड़ा ही ख़ूबसूरत एहसाह है और विश्वास मानिए अपनों से अपनापन बनाए रखने के लिए उनसे कुछ न कुछ मांगते रहना चाहिए.
मैं अपनों से प्यार बनाए रखने के लिए मांगने का ज़़िक्र कर रहा था. देखिए अपनत्व बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ ऐसा मांगते रहना चाहिए कि आप के अपनों को एहसास होता रहे कि आप उनके लिए ख़ास हैं और इतना ही नहीं आप उन्हें भी अपना ख़ास समझते हैं. ऐसे में मैं मांगने की कुछ ऐसी टिप्स दे रहा हूं, जो बडी काम आएगी और इसे देने वाला मंहगाई के जमाने में भी प्रफुिल्लत होकर देगा इसे.
सुबह उठ कर अपने बड़़ेे़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद ज़रूर मांग लेंं. वे बेहद ख़ुुश हो जाएंगे और अपने जाननेवालों के बीच आपके गुण गाएंगे. इतना ही नहीं उन्हें इस बात की आत्मिक सन्तुष्टी होगी कि उन्होंने अपने बच्चे को बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं.
रही दोस्तों की बात तो उन्हें अपना बनाए रखने के लिए सलाह ज़रूर मांगिए. जितने ही क़रीबी मामले में आप उनसे सलाह मांगेंगे, वे उतने ही आपसे जुड जाएंगे.
जैसा कि मैंने कहा मांगना एक हुनर हैै, सो मांगते समय सही पात्र से उचित चीज़ ही मांगनी चाहिए. ऐसा न हो कि जिसके पास जो नहीं हैै, उस से आप वही मांग बैठे और दोनों को शर्मिन्दा करें.
आजकल सब्ज़ीवाले से धनिया-मिर्ची नहीं मांगनी चाहिए. वैसे ही पडोसी से प्यार और नेता से उपहार न मांगने में ही भलाई है. पर इसका यह अर्थ नहीं कि कहीं कुछ मांगना ही नहीं चाहिए. सुनार के पास जाएं, तो पर्स ज़रूर मांगिए, वह आपके लिए बड़ी चीज़ होगी, तो उसके लिए फ्यूचर इनवेंस्टमेंट. वैसे ही जब किसी बड़े आदमी से कुछ मांगने का अवसर पड़ेे, तो सुदामा भाव में आ जाइए अर्थात छोटी-छोटी भावनात्मक मुद्राएं अपनाइए और उसे कृष्ण भाव का एहसास कराते रहिए. और तब-जब आप वहां से वापस लौटेंगे तो उम्मीद से दुगना पा चुके होंगे.
नई पीढ़ी से मोबाइल और इंटरनेट चलाने की टिप्स मांगना मत भूलिए. ससुराल में साली का प्यार बिन मांगे मिला हुआ मुफ़्त उपहार है, पर ऐसे उपहार को ज़रा सम्हाल कर रखना चाहिए, वर्ना लेने के देने पड़ जाते हैं.
रहा उधार मांगने का सवाल, तो बडे-बुजुर्ग पहले ही कह गए हैं उधार प्रेम की कैंची है, सो आजकल ऐसे मौक़े पर बैंक के ऐजेंट को याद करना चाहिए. मुझे विश्वास है कि अब आप जब अपने विवेक का इस्तेमाल कर सही पात्र से सही चीज़ मांगेंगेे, तो निराश नहीं होंगे और जीवन में मांगने की कला को अपनाकर नज़दीकी बढ़़ाने में सक्षम होंगे.
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