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Woman Achiever
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कहते हैं, शादी के बाद लड़की के करियर पर फुलस्टॉप लग जाता है, लेकिन रीना के साथ ऐसा नहीं हुआ, बल्कि शादी के बाद उनके करियर को नई ऊंचाई मिली. रीना धर्मशक्तू स्कीइंग करते हुए अंटार्टिका साउथ पोल पहुंचनेवाली पहली भारतीय महिला हैं और ये गौरव उन्हें शादी के बाद हासिल हुआ. कैसा था ये ऐतिहासिक सफ़र, राह में क्या-क्या रुकावटें आईं, उनका सामना कैसे किया..? ऐसे ही कई सवालों के जवाब जानने के लिए हमने बात की रीना धर्मशक्तू से.
क्या आपने कभी सोचा था कि आप इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल कर लेंगी?
सच कहूं तो ये मेरा बचपन का सपना था. बचपन में जब मैं कंचनजंघा की ख़ूबसूरत चोटी को निहारा करती, तो सिक्किमवासियों की तरह मैं भी इस पर्वत को दैवीय रूप समझती थी. ये मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि एक दिन मैं भी माउंटेनियर बनकर इन शिखरों को छू सकूंं. इसके लिए मैंने हिमाचल, लद्दाख, उत्तराखंड में ट्रेनिंग ली. अंटार्टिका पहुंचने से पहले मैं कैलाश, गंगोत्री-1, प्लूटेड पीक शिखरों पर चढ़कर लौट चुकी हूं. मुझे लगता है, जीवन में आगे बढ़ने या बड़ी उपलब्धि हासिल करने के लिए हमें अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलना चाहिए. जो हम आसानी से कर सकते हैं, उसे करने की बजाय जो करना मुश्किल है, उसे करने का जोखिम उठाकर ही हम कुछ नया कर सकते हैं. मैं ख़ुशक़िस्मत हूं कि मैं अपने सपने को साकार करने में क़ामयाब रही.
आपने अपने सपने को सच कर दिखाने की पहल कब की?
मेरा बचपन दार्जलिंग में बीता और तभी से मुझे पर्वतों से प्यार हो गया. पापा आर्मी में थे इसलिए मुझे देश में कई जगहों पर रहने का मौक़ा मिला. बचपन जब मैंने हिलेरी (एंडमंड हिलेरी और नोर्वे तेनजिंग सबसे पहले एवरेस्ट पर पहुंचे थे) को दार्जलिंग में देखा, तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना न था. उनसे मिलकर ऐसा लगा जैसे मैं इतिहास से मिल रही हूं. मैं तेनजिंग से तो नहीं मिल पाई, लेकिन उनके माउंटेनियर बेटे जिमलिंग से ज़रूर मिली थी. उनसे उनके पिता के बारे में बहुत कुछ जानने का मौक़ा मिला.
साउथ पोल मिशन में शामिल होने का ख़्याल कैसे आया?
जब मैंने अंटार्टिका साउथ पोल मिशन के बारे में सुना तो ख़ुद को अप्लाई करने से रोक नहीं सकी. इसके लिए लगभग 130 भारतीयों ने अप्लाई किया था. मैं शारीरिक-मानसिक रूप से उनकी कसौटी पर फिट थी इसलिए मेरा सलेक्शन हो गया. सलेक्शन के बाद क्या खाएं, स्टेमिना और स्ट्रेंथ को कैसे बढ़ाएं आदि की ट्रेनिंग दी गई.
सिलेक्शन के बाद लक्ष्य तक पहुंचने का अनुभव कैसा था?
वो बहुत ही लाजवाब अनुभव था. अलग-अलग देश की महिलाएं, रहन-सहन, भाषा, परवरिश सब कुछ अलग, लेकिन सभी का लक्ष्य एक था.
सफ़र आसान नहीं था, लेकिन हमें हर हाल में अपने लक्ष्य तक पहुंचना था. हम 8 महिलाओं ने सफ़र शुरू किया था, लेकिन पहुंची स़िर्फ 7, एक को लौटना पड़ा, जिसका हम सभी को बहुत दुख हुआ. हमारे साथ कोई गाइड नहीं था, हम सब कुछ ख़ुद ही करते थे. वहां का तापमान माइनस 10 से 35 डिग्री सेल्शियस तक रहता था और हवा भी बहुत तेज़ चलती थी. शुरुआत में हम 10-12 किलोमीटर ही स्कीइंग कर पाते थे, लेकिन कुछ ही दिनों में हम 15-30 किलोमीटर रोज़ाना स्कीइंग करने लगे थे. उस बर्फीले सफ़र में अपना वज़न खींचना ही मुश्किल होता था, उस पर हमें अपना सामान ख़ुद ढोकर ले जाना होता था. हमें एक के पीछे एक चलना होता था. सबसे आगे वाले के हाथ में नेविगेशन की कमान होती थी. डेढ़ घंटे स्कीइंग करने के बाद हम सात मिनट रेस्ट करने के लिए रुकते थे, उससे ज़्यादा रुकने पर शरीर अकड़ने लगता था. (हंसते हु) उतनी ठंड में यदि शरीर हलचल न करे, तो जम जाएगा. पानी तो वहां होता नहीं था इसलिए हम बर्फ को पिघलाकर पीते थे. फिर उस पानी को हम थर्मस में जमा कर लेते थे, ताकि वह फिर से बर्फ न बन जाए. शाम को हम जहां पहुंचते, वहां टैन्ट लगाकर रात गुजार लेते थे. ठंड के मारे हाथ-पैर बुरी तरह दर्द करते थे, लेकिन मुश्किलों का भी अपना मज़ा है.
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साउथ पोल पहुंचकर कैसा लग रहा था?
वहां पहुंचने का अनुभव शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. नीचे दूर-दूर तक पसरी बर्फ की चादर और ऊपर कभी न ख़त्म होने वाला आसमान. ऐसा लगता था बस, थोड़ी देर बाद ही क्षितिज तक पहुंच जाएंगे, हमें धरती का कोना मिल जाएगा. आसमान, धरती, चांद-तारे.. वहां से हर चीज़ ख़ूबसूरत नज़र आती थी, हर चीज़ को निहारने का अलग ही अनुभव होता था. वहां पर कोई जीवन नहीं है, लेकिन उस जगह पर ग़ज़ब की एनर्जी है. इतनी शांति मैंने कभी महसूस नहीं की. यकीन ही नहीं होता था कि ये भी धरती का ही एक हिस्सा है. एक अलग ही दुनिया थी वहां, जिसकी स़िर्फ कल्पना की जा सकती है, जिसे स़िर्फ महसूस किया जा सकता है. मैं ख़ुद को भाग्यशाली मानती हूं कि मुझे वहां जाने का मौका मिला. सच कहूं तो मुझे फिर वहां जाने की इच्छा होती है.
आपने साउथ पोल मिशन कितने दिनों में पूरा किया?
हम 7 देशों की 7 महिलाएं अपने लक्ष्य को पाने के लिए जी जान से मेहनत कर रही थीं और आख़िरकार 29 दिसंबर 2009 के दिन हमें मंज़िल मिल ही गई. अंटार्टिका के तट से 900 कि.मी. स्कीइंग करके जब हम साउथ पोल पहुंचे तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि हमने ये कर दिखाया है. 38 दिनों तक लगातार स्कीइंग करते हुए अंटार्टिका पहुंचना आसान काम नहीं था. हम सब एक-दूसरे से गले लगकर रो रहे थे. साउथ पोल पहुंचकर हम वहां दो दिन ठहरे थे. वो दो दिन मेरी ज़िंदगी के बेशक़ीमती दिन हैं. ़कुदरत का इतना ख़ूबसूरत नज़ारा शायद ही कहीं देखने को मिले. हमसे पहले भी कई लोगों ने वहां पहुंचने की कोशिश की, लेकिन क़ामयाब नहीं हो पाए.
साउथ पोल मिशन में आपके पति ने आपको कितना सपोर्ट किया?
मेरे पति लवराज भी माउंटेनियर हैं इसलिए वो मुझे और मेरे काम को अच्छी तरह समझते हैं. लवराज अब तक पांच बार एवरेस्ट होकर आए हैं (उन्होंने इतनी सहजता से बताया जैसे एवरेस्ट न हुआ गली का नुक्कड़ हुआ) और एक बार कंचनजंघा भी पहुंचे हैं. लवराज को 2014 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है. मेरे अंटार्टिका जाने के ़फैसले और तैयारी में उनका बहुत बड़ा योगदान है. जब मैं अंटार्टिका के मिशन से लौटी, तो लवराज दिल्ली एअरपोर्ट पर बैंड-बाजा के साथ मेरे स्वागत में खड़े थे. शादी के बाद पार्टनर का सपोर्ट बहुत ज़रूरी होता है. मैं ख़ुशनसीब हूं कि लवराज क़दम-क़दम पर मेरे साथ होते हैं.
आप और आपके पति एक ही प्रोफेशन में हैं, आपकी लवराज से पहली मुलाक़ात कब और कैसे हुई थी?
लवराज से मेरी पहली मुलाक़ात लेह में हुई थी, जब वो पहाड़ चढ़कर लौट रहे थे और हम पहाड़ चढ़ने जा रहे थे. फिर मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ा. हम दोनों के शौक़, जीने का तरीक़ा, प्रोफेशन एक जैसे थे इसलिए जल्दी ही हम ये महसूस करने लगे कि हम एक-दूसरे के लिए ही बने हैं. हमने हमेशा रोमांचक यात्राओं को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है. (हंसते हुए) शादी के बाद भी घर में रोमांस का कम और प्रकृति का ज़िक्र ज़्यादा होता था.
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अब आपके आगे के क्या प्लान्स हैं?
प्रकृति ने मुझे बहुत कुछ दिया है, अब मैं प्रकृति का कर्ज़ चुकाना चाहती हूं. मैं पर्यावरण के लिए काम कर रही हूं, लोगों को पर्यावरण का महत्व और उसे बचाए रखने के बारे में बताती हूं, ग्रुप माउंटेनियरिंग के लिए जाती हूं, आगे भी बहुत काम करना चाहती हूं. मेरी ख़्वाहिश नॉर्थ पोल (उत्तरी ध्रुव) तक पहुंचने की भी है. मैंने दुनिया के एक छोर को छू लिया है, अब दूसरे छोर को छूना चाहती हूं.
आप एक मां भी हैं, क्या कभी मातृत्व आपके करियर के आड़े आया है?
मां बनने के बाद कुछ समय के लिए मैंने अपनी गतिविधियां कम कर दी हैं, ताकि अपने बेटे को पर्याप्त समय दे सकूं. अभी वो छोटा है इसलिए उसे मेरी ज़रूरत है और उसके साथ रहना मुझे बहुत अच्छा लगता है. फिलहाल मैं स्कूल, इंस्टिट्यूट्स में पर्यावरण और एडवेंचर स्पोर्ट्स पर लेक्चर देने जाती हूं. मेरे लिए एक और ख़ुशी की बात ये है कि उत्तराखंड सरकार द्वारा जल्दी ही मुन्स्यारी (पिथौरागढ़) में पंडित नैनसिंह माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट शुरू होने जा रहा है, जिसका ओएसडी मुझे नियुक्त किया गया है.
रीना धर्मशक्तू और उनके पति लवराज की उपलब्धियां
* रीना को वर्ष 2010 में राष्ट्रपति द्वारा तेज़िंग नोर्गे नेशनल एडवेंचर अवॉर्ड मिला है, ये अवॉर्ड अर्जुन अवॉर्ड के समान ही है. लवराज को यही अवॉर्ड वर्ष 2003 में मिला है.
* लवराज को वर्ष 2014 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है.
– कमला बडोनी

पुरुषों के क्षेत्र में क़दम रखकर हर्षिनी ने न स़िर्फ इतिहास रचा है, बल्कि कई लड़कियों की प्रेरणा भी बनी हैं. हर्षिनी कान्हेकर के लिए भारत की पहली महिला फायर फाइटर बनने का सफ़र कितना संघर्ष भरा था? आइए, उन्हीं से जानते हैं.
मैं यूनीफ़ॉर्म पहनना चाहती थी
यूनीफॉर्म पहने ऑफिसर्स को देखकर मैं हमेशा यही सोचती थी कि आगे चलकर मैं भी
यूनीफॉर्म पहनूंगी, चाहे वो यूनीफॉर्म कोई भी क्यूं न हो. एडवेंचरस एक्टिविटीज़ मुझे बहुत पसंद थीं इसलिए पढ़ाई के दौरान मैं एनसीसी की केडेट भी रही. पीसीएम में बीएससी करने के बाद मैं आर्मी, एयरफोर्स, नेवी ज्वाइन करना चाहती थी और इसके लिए तैयारी भी कर रही थी. जब हम एचएसबी एंटरेंस एग्ज़ाम की तैयारी कर रहे थे, तो अपने शहर (नागपुर, हर्षिनी नागपुर की रहने वाली हैं) की 10 बेस्ट चीज़ें बताओ वाले सवाल के जवाब के लिए हम नेशनल फायर सर्विस कॉलेज (एनएफएससी) के बारे में भी रटते रहते थे कि यह एशिया का एकमात्र फायर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट है और मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के अंतर्गत संचालित किया जाता है.
मेरा फॉर्म अलग रख दिया गया था
उसी दौरान मेरे एक फ्रेंड ने बताया कि एनएफएससी के फॉर्म निकले हैं. तुम यूनीफॉर्म पहनना चाहती हो ना? तो यहां तुम्हारी ख़्वाहिश पूरी हो सकती है. मैंने तुरंत अपना और अपनी एक फ्रेंड का फॉर्म भर दिया. मैं वहां एडमिशन पाने के लिए काफ़ी उत्साहित थी. मेरे पापा की आदत है कि जब भी हमें कहीं एग्ज़ाम देने जाना होता था, तो वो हमें पहले वह कॉलेज या इंस्टिट्यूट दिखाने ले जाते थे. नागपुर
सिविलाइज़्ड एरिया में स्थित वह बहुत बड़ा और ख़ूबसूरत कॉलेज था, लेकिन हम वहां के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे. कॉलेज देखते ही पहला ख़्याल यही आया मन में कि काश, इस कॉलेज में मेरा एडमिशन हो जाए.
उन्होंने कहा, “मैडम, ये जेन्ट्स कॉलेज है”
जब हम कॉलेज के अंदर गए, तो सब लोग मुझे अजीब नज़रों से देख रहे थे. कई लोगों ने कहा भी कि मैडम, यह जेन्ट्स कॉलेज है, आप आर्मी वगैरह में ट्राई कर लीजिए, लेकिन मेरा जवाब था कि फॉर्म में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा है कि लड़कियां यहां एडमिशन नहीं ले सकतीं. मैंने फॉर्म लिया है, तो मैं उसे जमा ज़रूर करूंगी. वहां मौजूद फैकल्टी मेंबर्स मुझ पर हंस रहे थे और उन्होंने मेरा फॉर्म बाकी लोगों के फॉर्म से अलग रख दिया. उनमें से एक ने यहां तक कह दिया कि मैडम, महिलाएं अभी भी 33% आरक्षण के लिए लड़ रही हैं (यानी अभी दिल्ली दूर है). तब मैंने उन्हें जवाब दिया, सर, मैं 33% में नहीं, 50:50 में विश्वास रखती हूं. फिर मैंने अपना अलग रखा हुआ फॉर्म अपने हाथों से बॉक्स में डाल दिया.
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जेन्ट्स कॉलेज में मैं अकेली लड़की थी
एग्ज़ाम के बाद मेरा सलेक्शन तो हो गया, लेकिन मेरी फ्रेंड का सलेक्शन नहीं हुआ. मेरे लिए ये गर्व की बात भी थी और शॉकिंग न्यूज़ भी कि जेन्ट्स कॉलेज में अकेले मेरा सलेक्शन हुआ है. तब तक पूरे कॉलेज में ये न्यूज़ फैल गई थी कि हमारे कॉलेज में एक लड़की आ रही है. उसके बाद मेडिकल होना था, जिसके लिए सीनियर डॉक्टर्स का बोर्ड आया हुआ था, लेकिन उन्हें लड़कियों के लिए कोई क्राइटेरिया ही पता नहीं था, क्योंकि इससे पहले वहां किसी लड़की का मेडिकल हुआ ही नहीं था. वो मुझसे कहने लगे, बेटा, इतना मुश्किल कोर्स है, क्या तुम यह कर पाओगी? उस दिन से लेकर कोर्स कंप्लीट होने तक हर बार मेरा एक ही जवाब होता, क्यों नहीं? मैं कर सकती हूं. ट्रेनिंग के दौरान भी जब मुझसे कहा जाता कि तुम ये काम कर लोगी, तो मैं कहती, क्यों नहीं? मैं कर सकती हूं. अपने पूरे कोर्स के दौरान मैंने इस वाक्य को हज़ारों बार दोहराया था. ख़ैर, हाइट, वेट, पर्सनैलिटी, कलर ब्लाइंडनेस आदि के बेसिर पर मेरा टेस्ट लिया गया और मैंने वो सारे टेस्ट क्लियर भी कर लिए. कॉलेज में स़िर्फ 30 सीट्स को एडमिशन मिलना था. पर्सनल इंटरव्यू के लिए वहां बड़ी-बड़ी कंपनियों के डायरेक्टर्स आये हुए थे. वो मेरा मेंटल स्टेटस चेक कर रहे थे कि मैं इतना मुश्किल कोर्स कंप्लीट कर सकती हूं या नहीं. मैंने उनके हर सवाल का पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया.
पैरेंट्स को मनाने में वक़्त लगा
आख़िरकार रात साढ़े नौ बजे लिस्ट में मेरा नाम भी आ गया- मिस हर्षिनी कान्हेकर, उस
कॉलेज के इतिहास में पहली बार किसी लड़की का नाम शामिल हुआ था. ये कॉलेज 1956 से है, लेकिन अब तक वहां किसी लड़की ने एडमिशन नहीं लिया था. मुझे अपने पैरेंट्स को इस बात के लिए तैयार करने में थोड़ा वक़्त लगा कि मैं अकेली लड़की जेन्ट्स कॉलेज में पढ़ने जा रही हूं, लेकिन वो ये भी जानते थे कि एक बार यदि मैंने ऐसा करने की ठान ली है, तो मैं ये कर के रहूंगी.
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क़दम-क़दम पर ख़ुद को साबित करना पड़ा
क्लासरूम में क़दम रखते ही मेरा असली चैलेंज शुरू हुआ. हालांकि यह कोर्स मैंने अपने शौक के लिए किया था, लेकिन मेरे हर काम, हर गतिविधि को सारी लड़कियों से जोड़कर देखा जाने लगा था. मैं यदि देर से पहुंचूंगी, तो लड़कियां देर से आती हैं, मैं कोई चीज़ नहीं उठा पाऊंगी, तो लड़कियां कमज़ोर होती हैं… मेरे परफॉर्मेंस पर आने वाले सालों में यहां एडमिशन लेने वाली सारी लड़कियों का भविष्य तय होने वाला था, इसलिए मैं एक भी ग़लती नहीं करना चाहती थी. साढ़े तीन साल के कोर्स में मैंने एक दिन भी छुट्टी नहीं ली, मैं कभी लेट नहीं हुई और मुझे कभी किसी तरह की पनिशमेंट भी नहीं मिली. एनसीसी बैकग्राउंड होने के कारण मेरा परफॉर्मेंस बहुत अच्छा था.
मिल गई मंज़िल मुझे
कई लोगों ने चाहा भी कि मैं कॉलेज छोड़कर चली जाऊं, लेकिन मैंने ठान लिया था कि ये कोर्स तो मैं कर के रहूंगी. ये कोर्स मैंने स़िर्फ अपने लिए नहीं किया, मैं ये इसलिए भी करना चाहती थी कि मेरे बाद किसी और लड़की को इस कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए इतना संघर्ष न करना पड़े. मेरे सहपाठी मुझसे यहां तक कहते थे कि कोर्स तो तुम कर रही हो, लेकिन जब तुम नौकरी के लिए अप्लाई करोगी, तो हमेशा ग्राउंड ड्यूटी पर ही रहोगी, क्योंकि तुम लड़की हो. उनकी इस सोच को भी मैंने ग़लत साबित कर दिया. कोर्स कंप्लीट करने के बाद मेरा ऑयल एंड नेचुरल गैस कमिशन (ओएनजीसी) में सलेक्शन हो गया. आज मैं फायर ऑफिसर के तौर पर उन सभी सुविधाओं का लाभ ले रही हूं, जो मेरे पुरुष सहपाठियों को मिल रही हैं. इसके अलावा मैं गिटार और ड्रम बजाती हूं, फोटोग्राफी भी करती हूं, क्योंकि ज़िंदगी रुकने का नाम नहीं.
– कमला बडोनी