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कहानी- राज़ (Short Story- Raaz)

"… जब मैं इस उम्र में हर जगह मन लगा सकता हूं, कुछ सीख और सिखा सकता हूं, तो तू क्यों नहीं? मैंने सवेरे भी तुझे सलाह दी थी, तुझे जो कंप्यूटर लैंग्वेजेस सीखनी हैं उनकी क्लासेस जॉइन करने का यह सही वक़्त है. तुझे अकेलापन भी नहीं खलेगा और तेरा अनुभव और योग्यता भी बढ़ जाएगी. यदि सूरज की वापिस यहां पोस्टिंग न हो, तो तू वहां करवा लेना. यह अतिरिक्त योग्यता तब बहुत काम आएगी… बेटी, यदि तुम किसी चीज़ को पाने के लिए संघर्ष नहीं कर सकते, तो फिर उसे खो देने पर उसके लिए रोओ भी मत.’'

‘'अरे वाह, अद्भुत, अतिसुंदर… मीकू उठ, देख!’' पापा को उत्साह से चिल्लाते देख मैं टिफिन बनाना छोड़कर बाहर आ गई थी. मोर को पंख फैलाकर नृत्य करता देख मैं मुस्कुराती यह सोचती वापिस रसोई में लौट आई थी कि यह तो रोज़ होता है. नाना की पुकार पर मीकू भी कुनमुनाता बिस्तर से निकला. मोर के नृत्य और तोतों की चहचहाहट ने उसके चेहरे पर भी मुस्कान बिखेर दी थी. पर चूंकि यह दृश्य उसके लिए भी आम था, इसलिए दो मिनट खड़े रहकर वह बाथरूम की ओर मुड़ गया.
"नाना, मैं तैयार होने जा रहा हूं, वरना बस निकल जाएगी और मम्मी को छोड़ने जाना पड़ेगा."
पर पापा के उत्साह में अब भी रत्ती भर भी कमी नजर नहीं आ रही थी. वे अभी भी बच्चों की तरह उचक-उचककर दाना खाते पंछियों को निहार रहे थे. पापा की सदाबहार चुस्ती-फुर्ती और उल्लास देखकर कभी-कभी मैं वाकई हैरान हो जाती हूं कि आख़िर इस सदाबहार ताज़गी का राज़ क्या है? रसोई से निवृत्त होकर मैं हम दोनों की चाय लेकर बाहर ही आ गई. मुझे आता देख पापा के चेहरे पर चमक आ गई.
'‘देख, वह उधर वाला मोर कितनी मस्ती से नाच रहा है. उसके पंख भी कितने लंबे और चमकीले हैं न? तुम लोग कभी इनकी तस्वीर उतारते हो?’'
‘'क्या पापा आप भी! जब आप मोहनगढ़ पोस्टेड थे, तो वहां भी तो सवेरे-सवेरे ऐसे कितने ही पक्षी आते थे और वहां की सुबह भी तो ऐसी ही सुहावनी और लुभावनी होती थी.’' चाय की चुस्कियों के साथ मैं पापा से बचपन की यादें ताज़ा करने लगी.


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'‘… मुंबई में मैं यह सब बहुत मिस करता हूं. अरे, वहां तो हम चांद-तारे और चिड़िया देखने को भी तरस जाते हैं. और ऐसी ताज़ी ओैर शुद्ध हवा की तो वहां कल्पना भी नहीं कर सकते."
"हां, यह तो है." मैं उनकी बातों से सहमत हो रही थी.
‘'किसी चीज़ की असल कमी तभी तो महसूस होती है जब हम उसे खो चुके होते हैं. मीकू से भी ज़्यादा इसीलिए यह दृश्य अभी मुझे आनंदित कर रहा है, क्योंकि एक तो लंबे समय बाद मुझे यह ख़ुशी मिली है. और दूसरे मन में यह आशंका भी है कि न जाने यह ख़ुशी कितने दिनों की है? कब मुंबई लौटना पड़े, तो अभी तो जी भरकर इसका लुत्फ़ उठा लूं.’'
‘'पापा, अभी से लौटने की बात मत कीजिए. थोड़े ही दिन तो हुए हैं आपको आए. वो भी आप इसलिए आ गए कि सूरज का पोस्टिंग बाहर हो गया है. मैं अकेली हो गई हूं.’' मेरे चेहरे पर बेचारगी के भाव उभर आए थे.
‘'… पता नहीं अभी कितने दिन और लगेगें वापिस यहां पोस्टिंग करवाने में?.. कोई फोन आ रहा लगता है, मैं देखती हूं.’'
'‘चलो, मैं भी अंदर ही आ जाता हूं. बाहर तो अब ठंड बढ़ रही है.’' कप समेटते हुए पापा भी अंदर आ गए थे. भैया का फोन था. जल्दी-जल्दी बात कर मैंने फोन पापा को पकड़ा दिया और अपने कपड़े, टॉवल संभालती बाथरूम में घुस गई. मुझे भी स्कूल के लिए देरी हो रही थी. पापा का उत्साह में डूबा स्वर बाथरूम तक सुनाई दे रहा था. शायद भैया-भाभी के बाद अब वे बच्चों से बात करने लगे थे.
'‘मैं भी तुम दोनों को बहुत मिस कर रहा हूं. वैसे मेरी क्लास यहां भी अच्छी चल रही है. मीकू के साथ अच्छा वक़्त गुज़र रहा है. हां.. हां… जल्दी आऊंगा.’'
मैं जल्दी-जल्दी तैयार होकर स्कूल के लिए निकलने लगी थी, '‘अच्छा पापा, शाम को मिलते हैं. सॉरी, आपको वक़्त नहीं दे पा रही हूं. सूरज की पोस्टिंग के चक्कर में वैसे ही काफ़ी छुट्टियां ले चुकी हूं.'’ मेरी आवाज़ में अपराधबोध उतर आया था.


'‘अरे नहीं, तू परेशान मत हो. मीकू के साथ मेरा अच्छा समय निकल जाता है. बल्कि मैं तो चाह रहा था मैं यहां हूं तब तक तू शाम वाली कंप्यूटर क्लासेस जॉइन कर ले, ताकि तुझे जो लेंग्वेजेस सीखनी हैं, वो सीख सके. मीकू को मैं संभाल लूंगा.’'
मैं पापा की बात सुनकर भी अनसुनी सी करते निकल गई थी. आजकल ख़ुद के बारे में सोचने का वक़्त ही कहां मिल रहा है? हर वक़्त सूरज की पोस्टिंग की चिंता ही दिमाग़ में घूमती रहती है. शादी के इतने सालों बाद पहली बार अकेले रहना मुझे बेतरह अखर रहा था. वो तो अच्छा हुआ पापा कुछ दिनों के लिए आ गए… मीकू को भी कंपनी मिल गई और मैं भी घर की ओर से निश्चिंत हो गई. पर पापा तो कुछ दिनों में लौट जाएगें. आज सुबह ही तो भैया और बच्चों का फोन आया है. स्कूल आ गया, तो घर की चिंताओं को ब्रेक लग गया. और स्कूल की चिंताएं शुरू हो गई. पूरा दिन चक्करघिन्नी की तरह एक क्लास से दूसरी क्लास में घूमती रही. वापिस शाम को घर के लिए निकली तभी मीकू और पापा के बारे में सोचने का वक़्त मिला. आसमां में हल्के-हल्के मंडराते बादल भले लग रहे थे. वैसे तो पहाड़ों पर मौसम हमेशा ही सुहावना रहता है. सोचते हुए मुझे सुबह का वाकया याद आ गया. पापा कितने ख़ुश थे. हमेशा खुली-खुली जगहों पर रहने वाले पापा का मुंबई के दड़बेनुमा फ्लेट्स और प्रदूषित वातावरण में निश्चिंत ही दम घुटता होगा. वह तो उनका हर वक़्त प्रफुल्लित चेहरा उनके भीतर छुपे असंतोष को जाहिर नहीं होने देता.

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घर में घुसी, तो देखा पापा के कोई दोस्त आए हुए थे. चाय-नाश्ते के संग गप्पों का दौर चल रहा था. कमाल है पापा ने यहां भी दोस्त बना लिए. मीकू बाहर खेलने जा चुका था. कपड़े बदलकर मैंने उसका स्कूल बैग जांचा. होमवर्क पूरा था. मैंने राहत की सांस ली. पापा के होने से कितना आराम है. रसोई में चाय बनाने जाने लगी, तो पापा से भी पूछ लिया.
'‘वैसे तो अभी पी है. पर यहां का मौसम इतना बढ़िया रहता है कि चाय तो कभी भी पी जा सकती है. मुंबई की उमस में तो सुबह की चाय गले से नीचे उतारना भी भारी पड़ जाता है."
"तुम्हारी पोस्टिंग तो हमेशा छोटी जगहों पर रही है. मायावी महानगरी में तुम्हें कैसे सुहाता होगा?" दोस्त ने पूछा.
"अपन तो हर हाल में मस्त रहने वाले लोग हैं. मुंबई भी अपुन को जम गया है. वहां की सदाबहार रिमझिम, सप्ताहांत में परिवार के संग घूमना-फिरना, बाहर खाना खाना अब मेरी भी आदत में शुमार हो गया है. वहां की चोबीसों घंटे पानी-बिजली की सुविधा की अहमियत मुझे यहां आकर पता चली है. यहां तो दो दिन में एक बार पानी चढ़ता है और वह भी बूंद बूंद स्टोर करके रखना पड़ता है. 15 दिन में एक बार हाट लगता है, तब ही सारी सब्ज़ी, फल आदि लाकर रखने पड़ते हैं. पहाड़ सैर-सपाटे के लिए ही उपयुक्त है. स्थानीय निवासियों को तो रोज़मर्रा की ढेरों परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. हर वक़्त गर्म कपड़े अलग लादे रहो. खैर, अपन तो यहां भी मस्त हैं. धूप निकलने पर टहल आते हैं. बाकी वक़्त घर पर मीकू के साथ मौज-मस्ती.’'


चाय लेकर बैठक में पहुंची, तो पापा ने वहीं बिठा लिया.
'‘ये गोविंद अंकल हैं. मेरे साथ कॉलेज में थे. फिर रायपुर में भी साथ थे. मीकू फेसबुक पर अपने दोस्त की बर्थडे के पिक्स बता रहा था उन्हीं मैं मैंने उसके दोस्त के दादा यानी कि गोविंद को पहचान लिया.’'
‘'रायपुर में तुम बहुत छोटी थी. इसलिए याद नहीं होगा, वरना मैं तो वहां भी ख़ूब आता था. ख़ूब गोष्ठियां जमती थीं. तेरे पापा का स्वभाव ही ऐसा है. हर जगह हर हाल में मस्त रहते हैं और दोस्त भी बना लेते हैं. एनसीसी कैंप के लिए हम लोगों को एक छोटे से सीमावर्ती गांव में महीना भर रहना पड़ा था. वहां की दिनचर्या इतनी कठिन थी कि हम सब लड़कों ने तो पहले सप्ताह में ही हथियार डाल दिए थे. पर तेरे पापा जमे रहे. जंगल से लकड़ियां काटकर लाना, उन पर खाना पकाना, कुएं से पानी खींचना, तालाब में नहाना… जैसे सारे काम वे मज़े ले लेकर करते थे. और हम बाकी सब झींकते रहते थे. इसने गांव के लड़कों से तैरना, पेड़ पर चढ़ना, मिट्टी के बर्तन बनाना जाने क्या-क्या सीख लिया. इसे देखकर ही फिर हम सबको अक्ल आई कि ज़िंदगी में हर हाल में ख़ुश रहना आना चाहिए और सीखने का कहीं भी, कभी भी कोई अवसर नहीं गंवाना चाहिए. फिर तो हम सबने भी उस कैंप में बहुत कुछ सीखा और आनन्द उठाया. आज भी वो कैंप बहुत याद आता है.’'
‘'तभी तो कहते हैं वक़्त, दोस्त और रिश्ते वे चीज़ें हैं, जो हमें मुफ़्त में मिलती है, लेकिन इनकी क़ीमत का अंदाज़ा इन्हें खोने के बाद होता है."
सूरज का फोन आया तो मैं उठकर बात करने अंदर चली गई. पोस्टिंग का अभी तक भी कुछ नहीं हुआ था. सूरज प्रयास कर रहे थे पर शायद कुछ और वक़्त लग सकता था. सुनकर मैं उदास हो गई थी. पापा दोस्त को विदा कर अंदर आ चुके थे. मेरा रूंआसा चेहरा देखा, तो सारा मामला समझ गए. मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने पास बिठाया. '‘जब से आया हूं तुझे उदास ही देख रहा हूं. ख़ुश रहना भूल गई है क्या?’'
‘'ख़ुश होने की कोई वजह भी तो होनी चाहिए न पापा?’'
‘'क्यूं? इतनी शांत, सुरम्य जगह में रहती है, अच्छी सी नौकरी है, छोटा प्यारा सा परिवार है, और क्या चाहिए?’'
‘'ये तो लगभग सभी के पास होता है पापा."

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‘'नहीं, सबके पास नहीं होता. दुनिया में तुमसे बेहतर अवस्था में जीने वाले बहुत लोग हैं, तो कमतर अवस्था में जीने वाले भी कम नहीं हैं. फिर समय भी एक सा नहीं रहता. जो आज बेहतर हैं वे कल कमतर हो सकते हैं और कमतर कल बेहतर हो सकते हैं. आज की समस्या कल नहीं रहेगी, तो यह भी संभव है कल कोई और बड़ी समस्या पैदा हो जाए."
'‘हूं… अपने-अपने नसीब की बात है."
‘'नहीं. अपने-अपने कर्म की बात है. धर्म से कर्म इसीलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि धर्म करके भगवान से मांगना पड़ता है. जबकि कर्म करने से भगवान को ख़ुद ही देना पड़ता है."
'‘मतलब?’'
‘'यदि तुम उदासी को ही अपना नसीब मानकर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहोगी, तो भगवान भी कोई चमत्कार नहीं करेगा. हर हाल में ख़ुश रहना, ख़ुद को समर्थ और सार्थक बनाना सीखो.’'
'‘पर मैं अकेले क्या कर सकती हूं पापा?’'
'‘संघर्ष में इंसान अकेला ही होता है. सफलता में दुनिया उसके साथ होती है.'’ पापा पूरी तरह प्रवचन के मूड में आ गए थे. और ऐसा तभी होता था जब वे बहुत गंभीर होते थे. ‘'… अंकल ने अभी बताया न कि कैंप में कैसे मैं अकेला ही तैराकी आदि सीखने के लिए संघर्ष करता रहा. लेकिन मुझे सफलता मिलते देख धीरे-धीरे अन्य लोग भी आ जुटे.’'
‘'हूं…'’


‘'बेटी, पहले तो हर हाल में ख़ुश रहना सीख. मैं रिटायर होकर मुंबई तेरे भाई के पास आया, तो मेरा वहां मन नहीं लगा. फिर धीरे-धीरे मैं बच्चों से घुलने-मिलने लगा, उनसे कंप्यूटर सीखने लगा. तेरी डॉक्टर भाभी को अक्सर नाइट शिफ्ट में हॉस्पिटल जाना पड़ता है और तेरा भैया ऑफिस से देरी से लौटता है. दोनों बच्चे मुझसे बतियाते अक्सर मेरे ही पास सो जाते हैं. तभी तो वे सब मुझे मिस कर रहे हैं और जल्दी लौटने का आग्रह कर रहे हैं. यहां मेरा मीकू के साथ भी मन लग गया है. मैं उसको होमवर्क करवा देता हूं. फिर कुछ देर हम चेस खेलते हैं…’'
‘'चेस? लेकिन मीकू को तो आता ही नहीं है?’'
‘'मैंने सिखा दिया है. फिर हम कुछ वक़्त कंप्यूटर पर बिताते हैं. फेसबुक से उसने ही तो मुझे जोड़ा है और वहीं तो मुझे गोविंद मिला. जब मैं इस उम्र में हर जगह मन लगा सकता हूं, कुछ सीख और सिखा सकता हूं, तो तू क्यों नहीं? मैंने सवेरे भी तुझे सलाह दी थी, तुझे जो कंप्यूटर लैंग्वेजेस सीखनी हैं उनकी क्लासेस जॉइन करने का यह सही वक़्त है. तुझे अकेलापन भी नहीं खलेगा और तेरा अनुभव और योग्यता भी बढ़ जाएगी. यदि सूरज की वापिस यहां पोस्टिंग न हो, तो तू वहां करवा लेना. यह अतिरिक्त योग्यता तब बहुत काम आएगी… बेटी, यदि तुम किसी चीज़ को पाने के लिए संघर्ष नहीं कर सकते, तो फिर उसे खो देने पर उसके लिए रोओ भी मत.’'
मेरी आंखें चमकने लगी थीं. पापा ने तो एक झटके में ही मेरी परेशानी का हल ढूंढ़ निकाला था. मुझे वह मंत्र मिल गया था, जिससे उदासी कभी मेरे चेहरे पर स्थायी रूप से घर बनाने का साहस ही नहीं कर सकती थी. पापा की सदाबहार स्फूर्ति का राज़ जीवन का यही मंत्र ही तो था-
हिम्मतवालों का इरादा अधूरा नहीं रहता.
जिस इंसान की इच्छाशक्ति बुलंद हो,
उसके जीवन में कभी अंधेरा नहीं रहता.

संगीता माथुर


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Photo Courtesy: Freepik


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