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कहानी- रिश्तों का बोझ (Short Story- Rishton Ka Bojh)

मेरा मन तो कह रहा है कि अतुल भैया ज़रूर आएंगे, पर सारा घर अड़ा हुआ था. इन्होंने तो यहां तक कह दिया था, “तुम्हें बुरा लगता है, इसलिए मैंने आज तक कभी कहा नहीं, पर अब मुझे लगता है कि तुम क्यों अकेले रिश्तों का बोझ ढोए चली जा रही हो? उतार फेंको इसे. आज इस बात की परीक्षा हो जाएगी कि यह रिश्ता सिर्फ़ तुम्हारी वजह से है या तुम्हारे अतुल भैया भी इसे मानते हैं.”

आज एक अनहोनी हो गई है. पिछले अड़तीस वर्षों में जो नहीं हुआ, वह आज हो गया. अड़तीस वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ कि मैंने अतुल भैया को राखी नहीं बांधी.
स्मिता, मेरी बेटी मेरे पास आकर बोली, “मम्मी, दोपहर हो गई. दो बज गए हैं. मैंने टेबल पर आपका खाना भी लगा दिया है. पापा व राजू आपका इंतज़ार कर रहे हैं. खाना खा लो.”
“देखो स्मिता, तुम्हें पता है कि जब तक मैं भैया को राखी न बांध लूं, खाना नहीं खाती हूं. अभी तो दोपहर ही हुई है. क्या पता, अभी तेरे मामा आते ही हों और मैं खाना खाकर बैठ जाऊं, यह ठीक नहीं. तुम लोग खा लो. मैं उनका इंतज़ार करूंगी.” मैंने स्मिता को जवाब दिया.
“मम्मी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा उपवास ही हो जाए.” चलते-चलते स्मिता बोली.
क्या सचमुच ऐसा ही होगा? मैं शंका से सिहर उठी. यदि ऐसा हुआ तो? ‘नहीं! ऐसा नहीं होगा’, विश्‍वास की गुथी हुई डोर से प्रत्युत्तर मिलता है. मैं आश्‍वस्त हूं. अतुल भैया आएंगे, ज़रूर आएंगे. मन को सांत्वना देती हूं. निगाहें घड़ी की सुइयों पर जा ठहरती हैं, जो मिनट-मिनट में आगे बढ़ रही हैं. अपने मन में झांककर देखना चाहती हूं. मन में दबी हुई अतीत की परतें एक-एक कर खुलती जाती हैं.
बड़ी-सी हवेली है हमारी. चाचाजी, पिताजी और ताऊजी हम सब रहते हैं हवेली के अलग-अलग हिस्सों में मिल-जुलकर. हम तीन भाई और तीन ही बहनें हैं, चाचाजी के दो लड़के और दो लड़कियां. बस, ताऊजी का एक ही बेटा है अतुल. अकेले है. न कोई भाई और न कोई बहन.
मुझे याद है, तब मैं बहुत छोटी थी, जब मुझे ताईजी ने रक्षाबंधन के दिन गोदी में उठाकर कहा था कि यह मेरी छोटी बेटी है, यह बांधेगी अपने अतुल भैया को राखी. और उन्होंने जल्दी-जल्दी मुझे नया फ्रॉक पहनाया, मेरे बालों में रिबन बांधा और छोटी-सी थाली में रोली, राखी तथा मिठाई रखकर पकड़ा दी.
“ले बांध मीनू अपने अतुल भैया को राखी.”
अतुल भैया ने एक बार मेरी ओर देखा, मुस्कुराए और फिर अपना हाथ आगे बढ़ा दिया. मैंने अपने नन्हे हाथों से राखी बांध दी और ताईजी ने मुझे चूम लिया.
“बस, आज से मीनू ही है अतुल की प्यारी बहन. यही राखी बांधा करेगी अतुल को.” उन्होंने कहा और यह इबारत मेरे दिल पर बहुत गहरे अक्षरों से लिखी गई. इससे पहले अतुल भैया ने रो-रोकर हवेली सिर पर उठा रखी थी, “मैं भी अपनी बहन से ही राखी बंधवाऊंगा.”
लक्ष्मी, सोनाली, मधु- तीनों दीदी ने कोशिश की और फिर अंजू ने भी, पर आठ वर्ष के अतुल भैया किसी से भी राखी बंधवाने को तैयार ही नहीं थे. वे मचल रहे थे, रो रहे थे, चीख रहे थे और जब मधु दीदी ने ज़बर्दस्ती उनके हाथ में राखी बांधी तो उन्होंने उसे ग़ुस्से में तोड़कर फेंक दिया.
“मेरी कोई बहन नहीं है. मैं तो अपनी बहन से ही राखी बंधवाऊंगा. इनमें से कोई भी मेरी बहन नहीं है.” अतुल भैया का रोना रुक ही नहीं रहा था.

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मां, चाचाजी व ताईजी सब आंगन में खड़े थे. ताईजी की तो आंखों से आंसू भी बह रहे थे अपने लाडले बेटे की ज़िद पूरी न कर पाने की विवशता में.
करें तो क्या करें? इतने में उन्हें मेरा ध्यान आया और फिर वे मुझे गोदी में उठाकर अतुल भैया के पास ले गईं. तीन साल की ही थी मैं तब जब ताईजी के कहने पर अतुल भैया मुझसे राखी बंधवाने को तैयार हो गए. बच्चे के चेहरे पर मुस्कान आते ही सबके उदास चेहरे खिल उठे. तब से अब तक मैं ही अतुल भैया को राखी बांधती आई थी. इसमें कभी कोई व्यवधान नहीं पड़ा. यूं तो अवसर बहुत आए थे.
हमारा मध्यमवर्गीय परिवार था और फिर घर में छह बच्चे. पिताजी की आय भी बहुत अधिक नहीं थी. अतः बच्चों को अधिक नहीं पढ़ा सके. बड़ी बहनों की तो मैट्रिक करते ही शादी कर दी थी. पर मैं ज़रूर बी.ए. कर पाई थी, वह भी ज़िद करके. जब मैं नहीं मानी तब पिताजी ने कहा, “चलो, पढ़ लेने दो आगे. आजकल के लड़के भी पढ़ी-लिखी पत्नी चाहते हैं.” तो यूं कहिए कि अच्छा लड़का मिल जाने की लालच में ही उन्होंने अपनी बेटी को आगे पढ़ने की आज्ञा दी थी और फिर मुझसे प्राइवेट परीक्षा देने के लिए फॉर्म भरवा दिया. मेरे दोनों भाई नौकरी करते थे और एक भाई किराने की दुकान चलाता था. सबकी गृहस्थी ठीक ही चल रही थी. सब अपने-अपने घर-परिवार में सुखी थे.
मैं पता नहीं क्यों उस दिन से ही ताईजी की बेटी व अतुल भैया की बहन बनकर रह गई. सच पूछिए तो मुझे अपने भाई-बहनों से इतना लगाव नहीं रहा, जितना अतुल भैया से था और है. मैं अधिकतर ताईजी के पास ही रहती. वहीं खाती, वहीं से तैयार होकर स्कूल जाती. मेरा ताईजी के घर में एकाधिकार हो गया था. वैसे तो वे मेरे सगे ताऊजी हैं, अतः सभी भाई-बहन समय-असमय आकर ताईजी से कुछ भी मांग लेते, कुछ भी कह देते. लेकिन उनका ताऊजी से कुछ भी मांगना मुझे बहुत बुरा लगता. ऐसे लगता जैसे हमारे घर की वस्तु कोई दूसरा व्यक्ति ले जा रहा है. धीरे-धीरे समय बीतता गया.
अतुल भैया इकलौते थे, अतः ताऊजी के हिस्से की पूरी संपत्ति उनको मिली और उनके लिए ताऊजी ने सोने के आभूषणों की दुकान खुलवा दी. हमारे परिवार में संपन्न वही थे. उन्होंने कार भी ले ली थी. भाभी भी अच्छे परिवार की थीं.
पिताजी ने मेरी भी शादी कर दी. पांचों भाई-बहनों की शादी का ख़र्चा उठाते-उठाते उनका हाथ बहुत तंग हो गया था. अतः मेरी शादी में उन्हें कर्ज़ भी लेना पड़ा. ऐसे समय में ताईजी ने बहुत मदद की. वे मुझे बहुत प्यार करती थीं. एक सोने का सेट उन्होंने मेरी शादी में दिया. दस बढ़िया-बढ़िया साड़ियां दीं.. इनके लिए सोने की चेन व घड़ी का इंतज़ाम भी उन्हीं ने किया. ताईजी ने हमेशा मुझे अपनी बेटी की तरह ही समझा. पर मेरी शादी के चार वर्ष बाद ही वे चल बसीं.
अतुल भैया का स्वभाव कुछ अलग क़िस्म का है. न ज़्यादा किसी से मिलना-जुलना और न अधिक प्यार-मोहब्बत. अब तक तो आगे ब़ढ़कर ताईजी ही प्रेम बांटती आई थीं और रिश्तों का निर्वाह भी उन्हीं के द्वारा ही हो रहा था. उनके पश्‍चात् मैंने ही इस रिश्ते का पूरा निर्वाह किया. जब भी राखी आती, मैं ही दौड़कर मायके जाती और अतुल भैया को राखी बांधकर आती. बचपन से ही इसे मैं अपना उत्तरदायित्व समझती आई थी कि अतुल भैया का हाथ खाली न रह जाए. मैं जब भी जाती, भाभी भी अच्छी तरह से मिलतीं, बात करतीं व लौटते समय एक सुंदर-सी साड़ी देकर मुझे विदा करतीं. वैसे भी मैंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया कि वे मुझे क्या उपहार देती हैं या नहीं देती हैं. मैं तो अपना कर्त्तव्य निबाहे जा रही थी.
एक बार स्मिता के पिता बहुत बीमार हो गए थे. मेरी ननद भी आई हुई थी. ऐसे में रक्षाबंधन आया और मैं जल्दी से जाने के लिए तैयार हो गई. मायके जाने में मुझे छह घंटे लगते थे. स्मिता, मेरी सास व ननद सबने मना किया कि अगर इस राखी को तुम नहीं जाओगी तो क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा. अगली राखी पर चली जाना. यदि इतना ज़रूरी है तो अपने अतुल भैया को फ़ोन कर दो. वे आ जाएंगे, पर मेरा मन नहीं माना. कार तो मेरे पास थी नहीं. आना-जाना बस से ही पड़ता था. राखी से एक दिन पहले गई व अगले दिन दोपहर तक लौट आई. कहा तो किसी ने कुछ नहीं. पर मुझे मालूम है कि सबको बहुत बुरा लगा था.

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अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं. राजू भी सोलह साल का है और स्मिता अठारह की. पता नहीं इस बार इन बच्चों को क्या ज़िद चढ़ी है कि हमारे भाई-बहन के रिश्ते का इम्तिहान लेने पर उतारू हो गए हैं. और तो और इनके पापा भी इनके साथ मिल गए. कल मैंने जाने की तैयारी शुरू की, लेकिन तीनों ही अड़ गए कि आज आप वहां नहीं जाओगी. इस बार हमारे अतुल मामा को ही आने दो राखी बंधवाने के लिए. क्या राखी का महत्व स़िर्फ आपके लिए ही है, उनके लिए नहीं? और तीनों ही ने मुझसे शर्त भी लगा ली कि देखना आपके अतुल भैया यहां नहीं आएंगे.
अब तक अतुल भैया मेरी ससुराल एक बार भी नहीं आए थे. अतः इन सबकी यही धारणा थी कि यह एकतरफ़ा रिश्ता है, जिसे स़िर्फ मैं ही निबाहे जा रही हूं. कल मुझसे बच्चों ने अतुल भैया को फ़ोन करवाया. भाभी मिलीं फ़ोन पर और मुझे उनसे कहना पड़ा कि भाभी, मैं बीमार हूं. इस बार राखी बांधने नहीं आ सकूंगी. आप व अतुल भैया कल आ जाइए. भाभी ने मेरी बीमारी के विषय में पूछा और फिर कहा,  “ठीक है. पर मैं पक्का नहीं कह सकती हूं, फिर भी कोशिश करेंगे.”
मेरा मन तो कह रहा है कि अतुल भैया ज़रूर आएंगे, पर सारा घर अड़ा हुआ था. इन्होंने तो यहां तक कह दिया था, “तुम्हें बुरा लगता है, इसलिए मैंने आज तक कभी कहा नहीं, पर अब मुझे लगता है कि तुम क्यों अकेले रिश्तों का बोझ ढोए चली जा रही हो? उतार फेंको इसे. आज इस बात की परीक्षा हो जाएगी कि यह रिश्ता सिर्फ़ तुम्हारी वजह से है या तुम्हारे अतुल भैया भी इसे मानते हैं.”
सुबह से मैंने काफ़ी तैयारी की है, पर शाम के चार बज गए. लेकिन अभी तक भैया का कहीं कोई अता-पता नहीं है. मेरा मन धीरे-धीरे बैठता जा रहा है. एक बेचैनी मन में है, एक कुलबुलाहट है, ‘क्या मैं ही अब तक यह एकतरफ़ा रिश्ता निबाहे चली जा रही थी? ओह, कहीं भैया या भाभी यह न समझते हों कि मैं कुछ लेने के उद्देश्य से ही उनको राखी बांधने जाती हूं. अगर ऐसा है तो मेरे लिए इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या होगी? अच्छा ही है, आज इस बात का पता चल ही जाना चाहिए. हमसे तो यह आज की पीढ़ी अधिक समझदार है, जो भावुकता में नहीं बहती. यथार्थ के ठोस धरातल पर पैर रखती है.
पांच बज गए थे. मेरी निगाह बार-बार घड़ी की ओर उठ रही थी. सच पूछिए, तो मैंने भी आशा छोड़ दी थी- भैया अब नहीं आने वाले.

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ज्यों ही छह बजे मेरा धैर्य जवाब दे गया. स्मिता मेरे सामने थी और मैंने उसे कह दिया कि वह मेरा खाना लगा दे. मुझे लग रहा था कि पूरा घर मुझ पर व मेरी बेवकूफ़ी भरी भावुकता पर हंस रहा है. अब जो है, सो है. मुझे इन सब का धन्यवाद करना ही चाहिए कि इन्होंने असलियत से मेरा परिचय करवा दिया है. मुंह में कौर डालने ही वाली थी कि लगा घर के बाहर कार आकर रुकी है. दौड़कर दरवाज़ा खोला, तो देखा अतुल भैया, भाभी व राहुल उतर रहे हैं. पता नहीं, मुझे क्या हुआ कि भाभी से लिपटकर मैं फूट-फूटकर रो पड़ी और वे हैरान-सी मुझे चुप करा रही थीं. अतुल भैया मेरी पीठ थपथपाकर कह रहे थे, “क्या हो गया है तुझे? क्या तबीयत ज़्यादा ही ख़राब है? मुझे एक पार्टी को बहुत ज़रूरी सोने का सेट बनाकर देना था, इसीलिए देर हो गई. और देख मैं तेरे लिए क्या लाया हूं?”
मैं उनसे कह नहीं पाई कि आज अगर आप न आते तो बच्चों ने जो मेरी अग्नि परीक्षा ली थी, उसमें मैं बहुत बुरी तरह असफल होती.
थोड़ी देर में मैं भैया के हाथों में राखी बांध रही थी और भाभी मुझे प्यार से सोने की चेन पहना रही थीं. मैं मन ही मन कह रही थी, ‘भाभी, आप मुझे सोने की चेन के बदले एक फूलों की माला ही दे दिया करो, जिससे यह रिश्तों का बोझ मैं सहर्ष उठा सकूं.’

डॉ. अनुसूया त्यागी

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