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कहानी- खुला रहेगा द्वार (Short Story- Khula Rahega Dwar)

Dr. Vinita Rahurikar
विनीता राहुरीकर

“हम सब तेरे साथ हैं, आगे भी रहेंगे. सारे उपहारों के साथ ही मैं एक आश्‍वासन का छोटा सा उपहार भी तुझे देना चाहती हूं कि मेरे मन के द्वार और घर के द्वार हमेशा तेरे लिए खुले रहेंगे.” अंजना ने नम आंखों से कहा, “क्योंकि जीवन रिश्तों से अधिक महत्वपूर्ण है.”

गैस पर उबलती चाय की भाप के पार देखती अंजना जाने क्या सोच रही थी. चाय उबल रही थी और उसमें से उठती भाप जैसे उसके अंतर से उठ रही थी. सब कुछ अच्छा था, लेकिन तब भी जाने क्यों एक अजीब सी बेचैनी मन को लगातार साल रही थी.

“अरे भई चाय बनी कि नहीं या चाय बागान से पत्तियां तोड़ने गई हो.”

बाहर से प्रकाश का चिरपरिचित हास्य से भरा जुमला सुनकर अंजना अपनी तंद्रा से बाहर आई. और कोई दिन होता तो वह भी पलट कर मज़ेेदार सा उत्तर देती, “नहीं अभी पेड़ उगा रही हूं. उग जाएं तब पत्तियां तोड़कर चाय बनाऊंगी.”

लेकिन आज उसने चुपचाप कपों में चाय छानी. आंखों के कोरों पर जाने कब से हल्की सी नमी छायी हुई थी, आंचल से उसे पोंछती वह ट्रे में चाय के कप और नमकीन लेकर बाहर आई.

“यह देखो कार्ड वाले ने कार्ड के कुछ डिज़ाइंस व्हाट्सऐप किए हैं. इनमें से कोई पसंद हो तो ठीक, वरना मुझे लगता है कि उसकी शॉप पर जाकर ही पसंद करें तो ठीक है. तुम्हारा क्या ख़्याल है?” प्रकाश ने मोबाइल पर कार्ड दिखाते हुए उससे पूछा.

“कार्ड छपवाने की ऐसी भी क्या जल्दी है. अभी तो शादी में तीन महीने बाकी हैं.” अंजना बोली.

“अभी तो पसंद करने में ही चार-आठ दिन निकल जाएंगे. फिर छापेंगे, भेजे जाएंगे. और फिर लोकल में तो घर-घर बांटने में ही 15दिन ऐसे निकल जाएंगे कि पता ही नहीं चलेगा. शादी के सैकड़ों काम होते हैं. समय से सब हो जाए, वही ठीक रहेगा.” प्रकाश ने कहा.

“ठीक कहते हैं आप. यह दो कार्ड अच्छे तो लग रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि वहीं जाकर देख आएं, तो ज़्यादा अच्छा रहेगा.” अंजना ने हामी भरी.

“तो एक काम करो, जल्दी से तैयार हो जाओ. कार्ड का काम आज ही कर लेते हैं. 15 दिन बाद आरुषि आ जाएगी, तो उसके साथ समय बिताने का मन करेगा. उसके आने के पहले बाहरी काम निपटा लेते हैं, ताकि शादी के पहले कुछ दिन तो उसके साथ चैन से रह सकें.” बेटी की याद में प्रकाश का गला भर आया और वह भावुक से हो उठे.

“ठीक है मैं अभी तैयार होकर आती हूं. आप भी पैंट-शर्ट बदल लीजिए.” अंजना ने प्रकाश का हाथ थपथपाते हुए कहा.

कार्ड पसंद करने में डेढ़ घंटे से ज़्यादा समय लग गया. बेटा-बहू ईशा-अनुराग और आरुषि को वीडियो कॉल पर कार्ड का डिज़ाइन पसंद करवाना आसान नहीं था. कभी नेटवर्क ख़राब हो जाता, कोई कार्ड ईशा को पसंद आता, तो अनुराग मना कर देता. अनुराग को पसंद आता, तो ईशा और आरुषि मना कर देती. बड़ी मुश्किल से एक कार्ड पर जैसे तैसे सबकी सहमति बन पाई.

प्रकाश ने प्रिंटर को एक-दो दिन में मैटर पहुंचा देने का वादा करके उसे कुछ एडवांस दिया और दोनों वहां से बाहर निकले. छोटी-मोटी चीज़ जो याद आ जाती, वह अंजना ख़रीद लेती. कॉफी हाउस से डोसा खाकर दोनों रात साढ़े दस बजे घर पहुंचे.

प्रकाश देख रहे थे कि अंजना दिन-ब-दिन उदास और अनमनी होती जा रही है. वे यही समझते थे कि बेटी की विदाई का सोचकर वह उदास है. लेकिन पढ़ाई के चलते बच्चे बारहवीं के बाद साथ रह ही कहां पाते हैं. अनुराग ने तो ग्रेजुएशन भी बाहर से ही किया. आरुषि को अंजना ने बाहर नहीं जाने दिया था. ग्रेजुएशन यहीं से करवाया, लेकिन एमबीए करने वह बेंगलुरु गई और फिर वहीं नौकरी करने लगी. अनुराग तो पहले से ही हैदराबाद में था.

“क्या बात है अंजना इतनी उदास क्यों हो? बेटी को तो विदा करना ही पड़ता है और फिर आरुषि तो पिछले तीन साल से बेंगलुरु में ही है. एक तरह से पढ़ाई और नौकरी के चलते बच्चे शादी के पहले ही विदा हो जाते हैं आजकल तो.” प्रकाश ने उसे सांत्वना सी देते हुए कहा.

“सही कहते हैं आप.” अंजना ने मुस्कुराते हुए उन्हें आश्‍वस्त किया और अपने मन की भावनाएं छुपा गई. नहीं बता पाई कि वह किस डर से मन ही मन जूझ रही है और कौन सा डर उसे भीतर से खाए जा रहा है.

छोटी-मोटी तैयारी में एक महीना कहां बीत गया, पता ही नहीं चला. प्रकाश ने कैटरर, होटल, हॉल, मेहमानों के उपहार आदि सारे काम पूरे कर लिए थे. बाहर के मेहमानों को कार्ड कुरियर करके फोन भी कर दिए.

आरुषि के आ जाने के बाद वे स़िर्फ अपनी बेटी के साथ निश्‍चिंत होकर रहना चाहते थे. महीने भर बाद आरुषि आ गई. वह वर्क फ्रॉम होम लेकर आई थी और महीने भर की छुट्टी उसने बाद में ली थी. ड्रॉइंगरूम के एक कोने में उसने अपने लिए एक टेबल-कुर्सी रख ली काम करने के लिए.

“अरे बेटा, तुम्हारा कमरा टेबल सब है तो... यहां तुम्हें असुविधा होगी काम करने में.” प्रकाश ने कहा.

“कोई असुविधा नहीं होगी पिताजी. यहां बैठूंगी तो भले ही काम करती रहूंगी, लेकिन आप और मां सामने दिखते तो रहेंगे.” आरुषि ने प्रकाश के कंधे पर सिर रखते हुए कहा.

प्रकाश ने मुस्कुरा कर उसके सिर पर हाथ फेरा. बेटियां माता-पिता के प्रति कितनी संवेदनशील होती हैं. सुबह साढ़े आठ बजे से आरुषि चाय-नाश्ता करके लैपटॉप लेकर काम करने बैठ जाती. प्रकाश उसके सामने वाले सोफे पर बैठकर चुपचाप अख़बार पढ़ते रहते. अंजना सब्ज़ी काटने आ बैठती. भले ही तीनों आपस में बात नहीं करते, लेकिन एक साथ रहते.

नाश्ता, खाना सब आरुषि की पसंद का बनता. बेटी के आ जाने से अंजना के चेहरे पर थोड़ी सी प्रसन्नता दिखाई देने लगी थी. लेकिन जब भी वह अकेले में कोई काम करती रहती, तब अचानक ही वह तनाव से घिर जाती थी. प्रकाश यह भांप लेते थे कि कोई तो बात है, जो उसे मन ही मन परेशान कर रही है, लेकिन पूछने पर वह टाल जाती कि ऐसी कोई बात नहीं है.

शनिवार-रविवार आरुषि की छुट्टी रहती, तो तीनों शॉपिंग पर चले जाते. ज्वेलरी, कपड़े, काम का कहीं अंत ही नहीं लगता. बेटी की शादी में प्रकाश कोई कमी नहीं रखना चाहते थे. वह नहीं चाहते थे कि आरुषि की कोई भी इच्छा बाकी रह जाए. वे मानो अपनी पूरी पूंजी उस पर लुटा देना चाहते थे. अंजना और आरुषि टोकतीं तो प्रकाश हंस देते.

“अरे तुम दोनों क्यों चिंता करती हो, मुझे पता है कितना ख़र्च करना है. मैं उतना ही करूंगा. तुम तो बस जो पसंद हो, वह ख़रीद लो. पैसे की चिंता मुझ पर छोड़ दो.”

दो दिन ख़रीदारी में कैसे निकल जाते, पता ही नहीं चलता. फिर भी लिस्ट कम नहीं हो रही थी. उसका ससुराल इसी शहर का था. जब पराग शादी के लिए छुट्टी लेकर आया, तब आरुषि की सास उसे कपड़े और गहने पसंद करवाने के लिए ले गई. फिर शादी के लहंगे और साड़ियों के ब्लाउज़ सिलवाने की भागदौड़. अंजना थककर चूर हो जाती, लेकिन तब भी उत्साह से सारे काम करती. खाने के लिए प्रकाश ने ज़िद करके कुक रखवा दी थी, क्योंकि अब बेटा-बहू भी आने वाले थे. 15 दिन पहले ही दोनों आ गए. घर भरा-भरा सा लगने लगा. तीनों तीन कोनों में बैठे अपना-अपना काम करते रहते, लेकिन लंच सब साथ करते. और तभी शाम की या छुट्टी वाले दिन की शॉपिंग का कार्यक्रम बन जाता.

शादी के दिन नज़दीक आते जा रहे थे और अंजना का तनाव और घुटन बढ़ता जा रहा था. वह अपने मन का डर किसी से कह भी नहीं पा रही थी. जीवनभर जिस डर और आशंका से वह ख़ुद के लिए तनावग्रस्त रही, आज वही डर उसे अपनी बेटी के लिए महसूस हो रहा था.

बहुत छोटी थी अंजना जब उसकी बड़ी बुआ की शादी हुई थी. लेकिन तब भी सब समझती थी. अपनी बड़ी बेटी की शादी बड़े धूमधाम से की थी दादाजी ने. दो बेटों के बाद पहली बेटी होने के कारण वह दादाजी की विशेष लाड़ली थी. पैसा पानी की तरह बहाया था दादाजी ने, लेकिन शादी के कुछ ही महीने बाद बड़ी बुआ आकर बताती थी कि पति और ससुरालवाले उन्हें बहुत प्रताड़ित करते हैं. उनके शरीर पर हमेशा नीले निशान पड़े रहते हैं. वह हमेशा गिड़गिड़ाती कि उन्हें ससुराल ना भेजा जाए, मगर दादाजी दो छोटी बेटियों का वास्ता देकर उन्हें वापस भेज देते.

“तुझे घर में रख लूं, तो तेरी छोटी बहनों के ब्याह में कितनी अड़चन आएगी. हमने तो ब्याह करके अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी तेरे प्रति. अब तू जाने तेरा नसीब. अब वही तेरा घर है. तुझे वहीं निबाह करना है. रिश्ता तो हर हाल में निभाना पड़ता है.”

अंजना को ये शब्द अब तक याद थे और बहुत आश्‍चर्य हुआ था उसे कि बेटी का ब्याह करने तक की ही ज़िम्मेदारी रहती है माता-पिता की, जैसे वह कोई ऋण है जो चुका दिया और हाथ झटक लिए. दादी और पिताजी, चाचाजी कोई कुछ नहीं कह पाता. हर बार बुआ को यही समझाया जाता कि घर में छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़े तो होते रहते हैं, इस कारण कोई घर थोड़े ही छोड़ देता है. अंजना आज भी कांप जाती है वह दिन याद करके जब बड़ी बुआ दादाजी के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाई थी, “बाबा, मुझे मत भेजो वहां, वह लोग मुझे मार डालेंगे. मैं तुम्हारे घर का झाड़ू-पोंछा, बर्तन सब काम कर दूंगी. मुझे एक कोने में पड़ी रहने दो.”

लेकिन दादाजी ने उन्हें वापस भेज दिया और चार दिन बाद वह जलकर मर गई या उन्हें जलाकर मार डाला गया. अंजना के बाल मन पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा. शादी के बाद पिता के घर के दरवाज़े बेटी के लिए बंद क्यों हो जाते हैं. वह मेहमान की तरह चार दिन के लिए आए और चली जाए, तो ही अच्छी लगती है बस. लेकिन उसके लिए वापसी के द्वार हमेशा बंद ही रहते हैं.

जब अंजना का विवाह हुआ, तो वह बरसों तक इसी डर में जीती रही कि कहीं ससुराल में उसके साथ बुरा व्यवहार हुआ तो वह कहां जाएगी. कितने साल वह ससुराल में सहज होकर जी नहीं पाई, जबकि प्रकाश और उसके घरवालों का व्यवहार बहुत अच्छा था. क्या ही अच्छा हो यदि बेटी को विवाह में ढेर सारे उपहार, आशीर्वादों के साथ ही माता-पिता यह आश्‍वासन भी दें कि यदि जीवन में उसे कभी भी कोई ज़रूरत पड़े, वह किसी अनचाही स्थिति में पड़ जाए तो पिता के घर के दरवाज़े हमेशा उसके लिए खुले रहेंगे. वह कभी भी अपने घर वापस आ सकती है. लेकिन ऐसा होता नहीं है और बहुत बार बेटी चुपचाप सहती रहती है सब कुछ.

आज अंजना अपनी बेटी के लिए वही डर महसूस कर रही है अपने भीतर, लेकिन किसी से कुछ कह नहीं पा रही थी.

ईशा के आ जाने से अंजना की आधी ज़िम्मेदारी तो कम हो गई. शाम को पार्लर ले जाना, छोटी-छोटी चीज़ों की शॉपिंग करवाना आरुषि को, उपहार पर लोगों के नाम की चिट लगाना, पैकिंग करना सब उसने कर दिया.

समय जैसे पंख लगा कर उड़ गया और आरुषि की शादी का दिन भी आ गया. शादी शहर के एक शानदार होटल में रखी थी. आरुषि दुल्हन के जोड़े में तैयार बैठी थी. अंजना उसके कमरे में पहुंची. ईशा और आरुषि की मामा-मौसी की बेटियां बाहर चली गईं. कल तक गोद में खेलती आरुषि आज नए जीवन में प्रवेश करने के लिए लाल जोड़े में सजी खड़ी थी. अंजना ने बेटी को गले लगाकर अपने पास बिठा लिया.

“देख बेटा, तू पढ़ी-लिखी है, अपने पैरों पर खड़ी है. पराग भी बहुत अच्छा लड़का है. तुझे हमेशा ख़ुश रखेगा. लेकिन...” कहते हुए अंजना हिचक गई.

“क्या मां, कहो ना.” आरुषि ने उसके कंधे पर सिर रखते हुए कहा.

“तू ख़ुद कमाती है, मैं जानती हूं तू अपना ध्यान रख सकती है. मगर ईश्‍वर न करे कभी कोई बुरी परिस्थिति आए, तो ख़ुद को कभी अकेला मत समझना. भले ही तू लव मैरिज कर रही है, लेकिन हम सब तेरे साथ हैं, आगे भी रहेंगे. सारे उपहारों के साथ ही मैं एक आश्‍वासन का छोटा सा उपहार भी तुझे देना चाहती हूं कि मेरे मन के द्वार और घर के द्वार हमेशा तेरे लिए खुले रहेंगे.” अंजना ने नम आंखों से कहा, “क्योंकि जीवन रिश्तों से अधिक महत्वपूर्ण है.”

“यह छोटा सा नहीं मां, किसी भी बेटी के लिए सबसे बड़ा उपहार है. तुम नहीं जानती तुम्हारे इस उपहार ने, इस आश्‍वासन ने मुझे कितने विश्‍वास से भर कर आश्‍वस्त कर दिया है कि मेरा एक घर तो हमेशा बना रहेगा. थैंक यू मां... थैंक यू सो मच मुझे आज जीवन का यह सबसे बड़ा उपहार देने के लिए.” आरुषि ने उसके कंधे पर सिर रखते हुए उसे गले लगा लिया.

“और मां मैं? कभी अनुराग ने मुझसे झगड़ा किया तो?” ईशा पता नहीं कब अंदर आ गई थी.

“अरे तू भी मेरी बहू नहीं बेटी है. तेरे लिए भी मेरे घर के, मन के द्वार सदा खुले रहेंगे.” अंजना ने हंसते हुए ईशा को भी बांहों में भर लिया.

“और आरुषि, मां की ही तरह मेरे मन और घर के द्वार भी हमेशा तेरे लिए खुले रहेंगे.” ईशा ने कहा.

तीनों की आंखों में आंसू थे, लेकिन यह आंसू विश्‍वास, प्रेम और आश्‍वस्ति की ख़ुशी के थे कि एक द्वार उन लोगों के लिए एक-दूसरे के मन में सदा खुला रहेगा.

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