रेटिंग: ****
अक्सर काग़ज़ों पर जितने काम, न्याय, सफलताएं लिखी, बताई और पढ़ी जाती है, वो क्या वाकई में उतनी ही सही और मुक़म्मल होती हैं..? यही ज्वलंत सवाल उठाती है फिल्म काग़ज़ 2. निर्माता-निर्देशक-अभिनेता सतीश कौशिक की यह आख़री फिल्म रही, लेकिन अपने अंतिम फिल्मी सफ़र में वे हम सब को इस कदर बेहतरीन फिल्म दे गए, इसके लिए उनका तहेदिल से शुक्रिया! आज वे हमारे बीच नहीं हैं, परंतु काग़ज़ 2 उनकी यादगार और उत्कृष्ट फिल्म के रूप में हमेशा याद की जाएगी.
सतीशजी का एक आम पिता रस्तोगी के रूप में दर्द, ख़ुशी, सिस्टम के प्रति नाराज़गी, इंसाफ़ के गुहार के लिए संघर्ष हर रंग, हर रूप में लाजवाब परफॉर्मेंस रहा है. जाते-जाते वे एक ऐसे गंभीर विषय पर हम सभी को सोचने को मजबूर कर देते हैं, जिस पर हमारा ध्यान तो जाता है, पर न ही हम सोचते हैं और न ही न्याय के लिए आवाज़ ही उठाते हैं. धरने, राजनीतिक रैलियां, बंद, हड़ताल सब पर सख़्त कदम उठाने चाहिए, फिल्म देखकर यही प्रेरणा मिलती हैं.
कैसे सतीश रस्तोगी की यूपीएससी टॉपर बेटी आर्या रस्तोगी, जो भविष्य में आईपीएस अधिकारी बन सकती थी, किंतु दुर्घटना होने पर सड़क पर राजनीतिक रैली के कारण समय पर हस्पताल नहीं पहुंच पाती और दम तोड़ देती है. जहां बेटी का सपना अधूरा रह जाता है, वहीं माता-पिता की इकलौती बेटी उनका प्यार, अभिमान, गौरव सब कुछ उसके जाने के साथ बिखर सा जाता है. एक आम परिवार की ख़ास कहानी प्रस्तुत करती है काग़ज़ 2.
बेटी को खो चुके पिता नहीं चाहते कि औरों के साथ भी ऐसा हादसा हो, इस कारण वे आर्या को इंसाफ़ दिलाने और नेताओं को इस बात का एहसास कराने कि उनके आए दिन होनेवाली रैलियां, जुलूस, हड़ताल आदि से न जाने कितने कॉमन मैन की इच्छाएं, ज़रूरतें, ख़्वाब टूटकर चकनाचूर हो जाते हैं. फिल्म के तमाम दृश्यों को देखते हुए यूं लगता है, जैसे हम उसे जी रहे हैं, महसूस कर रहे हैं. हमें भी इस मुद्दे पर सोचने-समझने की आवश्यकता है. कहीं हम भी तो अन्याय होने पर चुप रहकर ग़लती तो नहीं कर रहे!..
सतीश कौशिक का कोर्ट में अपनी बात रखनेवाला सीन तो आंखें ही नम कर देती हैं. जब सतीशजी अपनी प्रतिभाशाली बेटी का बखान करते हुए बताते हैं कि किस तरह हज़ारों विद्यार्थियों के बीच उनकी बेटी ने उनके सीतापुर, गांव-जिले में ही नहीं देश में टॉप किया था. वो कितनी ख़ुश थी, परिवार ने कितने सपने देखे थे, योजनाएं बनाई थीं…
सच! क्या हमारे यहां रैलियां, जुलूस, नेताओं के काफ़िले आदि द्वारा ट्रैफिक जाम करनेवालों को ज़रा भी इस बात का एहसास होता है कि उनकी वजह कोई शख़्स अपने बेटे तक नहीं पहुंच पाता है, वो दम तोड़ देता है… कोई स्टूडेंट एग्ज़ाम हॉल तक नहीं पहुंच पाती, उसका पूरा साल बरबाद हो जाता है… कोई बेहतरीन नौकरी पाने के लिए इंटरव्यू के लिए समय पर नहीं आने के कारण जॉब भी हाथ से जाता है और परिवार की आर्थिक परेशानियां अलग… ऐसे न जाने कितने आम लोग होंगे, जिन्होंने इस तरह की द़िक्क़तों को झेला होगा, पर कहीं कह नहीं पाए, गुहार नहीं लगा पाए.
जब दर्शन कुमार अपने पिता अनुपम खेर और गर्लफ्रेंड स्मृति कालरा के साथ मिलकर सतीशजी को इंसाफ़ दिलाने की लड़ाई में शामिल होते हैं. दर्शन-स्मृति कैंपेन, सोशल मीडिया द्वारा लोगों के सामने आर्या की कहानी को लाते हैं, वो सब सीन्स ज़बर्दस्त व देखने काबिल हैं.
दर्शन का अपना भी संघर्ष है. पिता बचपन में छोड़कर चले गए. जब उसे उनके साथ की ज़रूरत थी, तब वे उसके पास नहीं थे. दर्शन की अनुपम के साथ पिता-पुत्र के दृश्य व संवाद अच्छे हैं. दोनों की अपनी कहानी और संघर्ष है, जिसे निर्देशक वी के प्रकाश ने ख़ूबसूरती से फिल्माया है. दोनों इसमें ख़ूब जंचे भी हैं.
नीना गुप्ता ने भी राधिका की भूमिका में अनुपम की पत्नी के रूप में एक नारी के छल किए जाने और अपना स्वाभिमान बनाए रखने को बख़ूबी जिया है. उनके मित्र की भूमिका में करण राजदान को भी बहुत दिनों बाद देखना अच्छा लगा. दर्शन की गर्लफ्रेंड बनी स्मृति कालरा, राजनेता बने अनंग देसाई औैर जज बने किरण कुमार ने भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है. अन्य कलाकारों में अनिरुद्ध दवे, दारा सिंह खुराना, हैरी जोश, शबनम वढेरा, ऐश्वर्या ओझा और कृशिव अग्रवाल ने भी प्रभावित किया.
फिल्म का गीत-संगीत ठीक-ठाक है. तोशी-शारिब साबरी ने कुछ नया देने की कोशिश की है. कुछ गीत कर्णप्रिय हैं, ख़ासकर सुखविंदर सिंह और विशाल मिश्रा का गाया गीत. अनु मूथेदाथ की सिनेमैटोग्राफी सराहनीय है. संजय वर्मा की एडिटिंग यूं तो ठीक है, किंतु कुछ सीन्स छोटे किए जा सकते थे, क्योंकि कभी-कभी लगता है हम मुद्दे से भटक से रहे हैं.
शंशाक खंडेलवाल व अंकुर सुमन की कहानी पर की गई मेहनत सराहनीय है. उन्होंने यही कमाल काग़ज़ फिल्म में भी दिखाया था. जहां सतीश जी ने निर्देशक की बढ़िया भूमिका निभाई थी, पर काग़ज़ 2 में अभिनेता के तौर पर भी वे वाहवाही लूट ले जाते हैं.
निर्माता के रूप सतीश कौशिकजी की इस आख़िरी फिल्म में सहयोग दिया है गणेश जैन, रतन जैन, निशांत और शशि कौशिक ने. सतीश कौशिक एंटरटेनमेंट एलएलपी व वीनस वर्ल्डवाइड एंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड के बैनर तले बनी काग़ज़ 2 एक प्रंशसनीय कोशिश और सतीशजी की लाजवाब फिल्म है.
पहली बार इस तरह के विषय यानी रैलियों की वजह से एक आम नागरिक को न जाने कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है, को उजागर किया गया है. क्या उनका दुख और संघर्ष मायने नहीं रखता? हम वीआईपी लोग, बातों, चीज़ों में इतने उलझ गए हैं कि ख़ास की जगह आम को भुला ही बैठे हैं. यही बात हमें स्मरण कराती है काग़ज़ 2, जिसे हर किसी को देखना चाहिए और ज़िंदगी में अमल भी लाना चाहिए.
- ऊषा गुप्ता
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