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कहानी- हाईटेक जनरेशन (Short Story- Hightech Generation)

 
         
          डॉ. विनिता राहुरीकर
short story in hindi
सच ही है, इस हाईटेक जनरेशन को जन्म देनेवाले तो हम ही हैं! हमने उन्हें पारिवारिक मूल्य व महत्व सिखाए ही कहां? बचपन से ही उन्हें बड़ी-बड़ी डिग्रियां व मल्टीनेशनल कंपनियों में ऊंचे पद हासिल करने की शिक्षा देते रहे. भूल तो कहीं न कहीं हमसे ही हुई है. हमने ही इस पीढ़ी को रूढ़ियों को तोड़कर आसमान छूने के लिए प्रेरित किया. अब कैसे उम्मीद करें कि वे धरती पर घोंसला बनाकर रहें. 
  “मम्मी, तुम परसों किसी भी हालत में यहां पहुंच ही जाना. परसों मैं हॉस्पिटल में एडमिट हो जाऊंगी और अगले दिन सुबह ऑपरेशन हो जाएगा.” फोन पर अनन्या के मुंह से ये बातें सुनते ही वैशालीजी के हाथ-पैर फूल गए. “क्या बात है अनन्या? तुम्हारी डिलीवरी में तो अभी पूरे 17 दिन हैं. फिर अचानक क्या परेशानी आ गई कि एकदम से ऑपरेशन की इमर्जेंसी आ गई. सब ठीक तो है ना?” वे घबराकर बोलीं. ‘मम्मी, सब ठीक है. दरअसल, बात यह है कि ऑफिस में एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट आया है, जो किसी भी क़ीमत पर मुझे ही करना है. यदि मैं डिलीवरी की ड्यू डेट तक रुक गई, तो समय पर ऑफिस जॉइन नहीं कर पाऊंगी और वो प्रोजेक्ट मेरे हाथ से निकल जाएगा. मेरे करियर के लिए यह प्रोजेक्ट बहुत ज़रूरी है.” उधर से अनन्या का जवाब आया . “क्या?” वैशालीजी परेशान हो उठीं. “तुम एक मामूली प्रोजेक्ट के लिए अपने बच्चे की जान से खिलवाड़ कर रही हो. प्रीमैच्योर डिलीवरी करवा रही हो. अनन्या, तुम पागल हो गई हो क्या?” “ओह मम्मी! इतना परेशान मत हो. मैंने डॉक्टर से बात कर ली है. बच्चा पूरा डेवलप हो चुका है. कोई ख़तरा नहीं है. हां, यदि ज़रूरत पड़ी, तो 2-4 दिन इन्कुबेटर में रखना पड़ेगा बस.” अनन्या बोली . “अरे, तू मां है या कसाई. एक मासूम बच्चे से मां की कोख में पलने के नैसर्गिक अधिकार को भी छीन रही है.” वैशालीजी ने ग़ुस्से से कहा. “क्या करूं मम्मी? मेरी भी मजबूरी है. यदि मैं ऐसा नहीं करूंगी, तो मेरा करियर 4-5 साल पीछे चला जाएगा. तुम तो जानती हो, मैंने कितनी मेहनत से पढ़ाई की है और करियर बनाने के लिए संघर्ष किया है. अब अवसर मिला है अपनी मेहनत का फल पानेे का. तुम बस समय पर आ जाना.” अनन्या ने बिना वैशालीजी का जवाब सुने फोन रख दिया. वैशालीजी परेशान हो उठीं. ‘ये कैसी मां है? एक भौतिक वस्तु के चलते अपनी कोख में पलती नन्हीं-सी जान के साथ खिलवाड़ कर रही है.’ उनका मन किसी भी तरह से इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि बच्चे को यूं ज़बर्दस्ती समय से पहले जन्म दिया जाए. ‘मातृत्व तो कितना सुखद एहसास होता है. एक-एक पल अपने बच्चे को पेट के अंदर विकसित होते हुए महसूस करना, उसकी हलचल से आनंदित होना... और ये लड़की? असमय ही इस सुख से वंचित हो जाना चाहती है.’ वैशालीजी को उस अजन्मे शिशु की चिंता होने लगी व मन करुणा से भर उठा. वैशालीजी का मन जब बहुत परेशान हो गया, तो वे बाहर पति के पास जाकर बैठ गईं. वे पेपर पढ़ रहे थे. पेपर में नज़रें गड़ाए हुए ही उन्होंने पूछा, “क्या हुआ, फोन पर किस पर बरस रही थी?” “आपकी लाड़ली पर.” वैशालीजी भुनभुनाती हुई बोलीं. “क्यों? क्या हुआ?” पति की नज़रें पूर्ववत् पेपर पर जमी हुई थीं. तब वैशालीजी ने अनन्या से हुई सारी बातें कह सुनाईं. सुनकर शेखरजी भी स्तब्ध रह गए. पेपर एक ओर रखकर गुमसुम से बैठे रहे. कुछ देर तक इस विषय पर बातचीत करने के बाद शेखरजी ने कहा, “जो हुआ, सो हुआ, अब महत्वपूर्ण बात यह है वैशाली कि समय पर बैंगलुरू कैसे पहुंचें. भोपाल से बैंगलुरू डायरेक्ट फ्लाइट भी नहीं है. भोपाल से पहले मुंबई और फिर मुंबई से बैंगलुरू जाना पड़ेगा.” इतना कहकर शेखरजी ऑनलाइन टिकट बुक कराने लगे. “चलो इस हाईटेक ज़माने के कुछ फ़ायदे तो ज़रूर हैं.” वैशालीजी तो निश्‍चिंत थीं कि अभी बहुत समय है जाने में, लेकिन अब उन्हें जल्द से जल्द रवाना होना होगा. वे पड़ोस में जाकर उनके रसोइए से बात कर आईं कि जब तक वे नहीं हैं, वो आकर सुबह-शाम शेखरजी का खाना बना दिया करे. फिर वे अपना बैग तैयार करने लगीं. सोचा था कि 15-20 दिन वहां रहकर अनन्या व बच्चे को लेकर भोपाल आ जाएंगी. भाग्यवान है अनन्या, उसे भले सास-ससुर मिले हैं, वरना आजकल की लड़कियों के सामने करियर के चलते बच्चे पालना कितना मुश्किल हो जाता है. और करियर के चलते मां भी कहां बनना चाहती हैं वो. अनन्या की उम्र भी तीस पार हो गई थी. उसके सास-ससुर के सामने वे ख़ुद को अपराधी-सा महसूस करने लगी थीं, क्योंकि उनकी बेटी ही अपने करियर में नई ऊंचाइयों को छूने की हसरत में परिवार बढ़ाने को तैयार नहीं थी. जब अनन्या ने अपना 35वां बर्थडे मनाया, तब उन्होंने अनन्या के पास जाकर उसे ख़ूब समझाया. आयुष व उसके माता-पिता की इच्छा का मान रखने का वास्ता दिया, तब कहीं जाकर वह मां बनने को तैयार हुई. वो तो ईश्‍वर की कृपा से अभी तक सब ठीक-ठाक है और मां-बच्चे दोनों स्वस्थ हैं, नहीं तो पैंतीस की उम्र में प्रेग्नेंसी के समय कई समस्याओं की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. वैशालीजी सामान जमाते हुए सोचने लगीं कि पहले बेटियां प्रसव के लिए मायके आती थीं, अब मां को जाना पड़ता है. पहले ख़ुशख़बरी मिलते ही झबले सिलने और स्वेटर बुनने का कार्यक्रम शुरू हो जाता था. अब बाज़ार में सब रेडीमेड मिल जाता है. छोटी-छोटी बातों से जुड़ी हुई मातृत्व की नन्हीं-नन्हीं ख़ुुशियों के धागे इस पीढ़ी में विलुप्त हो गए हैं. नियत दिन सुबह ही वैशालीजी बैंगलुरू पहुंच गईं. ड्राइवर उन्हें लेने एयरपोर्ट पहुंच गया था. घर पहुंचीं, तो अनन्या व आयुष दोनों ही घर पर नहीं थे. आयुष तो ठीक है, लेकिन अनन्या को तो आज घर पर ही होना चाहिए था. सास ने बताया कि आज वो ऑफिस में अपने कुछ ज़रूरी काम पूरे करने गई है, क्योंकि कल से तो वो छुट्टी पर रहेगी. शाम के सात बजे अनन्या व आयुष घर आए. दूसरे दिन सुबह समय पर सभी लोग हॉस्पिटल पहुंच गए. अनन्या को ऑपरेशन थिएटर ले जाया गया. बाहर सभी आतुरता से नए मेहमान के आने की प्रतीक्षा करने लगे. चालीस मिनट बाद नर्स ने आकर ख़बर दी कि बेटा हुआ है. “बच्चा कैसा है?” “अनन्या कैसी है?” “बच्चा बाहर लाकर कब देंगे?” सब ने मिलकर ढेर सारे सवाल पूछ डाले. “बच्चा ठीक है. डॉक्टर चेकअप कर रहे हैं, थोड़ा समय लगेगा. अनन्या बिलकुल ठीक है. अभी स्टिचेस लग रहे हैं. थोड़ी देर में रूम में शिफ्ट कर देंगे.” नर्स ने मुस्कुराकर जवाब दिया व अंदर चली गई. सभी के चेहरों पर राहत के भाव आ गए. कुछ ही देर बाद अनन्या को रूम में शिफ्ट कर दिया गया. डॉक्टर नींद व पेनकिलर का इंजेक्शन देकर चली गई. वैशालीजी का मन बच्चे के लिए छटपटा रहा था. तभी नर्स ने आकर कहा कि नर्सरी में चलकर बच्चे को देख लें. वैशालीजी व उनकी समधन अरुणाजी दोनों नर्स के साथ चल पड़ीं. देखा, बच्चा इन्कुबेटर में है. गोरा, गदबदा, प्यारा-सा शिशु स़िर्फ डायपर पहने बिना कप़ड़ों के तेज़ लाइट के नीचे पड़ा रो रहा था. दोनों के दिल तार-तार हो गए. नानी, दादा-दादी, पिता- सब यहां पर हैं, लेकिन यह मासूम अपनों की गोद को तरसता हुआ यहां अकेला पड़ा रो रहा है. दोनों की आंखें भर आईं. पहली बार वैशालीजी को बेटी के उच्च शिक्षित होने व ज़िद करने पर बहुत क्रोध आया. नर्स के कहने पर कि यहां अधिक देर रुकने की इजाज़त नहीं है, बेमन से दोनों वापस आ गईं. वैशालीजी का मन बुझ-सा गया था. उन्हें अनन्या से बात तक करने का मन नहीं कर रहा था. छह दिन बाद, जब ‘बच्चा अब पूरी तरह स्वस्थ है’ कहकर डॉक्टर ने उसे घर ले जाने की बात करके वैशालीजी की गोद में दिया, तब उनके कलेजे को ठंडक मिली. अब वैशालीजी व अरुणाजी ही रात-दिन बच्चे की देखभाल करती रहतीं. अनन्या दिनभर फोन या लैपटॉप पर अपने ऑफिस का काम करती रहती. 20-22 दिन बाद ही उसने ऑफिस जॉइन कर लिया. अब तो वह इतना व्यस्त हो गई कि पांच मिनट भी बच्चे के पास बैठ नहीं पाती थी. अपनी बेटी का व्यवहार देखकर वैशालीजी उसकी सास के सामने संकोच से गड़ जातीं. आयुष तब भी बच्चे पर जान छिड़कता व जब भी समय मिलता बच्चे को संभालता. दिन बीतते जा रहे थे. शेखरजी अकेले उकता गए थे. वैशालीजी भी अब घर वापस जाना चाहती थीं. उन्होंने अनन्या से अपने साथ भोपाल चलने को कहा, पर उसने साफ़ मना कर दिया कि जिस प्रोजेक्ट के लिए उसने अपनी डिलीवरी जल्दी करवा ली, अब उसे छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकती. यदि वैशालीजी जाना चाहें, तो जा सकती हैं. वह बच्चे के लिए आया रख लेगी. वैशालीजी सन्न रह गईं. बच्चे को आया के हाथ सौंपने का तो वह सोच ही नहीं सकतीं. अनन्या बच्चे को जन्म देकर भी मां नहीं बन पाई. वैशालीजी ने कठोर शब्दों में उसे समझाना चाहा, तो वह बहुत मायूस व दुखी स्वर में बोली, “मम्मी, यह उच्च शिक्षा का भूत भी तो तुमने ही मेरे दिलो-दिमाग़ में भरा था न! तुम ख़ुद कितनी अधिक महत्वाकांक्षी थीं अपनी इकलौती बेटी को लेकर कि यह तो बेटों से भी अधिक ऊंचा मुक़ाम हासिल करेगी. और अब तुम चाहती हो कि मैं वहां से नीचे आ जाऊं, तो अब यह नहीं होगा. अब इस मुक़ाम को बरक़रार रखना और आगे बढ़ते जाना ही मेरी ज़िंदगी है, मेरा सपना है. तुमने ही दुनियाभर की महिलाओं के उदाहरण देकर मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया और अब नीचे खींच रही हो. कुछ दिन के लिए मेरी अब तक की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. तुमने पढ़ाई में हमेशा मेरा साथ दिया व मेरा हौसला बढ़ाया. कभी मैं थक जाती या परीक्षा के समय हताश हो जाती, तो तुम ही मेरा संबल बनतीं. मेरा मनोबल बढ़ातीं. तुमने पढ़ाई में मेरा इतना साथ दिया, अब ज़िंदगी के इम्तिहान में भी मेरा साथ दे दो.” फिर वह सास से बोली, “मुझे ग़लत मत समझिए. अपने बच्चे से मैं भी बहुत प्यार करती हूं. मैं उसके प्रति लापरवाह नहीं हूं. बस, मैं इतना जानती हूं कि मुझसे भी ज़्यादा प्यार करनेवाले सुरक्षित हाथों में है वो. आप दोनों के रहते मैं पूर्णतः निश्‍चिंत हूं. कुछ महीनों की बात है, बस मेरा साथ दे दीजिए प्लीज़.” इतना कहकर अनन्या अपना बैग उठाकर थके क़दमों से ऑफिस के लिए निकल गई. वैशालीजी व अरुणाजी एक-दूसरे से नज़रें चुराती हुईं चुपचाप अनन्या को जाते हुए देखती रहीं. सच ही है, इस हाईटेक जनरेशन को जन्म देनेवाले तो हम ही हैं! हमने उन्हें पारिवारिक मूल्य व महत्व सिखाए ही कहां? बचपन से ही उन्हें बड़ी-बड़ी डिग्रियां व मल्टीनेशनल कंपनियों में ऊंचे पद हासिल करने की शिक्षा देते रहे. भूल तो कहीं न कहीं हमसे ही हुई है. हमने ही इस पीढ़ी को रूढ़ियों को तोड़कर आसमान छूने के लिए प्रेरित किया. अब कैसे उम्मीद करें कि वे धरती पर घोंसला बनाकर रहेंगे. बस, चिंता तो अनन्या की सेहत की थी, लेकिन कुछ पाने का मूल्य तो हमेशा चुकाना पड़ता है. हमें अलग मूल्य चुकाने पड़े व इस हाईटेक जनरेशन को अलग मूल्य चुकाने पड़ेंगे. अनायास ही वैशालीजी व अरुणाजी को इस हाईटेक जनरेशन से सहानुभूति हो आई. बेचारी दोनों ही मोर्चे पर पिस रही है. दोनों देर तक अपनी सोचों में डूबी रहीं. अन्दर बच्चा नींद खुल जाने पर रोने लगा. बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर दोनों चौंक गईं व तत्परता से कमरे की ओर बढ़ गईं.  

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