कॉमेडी फिल्में हमेशा ही लोगों की पहली पसंद रहती हैं. फिल्म में कॉमिक पंचेज मज़ेदार हो, तो सोने पर सुहागा. कुणाल खेमू के निर्देशन में बनी 'मडगांव एक्सप्रेस' कुछ इसी तरह का भरपूर मनोरंजन करती है. तीन दोस्त हैं, जिनका बचपन से सपना रहता है गोवा में घूमना-फिरना, मौज-मस्ती करना, जो आख़िरकार बड़े होने पर पूरा होता है. पर मडगांव एक्सप्रेस ट्रेन द्वारा गोवा के लिए किया गया सफ़र आगे चलकर उन्हें कितना सफर (suffer) करवाता है, इसका लुत्फ़ तो फिल्म देखकर ही उठाया जा सकता है. गोवा में उन्हें न जाने कितनी ख़ुशियां, ग़म, परेशानी, गैंगस्टर का डर, आतंंक मिलता है, वो सब मज़ेदार है.
तीन दोस्त दिव्येंदु शर्मा, प्रतीक गांधी और अविनाश तिवारी… डोडो, पिंकू व आयुष की भूमिका में लाजवाब रहे. दो दोस्तों का विदेश में सेटल होना और कमाना, तो वहीं तीसरे दोस्त का मुंबई में रहकर फोटोशॉप के ज़रिए फिल्मी सितारे और सेलिब्रिटीज़ के साथ अपने फोटो लगाकर ख़ुद को अमीर और मशहूर बताना काफ़ी दिलचस्प और मज़ेदार होने के साथ सोशल मीडिया का किस तरह से मिसयूज़ होता है, इस पर व्यंग्य भी करता है.
दोस्तों का ड्रग्स, गैंगस्टर, पुलिस आदि के चक्कर में फंस जाना, चोर-सिपाही जैसी स्थिति और भागते रहना.. इस तरह की काफ़ी फिल्में बनी हैं, लेकिन अक्सर विषय आम होने के बावजूद उसकी ट्रीटमेंट और प्रेजेंटेशंस उसे ख़ास बना देती है. यहीं पर कुणाल खेमू ने अपना कमाल दिखाया है. उन्होंने फिल्म के निर्देशक, लेखक से लेकर पटकथा, संवाद, गीत-संगीत, गायकी, अभिनय हर क्षेत्र में अपना टैलेंट दिखाया. उनकी सब जगह ये दख़लअंदाज़ी चूभती नहीं, बल्कि मनोरंजन करती है.
अपनी पहली फिल्म के निर्देशन में कुणाल बाज़ी मार ले जाते हैं. उनमें बहुत टैलेंट भरा हुआ है, जो भविष्य में हमें देखने मिलेगा, ढाई घंटे की यह फिल्म भरपूर मनोरंजन करती है. वैसे फिल्म सेंसर बोर्ड में भी फंस गई थी और उसके क्लीवेज और बोल्ड वाले कई सीन्स को कट करने के निर्देश भी दिए गए थे.
एक्सेल एंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी मडगांव एक्सप्रेस से फरहान अख्तर व रितेश सिधवानी निर्माता के रूप में जुड़े हुए हैं. समीर उद्दीन का बैकग्राउंड म्यूज़िक और विजय गांगुली की कोरियोग्राफी कहानी के अनुकूल है. ज़ी म्यूज़िक कंपनी के संगीत में तो पूरी फौज है, जिसमें सागर देसाई, कुणाल खेमू, तोशी-शारिब साबरी, अजय-अतुल गोगावाले व अंकुर तिवारी हैं. आदिल अफ़सर की सिनेमैटोग्राफी लाजवाब है. संजय इंग्ले और आनंद सुबया चाहते तो फिल्म को थोड़ी और एडिट कर सकते थे.
दिव्येंदु शर्मा, प्रतीक गांधी और अविनाश तिवारी तीनों का अभिनय बढ़िया रहा है, विशेष करके दिव्येंदु पूरे फिल्म में छाए रहते हैं. प्रतीक गांधी ने भी दोहरी भूमिका निभाते हुए गज़ब का तालमेल बैठाया है. अविनाश थोड़े सीरियस हैं, मगर फिर भी जंचे हैं.
नोरा फतेही, रेमो डिसूजा, गैंगस्टर मेंडोजा के रूप में उपेंद्र लिमेय और कंचन कॉमेडी, छाया कदम ने भी अपनी दिलचस्प प्रस्तुति के साथ ख़ूब हंसाया. फिल्म इस रफ़्तार से चलती है कि दर्शकों को सोचने का मौक़ा ही नहीं देती और भरपूर मनोरंजन करती है.
- ऊषा गुप्ता
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