भारत के मशहूर धावक मिल्खा सिंह का कल देर रात चंडीगढ़ के अस्पताल में निधन हो गया. वे पिछले दिनों कोरोना से संक्रमित हो गए थे और अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. हालांकि उनकी कोविड टेस्ट नेगेटिव आ चुकी थी, लेकिन पोस्ट कोविड काप्लीकेशन्स के चलते उन्हें फिर आईसीयू में रखना पड़ा, जहां उनकी हालत बिगड़ती गई और तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका. मिल्खा सिंह के निधन पर आइये जानते हैं उनके जीवन संघर्ष से जुड़ी कुछ अहम बातें.
जो लोग सिर्फ भाग्य के सहारे रहते हैं, वह कभी सफलता नहीं पा सकते-मिल्खा सिंह
"हाथ की लकीरों से जिंदगी नहीं बनती, अजम हमारा भी कुछ हिस्सा है, जिंदगी बनाने में…’ जो लोग सिर्फ भाग्य के सहारे रहते हैं, वह कभी सफलता नहीं पा सकते. एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह ने कही थी ये बातें, जो ये बयां करती है कि सफलता के शिखर तक पहुंचने के लिए मिल्खा सिंह को कितना संघर्ष, कितनी मेहनत करनी पड़ी थी.
बंटवारे में माता-पिता, एक भाई और दो बहनों को खो दिया
मिल्खा सिंह का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब में एक सिख राठौर परिवार में 20 नवम्बर 1929 को हुआ था. उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा. वे अपने माँ-बाप की कुल 15 संतानों में वह एक थे. उनके कई भाई-बहन बचपन में ही गुजर गए थे. बचपन में ही भारत-पाकिस्तान बंटवारे का दर्द और अपनों को खोने का गम उन्हें उम्र भर सालता रहा. बंटवारे की आग में उन्होंने अपने माता-पिता, एक भाई और दो बहनों को अपने सामने जलते देखा.
ढाबों में बर्तन साफ किया, ताकि खाना मिल सके
इतना दर्दनाक मंजर देखने के बाद अपनों को खो चुके मिल्खा सिंह आखिरकार ट्रेन की महिला बोगी में सीट के नीचे छिपकर दिल्ली आ गए. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि विभाजन के बाद जब वह दिल्ली पहुंचे, तो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्होंने कई शव देखे. चारों तरफ खूनखराबा था. उस वक्त वो पहली बार रोए थे. दिल्ली पहुंचकर वो शरणार्थी शिविर में रहे. यहां वो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने फुटपाथ पर बने ढाबों में बर्तन साफ करने लगे, ताकि उन्हें कम से कम कुछ खाने को मिल सके. कुछ दिन दिल्ली में वह अपनी शादीशुदा बहन के घर पर भी रहे.
सेना में भर्ती हुए
इतनी तकलीफ देखने के बाद मिल्खा सिंह ने अपने जीवन में कुछ कर गुज़रने की ठानी. भाई मलखान सिंह के कहने पर उन्होंने सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया और चौथी कोशिश के बाद साल 1951 में सेना में भर्ती हो गए. इसके बाद क्रास कंट्री रेस में वे छठे स्थान पर आए. इस सफलता के बाद सेना ने उन्हें खेलकूद में स्पेशल ट्रेनिंग के लिए चुना.
ऐसे मिला फ्लाइंग सिख नाम
मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिख की उपाधि मिली थी और ये उपाधि उन्हें कैसे मिली, इसके पीछे भी दिलचस्प किस्सा है. 1960 में उन्हें पाकिस्तान में दौड़ने का न्यौता मिला, लेकिन बचपन की घटनाओं की वजह से वे वहाँ जाने से हिचक रहे थे. लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू के समझाने पर वह इसके लिए राजी हो गए. वहां उनका मुकाबला एशिया के सबसे तेज धावक माने जाने वाले अब्दुल खालिक से था. इस दौड़ में मिलखा सिंह ने सरलता से अब्दुल खालिक को ध्वस्त कर दिया और आसानी से जीत गए. कहते हैं वहां के मुस्लिम दर्शक उनसे इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुज़रते देखने के लिए अपने नक़ाब उतार लिए थे. ये जीत हासिल करने के बाद उन्हें पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान की ओर से 'फ्लाइंग सिख' का नाम मिला.
उपलब्धियाँ
• इन्होंने 1958 के एशियाई खेलों में 200 मी व 400 मी में स्वर्ण पदक जीते.
• इन्होंने 1962 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता.
• इन्होंने 1958 के कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण पदक जीता.
• मिल्खा सिंह 1959 में 'पद्मश्री' से अलंकृत किये गये.
• 2001 में भारत सरकार द्वारा अर्जुन पुरस्कार देने की पेशकश की गई, जिसे मिल्खा सिंह ने ठुकरा दिया था.
आखिरी इच्छा रह गई अधूरी
अपने 80 अंतरराष्ट्रीय दौड़ों में मिल्खा ने 77 दौड़ें जीतीं, लेकिन रोम ओलंपिक का मेडल हाथ से जाने का अफसोस उन्हें जीवन भर रहा. उनकी आखिरी इच्छा थी कि वह अपने जीते जी किसी भारतीय खिलाड़ी के हाथों में ओलंपिक मेडल देखें, लेकिन अफसोस उनकी अंतिम इच्छा उनके जीते जी पूरी न हो सकी. हालांकि मिल्खा सिंह की हर उपलब्धि इतिहास में दर्ज रहेगी और वह हमेशा हमारे लिए प्रेरणास्रोत रहेंगे.