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कहानी- बड़ी अम्मा (Short Story- Badi Amma)

माला कुछ पलों तक ठिठकी रही. ये क्या बोल गई हैं बड़ी अम्मा? सब कुछ देकर, अब ये भी कह रही हैं? थोड़ा आगे बढ़कर बोली, “बड़ी अम्मा! एक बार गले लगकर रो लेने दीजिए.” बड़ी अम्मा के भीतर कुछ दरकने लगा था. कल को चली जाएगी, क्या इससे मोह बढ़ाना? जितना मोह हो गया है, वही सीना छलनी किए दे रहा है. गले लगकर रो देगी, तो इसको कैसे विदा किया जाएगा? “नहीं माला, बहुएं गले थोड़ी लगती हैं, फिर हम तो तुम्हारी सास की भी सास हैं...”

बड़ी अम्मा को दरवाज़े पर खट-खट सुनाई दी, इतनी रात को चौकीदार के अलावा कौन होगा?

“हां, आ जाओ.” दरवाज़ा धीरे से खुला.

“आपका इनहेलर, पुराने वाले की डेट निकल गई थी, अभी मंगाया ये...” पहले धीमे से आवाज़ आई, फिर पतले-पतले हाथों में पकड़ा इन्हेलर दिखाई दिया और सबसे बाद में बोलने वाली का सूखा, मुरझाया चेहरा सामने आया.

“स्टूल पर रख दो.” बड़ी अम्मा ने इतना बोलकर चेहरा फेर लिया. पहले भी माला को देखकर ऐसा ही करती थीं, लेकिन अब चेहरा फेरने की वजह कुछ और थी. उनसे माला की ये हालत देखी नहीं जाती थी. भीतर जो उमड़ता था, उसके लिए कोई शब्द नहीं था लेकिन तकलीफ़ बहुत देता था.

साल भर पहले की बात रही होगी, जब माला की फोटो को उनके सबसे छोटे पोते अजय ने घर भर में घुमाकर ऐलान कर दिया था कि शादी तो इसी से करूंगा. जान-पहचान वाले लोग थे, घर में आना-जाना था. बात खुलते ही सबकी हालत ख़राब हो गई थी. लड़की की फोटो को देखकर नहीं, बल्कि ये सोचकर कि घर की मुखिया यानी बड़ी अम्मा तक ये बात जब पहुंचेगी तब होगा क्या? अब तक सारे रिश्ते बड़ी अम्मा ही तय करती आई थीं.  जितनी बड़ी हवेली थी, उतना ही बड़ा कद अम्मा जी का भी था. उनके कुल एक बेटा ही हुआ, लाख चाहकर भी दूसरे बच्चे की किलकारी हवेली में नहीं गूंजी. तब बड़ी अम्मा ईश्‍वर से दिन-रात एक ही प्रार्थना करतीं, “मेरे तो एक ही रहा, लेकिन आगे बनने वाला परिवार इतना बड़ा करना कि तिमंज़िला हवेली में शोर बना रहे.”

उनकी सुनी भी गई. उनके बेटे के तीन बेटे हुए, बहुएं आईं, उनके बच्चे हुए... हवेली भी भर गई और बड़ी अम्मा का रुतबा भी ऊंचा होता चला गया. हालांकि पहले तो वो केवल अम्मा थीं. लेकिन जब पहले पोते की शादी हुई, तो उन्होंने बारात निकलने से पहले ही अपनी बहू को बता दिया, “सुनो दुलहिन, तुम्हारी बहू तुमको क्या कहेगी?”

“मम्मी कहेगी... आप बताइए, क्या कहलवाएं?”

वो समझ रही थी कि कुछ तो अलग कहेंगी.

“तुम जो भी कहलवाओ, लेकिन हमको वो बड़ी अम्मा कहेंगी. पद का अंतर तो पता चले.”

“जी अम्मा.”  

कुछ इस तरह उन्होंने अपना नामकरण किया और अपने को सबसे ऊपर बैठाकर असीम आनंद की अनुभूति की. पोते की पत्नी ने बड़ी अम्मा कहा, फिर पोतों ने भी वही कहना शुरू किया. उसके बाद आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों के बीच यही संबोधन प्रचलित हो गया. दरअसल, ये केवल संबोधन भर नहीं था, सच में वो हर तरह से बड़ी ही थीं. बुद्धिमता में, ज़िम्मेदारी निभाने में, सही-ग़लत में अंतर करने में उनका कोई सानी नहीं था.

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जब पति नहीं रहे, तो व्यापार के हिसाब-किताब भी उनके ज़िम्मे आ गए. वहां भी कभी कोई भूल-चूक नहीं हुई. धीरे-धीरे बेटे ने, फिर उसके बेटों ने व्यापार को संभाला, कई गुना बढ़ाया. उनकी ये ज़िम्मेदारी तो कम हुई, लेकिन तब भी घर-परिवार के लिए वो एक बड़ा बरगद का पेड़ बनी रहीं और सब उनकी छाया में पलते रहे. सम्मान के साथ डर भी बना रहा और यह डर ही था, जो सब पर हावी था कि इस प्रेम विवाह की बात कैसे चलाई जाए? बड़ी अम्मा ने फोटो देखकर एक ही सवाल पूछा था, “कुछ किच-किच होगी,  तो हमारे पास तो नहीं आओगे न?”

अजय सबसे छोटा पोता था, सबसे ज़्यादा दुलारा, तुरंत लिपट गया, “आपके रहते किच-किच थोड़ी होगी बड़ी अम्मा! आप तो सबको साधे रहती हैं.”

बस उनको सुनना ही यही था. शादी के लिए इधर हां हुई, उधर एक के बाद एक रस्में होती चली गईं और महीने भर में माला, उनके पोते की बहू बनकर घर में आ भी गई.

“दादी...”

बेचारी ने घर में आते ही कितना बड़ा अपराध कर दिया था, वो ख़ुद नहीं जानती थी.

“तुमको तुम्हारी सास ने या अजय ने बताया नहीं कि हमको बड़ी अम्मा कहा जाता है!”

बस, यहीं से दूध में दही का जामन पड़ गया. माला उनको हर बीतते दिन के साथ थोड़ी और खटकती गई. बड़ी अम्मा को उसके मायके की गरीबी बहुत खटकती थी. उनको लगता था कि उस घर से इस घर का क्या जोड़ था भला? माला को टोकने का बड़ी अम्मा कोई मौक़ा नहीं छोड़ती थीं. कभी तो भरे परिवार के बीच बैठी बोल देतीं, “आजकल तो लड़कियां अपना दूल्हा चुन लेती हैं. पहले तो ब्याह के नाम से मर-गिर जाती थीं.”

कभी उसके यहां से फल, मिठाई, कपड़े आते,  तो उस ढेर की ओर देखती भी नहीं, उल्टा अपनी बहू को सुना देतीं, “माला के यहां से इतना ख़राब सामान आता है, तब भी अकड़ी रहती है. टेढ़ा मुंह बनाए रहती है. बाकी बहुएं देखो कितनी हंसमुख हैं.”

हालांकि इस बात में थोड़ी सच्चाई भी थी. कारण चाहे जो हो, माला के चेहरे पर मुस्कान देखना सचमुच दुर्लभ था. धीरे-धीरे इस बात की वजह भी सामने आ गई. अजय को शराब की लत ने धर दबोचा था. कभी-कभी से शुरू हुआ ये नशा, पहले हर रात में तब्दील हुआ, उसके बाद रात-दिन का अंतर भी ख़त्म हो गया. बड़ी अम्मा के डर से पहले तो ये बात उनके सामने लाई नहीं गई. फिर जब सामने आई, तो उन्होंने अपने बेटे-बहू को लताड़ा, “बच्चे नहीं पाल पा रहे हो तुम दोनों? सिविल लाइंस वाली ज़मीन बेचकर कोई फैक्ट्री डालो. काम का बोझ बढ़ेगा, तो ख़ुद ही लाइन पर आ जाएगा.” सुझाव अच्छा था, इस पर काम भी शुरू हुआ, लेकिन जिस रात वो ज़मीन बेचकर सब वापस आ रहे थे. वो रात इतनी काली होगी किसको पता था? कार का भयंकर एक्सीडेंट हुआ था, बाकी लोगों को जो लगी सो लगी, कार चलाता अजय तो घटनास्थल से सीधे आईसीयू ही पहुंचा था. बड़ी अम्मा ने मंदिर की चौखट पर सिर रख दिया था. न खाना न पीना, बस एक ही गुहार, “मेरे अजय को वापस भेजो भगवान.”

कुछ घंटों बाद अजय वापस आ भी गया था, लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह वो चाहती थीं. शोर मचाती हुई एंबुलेंस के भीतर रखा मात्र शरीर आया था. अजय तो बहुत दूर चला गया था. बड़ी अम्मा ने भीतर की पूरी शक्ति इकट्ठा करके उस पल का सामना किया था और उस पल के बीतने के बाद वो ख़ुद भी जैसे प्राणहीन हो गई थीं.

दिन, हफ़्ते, महीने बीते... उनके भीतर की एक-एक दीवार ध्वस्त होती चली गई. दुनिया भर की बीमारियों ने आ घेरा. कभी चश्मे का नंबर बढ़ जाता, कभी हाथ-पैर संतुलन खो देते. डॉक्टर इसको बढ़ती उम्र का नाम देकर पर्चे पर हर रंग की दवा लिख देते. बड़ी अम्मा उनसे कह भी न पातीं कि जिस रंग की दवा उनको चाहिए, वो तो आसमान में कहीं खो चुका है. वो दीन-दुनिया से बेख़बर हो चुकी थीं और शायद ऐसी ही बनी भी रहतीं अगर उस दिन माला उनसे वो सवाल न पूछ लेती.

“बड़ी अम्मा, आपके बगल वाला कमरा खाली है, उसमें अपना सामान रख दूं?”

वो चिहुंक उठी थीं. ये तो शुरू से तय था कि हवेली की सबसे नीचे वाली मंज़िल पर वो अकेले ही रहेंगी. अगल-बगल के कमरे तो घरेलू सहायक-सहायिका के लिए थे.

“क्यों? तुम सबको ऊपर तीन-तीन कमरे मिले हैं, उसमें सामान नहीं रखा जा सकता?” बोलते हुए माला के सूने चेहरे पर उनकी निगाह पड़ गई थी. आज महीनों बाद उससे इतनी देर बात हो रही थी. लग रहा था जैसे बीते कुछ महीनों में उसका वज़न घटकर आधा रह गया हो.

“नहीं बड़ी अम्मा... जगह है, सोचा कि यहीं रहें तो कहीं आना-जाना हो तो इतनी सीढ़ियां बार-बार चढ़ना-उतरना...”

बड़ी अम्मा थोड़ा और सुलग गई थीं. क्या है ये लड़की? इतना आलस? पहले वाली तेज़ी रहती, तो हड़काकर उसको भगा देतीं. अब बात वो नहीं थी. कुछ सोचकर बोलीं, “अभी जाओ, बताएंगे बाद में.” उसके जाने के बाद बड़ी अम्मा सोच में डूबी रहीं. हवेली के एक कोने में पड़े, रात-दिन रोते कितने महीने बीत गए. घर के लोग आते हैं, मिलते हैं, हाल पूछते हैं. ये सब तो एक तरफ़ की बात है. वो तो सबसे मुंह मोड़ चुकी हैं. वो तो अपने दुख के आगे दूसरे का दुख देखती ही नहीं. बेटे-बहू ने भी तो अपना बच्चा खोया, पोतों ने अपना भाई गंवाया, सबके हाल-बेहाल होंगे. जितना सोचतीं, उतना ही अपराधबोध के तले दबती जातीं.

“आज शाम को सब साथ खाना खाएंगे.” मन के भीतर उठी इच्छा को उन्होंने ज़ाहिर भी कर दिया था. बरामदे में मेज़ लगेगी, सब साथ बैठेंगे.. दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने आकाश की ओर देखा, “जाने वाला गया, लेकिन जितने हैं सब साथ बने रहें.” जाने क्या बैर था उनका, उनकी प्रार्थना से. ये भी पूरी नहीं हुई. खाने की मेज़ पर बस बेटा, बहू और माला. न दोनों पोते, न उनकी बहुएं, न उनके बच्चे. बड़ी अम्मा को धक्का सा लगा.

“बाकी सब कहां हैं?” बेटे ने नज़रें चुरा लीं.

“अरे अम्मा, आप खाना खाओ, वो सब बिना टीवी देखे खाते नहीं न, तो नीचे आए नहीं.” बड़ी अम्मा से निवाला निगलते न बना. ये पूरे जीवन में पहली बार हुआ था, उनकी बात इस तरह नकार दी गई? धीरे-धीरे सब समझ में आ रहा था. बरगद सिकुड़कर डालियां बटोर ले, तो ग़लती उसी की हुई न? एक बार छांव की आदत छूटी तो फिर कोई नहीं तले बैठना चाहता. वो जितना इस बारे में सोचतीं, उतना ही अपने को दोषी ठहरातीं. कितना कुछ बदल गया... और जितना बदला है, वो तो पूरी तरह से अभी सामने भी नहीं आया है.

चार-पांच दिनों में बड़ी अम्मा ने बहुत कुछ बदला. कमरे से बाहर निकलकर बरामदे में बैठना शुरू किया. आने-जाने वालों को उन्होंने देखा, और आने-जाने वालों ने घर की मुखिया को पहले की तरह चौकन्ना देखा. माला अक्सर कहीं जाती थी. उन्होंने बहू से पूछा, “ये तुम्हारी छोटी वाली, माला... कहां जाती है झोला लेकर?”

“कुछ क्लास है उसकी, फैशन डिज़ाइन वाली. आपसे पूछा तो था अम्मा?”

बड़ी अम्मा ने दिमाग़ पर ज़ोर डाला. हां, याद तो आ रहा, ज़िक्र उठा था.

“इसके मायकेवालों ने कहा होगा कि साथ चलो. काहे नहीं गई?” बोलते हुए उनकी आवाज़ भर आई. अजय की अनुपस्थिति फिर आकर कचोट गई.

“आपको तो पता नहीं अम्मा, क्या-क्या हुआ यहां. इसके पिता हाथ जोड़कर कह गए थे कि अब आप ही लोग संभालो.” बोलते-बोलते वो रुकी, फिर आसपास देखकर बोली, “ज़मीन-जायदाद के चक्कर में नहीं ले जा रहे होंगे कि यहां रहेगी तो हिस्सा मिलेगा. अच्छा बताइए अम्मा, अब इसका क्या हिस्सा है यहां? रह रही है, खा-पी रही है, कोर्स की फीस भर दी, कार से आ-जा रही थी, बहुत नहीं है इतना? मायके में तो ये सब भी नहीं मिलेगा...”

बड़ी अम्मा ‘हूं...’ कहकर रह गई थीं. बड़ी अजीब बातें थीं.

“मायके वाले ऐसे कैसे कट गए?” जवाब भी उनको ख़ुद ही मिला.

उनके भाई ने भी तो यही कह दिया था, जब अजय के दादा उनको छोड़कर गए थे. ज़माना बदल गया, कौन कहता है? आज भी वही सोच है, बेटी ब्याहकर जान छुड़ाने वाली सोच! चलो, कोई बात नहीं. यहीं रहे, कोर्स करे, जीवन तो कट ही जाएगा. बस इतना सोचकर वो आश्‍वस्त हो ही पातीं, तब तक फिर वही हुआ. माला ने अगले दिन वही सवाल फिर से पूछ लिया था, “वो आपने बताया नहीं बड़ी अम्मा... बगल वाला कमरा ले लूं?”

पिछली बार पूछे गए इस सवाल और इस बार वाले सवाल में एक अंतर था. सामान रख दूं? कमरा ले लूं? अंतर बड़ा था. अंतर में प्रश्‍न था. सवाल का जवाब या तो ऊपर इसके कमरों को देखकर पता चल सकता था या किसी और से पूछकर. सीढ़ियां चढ़ना बड़ी अम्मा के लिए संभव नहीं था. हां उत्तर कहीं और से नीचे ज़रूर आ सकता था. एक-एक करके घरेलू नौकर-नौकरानी को उन्होंने विश्‍वास में लिया और एक-एक पर्त उतरते-उतरते असली बात कड़वे बीज की तरह बाहर आ गिरीे.

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अजय के जाने के बाद माला की हालत एक अवांछित मेहमान जैसी हो चुकी थी. उसकी दोनों जेठानियों, सास ने उसकी ज़रूरत को अपनी सीमा में बांध दिया था. तीन कमरों में एक कमरा उसके लिए बहुत रहेगा, कितना काम उसके लिए ठीक रहेगा, उसके ख़र्चे, उसका रहन-सहन, उसका बाहर आना-जाना, घूमना, ख़रीदारी... सब कुछ बाकी लोग तय कर रहे थे.

“उनके पास एक कमरा बचा है, उसमें भी बच्चों के खिलौने, किताबें भरी रहती हैं, तभी तो छोटी भाभी यहां रहना चाहती हैं.”

बड़ी अम्मा का मुंह कसैला हो गया था. छिः उनके अपने घर में ये सब चल रहा था? उस घर में जिसकी वो मुखिया हैं? भीतर का आत्मविश्‍वास डोल उठा, अब हैं भी? जांच ही लिया जाए. कुछ फ़रमान जारी किए गए, जिनमें कि अपनी मंज़िल पर खाली पड़े दो कमरे साफ़ करवाकर माला का सामान रखवाना मुख्य था. दूसरा आदेश था सब सदस्यों के ज़िम्मे क्या काम हैं, बताए जाएं. उसमें भी बड़ा घालमेल था. घूम-फिरकर सारी ज़िम्मेदारी माला पर रख दी गई थी. सबके जाने के बाद बड़ी अम्मा ने अपनी बहू को आड़े हाथों लिया, “तुम कर क्या रही हो? सबके हिस्से काम रखो न, क्यों किसी से डरना?”

उसने साफ़ कह दिया, “देखिए अम्मा, रहना हमें इन्हीं दो बेटों के सहारे है. इन लोगों को तो नाराज़ नहीं कर सकते न.”

पहली बार बड़ी अम्मा को लगा कि उनका सिंहासन जर्जर होने पर आमादा है और इससे पहले कि टूट जाए, इस पद की महत्ता तो सबको समझानी ही पड़ेगी. उनका ये पद, ये कुर्सी अब तक कोई छीन नहीं पाया था, ठोस वजह थी. चल-अचल संपत्ति पूरी तरह से अभी भी उनके ही नाम थी. रात-दिन बस एक ही बात दिमाग़ में घूमती रहती, वही सवाल गूंजता रहता, जो सवाल उन्होंने माला से उस दिन पूछ ही लिया.

“तुम इतना ध्यान काहे रखती हो मेरा?”

माला अगली सुबह क्लास जाने से पहले जैसे ही कमरे में आई, बड़ी अम्मा ने सीधे यही पूछा.

“कहां रख पाती हूं? ये जो इनहेलर मंगा दिया, ये ख़्याल रखना थोड़ी हुआ.”

बड़ी अम्मा ने गला खंखारा, “देर न हो रही हो तो बैठो थोड़ी देर. आगे क्या करोगी? ये डिज़ाइन वाले कोर्स से नौकरी मिलेगी?” माला ने हिचकते हुए कहा, “बुटीक खोलने का सोचा है बड़ी अम्मा. पहले सहेली के बुटीक का काम संभालती थी. अच्छा लगता था.”

वो निश्‍चिंत हुईं. लड़की मेहनती है यानी.

“तो कब होगा कोर्स पूरा? कब खुलेगा वो?”

“कोर्स तो बस हो ही जाएगा, बैंक से लोन मिलना सबसे बड़ा सिरदर्द है.”

बड़ी अम्मा के दिल पर मानो घूंसा सा लगा. इतने बड़े घर की बहू अपना काम शुरू करने के लिए बैंक का दरवाज़ा खटखटा रही है! पता नहीं घर में यह सब कोई जानता भी है कि नहीं?

“तुमने अपनी सास को बताया है यह सब?” “हां, मम्मी से एक बार चर्चा की थी.”

यह जानकर बड़ी अम्मा के दुख का पारा थोड़ा और ऊपर चढ़ गया. माला से तो उन्होंने कुछ

नहीं कहा, लेकिन उसके जाने के बाद क़रीब घंटे भर तक वो अजय की फोटो को देखकर रोती रहीं. जाने क्या-क्या पूछती रहीं, कुछ कुछ बताती भी रहीं. जब बातचीत पूरी हो गई तब वकील को फोन किया. अब वो समय आ चुका था, जिसको आने से सबका समय बदलने वाला था. अगले कुछ दिनों के भीतर उनकी वसीयत तैयार हो चुकी थी. पूरे घर में हलचल थी. बार-बार वकील का आना-जाना सबको खटक रहा था. उससे भी ज़्यादा खटक रहा था, हर बार बड़ी अम्मा का अकेले में उससे बात करना.

एक शाम बहू ने आकर मन टटोला, “क्यों अम्मा जी, कुछ क़ानूनी चक्कर हुआ है क्या? वकील साहब पिछले हफ़्ते भी आए थे, परसों भी, कल भी...”

बड़ी अम्मा तो जैसे इसी सवाल के इंतज़ार में थीं, “सोच रहे हैं, अपने जीते जी सब कुछ सबके नाम कर जाएं.”

“सबके नाम क्या? कुल एक बेटा है आपके.”

बड़ी अम्मा ने तीन उंगलियां ऊपर उठा दीं, “और उसके तो तीन हैं...”

अजय के लिए ‘था’ जैसा शब्द उनसे बोलते न बना. गला भर आया था, फिर भी बोलीं,  “इतवार को वकील साहब आएंगे. सबको बुला लेना. सबके सामने वसीयत पढ़ी जाएगी.” इससे पहले कभी किसी ने यह देखा-सुना नहीं था. अपने जीवनकाल में, अपने रहते अपनी वसीयत पढ़कर सुनाना, एक अलग ही बात थी. पूरा परिवार जुटा. बड़ी अम्मा को वो भी कम लगा. कुनबे के और लोग भी बुलाए गए. एक कोने में माला भी खड़ी थी. वकील साहब ने पढ़ना शुरू किया. सबके चेहरे पर इत्मीनान था, थोड़ा आश्‍चर्य भी... इतनी ईमानदारी से हिस्सा बंटा हुआ था कि किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी. अंत में माला का हिस्सा बताया गया. सबकी भृकुटि तनी! इसके दो कारण थे, एक तो सबके हिस्से तब मिलने थे, जब बड़ी‌ अम्मा परलोक यात्रा पर निकल जातीं, लेकिन माला के लिए उन्होंने जो कुछ रखा था, वो तुरंत ही उसको मिलना था. दूसरी बात, जो रकम अजय की फैक्ट्री के लिए रखी थी, वो पूरी उन्होंने माला के नाम कर दी थी. बड़ी अम्मा ने सबको देखकर कहा, “किसी को कुछ कहना हो तो अभी कह दे.”

अजय के बड़े भाइयों ने एक-दूसरे की ओर देखकर समवेत स्वर में कहा, “सबसे ज़्यादा तो आपने माला को दे दिया. पूरा जोड़ें तो करोड़ों गए उधर...”

बड़ी अम्मा ने बिना आवाज़ ऊंची किए कहा, “जो ज़मीन तुम लोगों के नाम है, वो भी इतने की ही है. रुपया झोले में रहता है तो ज़्यादा दिखता है.” सबने, सबके चेहरे पढ़े. असंतृप्त, असंतुष्ट चेहरे. बड़ी अम्मा ने कुछ और भी पढ़ा, उन चेहरों पर विद्रोह भी था. उन्होंने वकील साहब से अगली पंक्ति पढ़ने को कहा. वकील साहब ने हिचकते हुए कहा, “ये सब इनकी स्वाभाविक मृत्यु के बाद ही सबको मिलेगा. यदि बड़ी अम्मा पर कोई हमला होता है, तो सब कुछ ट्रस्ट में चला जाएगा. यही बात छोटी बहू के लिए भी लागू होती है. उनका एक्सीडेंट होता है या हत्या होती है तो उनको मिली संपत्ति ट्रस्ट को दे दी जाएगी.”

बड़ी अम्मा ने महसूस किया, बरामदे में जमा परिवार जड़ होकर रह गया था. मातम जैसा माहौल, सबके चेहरे स़फेद! उनकी आंखें आंसुओं से धुंधली हो गईं. ये था मेरा परिवार, जिसकी मुखिया बनकर मैं तनी रहती थी? सब किस बात पर नाराज़ थे? माला के साथ हुई ईमानदारी, सबको उनके साथ हुई बेइमानी क्यों लग रही थी? बड़ी अम्मा, कुर्सी का सहारा लेकर खड़ी हुईं. देह से ज़्यादा तो मन लड़खड़ा रहा था. माला के अलावा उनको किसी और ने सहारा नहीं दिया. उसका हाथ थामे बिस्तर पर लेटी रहीं. माला कुछ कहते-कहते बार-बार रुक रही थी.

“क्या कहना है माला, बोलो?”

“मुझे ये सब नहीं चाहिए बड़ी अम्मा! आप अपना आशीर्वाद बनाए रखिए. कोर्स पूरा होते ही कहीं काम ढूंढ़ लूंगी. मैं अपना ध्यान रख लूंगी.”

बड़ी अम्मा ने आंखें मूंद लीं. आंसू निकलते चले गए, कांपती आवाज़ में बोलीं, “तुम तो अपना ध्यान रख लोगी, लेकिन जब हम ऊपर जाएंगे, अजय पूछेगा कि माला के लिएक्या करके आई हो तब हम क्या बोलेंगे?”

माला उनका हाथ थामे फूट-फूटकर रो पड़ी थी. बड़ी अम्मा चुप थीं, अभी बात अधूरी थी. “अब तुम यहां नहीं रहना. एक अलग घर ख़रीदो, अपने मायकेवालों के साथ रहो. अपनी वो कपड़े वाली दुकान.. बुटीक खोलो.”

माला चुपचाप सुनती जा रही थी. बड़ी अम्मा सहारा लेकर उठीं. सामने रखी काठ की आलमारी खोलकर एक पोटली लेकर आईं. माला से कहकर कमरे का दरवाज़ा बंद कराया. पोटली उसके हाथ में रख दी, “ये गहने हमारी अम्मा ने दिए थे. किसी को नहीं पता इनके बारे में. देखो, दो बातें याद रखना.”

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बड़ी अम्मा को कितना कुछ, कितनी जल्दी बताना था.

“माला, जो कुछ तुम्हारे नाम किया है, वो सब अपने ही नाम रखना. भले ही रेशम की झोली हो, रुपया-पैसा भीतर न हो तो किसी काम की नहीं.. और...”

बड़ी अम्मा ने पोटली खोलकर गहनों पर ऐसे हाथ फिराया, जैसे अपनी अम्मा का स्पर्श महसूस कर रही हों, “और दूसरी बात.. कोई अच्छा लड़का देखना. इन गहनों को पहनकर एक बार फिर मंडप में बैठना. अजय वहां से देखता होगा, ऐसा सूना चेहरा उसको अच्छा थोड़ी लगता होगा.”

माला कुछ पलों तक ठिठकी रही. ये क्या बोल गई हैं बड़ी अम्मा? सब कुछ देकर, अब ये भी कह रही हैं? थोड़ा आगे बढ़कर बोली, “बड़ी अम्मा! एक बार गले लगकर रो लेने दीजिए.”  

बड़ी अम्मा के भीतर कुछ दरकने लगा था. कल को चली जाएगी, क्या इससे मोह बढ़ाना? जितना मोह हो गया है, वही सीना छलनी किए दे रहा है. गले लगकर रो देगी, तो इसको कैसे विदा किया जाएगा?

“नहीं माला, बहुएं गले थोड़ी लगती हैं, फिर हम तो तुम्हारी सास की भी सास हैं...”

इतना कहकर वो करवट लेकर लेट गईं. रुलाई रोके रहीं. माला ने भी ज़िद नहीं की. बड़ी अम्मा इतनी ऊंचाई पर जाकर विराजमान हो गई थीं कि उनकी अब बस पूजा ही की जा सकती थी. माला उनकी चरण-धूलि माथे पर लगाकर कमरे से बाहर निकल गई थी.

लकी राजीव

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