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कहानी- गुलाबो ढेर नहीं हुई (Story- Gulabo Dher Nahi Huyi)

[caption id="attachment_2683" align="alignright" width="150"]Hindi Short Story          रजनी मोरवाल[/caption]  
जीवन की यथार्थता से जूझने व अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करती वह किस कदर और किस हद तक ज़ख़्मी हुई थी, इस बात का पता आसपास की हवाओं को भी नहीं था. अब इस उम्र में वापस अपने देश अकेले यूं लौटने के निर्णय से पूरब को क्या फ़र्क़ पड़ना था. वैसे भी इतने सालों में वे दोनों एक-दूसरे की ज़िंदगी में पति-पत्नी कम व पेइंग गेस्ट की तरह ज़्यादा रहे थे, जिनके बिल कभी-कभार एक होते थे, पर दिल के तार कभी नहीं जुड़ पाए थे.                                                                                                                                                                                                                                   
Hindi Short Story       अहमदाबाद इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर लैंड करते ही मन कैसा-कैसा-सा हो आया था. उसने अपनी दोनों बांहें यूं फैलाईं जैसे कोई पक्षी एक लंबी उड़ान से पहले अपने डैने खोलता है और फिर एक गहरी सांस भीतर तक खींची. वह हवा में घुली अपनेपन की इस मिठास को अंतस में समाहित कर लेना चाहती थी. इस उष्मा को महसूस करने के लिए उसने ज़ोर-ज़ोर से सांस लेना शुरू किया. कुछ ही क़दम आगे चलते हुए सहयात्री ने पलटकर देखा, शायद शुचि के नथुनों की फड़फड़ाहट उसे कुछ अटपटी लगी थी. शुचि को ज़रा भी इल्म न था कि उसे इस तरह बेव़क्त प्राणायाम करते देखकर कोई क्या सोचेगा. वह तो इस व़क्त स़िर्फ जी खोलकर अपनी माटी की महक को अपने प्राणों में बसा लेना चाहती थी. अपनी आज़ादी को महसूस कर लेना चाहती थी. उ़फ्! पूरे पंद्रह बरस. स़िर्फ शुचि ही जानती है कि यह कितना लंबा अंतराल था. बालपन से लेकर टीनएज तक यही पंद्रह बरस कितने सुहावने लगते हैं, जब अपनी गुड़िया को गले लगाए हर लड़की जवानी की दहलीज़ तक पहुंचती है. फिर यही गुड़िया अगले पंद्रह बरस तक उसका वास्ता सच्चाइयों से कराती हुई ख़ुद पीछे छूटती जाती है. सपनों की हक़ीक़तें जब खुलती हैं, तब पलकों से निचोड़ने के लिए आंसू ही बचते हैं. ऐसे भयंकर सन्नाटे में अधिकतर लड़कियां अपने आप को संभालकर जीवन में आगे बढ़ जाती हैं. अब इसे गॉड गिफ्ट कहें या सदियों तक परिस्थितियों के विरुद्ध लड़कर सीखी गई कला, जो धीरे-धीरे रक्त में इस तरह पैठ गई है कि ये कला अब स्त्रियों के सर्वाइवल का अभिन्न अंग बन चुकी है. यही शुचि के साथ भी हुआ... या नहीं हुआ? इसका ़फैसला करने का अधिकार तो शुचि ने भी किसी को नहीं दिया. वह तो बस, हर पल रीढ़ की हड्डी को सीधे किए ज़िंदगी की उबड़-खाबड़ राहों पर चलने का प्रयत्न करती रही थी. उस रोज़ शुचि के इस तरह अचानक बिस्तर बांधकर इंडिया आने के प्लान पर पूरब ने बिफ़रते हुए कहा था, “यथार्थवादी बनो, भारत में तुम्हारा है ही कौन? यू होमसिक इडियट....ऐसे उतावली हो रही हो जैसे यूरोप घूमने जा रही हो. आई एम श्योर, तुम चार दिन में ही बीमार पड़ जाओगी....इस तरह मुंह उठाकर एकाएक चले जाना कहां उचित है? ...यहां भी अलग घर लेकर रह सकती हो. तुम्हारे माता-पिता भी अब नहीं रहे... इतने बरसों की बचाई इज़्ज़त भी गंवा दोगी...” लेकिन शुचि तो किसी भी हालत में इस पराए व अनजान देश से बस भाग जाना चाहती थी. यहां तक कि इस घर से भी, जिसे उसने इतने वर्षों तक कितने चाव से सहेजकर रखा था. कच्छ की कारीगरी वाली चादरें, राजस्थानी वॉल हैंगिंग्स, गोवा के सीप व शंखों से बने शो पीसेज़, कोलकाता से मंगाए गए मां दुर्गा के मुखौटे व जूट से बनी न जाने कितनी ही ऐसी चीज़ें, जो उसके सौंदर्यबोध का परिचय देती घर की दीवारों पर सजी पड़ी थीं. घर की हर एक वस्तु के साथ शुचि की कोई न कोई कहानी या याद जुड़ी हुई थी. यह छोटा-सा किंतु सुसज्जित अपार्टमेंट शुचि के हृदय में बसनेवाली भारतीयता का परिचायक था. बचपन से ही उसे कितना शौक़ था घर को सजा-संवारकर रखने का. पिता नौकरी के कार्य से जब भी मुंबई या औरंगाबाद दौरे पर जाते थे, तो लौटते समय प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी छोटी-छोटी मूर्तियों के नीले-गुलाबी सेट ले आते थे. भिन्न-भिन्न मुद्राएं लिए नर्तकियां. वह उन्हें घर के शोकेस में करीने से सजा दिया करती थी. एक बत्तख वाला खिलौना तो उसे बेहद पसंद था, जिसका गला व पेट एक पारदर्शी नली से आपस में जुड़े हुए थे. कांच के बने उसके पेट में गुलाबी केमिकल या पानी जैसा कोई द्रव्य भरा था. उसी खिलौने के दूसरे सिरे पर खिलौनेवाली प्लास्टिक की छोटी-सी बाल्टी चिपकी हुई थी. वह बत्तख लगातार ऊपर-नीचे होती रहती थी. देखने से यूं लगता था जैसे बतख झुककर पानी पीती हो, फिर पानी को गटकने के लिए सिर उठाकर खड़ी हो जाती हो. शुचि मंत्रमुग्ध-सी इस करतब को सुबह से शाम तक बस देखती ही रह जाती थी. ग़ज़ब का बैलेंसिंग एक्ट था उस खिलौने का. फिर कुछ दिनों बतख के पेट का गुलाबी द्रव्य वाष्प बनकर फुर्र.. और बतख बेचारी मरणासन्न अवस्था में या तो उस छोटी-सी बाल्टी में मुंह देकर पड़ी रहती थी या सिर आसमान को ताकती रह जाती थी. आसमान को ताकते समय उसके सिर और पूंछ पर लगे गुलाबी पंख हवा में यूं हिलते रहते थे, जैसे पास से गुज़रने वाले समय को अपने होने का पता दे रही हो. किंतु समय तो हमेशा से ही इतना बेपरवाह रहा है, ज़िद्दी बेवफ़ा-सी फ़ितरत पाई है उसने. शुचि उस बतख के गुलाबी पंखों को कई-कई महीनों तक बदरंग होते देखती और व्यथित होती रही थी. शुचि को विचारमग्न व उदास देखकर पिता कहते, “अरे, तुम्हारी ये गुलाबो तो ढेर हो गई.” फिर किसी दिन दिवाली की सफ़ाई के दौरान घर की पुरानी चीज़ों के साथ बतख भी स्टोर रूम में रख दी गई थी. बरसों बाद शुचि भी उसी तरह अपने आपको स्टोर रूम में रखे सामान के जैसा ही फील कर रही थी. निरर्थक... बेजान... लक्ष्यहीन व स्नेहरिक्त... पहले पहल जब पूरब उसे देखने आया था. कितना सौम्य व सरल लगा था. जैसे सूरज की पहली किरण-सा पारदर्शी व पवित्र... जैसे कि बहुत कुछ कहने के प्रयास में बहुत कुछ छूटा हुआ-सा प्रेम का पहला ख़त या फिर अपने प्यार की परीक्षा में ‘ही लव्ज़ मी? ही लव्ज़ मी नॉट?’ कहते हुए गुलाब की अंतिम पंखुड़ी तक घबराते हुए जानेवाला एहसास... शुचि को तो पूरब से पहली ही नज़र में प्यार हो गया था. पूरब की छुट्टियां ख़त्म होने से पहले उसे न्यूयॉर्क लौटना था. नतीजतन महीनेभर के भीतर ही उन दोनों का विवाह हो गया था और वे दोनों न्यूयॉर्क चले आए थे. अब शुचि के ठंडे रविवारों की सुबह पूरब के साथ चेरी ब्लॉसम के फूलों को चुनते हुए बीतने लगी थी. पूरब का हाथ अपने हाथों में लिए शुचि अपने आप को दुनिया की सबसे भाग्यशाली लड़की समझती थी. कितनी ही शामें उसने हडसन नदी के निर्मल जल में दूर-दूर तक देखते हुए अपने भावी जीवन की तस्वीरें बनाई थीं व उसमें अपने मन-मुताबिक रंग भी भरे थे. इन नज़ारों को निहारते-निहारते पूरब व शुचि एक-दूसरे के मन को हद तक आत्मसात् कर लेते थे. देह के उलझाव-सुलझाव का नतीजा हर सुबह बिस्तर की सिलवटें दे जाती थीं. कुल मिलाकर पूरब के साथ शुचि की ज़िंदगी बर्फ़ीली ठंड में लिपटने व प्यार-मनुहार के बीच मज़े में बीत रही थी. हनीमून के समय यूं भी सर्दी-गर्मी का एहसास कहां होता है, मन की नींव से नया-नया उन्मुक्त हुआ शरीर स़िर्फ अपनी मनमानी करना चाहता है. सब कुछ ज़मीनी परत से परे की और ही सतह पर टूटता-सिमटता कितना फिल्मी, रोमानी और परीकथा-सा हो जाता है. यूं तो शुचि को पहली ही रात में पूरब के हाथों की हरकतें कुछ प्रशिक्षित-सी लगी थीं. उस पहली रात में शुचि को पूरब का यूं मचलना एक उन्माद व बेसब्री भरी क्रिया ही लगा था. उसने सोचा जवानी के जोश में पूरब उसे जल्द से जल्द पा लेना चाहता है. नए नवेले जोड़े-सी सकुचाहट तो पूरब में दूर-दूर तक भी नहीं थी. हां, शुचि ज़रूर गठरी बनी देर तक बिसुरती रही थी. धीरे-धीरे पूरब की बढ़ती फ़रमाइशें शुचि को परेशान करने लगी थीं. शुचि उन निहायत ही निजी क्षणों में कभी-कभी तो यहां तक भूल जाती थी कि वह कर क्या रही थी. सांसों की रफ़्तार संभालने को होती, तो बीच राह में पूरब उसे अजीब तरी़के से सटा लेता. घबराहट में उसका यह पूछना कि अब क्या करूं? पूरब को और भी अधिक अपसेट कर देता. वह चिढ़कर उसे परे धकेलते हुए अक्सर यह कहकर उठ जाता, “यू इंडियन गर्ल्स... व्हाट काइंड ऑफ हिप्पोक्रेसी इस दिस?” शुचि फफक उठती थी. क्या कोई लड़की इन सब क्रियाओं में डिग्री लेकर आती है? उस पर उसे दिया गया ठंडी का ख़िताब... उसकी आंखों के सामने अपने बचपन का घर घूम जाता. उन शोकेस में सजी नर्तकियों की भिन्न-भिन्न मुद्राएं स्मरण हो आतीं. प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी अजंता एलोरा की वे मूर्तियां, जो छूने में कितनी ठंडी लगती थीं. सच, एकदम ठंडी...! दिन में कई-कई बार बाथ टब में नहाती शुचि अपनी देह को छूकर देखती व हर बार उसका मन वितृष्णा से भर उठता. क्या प्रेम की महता स़िर्फ शारीरिक प्रेम में ही है. पूरब के उतरते मुलम्मे से हैरान शुचि कई-कई दिनों तक पूरब की वास्तविकता खोजती रह जाती. उसकी ज़ुल्फ़ों से खेलता पूरब, उसकी हथेलियों को सहलाता पूरब, न जाने कहां गुम होता जा रहा था. जो पूरब अब उसके सामने था, वह पूरब कोई और ही था. यह तो उसका एक बाहरी आवरण था. अब तो ग़ुस्से में घर से निकला पूरब अगली सुबह लाल-लाल आंखें लिए ही लौटता था. वह आते ही सीधा पलंग पर ढह जाता. आत्मग्लानि में पिघलती व सुबकती हुई शुचि उसके जूते-मोजे उतारकर पलंग के नज़दीक ही बैठकर उसके जागने का इंतज़ार करने लगती. रूठने-मनाने के इस दौर में पूरब के बीते जीवन से जुड़ी कितनी ही बातें शुचि के सामने एक-एक करके खुलती जा रही थीं. जैसे ग्रीन कार्ड के लिए किसी अनजान अमेरिकन लड़की को पैसा देकर उससे शादी करना और मतलब निकल जाने पर उसे डिवोर्स दे देना. सबसे हैरान कर देनेवाली बात जो शुचि को पता चली, वह यह थी कि पूरब के माता-पिता ने ही अपने बेटे को विदेश में सेटल होने का यह अवैध तरीक़ा सुझाया था. शुचि को बहुत बाद में जाकर पता चला कि किस प्रकार मामूली-सी फोटोग्राफी का कोर्स करनेवाला परबिंदर बाल कटाकर अमेरिका का एनआरआई पूरब बन गया था. उस अमेरिकन लड़की से डिवोर्स के बाद भी पूरब के संबंध परिस्थितिनुसार टूटते व जुड़ते रहते थे. जब-जब पूरब शुचि से बिदकता, तो अपनी रातें वहीं गुज़ारता था. इस सब में स़िर्फ पूरब का ही दोष था ऐसा भी नहीं था, शुचि के अपने माता-पिता भी उसके भविष्य के प्रति कितने लापरवाह निकले. अख़बार में विज्ञापन के ज़रिए होनेवाली शादियों के ऐसे क़िस्से समय-समय पर सामने आते रहते हैं. फिर भी तो वे लोग सचेत नहीं रहे? दोष किसी का भी हो, पर आज पूरा मध्यम वर्ग इसी मानसिकता के साथ जीता है. यही सपना लेकर सोता-उठता है कि उसका बेटा या बेटी किसी भी तरी़के से बस विदेश में बस जाए. इस सोच के कारण वे कितने ही क़ानूनी व ग़ैरक़ानूनी कार्य करने से भी गुरेज़ नहीं करते. अपनी संतान के भविष्य के साथ इस प्रकार का जुआ खेलने में भी उन्हें ज़रा संकोच नहीं होता. बच्चों को सीढ़ी बनाकर पूरे के पूरे परिवार विदेश पलायन कर जाते हैं. शुचि अक्सर सोचती रह जाती है कि अगर ममता के समक्ष भी स्वार्थ ही जीतता है, तो फिर दुनिया में ऐसा कौन-सा रिश्ता बाकी रहा, जिसके बलबूते इंसान ज़िंदा रहने की आस बांधे रखे. विवाह से पहले शुचि ने कितने सपने देखे थे. सब एक-एक करके धराशाई होते गए, जैसे भगवान भी शुचि के सब्र की परीक्षा लेकर फिर कुछ समय पश्चात् नए सिरे से उसे जांचना शुरू कर रहे हों. भारत वापसी में उसकी निजी मुश्किलें न होतीं, तो वह कब की लौट जाती. माता-पिता तो उसके भरोसे पर ही दो और छोटी बहनों की शादी विदेश में करवाने की उम्मीद लगाए बैठे थे. सबसे छोटा भाई तो अभी नासमझ ही था. ऐसे में फ़र्ज़ और कर्ज़ दोनों ने ही उसके पैर मज़बूती से जकड़ रखे थे. फिर तो शुचि ने स्वयं ही अपनी ज़ुबान को सिल लिया. जी को कड़ा करके शुचि अपनी बर्बादियों के बदले अपने भाई-बहनों का भविष्य बनाने के बारे में सोचने लगी. पूरब के व्यवहार को सहकर भी उसने सबसे पहले यहां अपने लिए एक नौकरी का इंतज़ाम किया. फिर धीरे-धीरे दोनों बहनों की शादी करवाई. परंतु इस धीरे-धीरे से चलने वाली प्रक्रिया में शुचि के अपने पंद्रह बरस कब उसकी हथेलियों से सरक गए, उसे पता ही नहीं चला. अब तो बालों में भी स़फेदी उभरने लगी थी. ऐसे में जब अचानक पूरब की एक अन्य अमेरिकन बीवी-बच्चों के बारे में उसे पता चला, तो वह खुलकर रिएक्ट भी नहीं कर पाई या अब वह शायद अपने लिए निर्धारित मर्यादा से बाहर ही नहीं आना चाहती थी. वह शिकायत भी करती, तो किससे करती.उन माता-पिता से जो अब इस दुनिया में नहीं रहे? उन भाई-बहनों से, जिन्हें शुचि के इस मौन त्याग का पता तक नहीं था? पूरब से? जिसे वह पहले ही सज़ा दे चुकी थी. पूरब को तो इस बात का इल्म तक नहीं कि शुचि जान-बूझकर कभी मां नहीं बनी... वह तो इतने बरस उसे एक बांझ ही समझता रहा था. जीवन की यथार्थता से जूझने व अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करती वह किस कदर और किस हद तक ज़ख़्मी हुई थी, इस बात का पता आसपास की हवाओं को भी नहीं था. अब इस उम्र में वापस अपने देश अकेले यूं लौटने के निर्णय से पूरब को क्या फ़र्क़ पड़ना था. वैसे भी इतने सालों में वे दोनों एक-दूसरे की ज़िंदगी में पति-पत्नी कम व पेइंग गेस्ट की तरह ज़्यादा रहे थे, जिनके बिल कभी-कभार एक होते थे, पर दिल के तार कभी नहीं जुड़ पाए थे. पूरब की लाख हिदायतों के बाद भी शुचि ने एक दिन उसे डिवोर्स के काग़ज़ थमा दिए थे व फिर अपने देश की ओर उड़ान भर ली. उसने तो अपने भाई-बहनों को भी अपने लौटने की जानकारी नहीं दी. वह नहीं जानती कि वह इसके आगे क्या करेगी? इस उम्र में कैसे जीवन की एक नई शुरुआत करेगी? वह तो स़िर्फ यह जानती है कि उसके भीतर का भावनात्मक द्रव्य अभी तक सूखा नहीं है. जीवन के प्रति उसकी प्यास अभी भी बाकी है. वह अब भी बैलेंसिंग एक्ट बनाकर रह सकती है. शुचि आज पापा से ये कहना चाहती है कि पापा सुनो, “उसके भीतर की गुलाबो अभी ढेर नहीं हुई है देखो... देखो... वह फिर स्टोर रूम से बाहर निकल आई है...”

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