“कुछ नहीं लगते… लेकिन जब-जब उन्हें देखता हूं, मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है. मुझे मेरे पिता दिखाई देते हैं.” इतना कहकर वह कमरे से बाहर निकल गया. वह नहीं चाहता था कि सोनल उसकी आंखों की नमी देखें.
राजीव और सोनल पढ़े-लिखे, कामकाजी पति-पत्नी थे. दोनों साधारण मध्यमवर्गीय परिवारों से आए थे. जीवन की शुरुआत उन्होंने मितव्ययिता से की थी. ज़रूरतें सीमित रखीं, इच्छाओं को संयम में रखा और धीरे-धीरे थोड़ी-बहुत बचत भी कर ली.
इसी बचत और निरंतर परिश्रम ने उन्हें सूरत जैसे महानगर में दो फ्लैटों का मालिक बना दिया था.
दोनों संतुष्ट थे. उन्हें लगता था कि जिन आर्थिक तंगियों ने उनके जीवन से कभी रंग छीन लिए थे, अब उनके बच्चों को उन स्थितियों से नहीं गुज़रना पड़ेगा.
बार-बार मकान बदलने का कष्ट, दोस्त छूटने की पीड़ा, मकान मालिक की डांट-फटकार, दीवारों से सटकर जीने का भय- ये सब अब उनके बच्चों के हिस्से में नहीं आएगा.
राजीव अक्सर अपने बचपन को याद करता. पिता की आर्थिक तंगी, संघर्ष और त्याग उसके मन में बार-बार उभर आते. वह सोनल को बताया करता कि कैसे शादी-ब्याह के मौसम में उसके पिता एक ही सूट पहनकर हर समारोह में जाते थे. मां के टोकने पर भी वे अपने लिए कभी कुछ नहीं लेते- न नया सूट, न नए जूते.
हर बार बस इतना कहते, "अरे, अभी तो कई साल और चलेगा.”
वे बिना किसी व्यक्तिगत सुख का स्वाद चखे इस दुनिया से चले गए.
राजीव के मन में पिता की वह छवि आज भी जीवित थी.
ख़ैर, अब उसका जीवन अपेक्षाकृत आसान था- कम से कम अपने पिता की तुलना में.
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उसने अपना दूसरा फ्लैट किराए पर देने का निश्चय किया और एक ब्रोकर से संपर्क किया. कई लोगों ने फ्लैट देखा- नया था, साफ़-सुथरा था, सबको पसंद आया. पर राजीव ने अंततः मिस्टर गुप्ता को किराएदार बनाने का निर्णय लिया.
यह सिफ़ारिश उसके मित्र राजेश ने की थी. राजेश ने बताया था कि गुप्ता जी का दफ़्तर पास ही है और उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. इस फ्लैट में आ जाने से उनका समय और पैसा- दोनों बचेंगे.
परिवार बड़ा था- पति-पत्नी, दो बच्चे और एक वृद्ध मां. पत्नी गृहिणी थीं.
“बहुत शरीफ़ लोग हैं,” राजेश ने कहा था.
राजेश की बातें सुनते हुए राजीव की आंखों में अनायास ही अपने पिता का चेहरा उभर आया.
उसने बिना किसी हिचक के कह दिया, "फ्लैट गुप्ता जी को ही दूंगा.”
जब उसने घर आकर यह बात सोनल को बताई तो उसने आपत्ति जताई.
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“परिवार बड़ा है, बच्चे हैं. हमें ब्रोकर द्वारा बताए गए मिस्टर-मिसेस पटेल को दे देना चाहिए. छोटा परिवार है, दोनों कमाते हैं, फ्लैट भी ख़राब नहीं होगा और किराया भी समय पर आएगा.”
पर राजीव अपने निर्णय पर अडिग था.
“सोनल, मकान उन्हें ही दूंगा.”
सोनल ने पूछा, “क्या तुम उनसे मिले हो?”
राजीव बोला, “एक-दो बार. बहुत सज्जन व्यक्ति हैं. किराया तो दे ही रहे हैं. कोई मुफ़्त में नहीं रहेंगे.”
राजीव के स्वर में ऐसी दृढ़ता थी कि सोनल चाहकर भी कुछ नहीं कह सकी.
कुछ ही दिनों में गुप्ता जी सपरिवार फ्लैट में शिफ्ट हो गए.
औपचारिक भेंट के लिए राजीव और सोनल उनसे मिलने गए. परिवार से मिलकर दोनों संतुष्ट हुए.
राजीव ने बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और कहा, “पास में पार्क है, वहां खेलने जाया करो.”
वृद्ध मां से भी बोला, "आप भी सुबह-शाम टहल लिया कीजिए.”
सोनल ने महसूस किया, राजीव का उस परिवार से जुड़ाव सामान्य नहीं था, पर उसने कुछ कहा नहीं.
समय बीतता गया. सब कुछ सामान्य था, बस किराया अक्सर तय तारीख़ से कुछ देर से आता.
एक दिन सोनल ने सहज सा प्रस्ताव रखा, “सुनो, इस बार गुप्ता जी का रेंट एग्रीमेंट रिन्यू न करें. मेरी कंपनी में नए अकाउंटेंट आए हैं मिस्टर बत्रा. पति-पत्नी दो ही हैं. उन्हें फ्लैट दे देंगे.”
राजीव असहज हो गया. अचानक उसके भीतर जमी भावनाएं उफन पड़ीं.
“तुम्हें क्या दिक्कत है?” वह लगभग चिल्ला पड़ा.
“थोड़ा किराया देर से आ जाने से तुम कौन सी गरीब हो जाओगी? परिवार है, बच्चे हैं. अकेले कमाने वाले आदमी से कभी-कभी देर हो जाती है.”
अब सोनल भी चुप न रह सकी.
“मेरा उनसे कुछ बिगड़ा नहीं है,” उसने कहा, “पर तुम्हारी यह असाधारण सहानुभूति क्यों है? आज बताना ही पड़ेगा, मिस्टर गुप्ता तुम्हारे लगते क्या हैं?”
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राजीव कुछ क्षण मौन रहा.
फिर बहुत धीमे, लगभग फुसफुसाते हुए बोला, “कुछ नहीं लगते… लेकिन जब-जब उन्हें देखता हूं, मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है. मुझे मेरे पिता दिखाई देते हैं.” इतना कहकर वह कमरे से बाहर निकल गया. वह नहीं चाहता था कि सोनल उसकी आंखों की नमी देखे.
उस दिन के बाद इस विषय पर फिर कभी बात नहीं हुई.
सोनल ने भी राजीव की चुप्पी का अर्थ समझ लिया था.
अब जब भी किराया कुछ दिन देर से आता, वह बिना कुछ कहे चुपचाप रख लेती थी.
अक्सर वह बालकनी से नीचे देखती, गुप्ता जी अपनी मां का हाथ थामे धीरे-धीरे टहलते लौट रहे होते.
बच्चे हंसते-कूदते उनके आसपास दौड़ते रहते.
तब सोनल समझ जाती, कुछ रिश्ते काग़ज़ी एग्रीमेंट से नहीं, स्मृतियों, संवेदना और करुणा से बनते हैं.
राजीव ने कभी धन्यवाद नहीं कहा और सोनल ने कभी शिकायत नहीं की. क्योंकि उस फ्लैट में अब सिर्फ़ किराएदार नहीं रहते थे, वहां राजीव के पिता की अधूरी ज़िंदगी को एक सम्मानजनक ठहराव मिल गया था.

प्रज्ञा पांडेय मनु
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