उमा ने और एक-दो दिन रुकने का अनुरोध किया, पर वह प्यार से मना कर गईं. लेकिन जैसे ही स्टेशन जाने के लिए कार में बैठीं, बेशुमार ख़ामोश सिसकियां आत्मसम्मानी गोदावरी काकी का कलेजा चीरने लगीं. अब तक कंठ में फंसी रुलाई एक हिचकी के साथ आंसुओं के सैलाब में फूट पड़ी. तभी पांच-छह मिठाइयों का पैकेट सम्भाले मयंक उनकी बगल में आ बैठा और अपने दोनों हाथ उनके गले में डालते हुए सीने से लग गया. शायद नानी के मर्म पर लगी चोट को एक वही समझ पा रहा था.
अम्मा की तेज़ आवाज़ कानों में पड़ते ही आदित्य की नींद खुल गई. अक्सर ऐसी आवाज़ सुनने का अभ्यस्त आदित्य लेटे हुए ही बोला, “क्या हुआ अम्मा? आज फिर से सुबह-सुबह क्यों शुरू हो गईं?”
“क्या करूं? सुबह-सुबह तुम्हारी अर्धांगिनी के साथ भजन गाए बिना मेरा दिन जो शुरू नहीं होता! कभी ऐसा हुआ है कि सुबह उठने पर बिना प्रवचन सुने या सुनाए, एक कप चाय ही शांति से मिल जाए!”
मां की ग़ुस्से भरी आवाज़ में गंभीरता के बदले खिलंदड़ापन महसूस कर उसे मन ही मन हंसी आ गई.
“अब अम्मा, सोचो तो दोष तुम्हारा ही है. सही ढंग से काम सिखाओगी नहीं, तो बक-बक तो करना ही पड़ेगा न.”
“तू तो चुप ही कर, जोरू का ग़ुलाम. कितना सिखाऊं, कहां तक सिखाऊं? एक काम भी ढंग से नहीं कर पाती. चाय बनाएगी तो दूध-शक्कर ऐसे डालेगी, मानो इसके मायके से फ्री कोटा में दूध और चीनी आता है. एक मेरी उमा है, बचपन से ही घर के कामकाज में इतनी दक्ष है कि लोग उसके काम देख दंग रह जाते हैं. जैसा मैंने अपनी बेटी को सिखाया, वैसा ही बहू की मां ने भी कुछ सिखाया होता तो आज मुझे ये दिन नहीं देखने पड़ते.” फिर हमेशा की तरह उसकी अम्मा देर तक बेटी की तारीफ़ और बहू की आलोचना में जुटी रहीं, उसके बाद दूसरे कामों में व्यस्त हो गईं.
आदित्य दुबारा सोने की कोशिश करने लगा कि तभी उसे याद आया, आज ऑफ़िस जल्दी पहुंचना है. वह बिस्तर से उठते हुए पत्नी गंगा को आवाज़ देकर बोला, “सुनती हो, इतनी देर से रसोईघर में बैठी क्या कर रही हो? एक कप बढ़िया चाय तो पिलाओ, आज ऑफ़िस के लिए जल्दी निकलना है.”
सास को जवाब न दे पाने की विवशता में वह पहले से ही भरी बैठी थी. मौक़ा मिलते ही उसने अपना सारा ग़ुस्सा पति पर उतार दिया और अपनी सास की तर्ज़ पर ही बोली, “रसोईघर में और क्या करूंगी? बैठे-बैठे ऐश कर रही हूं. मैं ठहरी उजड्ड, गंवार और फूहड़ औरत. मुझे क्या पता चाय कैसे बनती है?”
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आदित्य बिना कोई जवाब दिए, चुपचाप अख़बार में नज़रें गड़ाए बैठा रहा. थोड़ी देर में गंगा एक कप चाय उसकी बगल में रख गई.
आदित्य अच्छी तरह जानता था कि न तो उसकी मां दिल की बुरी है और न ही उसकी पत्नी. ज़रूरत पड़ने पर दोनों सारे ताने-उलाहने भूल कर एक-दूसरे का पूरा ख़याल रखती हैं, पर उसकी अम्मा को शगल था, अपनी बेटी की तारीफ़ करने और अपने द्वारा दिए गए संस्कार को सर्वश्रेष्ठ मानने का, जिसके कारण दोनों सास-बहू में गाहे-बगाहे तानों और उलाहनों के दौर चलते रहते. आदित्य इन दोनों के बीच कभी भी हस्तक्षेप न करता, अक्सर निर्लिप्त भाव से चुपचाप सब कुछ सुनता रहता.
आस-पड़ोस में गोदावरी काकी के नाम से मशहूर उसकी अम्मा का उस मोहल्ले में अच्छा दबदबा था. वहां के छोटे-बड़े सभी उनकी बहुत इ़ज़्ज़त करते थे. आस-पड़ोस का कोई भी शुभ कार्य उनसे सलाह लिए बगैर सम्पन्न नहीं होता था. हर घर से उनके मधुर संबंध थे.
अपनी बहू को भी वह दिल से चाहती थीं, पर न जाने क्यूं, बहू की छोटी-सी ग़लती भी उनके सामने आ जाती, तो किसी आम सास की तरह ही उनकी भी ज़बान फिसलने लगती.
आदित्य जल्दी से तैयार होकर दो दिनों के लिए ऑफ़िस के काम से बाहर चला गया. उसी दिन गोदावरी काकी को अपनी नातिन नेहा की शादी का कार्ड और पत्र मिला. कितने ही लोगों के काम अकेले सम्भालने वाली गोदावरी काकी बुरी तरह घबरा गईं.
मात्र एक ह़फ़्ते बाद ही शादी थी, वह भी दिल्ली जैसे शहर में हो रही थी. इतने कम समय में ही उन्हें न जाने कितने इंतज़ाम करने थे. उन्होंने बहू को बुलाकर कार्ड पकड़ाया और फिर दोनों सास-बहू आपसी बैर भूल कर शादी की तैयारियों के लिए विचार-विमर्श करने लगीं.
बेटी के घर पहली बार न्योता ले जाना था, कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए था
कि दस लोगों के बीच इ़ज़्ज़त रह जाए. उनका दामाद देवेश एक सरकारी द़फ़्तर में उच्च अधिकारी था. बेटी को तो उन्होंने सामान्य हैसियत में ही ब्याहा था, पर देवेश अपनी कड़ी मेहनत और प्रयत्नों के बूते आज इतने ऊंचे ओहदे पर था.
वहीं उनका बेटा आदित्य एक प्राइवेट कम्पनी में क्लर्क का काम करता था. जाहिर-सी बात है, पद और पैसा दोनों में जीजा और साले के बीच काफ़ी अन्तर आ गया था. समय के साथ यही अंतर दोनों परिवारों के संबंधों के बीच दूरियां लाने लगा, जिससे इधर के सात-आठ बरसों में बेटी का संबंध पितृ-गृह से औपचारिक बन कर रह गया था.
भले ही परिस्थितियों ने संबंधों में दूरियां ला दी थीं, पर ख़ून के रिश्ते क्या इतनी आसानी से छूटते हैं! दुख-सुख में सबसे पहले इन्हीं रिश्तों की याद आती है. गोदावरी काकी ने अपना संदूक खोल कर गाढ़े समय के लिए जमा किए गए दस हज़ार रुपए और गहनों के नाम पर बचा एक सोने का चेन निकाल कर बहू को पकड़ाया और अपनी पड़ोसन राधा के साथ बाज़ार भेज दिया.
आनन-फानन में उनकी बहू गंगा राधा के साथ मिलकर बड़ी होशियारी से शादी का सारा सामान ख़रीद लाई. चेन को भी साफ़ करवाकर, एक नए डिब्बे में डलवा लाई. आदित्य जब घर आया, जोड़-तोड़ कर उसने ट्रेन में आरक्षण भी करवा लिए. फिर क्या था, बेटी को अपने आने की सूचना भेज, गोदावरी काकी अपना पूरा कुनबा समेटे दिल्ली के लिए रवाना हो गईं.
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दिल्ली स्टेशन पर उनका नाती मयंक पहले से ही कार लिए खड़ा था. प्लेटफार्म पर उतरते ही जब मयंक ने बढ़ कर उनके पांव छुए, तो उनका कलेजा गदगद हो गया. गोरा-चिट्टा मयंक, अपने आधुनिक ढंग के कपड़ों में किसी फ़िल्मी हीरो से
कम नहीं लग रहा था. निपट सूती साड़ी में किसी तरह अपनी सस्ती चप्पलें छुपाने का प्रयत्न करतीं गोदावरी काकी को न जाने क्यों मयंक के साथ गाड़ी में बैठने में भी संकोच महसूस हो रहा था.
घर पहुंचने पर उमा बाहर बरामदे में ही मिल गई. वह कुछ लोगों से बातें करने में व्यस्त थी, उन पर नज़रें पड़ते ही बढ़ कर मां के पांव छू लिए. साधारण औपचारिकता के बाद, एक नौकरानी ने सामान सहित उन लोगों को एक कमरे में पहुंचा दिया.
कहां तो गोदावरी काकी सोच रही थीं कि पहुंचते ही बेटी पहले की तरह आकर उनसे लिपट जाएगी. देर से आने के लिए उलाहने देगी, ख़ुद उनकी देखभाल में जुट जाएगी, कौन-कौन से काम सम्भालने हैं, इसकी पूरी फेहरिस्त थमा देगी… पर बेटी का ठंडा स्वागत देख, गोदावरी काकी का दिल बुझ-सा गया. यहां पहुंचने तक दिल में जो उत्साह हिलोरें ले रहा था, वह धीरे-धीरे शांत पड़ने लगा.
थोड़ी ही देर में कमरे से लगे बाथरूम में बारी-बारी जाकर सब नहा-धोकर तैयार हो गए. एक नौकर आकर बड़े सलीके से सब के लिए चाय-नाश्ता रख गया. खा-पीकर सब दीर्घ यात्रा की थकान मिटाने लगे. बस, एक गोदावरी काकी अपना चाय का कप लिए बैठी रहीं. न जाने क्यों, एक कप चाय भी उनके गले से नीचे नहीं उतर रहा था. तभी वहां उमा आ गई.
“अरे, अम्मा! अभी तक आपने एक कप चाय भी ख़त्म नहीं किया है?”
“तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी.”
“अब आप तो अम्मा घर की ही हो, फिर यह मेहमानों-सा बर्ताव क्यूं? एक अकेली जान हूं, ढेर सारे काम हैं, कहां-कहां देखूं?”
बेटी के अपनेपन से भरे दो बोल सुन कर अब तक बेगानापन झेलती, गोदावरी काकी के अंतस में वात्सल्य हिलोरें लेने लगा.
“तू चिन्ता मत कर. हम लोग यहां बैठने नहीं आए हैं. बस तू बताती जा, मैं और बहू मिलकर सारे काम सम्भाल लेंगी.”
थोड़ी देर में वहां मयंक और नेहा भी आ गए. वह साथ लाए उपहार एक-एक कर प्यार से सबको थमाने लगीं, पर उनके कान अपने द्वारा लाए उपहारों की प्रशंसा सुनने के लिए नेहा की तरफ़ ही लगे रहे.
नेहा ने अपना उपहार औपचारिकतावश उलटने-पुलटने के बाद अपनी मां के हाथों में थमा दिया. उसमें न उपहार लेने का कोई उत्साह था, न ही देखने का. बस एक मयंक ही था, जो अपना शर्ट देख किलक पड़ा, “वाह! नानी, आपने तो मेरा शर्ट एकदम मेरी पसंद और सही नाप का ख़रीदा है. मैं तो इसे आज ही पहनूंगा.”
उमा सारे सामान समेट कर उठते हुए बोली, “अब आप लोग आराम कीजिए, रात में मेहंदी और संगीत है.” पर गोदावरी काकी की आंखों में नींद कहां? वह लेट कर रात को संगीत में गाने के लिए अपने गानों को याद करती रहीं.
शाम को संगीत का आयोजन एक ख़ूब सजे-धजे पंडाल में रखा गया था. ज़्यादातर औरतें और लड़कियां फ़िल्मी तर्ज पर नाच-गा रही थीं. गोदावरी काकी के पुराने गानों के लिए वहां कोई जगह ही नहीं थी. उमा उनके पास से ही आ-जा रही थी, पर उसे इतनी फुर्सत ही कहां थी कि मां से भी एक-दो गीत गाने की फ़रमाइश कर सके, हालांकि उसे अच्छी तरह पता था कि उसकी मां को शादी-ब्याह में गाने का कितना शौक़ है.
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गोदावरी काकी ने जितने भी गाने याद किए थे, वे सब उनके मन में ही रह गए. बेटी ने किसी से उनका परिचय तक नहीं करवाया था, इसलिए अपरिचित परिवेश में चुपचाप दर्शक बनी बहू के साथ बैठी रहीं. बेटी द्वारा दी गई अनदेखी चोट की दारुणता ने उन्हें निष्पन्द पाषाण-सा बना दिया था.
थोड़ी देर बाद अतिथियों में ही शामिल होकर खाना खाने के बाद वह बहू के साथ कमरे में आ गईं, जहां आदित्य पहले से ही खा-पीकर बच्चों के साथ लेटा हुआ था. शायद वह भी अपने को अकेला और उपेक्षित महसूस कर रहा था.
देर रात उमा उनके कमरे में आई. वह चुपचाप दीवार की तरफ़ मुंह घुमाए सोई रहीं. उमा उनके बगल में लेटी गंगा से बातें करने लगी.
“भाभी, मैं तो पूरी तरह से व्यस्त हो गयी थी. आप लोगों ने ठीक तरह से खाना खाया या नहीं.”
“आप चिंता न करें, हम लोगों ने अच्छी तरह से खाया-पीया. हम लोग कोई मेहमान तो हैं नहीं, जो बार-बार आपको पूछना पड़े.”
गोदावरी काकी को बहू की व्यावहारिकता अच्छी लगी. थोड़ी देर बाद बहू सो गई, पर उनकी आंखों में नींद नहीं थी? एक तो नई जगह, नया परिवेश, उस पर अपनों द्वारा दिया गया उपेक्षा का दंश. कमरे से निकलकर बाहर टहलने लगीं, तभी पास के कमरे से आती आवाज़ सुन उनके क़दम ठिठक गए.
नेहा की आवाज़ थी, “मम्मी, आप आज दोपहर में कहां चली गई थीं?”
“मां, भाभी और दोनों बच्चों के लिए पास के मार्केट से कपड़े लेने चली गई थी, वरना कल शादी में ये लोग अपने साथ लाए वही बेढंगे-पुराने फैशन के कपड़े पहनकर तैयार हो जाते. कल होटल में कितने ही लोग आएंगे, अगर जान गए कि मेरी मां और भाभी हैं, तो उनके फूहड़ पहनावे देख कर क्या सोचेंगे? उन्हें तो मेरी इ़ज़्ज़त का ख़याल नहीं है, पर मुझे तो है. अब यहां आ गये हैं, तो इतना तो ध्यान रखना ही पड़ेगा. शादी-ब्याह में लोगों के मायके से न जाने कितने सामान आते हैं, एक मेरा मायका है, पूरा कंगाल. जितना वे लोग लेकर नहीं आए, उससे ज़्यादा तो उन पर ख़र्च हो रहा है.”
तभी उन्हें मयंक की ग़ुस्से से भरी आवाज़ सुनाई दी.
“मम्मी, आप कैसी बातें करती हैं? वे हमारे अपने हैं, अपनी हैसियत से कहीं ज़्यादा लेकर आए हैं. उतना सामान ख़रीदने में ही उन्हें कितनी परेशानी हुई होगी. आश्चर्य है कि फिर भी आप उनसे और ज़्यादा की आशा रखती हैं.”
इससे ज़्यादा गोदावरी काकी से सुना नहीं गया. वे अपने कमरे में लौट आईं. उन्हें लगा, कोई विष बुझा बाण उनके कलेजे को चीर गया है. एक मर्मान्तक पीड़ा से वह छटपटा उठीं.
वह भूल ही गई थीं कि उनकी बेटी का जीवन स्तर उनसे काफ़ी ऊंचा उठ गया है. पैसे कमाने की होड़ में शामिल नई पीढ़ी की नज़र में हर रिश्ते की प्रतिष्ठा उसके पैसे और ओहदे के हिसाब से ही होती है. ये जिनकी छांव में पलते-बढ़ते हैं, जिनकी उंगलियां पकड़ कर चलना सीखते हैं, जिनके सहारे अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने संजोते हैं, इच्छित ऊंचाइयों को छूते ही वही माता-पिता उन्हें उजड्ड, गंवार और न जाने क्या-क्या लगने लगते हैं. किसी से उनका परिचय कराना भी उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं लगता.
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गोदावरी काकी को यह बात बेहद चुभ रही थी कि उनकी बेटी पहले जैसी नहीं रही. पति और पुत्र का ऊंचा पद और धन-संपत्ति पाकर उसमें शायद यह दंभ आ गया है कि उसके जीवन में कुछ ऐसा है, जो उसे अन्य लोगों से विशिष्ट बनाता है.
आज तक वह बहू में ही खोट निकालती रहीं, पर यहां तो अपना ही सिक्का खोटा निकला. बेटी को दिए जिन संस्कारों पर वह गर्व करती आई थीं, उन्हीं संस्कारों की नींव पर खड़ी इमारत को बाहरी परिवेश ने इस कदर बदल दिया कि अब वह धराशायी होने की कगार पर आ पहुंचा था.
बेटी के लिए अंधी ममता के चलते उनकी बुद्धि घास चरने चली गई थी, वरना यूं अपना पूरा कुनबा समेटे दिल्ली नहीं चली आतीं, बल्कि स़िर्फ आदित्य को ही भेजतीं. गोदावरी काकी बिस्तर पर बैठी इसी तरह देर रात तक अपने अविवेकी चित को कोसती रहीं.
वह बहू की त्रुटिहीन सेवा के बावजूद हमेशा उससे असंतुष्ट रहीं और अपनी बेटी की समझदारी की दुहाई देती रहीं, पर बेटी के पास आकर क्या हुआ? यहां भी उनके हर काम और सुविधा-असुविधा का ध्यान बहू ही रखती है. हमेशा उन्हें बहू और बेटे का भरपूर प्यार और सम्मान मिला, फिर भी क्यों उनके अंदर हमेशा अपनी बेटी के प्यार की ही तृष्णा बनी रही. शायद इसी को कहते हैं, ‘पानी बीच मीन प्यासी.’
विवाह के दिन कोई भी धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करने में बेटी को दिलचस्पी न लेते देख वह थोड़ी बेचैन होने लगीं और बहू के सामने भुनभुनाईं, “माना नई पीढ़ी को परंपरागत धार्मिक अनुष्ठानों में अब विश्वास नहीं रहा, फिर भी विवाह जैसे पवित्र समय पर उमा को कुछ तो अपनी परंपरा का निर्वाह करना चाहिए.”
वह उमा को इस बारे में कोई नसीहत देतीं, उससे पहले ही बहू ने उन्हें कुछ भी बोलने से मना कर दिया.
“अम्माजी, आप कुछ मत बोलिए, वरना कोई तड़ से आपको जवाब दे देगा, जो मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा.”
हमारे मन की कुछ बातें भले ही शब्दों की अभिव्यक्ति से परे होती हैं, पर मन में कुछ शक्तियां ऐसी होती हैं, जो किसी की मनोदशा को अच्छी तरह भांप लेती हैं, उसके अनकहे सुख-दुख को आंखों में ही पढ़ लेती हैं. बिना बोले ही गोदावरी काकी की मनोदशा उनकी बहू गंगा अच्छी तरह महसूस कर रही थी और आंखों ही आंखों में संग होने का एहसास दिला रही थी.
एक ही परिस्थिति और वातावरण में सहे गए दुख और अपमान ने इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों को परस्पर आत्मीय बना दिया था, इसलिए बहू की सलाह उन्हें उचित लगी और शादी में हस्तक्षेप करने की बजाय उन्होंने पूरा दिन बंगले
के ख़ूबसूरत उद्यान में सलीके से बनीं क्यारियां देखते हुए गुज़ारा.
शादी किसी बड़े होटल से हो रही थी. शाम को शादी में जाते व़क़्त वह पूरी तरह चुप रहीं. बेटी ने जैसे कपड़े दिए, जिस तरह से पहनने की हिदायत दी, उन्होंने वही, वैसा ही पहन लिया, हालांकि उनका दम घुट रहा था.
वास्तविकता से अलग दिखना, उन्हें बहुत कठिन और असहज महसूस हो रहा था. अपना पूरा व्यक्तित्व ही उन्हें असत्य और यंत्रणापूर्ण लगने लगा था, जिससे मुक्त होकर वह अपनी उसी पुरानी दुनिया में लौट जाने को छटपटा उठीं, जहां वह जैसी थीं वैसी ही रहती थीं, जहां उन्हें हर काम के लिए अबाध स्वतंत्रता थी, जहां उन्हें अपनी बहू और बेटे का भरपूर स्नेह और सम्मान मिलता था.
होटल में होनेवाली इतनी भव्य शादी उन्होंने ज़िंदगी में पहली बार देखी थी. एक सजे-धजे एसी हॉल में शादी का मंडप लगा था, जहां टखनों तक ऊंची-मटमैली धोती और बिना आयरन किया कुर्ता पहने पुरोहित जी की जगह, पैन्ट-शर्ट पहने और हाथों में घड़ी-मोबाइल लिए पंडितजी शादी करवा रहे थे. शादी के पारम्परिक गीतों के बदले सामने बने स्टेज पर ग़ज़ल गायन हो रहा था. उनके लिए सारा दृश्य बेहद कौतुकपूर्ण और अनोखा था. उनके मन की स्थिति भांप कर गंगा उन्हें एक पल को भी अकेला नहीं छोड़ रही थी.
आज पहली बार उन्हें अपनी बहू की सारी अच्छाइयां एक-एक कर नज़र आ रही थीं. उनकी जैसी बहू तो भगवान बिरलों को ही देते हैं. आजकल तो बहुएं सास-ससुर से अलग होकर पति के साथ निरंकुश और स्वच्छन्द जीवन जीना पसन्द करती हैं. कहीं ऐसा न हो कि उनके ताने-उलाहने सुनते-सुनते उनकी बहू का धैर्य और सहने की शक्ति चुक जाए और वह भी किसी न किसी बहाने उनसे मुक्ति पाने का मार्ग ढूंढ़ ले. फिर अपने इकलौते बेटे-बहू व पोतों से अलग होकर वह कैसे जीएंगी? इस कल्पना मात्र से ही वह सिहर उठीं.
दूसरे दिन नेहा की विदाई होते ही गोदावरी काकी भी अपना सामान बांधकर जाने के लिए तैयार हो गईं. जाने से पहले बेटी द्वारा दी गई सिल्क की साड़ी तहकर चुपचाप उसके बिस्तर पर रख आईं. उमा ने और एक-दो दिन रुकने का अनुरोध किया, पर वह प्यार से मना कर गईं.
लेकिन जैसे ही स्टेशन जाने के लिए कार में बैठीं, बेशुमार ख़ामोश सिसकियां आत्मसम्मानी गोदावरी काकी का कलेजा चीरने लगीं. अब तक कंठ में फंसी रुलाई एक हिचकी के साथ आंसुओं के सैलाब में फूट पड़ी. तभी पांच-छह मिठाइयों का पैकेट सम्भाले मयंक उनकी बगल में आ बैठा और अपने दोनों हाथ उनके गले में डालते हुए सीने से लग गया. शायद नानी के मर्म पर लगी चोट को एक वही समझ पा रहा था.
ट्रेन में सारा सामान व्यवस्थित कर मयंक जब नानी के चरण-स्पर्श के लिए झुका, तो नानी की ममता उमड़ पड़ी और भावना में बहती नानी ने अपने आंचल से खोलकर एक पांच सौ का नोट नाती के जेब में ठूंस दिया.
घर वापस पहुंचते ही शाम को मोहल्ले की ढेर सारी औरतें गोदावरी काकी का हाल-चाल पूछने आ जुटीं. सब के साथ बैठी गोदावरी काकी नातिन की शादी का बखान कर रही थीं और सब को शादी के लड्डू खिला रही थीं, तभी उनके कानों में आदित्य की तेज़ आवाज़ टकराई, वह गंगा को डांट रहा था.
“चाय बनाते व़क़्त होश में नहीं रहती हो क्या? तुमने चाय में शक्कर डाली ही नहीं है.”
जवाब में बहू के कुछ कहने से पहले ही गोदावरी काकी बोलीं, “यह कौन-सा तरीक़ा है अपनी पत्नी से बात करने का? शक्कर नहीं डाली है, तो ख़ुद एक चम्मच शक्कर लेकर डाल ले. और ख़बरदार! जो अब से तुमने मेरी बहू से इतनी ऊंची आवाज़ में बात की.”
मां के इस बदले तेवर को देख कर हैरान आदित्य उनका मुंह ताकता रह गया.
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