अर्णिम माथुर
“दीदी, आपके हिसाब से आज के पैरेंट्स की क्या भूमिका होनी चाहिए? अपने बच्चों को मौक़ा देना या उनको अपना प्रतिबिंब बनाना? बच्चे दुनिया में क्या हमारे अधूरे सपने पूरे करने आए हैं? नहीं न? वे अपनी राह, अपनी पहचान बनाने आए हैं. हम उन्हें सहारा, साधन और सही वातावरण दे सकते हैं. लेकिन उनकी असल पहचान उनके अपने चुनावों से बनती है...”
हॉट सीट पर बैठे युवक ने 5 लाख जीत लिए थे. इसके साथ ही कैमरा सिंहासन पच्चीसी पर बैठे उसके पिता की ओर घूम गया था. भावुक पिता ने बताया कि उनका 25 बरस पुराना स्वप्न आज उनके बेटे ने पूरा कर दिया. सेट करतल ध्वनि से गूंज उठा था. मेरा संवेदनशील मन भी एकबारगी भावुक हो उठा. रिश्ते सचमुच प्रकृति का एक मूक उपहार हैं. जितनी उम्र उतना मज़बूत, जितनी देखभाल उतना सम्मान, कम शब्द ज़्यादा समझ, कम मुलाक़ातें ज़्यादा भावनाएं.
केबीसी के सेट पर ऐसे दृश्य आम हो गए हैं. सोफे पर बैठे पति के मुंह से ‘वाह!’ निकल गया था. दीवान पर अधलेटी सासू मां ने टीवी की ओर हाथ उठाकर बलैयां उतारी.
“भगवान ऐसा बेटा, नाती सबको दे.” मेरी धड़कनें तेज़ होने लगी थीं. आशंकित चोर नज़रों से मैंने सोफे पर ही पति के पास बैठे बेटे अमेय को निहारा. वह अनमना हो उठा था. मानो बहुत प्रेशर में आ गया हो. मैं असहज हो उठी.
कुछ तो है इस अबोध के मन में, जो इसे इस तरह के दृश्य आने पर व्याकुल कर देता है. बोर्डिंग में पढ़ने वाला अमेय दसवीं की परीक्षाएं देकर घर आया हुआ है. घर में और आने-जाने वाले मेहमानों से आजकल उसके करियर को लेकर बातें चलती रहती हैं.
खाना खाते हुए हम सबके साथ बैठकर वह भी शौक से टीवी देखने लगा है. पर इधर कुछ दिनों से मैं गौर कर रही हूं कि जब भी इस तरह का कोई भावुक दृश्य, जिसमें संतान अपने अभिभावकों के लिए कुछ कर रही है, स्क्रीन पर आता है तो वह प्रेशर में आ जाता है. क्या चल रहा है इसके दिमाग़ में? शायद मैं ही ज़्यादा सोच रही हूं. ज़रूरत से ज़्यादा सोचकर कई बार हम ऐसी समस्या खड़ी कर लेते हैं, जो है ही नहीं. पर शायद मैं सही सोच रही थी.
कल हमारे कोई पारिवारिक मित्र सपरिवार आए, तो अमेय को भी उनसे मिलने हमने बैठक में बुला लिया था. “अच्छा, उस बोर्डिंग की पढ़ाई की तो बहुत तारीफ़ सुनी है हमने!” आगंतुक ने कहा. “तभी तो भेजा है वहां. अच्छी गाइडेंस मिलेगी, तो अच्छे से मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल जाएगा उसे.” अमेय के पापा ने गर्व से बताया. “वो तो है. गुड लक बेटे! फटाफट डॉक्टर बनकर पापा का हॉस्पिटल संभालो.” मैंने गौर किया था अमेय का चेहरा बुझ गया था और वह चुपचाप वहां से उठकर जाने लगा था.
‘क्या अमेय मेडिकल में नहीं जाना चाहता?’ पहली बार मेरे मन में संदेह उठा था. शायद अतिथि मित्र ने भी यही लक्षित किया था इसलिए पूछ बैठे, “क्यों बेटे, मेडिकल में ही जाना चाहते हो ना?”
“अरे हां, यह भी कोई पूछने की बात है? खानदानी पेशा है हमारा! माना मेडिकल की पढ़ाई महंगी है. पर हम महंगे से महंगे कॉलेज में पढ़ाने में सक्षम हैं. अमेय की तो मम्मी भी मेडिकल में ही जाना चाहती थी. क्यों शुभि? वो तो...” अमेय के पापा ने बीच में ही मोर्चा संभाल लिया था.
“अं... मैं चाय बनाकर लाती हूं. आप चीनी कितनी लेंगे?” मैं अनमनी सी उठ खड़ी हुई थी. उसके अगले ही दिन फिर कुछ ऐसा घटा कि मेरा संदेह पुख्ता हो गया. अमेय की बुआ मिलने आई थीं. मां-बेटी बतिया रही थीं. अमेय वहीं बैठा कोई पुराना मैच देख रहा था.
“रिनी की डांस क्लास कैसी चल रही है?” सासू मां ने अपनी दोहिती का हाल जानना चाहा.
“अब जा रही है, तो कुछ तो सीख ही रही होगी. आपने तो मुझे डांस क्लास में भेजने से साफ़ ही इंकार कर दिया था.” दीदी की पुरानी अधूरी रह गई कसक उभर आई.
“अरे तब लड़कियों को सिलाई, बुनाई, कढ़ाई, कुकिंग आदि ही सिखाते थे. तुझे सिलाई सीखने भेजती तो थी.”
“हुंह... क्या उखाड़ लिया सीखकर? घर भर के फटे-उधड़े सिलते रहो.”
“बुआ, इसका स्टार्टअप खोल लो, खूब चलेगा.” अमेय ने चुटकी ली.
“चुप शरारती... कोई बात नहीं दीदी. आपकी इच्छा पूरी नहीं हुई तो क्या हुआ, आपकी बेटी को वह ख़ुशी मिल रही है, इसी में ख़ुश हो लें.”
“वह कौन सा ख़ुशी-ख़ुशी जा रही है? उसे तो स्विमिंग और कराटे सीखने हैं.”
“हैं!..” मैं हैरान रह गई. फिर उठकर रसोई की ओर चल दी.
“चिकन बना रही हूं. खाना खाकर जाइएगा.” खाना बनाते हुए भी मेरे दिमाग़ में विचारों का मंथन चल रहा था. दीदी मदद करवाने रसोई में आई, तो फिर अपना दुखड़ा रोने लगी.
“हम आज के पैरेंट्स अपने बच्चों के लिए कितना कुछ करते हैं. पढ़ाई, एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ सभी कुछ! पिछले वीक रिनी का एनुअल फंक्शन था. सब फील्ड में पुरस्कारों के लिए उसके नाम की घोषणा हो रही थी. मैंने उसे जैक इन ऑल बनाया है. उसके लिए तालियां बजाते उसकी उपलब्धियों पर ख़ूब गर्व हो रहा था, पर भाभी आपसे झूठ नहीं कहूंगी. मन में कसक भी उठी थी. हल्की सी ईर्ष्या भी हुई थी. अगर मुझे भी रिनी जैसा बचपन मिलता, सब सुख-सुविधाएं, हर चीज़ के लिए पैरेंट्स का प्रोत्साहन तो मेरे हिस्से रिनी से ज़्यादा तालियां आतीं.” मैं हैरानी से दीदी का चेहरा देखने लगी. “अपनी ख़ुद की ही बात ले लो. आप भी तो पढ़ाई में जहीन थीं. डॉक्टर बनना चाहती थीं. आराम से बन भी सकती थीं. यदि आपके पैरेंट्स ने आपको बायो दिला दी होती.”
“मम्मी खाना बन गया क्या? भूख लग रही है.” अमेय किचन में झांक रहा था.
“हां हां.” मैंने तुरंत सासू मां की सात्विक थाली परोसी.
“यह दादी को कमरे में ही दे आओ. तब तक टेबल पर खाना लगा देती हूं. तेरे पापा तो किसी इमर्जेंसी केस में उलझ गए हैं. हम खाना खा लेते हैं. आइए दीदी.” खाना खाते फिर वही टॉपिक छिड़ गया. दीदी पैरेंट्स के रूप में अपनी ख़ुद की प्रशंसा किए जा रही थीं और अपने पैरेंट्स को दोषी ठहराए जा रही थीं.
अब मुझसे चुप नहीं रहा गया. “दीदी, आपके हिसाब से आज के पैरेंट्स की क्या भूमिका होनी चाहिए? अपने बच्चों को मौक़ा देना या उनको अपना प्रतिबिंब बनाना? बच्चे दुनिया में क्या हमारे अधूरे सपने पूरे करने आए हैं? नहीं न? वे अपनी राह, अपनी पहचान बनाने आए हैं. हम उन्हें सहारा, साधन और सही वातावरण दे सकते हैं. लेकिन उनकी असल पहचान उनके अपने चुनावों से बनती है. बेहतर होगा उनकी उपलब्धियों में हम अपनी असफलताओं की परछाई ना खोजें, बल्कि मन में कसक उठे, तो यह सोचकर ख़ुश हों कि हमने अपने बच्चों को वह दिया जो हमें नहीं मिला.
पैरेंटिंग एक यात्रा है, जिसमें गर्व, ईर्ष्या, चिंता जैसी सभी भावनाएं समाहित हैं. यही तो इसे मानवीय बनाते हैं. पैरेंटिंग का असली अर्थ यही है कि हम अपने बच्चों के सपनों को पंख दें और उनकी उड़ान देखकर संतोष पाएं. यह संतोष स़िर्फ अंकों या प्रमाणपत्रों से नहीं, बल्कि उनके व्यवहार और मूल्यों से भी जुड़ा होता है. अमेय की नैतिक दृढ़ता का पता मुझे कुछ दिन पूर्व ही चला और मुझे उस पर बहुत-बहुत गर्व है. अमेय, बताओ बुआ को.” मैंने दोनों को सब्ज़ी परोसते हुए कहा.
“हा हा! मेरे लिए तो बहुत फनी था बुआ! मैं उस दिन नींद से उठा, तो टेबल पर अपने पसंदीदा ताज़ा लाल गुलाबों का ढेर देख चौंक उठा. उठाने के लिए हाथ बढ़ाने ही वाला था कि कानों में मम्मी की सीख गूंज उठी. “तुम गुलाबों को सिर्फ़ पसंद करते हो या प्यार भी करते हो? यदि सिर्फ़ पसंद करते हो, तो तुम उन्हें तोड़ोगे और यदि प्यार करते हो तो उन्हें पानी देने लगोगे.’' फिर ये गुलाब?.. मैं मम्मी के कमरे में गया. उनकी सूजी लाल आंखें देख सब समझ गया.”
“क्या समझ गए?” दीदी असमंजस में थीं. “बताता हूं. मैंने मम्मी से कहा- आप मुझे इतना कुछ सिखाती हो और ख़ुद भूल जाती हो. आप कहती हो ना कि मानव संबंधों में सबसे बड़ी ग़लती यह है कि हम आधा सुनते हैं, चौथाई समझते हैं, शून्य विचारते हैं, पर प्रतिक्रिया दुगुनी देते हैं. बगीचे के सारे गुलाब तोड़कर मेरी टेबल पर आपने ही रखे हैं ना?.. मम्मी ने हां में गर्दन हिला दी थी. मैंने कहा- मम्मी, रात को आपने मुझे दोस्त से बतियाते सुन लिया था ना? फ़र्श पर छलके दूध के दाग़ चुगली कर रहे हैं. आप रात मेरे लिए दूध लेकर आई होंगी. आपने गैंगरेप, एसिड अटैक की बात सुनी होगी... वह योजना मैं नहीं, एकतरफ़ा प्रेम में असफल, ग़ुस्से में घायल मेरे दोस्त के भैया बना रहे थे. मैं तो उन्हें समझा रहा था कि वे उस लड़की को सिर्फ़ पसंद ही नहीं प्यार भी करने लगे हैं. और फूल को प्यार करते हैं तो उसे तोड़ते नहीं पानी देते हैं. प्रेम में पराक्रम नहीं दर्शाया जाता. छोटी सी उंगली से गोवर्धन पर्वत उठाने वाले श्रीकृष्ण भी बांसुरी दोनों हाथों से उठाते हैं.” खाना और बात ख़त्म करते हमने नज़रें उठाई तो पाया दीदी की आंखें नम थीं.
“लो आप भी मम्मी की तरह रोने लगीं.”
“मुझे भी अपने भतीजे की नैतिक दृढ़ता पर बहुत-बहुत गर्व है.”
देर रात मैं अमेय को दूध देने गई, तो उसने मुझे अपने पास बैठा लिया.
“एक बात पूछूं? आप सचमुच डॉक्टर बनना चाहती थीं?” मैंने सहमति में गर्दन हिला दी.
“तो फिर?”
“साइंस स्ट्रीम वाला स्कूल दूर दूसरे शहर में था, जिसमें कोई महिला विद्यार्थी नहीं थी. और उस समय माहौल भी ऐसा था कि इतनी दूर अकेली लड़की को भेजना सुरक्षित नहीं था. इसलिए पैरेंट्स ने मुझे आर्ट्स दिलवा दी, यह कहकर कि तुम इतनी काबिल हो कि इस क्षेत्र में भी बहुत कुछ कर सकती हो. और मैंने कर दिखाया. बीए, एमए, एमएड फिर शादी के बाद डॉक्टरेट. और आज देखो इतने बड़े कॉलेज में प्रिंसिपल हूं. बेटा, जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं विचारों में परिपक्वता स्वतः ही आती रहती है. याद है, तुम बहुत छोटे थे तो रोज़ ही फ्यूचर प्रोफेशन बदल लेते थे. दूधवाले को देखते तो कहते मुझे बड़े होकर दूधवाला बनना है. दूध बेच भी लूंगा और जब मन हुआ पी भी लूंगा, क्योंकि तुम्हें शुरू से ही दूध बहुत पसंद है. कभी कहते मैं बड़ा होकर सीडी की दुकान खोलूंगा. किराए पर भी देता रहूंगा और ख़ुद भी खाली बैठे मूवीज़ देखता रहूंगा.”
अमेय अपनी नादानी याद कर ठठाकर हंस पड़ा. “जीवन में क्या करना है, रामायण सिखाती है. जीवन में क्या नहीं करना है महाभारत सिखाती है. और जीवन कैसे जीना है यह गीता सिखाती है. बेसिकली मैं तब एक नोबल प्रोफेशन अपनाना चाहती थी, जो मुझे उस समय मेडिकल में नज़र आ रहा था. पर टीचिंग तो उससे भी नोबेल निकला. यह तो वह प्रोफेशन है, जो दूसरे सारे प्रोफेशनल्स तैयार करता है. मुझे ना पैरेंट्स से शिकायत है, ना और किसी से. उन्होंने उस ज़माने में मुझे इतनी शिक्षा दिलाई इसके लिए मैं उनकी शुक्रगुज़ार हूं. और वैसे भी हर बच्चा एक यूनिक आइडेंटिटी रखता है, अलग सोच रखता है तो सबको एक ही लाठी से हांकना व्यावहारिक नहीं होगा.”
“तो मतलब मैं डॉक्टर बनूं, ना बनूं आपको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता?”
“तुम्हें मैथ्स में रुचि है. तो मतलब तुम इंजीनियरिंग में जाना चाह रहे हो?” मुझे सूत्र कुछ-कुछ हाथ लगता महसूस हो रहा था.
“नहीं. मैं कॉमर्स विद मैथ्स लेकर सी ए बनना चाहता हूं.”
“अरे वाह, इसकी तो आजकल बहुत डिमांड है! ज़रूर बनो.”
“पर पापा?”
“उन्हें मैं मना लूंगी.”
“जैसे आज बुआ को मनाया.”
“मैंने स़िर्फ प्रयास किया. परिणाम का नहीं सोचा.” पर परिणाम भी जल्दी ही आ गया. प्रसन्नचित्त दीदी बेटी रिनी के साथ एक दिन दोपहर में अचानक ही आ गईं.
“अरे वाह, आज तो रिनी बिटिया भी आई है.” मुझसे मिलकर रिनी अमेय के साथ बातों में लग गई.
“मांजी मंदिर गई हैं.” मैंने सूचित किया.
“आ जाएंगी. मैं तो ख़ास आपको शुक्रिया कहने आई हूं. रिनी को डांस क्लास छुड़वाकर स्विमिंग और कराटे ज्वाइन करवा दिए हैं. और वह वहां बहुत अच्छा कर रही है. आज के ज़माने में आत्मरक्षा के लिए लड़कियों को परांठे के साथ कराटे भी आने ही चाहिए दीदी.”
“आपके लिए भी एक ख़ुशी की ख़बर है. मैंने आपके लिए डांस क्लास सर्च की है. यह देखिए.” मैं उन्हें मोबाइल पर दिखाने लगी.
“आपके घर के पास ही है. आप जाकर भी सीख सकती हैं और वह घर पर भी सिखाने आ सकती है.”
“पर अब इस उम्र में? जब सीखना चाहती थी तब तो...”
“छोड़िए न दीदी. डिलीट करते रहिए अपनी ज़िंदगी से उन नामुनासिब लम्हों को, बातों को, यादों को, वरना ज़िंदगी हैंग हो जाएगी. यह देखिए.” मैंने वीडियो दिखाए.
“आपकी उम्र की ही तो हैं ये सब.”
“हूं... शायद तुम ठीक कह रही हो. रिनी के पापा भी यही कहते हैं कि ग़लती कबूलने और गुनाह छोड़ने में देर नहीं करनी चाहिए. सफ़र जितना लंबा होगा, वापसी उतनी ही मुश्किल हो जाएगी. मैं कल से ही जॉइन करती हूं.”
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES
