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कहानी- रक्षक (Short Story- Rakshak) | Family Drama, Short Stories
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कहानी- रक्षक (Short Story- Rakshak)

सोया हुआ निर्दोष सौंदर्य जैसे उसे भूत, भविष्य, वर्तमान सब कुछ भूल जाने को बाध्य कर रहा था. सोई हुई स्त्री ऐसी आकर्षक, ऐसी मोहक, ऐसी घातक लगती है, आज से पहले उसने ध्यान ही नहीं दिया था. सोचने लगा, यदि वह इन लड़कियों के साथ कोई अमर्यादित चेष्टा करे तो क्या होगा?

आज प्रीतम सिंह का मन उचाट है. रोज़ तो ढाबे में इतनी भीड़ रहती है कि उसे तनिक सुस्ताने का अवसर भी नहीं मिल पाता. ढाबे में ट्रक चालकों की बारात सी ठहरी रहती. 'मामा का ढाबा' हां, यही नाम है प्रीतम सिंह के ढाबे का. सामिष हो या निरामिष, भोजन का स्वाद और सुगन्ध जैसे दूर से ही ट्रक चालकों को खींच लाती. इस स्वाद के कारण ही प्रीतम ऋषि दुर्वासा से क्रोधी रसोइए का क्रोध हंस कर झेल जाता है. प्रीतम सिंह के स्वभाव की मृदुता रसोइए के क्रोध में आए उफान में छींटें का काम करती है, साथ ही सूरा-प्रेमी ट्रक चालकों के अनर्गल वार्तालाप को विराम देती है.

कुछ ट्रक चालकों के चेहरे तो इतने परिचित हो गए हैं कि वे उसे अपने ढाबे का एक हिस्सा लगते हैं, "ओए मामा, खाने में आज क्या है?" पूछते श्रमिक-सुधातुर ट्रक चालक इस ढाबे को देखते ही प्रसन्न हो उठते, "तुम्हारे ढाबे की फ्राइड राइस के आगे फाइव स्टार का खाना फीका लगे है." आभार से मुस्कुरा देता प्रीतम, "सब आप लोगों की कृपा है जी."

ये ढाबा प्रीतम के निःसंतान मामा का है. वह स्वयं अच्छी-सी ठसकेदार नौकरी की आशा में पढ़ता रहा. नौकरी मिली नहीं, मामा रहे नहीं, उसने इस ढाबे को अपनी नियति समझ लिया. ट्रक चालक उसे भी मामा कहने लगे और उसने मामा के ढाबे की आन-बान-शान में गिरावट नहीं आने दी.

आज उसी ढाबे की शान फीकी फीकी सी है. पानी है कि रुकने का नाम नहीं. सब ट्रक जहां-तहां फंसे पड़े हैं. चारों तरफ़ पानी ही पानी. लगता है, ढाबा किसी पोखर में तैर रहा है. झीगुरों की आवाज़ उबासी सी पैदा कर रही है. रसोई ठंडी पड़ी है. प्रीतम सिंह का मन उचाट कैसे न हो. वह इधर-उधर मुंडी घुमाता बैठा था. शायद किसी वाहन की हेड लाइट दिख जाए. कुछ देर बाद किसी बाइक की रोशनी दिखाई दी. प्रीतम आशावान हो उठा. वह एक जीप गाड़ी थी. ढाबे के सामने रोक ड्राइवर ने मुंडी बाहर निकाली, "खाना मिलेगा?"

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"हां, आ जाओ."

जीप से एक भरा-पूरा परिवार उतरा, एक वृद्ध, एक वृद्धा, चार लड़कियां, दो युवा, दो बच्चियां. वृद्ध आते ही रसोई के पीछे बने दालान में पड़ी खरहरी खाट में धंस गए. "चलो कोई ठिकाना तो मिला. लग रहा था भूखे पेट रात कटेगी."

वृद्धा क्रोधित थीं, "सब तुम्हारा किया धरा है. लड़कियों को सिर चढ़ा रखा है. उन्होंने कह दिया जगन्नाथपुरी जाना है और तुम चल दिए इस बरसात में."

"क्या पता था. पानी नाक में दम कर देगा. सोचा था, राखी, कजली, द्वितीय शनिवार, इतवार फिर पन्द्रह अगस्त, इतनी छुट्टियां मिल रही हैं, दो-तीन दिन की और लेनी पड़ेगी, बस चल दिया."

"तो अब भुगतो."

दोनों बड़ी लड़कियां अपने माता-पिता को लड़ते देख मंद-मंद मुस्कुराने लगीं. वृद्धा चमकी, "ये मुस्कुराने से काम नहीं चलेगा लड़कियों, घर पहुंचना मुश्किल हुआ जा रहा है."

"सचमुच इस मूसलधार वृष्टि में दिमाग़ काम नहीं कर रहा." कहकर वृद्ध प्रीतम से संबोधित हुए, "आज रात काटने का प्रबंध हो सकता है क्या? गाड़ी चलाने में ड्राइवर को असुविधा होती है."

"प्रबंध हो जाएगा किंतु एक्स्ट्रा चार्ज लगेगा." प्रीतम ने व्यावसायिकता दिखाई.

"जो होगा, दे़गे. बड़ी दूर से यात्रा करके आ रहे हैं, रात भर सो नहीं पाए."

"सब प्रबंध हो जाएगा." प्रीतम उत्साहित हो उठा. एक तो दिनभर की सुस्ती मिटी थी, दूसरे ऐसे ताजे हसीन चेहरे उसके ढाबे में संभवतः प्रथम बार आए थे.

प्रीतम ने आनन-फानन चाय तैयार कराई और भोजन की व्यवस्था देखने लगा. कान निरंतर लड़कियों की बातों में लगे रहे. वे पूरी यात्रा और कुछ ख़रीददारी की चर्चा कर रही थीं. उत्साहित थीं लड़कियां. उन्हें उत्साहित देख प्रीतम की पुलक बढ़ती गई. भोजनोपरांत प्रीतम ने दालान पर पड़ी तीनों खाट उठवा कर खड़ी करवा दी और गोबर से लीपे गए दालान में दरी बिछवा दी. कुछ चादर इत्यादि लड़‌कियों के पास थे. ड्राइवर जीप में सोने चला गया. बाहर पड़ी खाटें भीगी हुई थी.

बिछावन नरम नहीं थी, फिर भी पूरा परिवार क्षणों में सो गया. किसी ने ठीक ही कहा है प्रेम न जाने जात और पांत, भूख न जाने बासी भात, नींद न जाने टूटी खाट.

इधर प्रीतम की नींद उड़ चुकी थी. सोती हुई युवा कन्याओं को देख उसका मन कैसा तो हो गया, अवश, अनियंत्रित, उत्तेजित. बड़ी लड़की तो बीस से कम नहीं थी. छरहरी देह और कमनीय मुख, पूर्ण विकसित पुष्प. उससे छोटी लड़की... आह... हां सोलह के आसपास लगती है. सोलह साल की बाली उमर के कहने ही क्या? ये उम्र तो जैसे जाने के बाद भी नहीं आती. मामा ने प्रीतम का ब्याह जल्दी ही कर दिया था. गौने पर आई नवोढ़ा पत्नी सोलह की ही तो थी. इस समय पत्नी मायके गई हुई है. स्त्री का चेहरा देखना दूभर हो गया जैसे.

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बाहर काले-काले बादल बरस रहे हैं. बिजली चमक रही है, लताएं झूम रही हैं, दालान में बेसुध अलसाया जोबन बिखरा पड़ा है. प्रीतम को विचित्र सी अकुलाहट होने लगी. दृष्टि अनायास बीस और सोलह वर्षीया बालाओं पर जा टिकती. वृद्धा दोनों छोटी लड़कियों को अगल-बगल चिपटाए एक ओर सो रही थी. प्रीतम उसकी मूर्खता पर हंसा, उम्र गुज़र गई और इसे ये भी नहीं मालूम कि निर्जन स्थान में युवा लड़कियों की सुरक्षा अधिक आवश्यक है. और उधर बाप... ऐसा बेसुध पड़ा है जैसे साथ में लड़कियां नहीं, भूस के चार बोरे हैं, जिसे ले जाना हो ले जाए. इन्हें ही चिंता नहीं तो उसका क्या दोष? मन चंचल होता है तो क्या करें? उसकी दृष्टि पुनः दोनों युवतियों पर जा टिकी. कितना अच्छा होता जो ये दोनों लड़कियां उसकी प्रेयसी होती. जीवन में शहद सी घुल जाती.

इस बीच बड़ी लड़की की चादर एक ओर सरक गई. सलवार तनिक ऊपर चढ़ गई. उसके दूध से सफ़ेद टखने मर्यादा तोड़ने को बाध्य करने लगे. इन मृग लोचनियों से तो विश्वामित्र भी नहीं बच सके, फिर प्रीतम तो मनुष्य है. मानवीय दुर्बलताओं से भरा साधारण मनुष्य. जब यह लड़की अपरिचित अनजानी जगह में ऐसी निश्चिंत सो रही है तो वह क्या करें? इनकी सुरक्षा का ज़िम्मा नहीं लिया उसने.

वृद्ध-वृद्धा जाग रहे हैं अथवा नहीं, यह जांचने के लिए प्रीतम पानी पीने के बहाने उठा. पानी पीकर जान- बूझकर किनारे पड़ी बीस वर्षीया लड़की के सिरहाने से निकला. कोई प्रतिक्रिया नहीं, वह एक निःश्वास छोड़ अपने स्थान पर बैठ गया. हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था. लग रहा था उस लड़की के पायताने बैठ जाए और उसके पैरों की उंगलियों के पोरों को बड़ी कोमलता से सहलाए. सोया हुआ निर्दोष सौंदर्य जैसे उसे भूत, भविष्य, वर्तमान सब कुछ भूल जाने को बाध्य कर रहा था. सोई हुई स्त्री ऐसी आकर्षक, ऐसी मोहक, ऐसी घातक लगती है, आज से पहले उसने ध्यान ही नहीं दिया था.

सोचने लगा, यदि वह इन लड़कियों के साथ कोई अमर्यादित चेष्टा करे तो क्या होगा? ये जाग जाएंगी, शोर मचाएंगी, सब उसे मारेंगे, ढाबे की बदनामी होगी. अपनी दुर्दशा की कल्पना से सिहरन सी दौड़ गई उसकी देह में.

मुसीबत का मारा ये परिवार उसके ढाबे में शरण लिए हुए है तो उनकी विवशता का लाभ लेना चाहिए क्या? छिः छिः, यही है मनुष्यता? वह मनुष्य है फिर उसमें पशुवृत्ति जन्म कैसे ले सकती है. नहीं, उसे ऐसा छिछोरा और अवसरवादी नहीं बनना चाहिए, पर इस मन का क्या करें? एक क्षण को भी तो लड़कियां भूल नहीं रहीं. प्रीतम उठा और बड़ा बल्ब बुझा कर नाइट बल्ब जला दिया. मद्धिम रोशनी में लड़कियों को निहारने में आसानी होगी. मद्धिम पीत रोशनी में लड़कियों के चेहरे चमक रहे थे. तभी सोलह वर्षीया लड़की ने नींद में ही अपने कपोल में चपत लगाई. मच्छर काट रहा था. इस हसीना के कपोल पर मच्छर? प्रीतम से नहीं सहा गया. तत्परता से उठा और टेबिल फैन चला दिया. इसी तरह मच्छर काटते रहे तो वृद्ध-वृद्धा की नींद उचट जाएगी और उसका मनोरथ सफल न होगा.

वातावरण पहले ही ठंडा था. ऊपर से पंखे की हवा, वृद्ध ठिठुरन से घुटने पेट में घुसेड़े ले रहे थे. प्रीतम उठा, वृद्ध की देह पर पड़ी चादर के ऊपर अपनी दुशाला डाल उन्हें मुंह तक ढांप दिया. अब वृद्ध उसकी चेष्टाओं को सहज ही नहीं देख पाएंगे. दुशाला डाल पुनः लड़कियों के सिरहाने से गुज़रा. देखा एक छछूंदर षोडशी के केशों के पास रेंग रही है. प्रीतम विद्युत की त्वरा से झुका और गमछे से छछूंदर को खदेड़ने लगा. चीं चीं की आवाज़ करती छछूंदर भागी, पर षोडशी की निद्रा में रुकावट नहीं आई. वाह रे कुम्भकर्णी नींदा. छछूंदर भगाने के उपक्रम में प्रीतम का हाथ षोडशी के रेशमी केशों पर जा पड़ा. लड़कियों के केश ऐसे मुलायम होते हैं, उसे आज पता चला. पत्नी के केश कैसे हैं इस ओर उसका ध्यान ही नहीं गया था. इच्छा हुई, इस हसीना के केशों को सहलाए. जाग जाएगी तो कह देगा, "छछूंदर भगा रहा था, आप तो जानती है छछूंदर सिर में चढ़ जाए तो बाल झड़ने लगते हैं."

प्रीतम षोडशी के सिरहाने बैठने को तत्पर ही था कि किसी की टॉर्च की रोशनी पड़ी ढाबे के सामने, जैसे कमर में स्प्रिंग लग गई हो, वह झटके से सीधा हुआ और बाहर झांका.

टॉर्च वाले ग्रामीण ने बताया "भैया, एक गाय आज घर नहीं लौटी, पता नहीं पानी में कहां अटक गई, उसे ही हेर रहे हैं."

इसे भी अभी जाना था. प्रीतम पुनः अपने स्थान पर आ बैठा. अब तक वृद्ध ने नींद में ही मुंह चादर से बाहर निकाल लिया. प्रीतम से एक स्थान पर बैठे रहा नहीं जा रहा था, गला सूखता सा प्रतीत हुआ. उठे और पानी पिए.

वह पानी उंडेल ही रहा था कि सबसे छोटी लड़की कुनमुनाई, "मां, पानी पीना है."

वृद्धा नींद में अस्फुट सी बोली, "सो जा, बिटिया, सुबह पीना पानी, थकान से पूरी देह टूट रही है."

प्रीतम ग्लास लिए बच्ची की ओर बढ़ा और उसे पानी पिलाने लगा. साधारणतया बच्ची को स्पर्श करने में लोग आपत्ति नहीं करते हैं. किसी ने किया भी नहीं. सब सोए पड़े रहे. प्रीतम की मंशा बच्ची को स्पर्श करने की थी भी नहीं, वह तो दोनों बड़ी लड़कियों पर लट्टू था. बच्ची पानी पी पुनः एक ओर लुढ़क गई. वह पूरे परिवार की प्रदक्षिणा-सी करता हुआ अपने स्थान पर आ बैठा. बैठे-बैठे, कमर ऐंठने लगी, लेटने की इच्छा हुई.

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एक कोने में खाट डाल लड़कियों की ओर करवट ले लेट गया. देखा बड़ी लड़की का दुपट्टा एक ओर सरक गया है, लड़की आमंत्रण देती सी प्रतीत हुई. लड़की ने एक-दो बार, जल्दी-जल्दी करवट भी बदली. हाथ में लाल चींटी ने काट लिया था और वह नींद में ही हाथ खुजला रही थी. पता नहीं यह जाग रही है या सो रही है, जांचने के लिए वह लघुशंका बहाने उठा. लड़की के निकट से होता हुआ वह उसके दुपट्टे को पैर से तनिक खींचता हुआ पिछवाड़े चला गया.

पिछवाड़े के नीरव एकांत ने मन की चंचलता और बढ़ा दी. इच्छा हुई उसके हाथों में हिंसक पंजे लग जाएं तो वह इन दोनों ललिताओं को पिछवाड़े घसीट ले जाए और मेमने की तरह मसल डाले. ऐसी नृशंस सोच पर उसे एक क्षण को ग्लानि हुई, पर उसने ग्लानि को अपने पर हावी नहीं होने दिया.

वह निवृत्त हो भीतर आया. कुछ देर बड़ी लड़की के पायताने खड़ा हो साहस संजोता रहा. तभी डाइवर के खांसने का स्वर सुनाई दिया. पानी का वेग कम हुआ था और ड्राइवर की खांसी स्पष्ट सुनाई देती थी. कहीं ड्राइवर ने उसे यहां खड़े देख न लिया हो. वह झुक कर गमछे से कुछ बुहारने सा लगा. ड्राइवर पूछेगा तो कह देगा, "चींटी भगा रहा हूं, कतार लगी है चींटों की."

चींटी भगाने का अभिनय कर प्रीतम पुनः खाट पर आकर लेट गया. लड़कियों से ध्यान हटता ही न था. ड्राइवर की खांसी निरंतर व्यवधान डाल रही थी. ड्राइवर को मन ही मन गाली देते हुए प्रीतम न जाने कब सो गया.

स्वप्न देखा- बारा में झूले पड़े हैं, वृक्ष लहलहा रहे हैं. दोनों लड़कियां धानी लहंगा-चुनरी पहने खिलखिला रही हैं. वह उनकी कमलनाल सी कलाई थामे, कुंअर कन्हैया बना दोनों के मध्य झूले में बैठा झूल रहा है. बड़ा मनोहारी दृश्य था. प्रीतम खुमारी में डूब उतरा रहा था, तभी वृद्ध ने उसे जगा दिया.

स्वप्न भंग की त्रासदी लिए आंखें मलता प्रीतम उठ बैठा. मेह थम गया था. ढाबे के ऊपर छाए पाकड़ के पेड़ में झुण्ड की झुण्ड चिड़ियां कलरव कर रही थीं. सभी लड़कियां, हाथ-मुंह धो चुकी थीं.

बड़ी लड़की वृद्धा से कहने लगी, "मां, इतनी गहरी नींद आज तक नहीं आई. चोर-डाकू भी घसीट ले जाते तो नींद न खुलती."

प्रीतम घोर पश्चाताप में डूब गया. ये मुर्दा समान पड़ी थी तो भी उसे साहस नहीं हुआ. अरे हाथ सहला लेता तो इसका शील भंग न हो जाता और न ही वह स्वयं दुश्चरित्र कहलाता. प्रीतम स्पर्श सुख से वंचित रहने का मातम मना रहा था.

इधर वृद्ध कह रहे थे, "बेटी, तुझे चोर-डाकू कैसे उठा ले जाते, ये हमारा रक्षक रात भर जागता जो रहा."

उन्होंने प्रीतम की ओर संकेत किया. लड़कियां मंद-मंद मुस्कुराने लगीं. उनके मुख का स्मित हास्य बाल सूर्य की रश्मियों सा लग रहा था.

वृद्ध प्रीतम से संबोधित हुए "हां, बेटा तुम हमारे रक्षक ही तो हो. मैं रातभर जाग कर तुम्हारी सारी चेष्टाएं देखता रहा हूं."

तो... तो... उसकी कुचेष्टाओं की भांप लिया इन्होंने. प्रीतम का जी चाहा, छलांग मार खाट से उठे और ढाबा छोड़ भाग खड़ा हो. वह दीदे फाड़ वृद्ध को देखता रहा.

वे आगे बोले, "युवा बेटियां एक अनजान जगह पड़ी सो रही हों तो बाप को नींद कैसे आ सकती है. जागता रहा पूरी रात. तुमने मुझे दोशाला ओढ़ाई, इस छोटी बच्ची को पानी पिलाया. इस बच्ची के सिर के पास से छछूंदर भगाई. इन लोगों के पैर के पास शायद चींटे रेंग रहे थे तुमने गमछे से चींटे भगाएं. तेज रोशनी में कीड़े-पतंगे आते हैं, इसलिए तुमने बड़ा बल्ब बुझा कर छोटा बल्ब जलाया, मच्छर भनभना रहे थे तो तुमने टेबल फैन चला दिया, एक-दो बार आगे-पीछे झांक आए. एक व्यक्ति गाय ढूंढ़ता हुआ आया तो तुम तुरंत सतर्क हो गए... बेटा, यदि मालूम होता तुम ऐसे सज्जन हो तो मैं भी निश्चिंत होकर सो जाता, पर भलमनसाहत किसी के चेहरे में तो नहीं छपी होती, है न."

प्रीतम उन्हें देखता रहा.

"संभव हो तो चाय बनवा दो. चाय पीकर हम निकलेंगे. तुम, तुम्हारा ढाबा, तुम्हारी सदाशयता कभी नहीं भूलेगी बेटा. हमारे तुम्हारे बीच न रक्त संबंध है, न कोई सामाजिक बंधन. इसे भारतीयता ही कहूंगा, जो तुम रात भर इन बच्चियों के लिए चिंतित रहे. मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है. आज लग रहा है कि इस देश में भले ही बहुत कुछ बदला पर मनुष्यता अभी भी नहीं बदली है. भारतीयता अभी भी सबके दिलों में हैं.

अतिथि जीप में बैठ जा चुके थे. प्रीतम उस रास्ते को, जिधर जीप गई थी, देखता हुआ सोचता रहा- कितना अच्छा हुआ जो वह रक्षक से भक्षक बनने से बच गया, अन्यथा ये वृद्ध किसी अपरिचित पर विश्वास न कर पाते. और उन लड़कियों के मुख, जिसमें बाल सूर्य की आभा फैली हुई थी, मुस्कुराते रह सकते थे क्या?

- सुषमा मुनीन्द्र

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