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कहानी- सज़ा (Short Story- Saza)  

मेरे जन्म को अभी कुछ समय बाकी है, लेकिन तुम तो ख़ुशी से बौराई हुई हो. कारण तुम्हारा पहली बार मातृत्व सुख प्राप्त करना नहीं है. वह सुख तो तुम तीन बार प्राप्त कर चुकी हो, लेकिन उसे तुम सुख मानती ही कहां हो? तीनों बार लड़की पैदा करके कौन मां स्वयं को सुखी मानने का नाटक कर सकती है? फिर हमारे यहां तो पुत्र न होने पर मां-बाप को मोक्ष प्राप्त नहीं होता, परलोक नहीं सुधरता. जब तक उनकी चिता को उनका पुत्र अग्नि न दे, उन्हें कैसे सद्गति प्राप्त होगी? उनकी आत्मा को कैसे शांति मिलेगी? यही तो सब कहते हैं और तुम भी तो कहती थीं...

प्यारी मां,
मुझे पता है मेरे जन्म को लेकर आपके मन में कितना उत्साह, रोमांच व उत्सुकता है. दरअसल, हर महिला की यही स्थिति होती है जब उसे मातृत्व का अथकनीय सुख प्राप्त होने की घड़ी नसीब होती है. विधाता के अद्भुत सृजन को देख वह गद्गद् होती रहती है. बेशक नौ महीनों का लंबा समय उसने काफ़ी तकली़फें सहकर बिताया होता है. उसे असहनीय प्रसव पीड़ा भी झेलनी पड़ती है, लेकिन परिणामस्वरूप विधाता की अनुपम, अद्भुत कृति पाकर वह सारी पीड़ा, दुख-तकलीफ़ पलभर में भूल जाती है. और फिर जब शिशु पुत्र हो तब तो उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता. उसे लगता है उसके भाग्य खुल गए हैं. सारे जहान के सुख उसे प्राप्त हो गए हैं. हर ओर आनंद-ही-आनंद है. कहीं कोई दुख नहीं, मानो जीवन सार्थक हो गया पुत्र रत्न प्राप्त करके. मेरे जन्म को अभी कुछ समय बाकी है, लेकिन तुम तो ख़ुशी से बौराई हुई हो. कारण तुम्हारा पहली बार मातृत्व सुख प्राप्त करना नहीं है.

वह सुख तो तुम तीन बार प्राप्त कर चुकी हो, लेकिन उसे तुम सुख मानती ही कहां हो? तीनों बार लड़की पैदा करके कौन मां स्वयं को सुखी मानने का नाटक कर सकती है? फिर हमारे यहां तो पुत्र न होने पर मां-बाप को मोक्ष प्राप्त नहीं होता, परलोक नहीं सुधरता. जब तक उनकी चिता को उनका पुत्र अग्नि न दे, उन्हें कैसे सद्गति प्राप्त होगी? उनकी आत्मा को कैसे शांति मिलेगी? यही तो सब कहते हैं और तुम भी तो कहती थीं. तभी तो तीन बेटियों के बाद पुत्र होने के मोह में तुमने एक-एक करके तीन कन्या भ्रूणों की हत्या करवा दी थी. पहली भ्रूण हत्या के बाद तुमने राहत की सांस ली थी, “चलो, छुटकारा मिला मुसीबत से.” बेटी को तुम भी तो मुसीबत ही समझती थीं.

तुम्हारी सहेली तनूजा ने कहा भी था, “तेरी बेटियां कितनी गुणी, सुंदर और समझदार हैं. तुझे इनकी चिंता होनी ही नहीं चाहिए. आज के ज़माने में तीन बच्चे भी ज़्यादा हैं, फिर क्यों लड़के की चाह में परिवार असंतुलित कर रही है?” लेकिन तुम्हें उसकी बातें पसंद नहीं आई थीं. टका-सा जवाब दिया था, “अगर तेरे घर पुत्र न होता तो तुझे मेरी तकलीफ़ का अंदाज़ा होता. तेरे तो दोनों बेटे हैं, तुझे क्या पता कि लड़की की मां होना, वह भी तीन-तीन लड़कियों की, कितना तकलीफ़देह होता है. ममता का हिलोरे खाता सागर एकदम शांत होने लगता है. सारी रंगीन कल्पनाएं दम तोड़ने लगती हैं, जब एक के बाद एक लड़की पैदा होती है. लड़के की चाह में लंबा इंतज़ार करने के बाद जब लड़की गोद में आती है तो लगता है किसी ने ठग लिया है. नहीं, तू नहीं समझ सकती मेरी व्यथा को.”

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दूसरी भ्रूण हत्या करवाने के बाद तुम उदास हो गयी थीं. घर आकर पापा के कंधे पर सिर रखकर फफक पड़ी थीं, “कब तक हम लड़कियों की हत्याएं करवाते रहेंगे? क्या हम इतने बदक़िस्मत हैं कि एक बेटे का मुख नहीं देख सकते.”
पापा ने धीरज बंधाते हुए कहा था, “उस पर भरोसा रखो. उसके घर देर है, पर अंधेर नहीं. हमारे घर बेटा ज़रूर पैदा होगा.” बेटे की चाह में तुम इतनी बौरा गईं कि विवेक-बुद्धि ताक पर रख बाबाओं, ओझाओं से झाड़-फूंक, गंडे-तावीज़ बंधवाने लगीं. तीर्थयात्रा, पूजा-पाठ, मिन्नतें- मनौतियां सभी कुछ आज़मा डाला तुमने. यहां तक कि किसी के कहने पर पुत्र होने की शर्तिया दवा भी मंगा कर खा ली. इस दवा को गाय के दूध के साथ गर्भ धारण करने के छह से आठ सप्ताह के भीतर खाने की हिदायत दी गयी थी. तुमने दिशा निर्देशों का पालन करते हुए दवा खा ली.

कितनी भोली-नासमझ हो मां तुम भी. यह भी नहीं जानतीं कि बच्चे के लिंग का निर्धारण तो पहले दिन ही जब स्त्री-पुरुष के बीज मिलते हैं तभी हो जाता है. दवा खाने के बाद तुम काफ़ी तनावमुक्त हो गयी थीं, क्योंकि जिसने तुम्हें यह नुस्ख़ा बताया था, उसके अनुसार शर्तिया लड़का ही होता है. अब तुम दिन-रात, उठते-बैठते पुत्र पैदा होने के सपने ही देखती रहती थी. यहां तक कि बेटे के लिए कपड़े, खिलौने भी ख़रीदने शुरू कर दिए थे तुमने.

तीनों बेटियां समझदार हो चुकी थीं. बड़ी पंद्रह की तथा दोनों छोटी भी तेरह व दस की हो गई थीं. तुम्हारे बदलते व्यवहार से वे भी परेशान थीं. तुम अक्सर ही कह उठतीं, “जब तुम्हारा छोटा भाई आएगा तब ये करेंगे, वो करेंगे. उसके कपड़े-खिलौनों के लिए नई आलमारी ख़रीदेंगे. उसके नामकरण पर बड़ी पार्टी का आयोजन करेंगे. उसके जन्मदिन पर शहर की सबसे अच्छी बेकरी से बढ़िया केक बनवाएंगे...”

छोटी बेटी कौतूहल की मुद्रा में सारी बातें सुनती, फिर पूछ बैठती, “मां, तुम हमारा जन्मदिन क्यों नहीं मनाती?” 
तुम हताश और क्रोध से उबल पड़ती, “एक होती तो उसका मनाती भी, यहां तो तीन-तीन की कतार लगी हुई है. किसका मनाऊं किसका छोडूं.”

एक बार बड़ी बेटी ने ग़ुस्से में कह ही डाला था, “लड़कियों से इतना क्यों चिढ़ती हो मां? आख़िर तुम भी तो लड़की ही हो न.” तब तुमने उसे कितना बुरा-भला कहा था. केवल हाथ उठाने की कमी रह गयी थी. उसके पश्‍चात बेटियां भी फूट-फूटकर रोई थीं और तुम भी. तुम अपनी बदक़िस्मती पर रो रही थीं- बेटा पैदा न होने पर और बेटियां अपनी उपेक्षा पर, तुम्हारे पक्षपातपूर्ण रवैये पर, जो बेटा होने से पहले ही आरम्भ हो गया था. तनूजा को जब पता चला कि इस बार तुमने भ्रूण परीक्षण नहीं करवाया है, क्योंकि पुत्र रत्न की दवा तुम खा चुकी हो तो उसने तुम्हें कितना फटकारा था, “कितनी बेवकूफ़ हो. अगर दवा खाने से पुत्र पैदा होने लगे, फिर तो सभी मनपसंद औलाद प्राप्त कर लेंगे. दुनिया की आबादी का संतुलन ही नहीं गड़बड़ा जाएगा? जब मूर्खता कर ही बैठी हो तो अब भ्रूण परीक्षण जल्दी से करवा लो. कहीं देर हो गई तो पछताना न पड़ जाए.” तुम बुरी तरह घबरा गई थीं. कहां तो दिन-रात बेटे के सपने देखने में मग्न रहती थीं और कहां तनूजा ने संशय में डालकर सारे सपने बिखेर दिए थे. तनूजा के ही साथ तुम उसी दिन डॉक्टर के पास दौड़ी थीं. जब डॉक्टर ने बताया तुम्हारे गर्भ में पुत्र नहीं, बल्कि पुत्री है तो तुम्हें गश आ गया. आंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली थी. डॉक्टर ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि समय अधिक बीत जाने के कारण अब गर्भपात भी नहीं किया जा सकता.

उस घड़ी तो तुम्हारी स्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी, जब डॉक्टर के पैरों पर गिरकर रोते हुए तुम गिड़गिड़ा रही थीं, “डॉक्टर साहब, कुछ भी करिए, मुझे लड़की नहीं चाहिए. किसी भी क़ीमत पर मुझे इससे छुटकारा चाहिए...” फिर तुम्हारी तथा पापा की स्वीकृति पर डॉक्टर ने ख़तरनाक क़दम उठाया था. लड़की को इंजेक्शन देकर पहले मारा, फिर प्रसव क्रिया द्वारा उस मरी बच्ची को बाहर निकाला. बाहर निकालने के लिए भी उसके अंगों को काटना-छांटना पड़ा था. कितनी क्रूर हो गयी थीं तुम और तुम्हारी ममता. दो-तीन दिन तुम्हें अस्पताल रहना पड़ा था.

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बड़ी बेटी को सारी बात समझ आ गई थी. तुम्हारे प्रति दया या तरस के स्थान पर उसके मन में घृणा के भाव पैदा हो गए थे, तभी तो उसने कितनी हिकारत से तुम्हें देखा था. तुम उसकी नज़रों का सामना नहीं कर पाई थीं. चुपचाप आंखें बंद कर मुंह फेर लिया था. सहज होने के पश्‍चात कई बार तुमने फ़ैसला किया, अब कोई चांस नहीं लोगी. तीन-तीन बेटियों की हत्या की अपराधिन बनने के बाद तुम डरने लगी थीं, अगर फिर लड़की हो गई तो? इसी कशमकश में दो साल बीत गए थे. बेटियां भी फिर से तुमसे जुड़ने लगी थीं, कदाचित यह मानकर कि अब तुम परिवार बढ़ाने की बजाय पुत्र के मोह को त्यागकर लड़कियों पर ही समुचित ध्यान दोगी.

पर पता नहीं विधाता भी क्या-क्या खेल रचाते हैं? उन्होंने तुम्हें इतनी प्यारी, गुणी समझदार बेटियां दीं, लेकिन स्वयं को गर्वित महसूस करने के स्थान पर तुम तो अपने को सबसे बदनसीब मानती थीं. विधाता से सदा शिकायत थी तुम्हें कि उसने तुम्हें पुत्र-सुख से वंचित रखकर तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है. 
फिर पता नहीं कैसे तुम्हारी कोख में मेरा अवतरण हो गया. जब तुम्हें मेरी उपस्थिति का एहसास हुआ तो तुम तनूजा के पास दौड़ीं. दोनों मिलकर डॉक्टर के पास गईं और भ्रूण परीक्षण के बाद जब डॉक्टर ने कहा, “बधाई हो, इस बार आपकी मुराद पूरी हो गयी, शिशु लड़का है.” तो मारे ख़ुशी के तुम रो पड़ी थीं. संयत होने पर दोबारा पूछा था तुमने, “डॉक्टर साहब, ठीक से देखा न आपने. लड़का ही है न?” डॉक्टर मुस्कुरा दिया था. उसकी स्वीकृति पर तुम तनूजा के गले से लिपट गई थीं. कंठ अवरुद्ध हो गया था, कुछ बोल नहीं पा रही थीं.

लगभग बीस वर्षों की तुम्हारी लालसा, अभिलाषा पूर्ण होने जा रही थी. पलभर में ही तुम्हारी विधाता से की गई तमाम शिकायतें आभार में परिवर्तित हो गई थीं. तनूजा ने भी बधाई देते हुए तुम्हारी पीठ थपथपाई थी. मां, तुम्हारे संबंधियों, रिश्तेदारों में ऐसे बेटों की कमी नहीं रही, जिन्होंने मां-बाप की बुढ़ापे की लाठी बनने के स्थान पर उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया. उनकी संपत्ति जबरन हथिया ली, उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर किया, उनसे संबंध तोड़ लिए. एक के बेटे ने तो संपत्ति के लिए बाप की हत्या ही कर डाली. क्या तुम यह सब नहीं जानतीं?
बहुत अच्छी तरह जानती थीं, लेकिन तुम परम्पराओं की परिपाटी से बाहर नहीं आना चाहती थीं. लड़के के बिना वंश कैसे चलेगा, यही दलील थी न तुम्हारी! अच्छा बताओ, पापा अपने दादा-परदादा का नाम या उनके बारे में कुछ बता सकते हैं? नहीं न? फिर किस वंश-परम्परा को चलाने की तुम्हें चिंता लगी रहती है?

अब कोख में मेरे आ जाने से तुम चिंतामुक्त हो गई हो कि तुम्हारा वंश चलता रहेगा. तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा आ जाएगा, तुम्हें मृत्यु के बाद सद्गति प्राप्त होगी. परलोक सुधर जाएगा. कोई तुम्हें ‘निपूती’ नहीं कहेगा. ख़ुशी से तुम बौरा रही हो. जैसे पहली बार मातृत्व सुख प्राप्त हो रहा हो, कुछ ऐसा ही तुम्हारा व्यवहार, सोच होते जा रहे हैं. कोख में लड़की न होने के कारण इस बार गर्भावस्था में परिवर्तन तुम जबरन महसूस कर रही हो. तुम्हारा जी मिचलाना इस बार बहुत कम समय तक हुआ है. खट्टा खाने की बजाय मीठा खाने की इच्छा होती है. चेहरे पर थकान-झाइयों के स्थान पर लावण्य आ गया है. रंग निखर गया है, पेट का उभार पहले की बजाय अधिक तेज़ी से हो रहा है, चाल में परिवर्तन आ गया है (ये सारे परिवर्तन केवल तुम ही महसूस कर रही हो. कहनेवाला तो कोई नहीं है). लेकिन अंधविश्‍वासों, परम्पराओं में जकड़ी अज्ञानी मां यह नहीं जानतीं कि विज्ञान चाहे कितनी भी तऱक़्क़ी कर ले, कभी-कभी और कहीं-कहीं वह भी ग़लत सिद्ध होता है. और मेरे बारे में तो डॉक्टर भी गच्चा खा गए. बहुत बड़ी भूल कर बैठे. तुम्हें बताया कि तुम्हारे गर्भ का शिशु लड़का है, लेकिन असलियत यह है कि मैं लड़का नहीं हूं. मेरे जन्म के बाद ख़ुशियां मनाने के बड़े-बड़े ख़्वाब तुमने देख डाले हैं, योजनाएं बना रखी हैं. मोहल्ले भर में लड्डू बंटवाए जाएंगे, बैंड बाजा बजेगा, पटाखे-अतिशबाजी चलाए जाएंगे, घर में शुद्ध घी के दीए जलाए जाएंगे. मगर तुम्हारी सारी योजनाएं धराशायी हो जाएंगी, ख़्वाब बिखर जाएंगे, जब जन्म के बाद तुम मुझे देखोगी. कभी-कभी नियति भी ऐसी अनहोनी घटनाएं प्रस्तुत कर देती है, जिसे देख मानना पड़ता है कि होनी बड़ी बलवान है. मुझे देखने के बाद तुम तो गश खाओगी ही, मोहल्ले-बिरादरी के लोगों के बीच भी हड़कंप-सा मच जाएगा. मजमा लग जाएगा तुम्हारे घर मुझे देखने के लिए और आनन-फानन में तालियां पीटते गानेवालों की जमात पहुंच जाएगी. अपनी बिरादरी के बच्चे को ले जाने की उनकी कोशिश होगी और तुम्हारी हालत सांप-छुछंदर-सी होगी. शायद विधाता ने तीन-तीन लड़कियों की हत्या के तुम्हारे अपराध के दंडस्वरूप मुझ जैसे मानव को तुम्हारी कोख में डाल दिया. ऐसे मानव की उत्पत्ति के कारण का जवाब तो डॉक्टरों के पास भी नहीं है, लेकिन उस अदृश्य शक्ति या होनी अथवा विधाता कह लें के आगे किसी की नहीं चलती. 

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औलाद चाहे लड़का हो या लड़की (या बदक़िस्मती से मेरी तरह) मां के प्रति मोह-प्यार तो उसे होता ही है. मैं भी यह सोचकर परेशान हूं कि मेरे जन्म के बाद तुम पर जो दुख-तनाव का पहाड़ टूटेगा, उससे तुम्हें कैसे निजात मिल सकती है? मेरे कारण लोग तुम पर फब्तियां कसें और तुम्हें शर्मसार होना पड़े, यह मुझे कैसे मंजूर होगा? तुम, पापा और मेरी बहनें लोगों के व्यंग्यबाण से कैसे बच सकते हैं, मुझे यही चिंता सताए जा रही है. कल्पना में मुझे दिखाई दे रहा है- लोग मुझे देखकर हंस रहे हैं, तुम्हें पूछ रहे हैं- ‘तुम्हारे घर लड़का पैदा हुआ है न. यही है वह लड़का? ऐसा होता है लड़का...? हा!हा!हा!...’ जैसे किसी समझदार बच्चे की निकर उतार दोस्त उसे कहते हैं... नंगा, शेम-शेम. मुझे भी वही व्यंग्य-ताने सुनाई दे रहे हैं... शेम..शेम..शेम... बहनों की सहेलियां मुंह छिपाकर हंस रही हैं- ‘तेरे घर भाई पैदा हुआ है. क्या सचमुच वह लड़का है?’ पापा अपने भाग्य को कोस रहे हैं... पता नहीं किन पापों की सज़ा है यह. बस मां, अब मुझसे और नहीं देखा-सोचा जा रहा. पूरे परिवार को नारकीय जीवन की भट्टी में नहीं झोंका जा सकता. मैंने बहुत सोच-समझ कर निर्णय कर लिया है. सभी को जिल्लतभरी ज़िंदगी से उबारने का एक ही रास्ता है. मेरे जन्म को रोकना. इसे तुम तो करोगी नहीं चूंकि तुम तो लड़के की ग़लतफ़हमी में पुलकित हो रही हो, अत: यह कार्य मैं ख़ुद ही कर रहा हूं. तुम्हारी कोख में मैं आत्महत्या कर रहा हूं...
अलविदा... 
तुम्हारा अभागा शिशु

नरेंद्र कौर छाबड़ा





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