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कहानी- शबरी मां  (Short Story- Shabri Maa)

संगीता माथुर

“हम भारतीय स्त्रियां ऐसी ही होती हैं. जूठा-अच्छा नहीं, हमारे लिए हमारे आत्मीय जनों का स्वास्थ्य, सुरक्षा ज़्यादा महत्वपूर्ण चीज़ होती है.  तुमने शबरी के बेर कहानी पढ़ी है ना! कैसे अपने आराध्य राम को मीठे बेर खिलाने के लालच में शबरी मां ने एक-एक बेर चखकर उन्हें मीठे  बेर ही परोसे थे. मुझे लगता है कि हर भारतीय स्त्री में भी जाने-अनजाने में एक शबरी मां छुपी होती है.”

चैनल बदलती अनन्या के हाथ यकायक मास्टरशेफ सीरियल पर अटक गए, क्योंकि पास बैठी उसकी दादी बड़े गौर से यह शो देख रही थी.
“कितने अच्छे से अपनी डिशेज़ प्रेज़ेंट करते हैं ना ये लोग!” अनन्या ने सीरियल में दादी की रुचि देखते हुए उनका उत्साहवर्धन किया. वैसे भी उसे पता था कि दादी को कुकिंग का बहुत शौक रहा है.
“हम्म्म! समझ ही नहीं आ रहा कि खाना है या स़िर्फ देखना है. डिश है या शोपीस? पकवानों के नाम भी कैसे बड़े-बड़े और अजीब से रखते हैं ये लोग!” दादी की मासूमियत पर अनन्या को उन पर प्यार उमड़ आया. वह उनसे लिपट गई.
“आप भी इस कॉन्टेस्ट में जाओ ना दादी! मैंने सुना है आप बहुत अच्छी कुकिंग करती थीं. इसमें एक आपकी उम्र की महिला भी है. गुजरात की बा.”
दादी का ध्यान पोती की बातों पर कम टीवी पर ज़्यादा था.
“पर ये लोग बनाते हुए बार-बार खाना जूठा  क्यों कर रहे हैं?”
“सीज़निंग देखनी पड़ती है ना दादी! कुछ कम-ज़्यादा हो गया, तो जजेज़ के पास ले जाने से पहले डिश को एकदम परफेक्ट करना पड़ता है.” टीनएज में पहुंच चुकी अनन्या दादी को छोटी बच्ची मानकर उन्हें समझाने लगी थी.
“भई हम तो सूंघकर ही खटास, मिठास, नमकीन के सही अनुपात का अंदाज़ लगा लेते थे. ऐसे चख-चखकर हमने तो कभी खाना नहीं बनाया. आजकल तो यह घर-घर का ट्रेंड ही हो गया है. जूठे खाने का भला कैसे भोग लगेगा? और हम तो भगवान को भोग लगाए बिना अन्न का दाना भी मुंह में नहीं डालते.”


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अनन्या कुछ सोचती या पूछती, इससे पूर्व ही रसोई से मां की पुकार सुन वह रसोई की ओर चल दी.
“राहुल के लिए वेज सैंडविच बना रही हूं. तुझे खाना है, तो तेरे लिए भी बना दूं.” सैंडविच के लिए खीरा काटती मम्मी ने एक टुकड़ा खीरा चखा और फिर ब्रेड सूंघने लगी.
“क्या हुआ?” गौर से देखती अनन्या ने पूछा.
“खीरा मीठा है कड़वा नहीं, वरना सारा सैंडविच कड़वा हो जाता. ब्रेड भी ताज़ी है. कई बार लड़का पुरानी ब्रेड पकड़ा जाता है. चीज़ भी खट्टा नहीं हुआ है.” कसे हुए चीज़ की एक बाइट लेते हुए मम्मी ने सैंडविच बनाकर सैंडविच मेकर में डाल दिया और अनन्या को ग्रीनलाइट होने तक वहीं रुके रहने का कहकर ज़रूरी काम से बेडरूम में चली गईं.
अनन्या कुछ सोचती वहीं खड़ी रह गई. ‘घर-बाहर के कितने काम करने होते हैं मम्मी को. इतनी बड़ी बैंक ऑफिसर होते हुए भी घर के छोटे-छोटे कामों में उन्हें खटना पड़ जाता है. कभी कुक छुट्टी पर, तो कभी मेड नई लगानी है. लेकिन मम्मी हैं कि बिना झुंझलाहट एक के बाद एक काम निपटाए चली जाती हैं. वह भी बड़ी होकर मम्मी जैसी बड़ी ऑफिसर बनेगी. लेकिन इसके लिए उसे बहुत पढ़ना पड़ेगा. चलो आज का टीवी टाइम ख़त्म. अब पढ़ाई शुरू.’ राहुल को सैंडविच पकड़ा कर अनन्या पढ़ने बैठ गई थी.
सवेरे स्कूल के लिए मम्मी के उठाने पर ही उसकी आंख खुली थी. तैयार होकर किचन में पहुंची, तो उसका दूध तैयार था. नया कुक परांठे सेंक रहा था और मम्मी उसका टिफिन पैक कर रही थीं. एक चम्मच सब्ज़ी टेस्ट करते हुए उन्होंने बुरा-सा मुंह बनाया.
“मसाले थोड़े कम रखा करो भैया! आज तो मैं टिफिन में साथ में दही रख देती हूं.” कहते हुए वो फ्रिज से दही निकाल लाई थीं. एक चम्मच चखकर उन्होंने टिफिन में दही रख दिया था.  “खट्टा नहीं है. फिर भी इसमें थोड़ी शक्कर डाल देती हूं. लंच ब्रेक तक खट्टा ना हो जाए.” संतुष्ट होकर उन्होंने अनन्या को टिफिन पकड़ा दिया था. अनन्या ने भी मुस्कुराकर टिफिन थाम लिया और बाय करके मां से विदा ली.
दो दिन बाद की बात है. अनन्या स्कूल से लौटी, तो घर में काफ़ी चहल-पहल मची हुई थी. दादी सुंदर, कलफ़ लगी साड़ी पहने अपना कमरा ठीक कर रही थी. राहुल टेबल लगा रहा था. पापा कुछ सामान लेने बाज़ार गए हुए थे. मम्मी कुक के साथ रसोई में जुटी हुई थीं. तरह-तरह के व्यंजनों की ख़ुशबू से घर महक रहा था.


“दादी के भैया-भाभी खाने पर आ रहे हैं. यूनिफॉर्म चेंज करके ढंग के कपड़े पहन लो और आकर काम में हाथ बंटाओ.” राहुल बोला. फिर धीरे से वह दीदी के कान में फुसफुसाया, “हमें उनके आते-जाते पांव भी छूने हैं. याद दिला देना.” अनन्या कपड़े बदल कर लौटी, तो काम पूरे स्विंग पर चल रहा था. खीर मम्मी ख़ुद हिला रही थीं. कहीं तली में लग न जाए. उन्होंने ज़रा-सी खीर टेस्ट की और फिर दो चम्मच शक्कर और डाल दी. साथ-साथ कुक को निर्देश भी दिए जा रही थीं.
“एक-एक तोरई टेस्ट करके काटना, वरना सारी सब्ज़ी ख़राब हो जाएगी.”
“मम्मी, मैं कुछ हेल्प करूं?” अनन्या ने पूछा.
“तुम मुझे फ्रूट चाट तैयार करवा दो.” ढेर सारे एप्पल, केले, संतरे, अंगूर, कीवी आदि लेकर मां डाइनिंग टेबल पर जम गईं.
“एक-एक फल अच्छे से चेक करके फिर बारीक़ काटना है. सड़ा हुआ नहीं होना चाहिए. बीज निकाल देने हैं. संतरे, अंगूर ज़्यादा खट्टे हा़ें, तो अलग रख देना. उन्हें बाद में जूस निकालकर शक्कर मिलाकर काम में ले लेंगे. मैं पहले खीर के लिए सूखे मेवे काट लेती हूं.” मम्मी एक-एक काजू खोलकर कीड़े चेक करके बारीक़ काटने लगीं. फिर एक पिस्ता चखा. फिर उन्हें भी बारीक़ करने लगीं.
“संतरे खट्टे तो नहीं हैं ना?” उन्होंने फल काटती अनन्या से पूछा.
“ओह! मैं तो टेस्ट करना ही भूल गई. ज़रूरी है क्या टेस्ट करना?”
“हां बेटा, जब तक ख़ुुद संतुष्ट ना हो जाओ. दूसरों को खाने को मत दो. यदि हम मामूली-सा चख लेंगे, तो घरवालों को बेफिक्र होकर परोस पाएंगे.”
“लेकिन दादी तो कहती हैं कि ऐसे चखने से खाना जूठा हो जाता है. वे तो सूंघकर ही मीठे, नमकीन, खट्टे के अनुपात का पता लगा लेती हैं.” अनन्या के दिमाग़ में कई दिनों से उमड़-घुमड़ रहा सवाल आख़िर ज़ुबान पर आ ही गया, जिसने एक पल के लिए तो मम्मी को भी अवाक कर दिया था. पर फिर वे गंभीर हो उठी थीं.
“सबकी अपनी-अपनी सोच होती है. फिर मैं तुम्हारी दादी की तरह बहुत अनुभवी और कुशल कुक नहीं हूं. मेरी कुकिंग में उनके जितना परफेक्शन नहीं है. वे तो मसाले भी अंदाज़ से डाल लेती हैं. लेकिन मुझ नौसिखिया को तो नाप-तोल कर, चख-चखकर ही खाना बनाना पड़ता है. फिर भी उनकी बराबरी नहीं कर पाती.” मुस्कुराकर मां ने हल्के-फुल्के लहजे में बात समेट ली थी. अनन्या एक बार फिर मां के अंदाज़ की कायल हो गई थी. शब्दों का भी तापमान होता है. ये सुकून भी देते हैं और जला भी देते हैं. किसी की बुराई किए बिना, आहत मन की टीस छुपाकर मां कितनी आसानी से वातावरण को सहज बना देती हैं. वे हमेशा प्रयत्नरत रहती हैं कि उनकी वजह से किसी के आपसी रिश्तों में खटास न आने पाए.
डोर बेल बजी, तो साड़ी का पल्लू संभालते मां दरवाज़े की ओर लपकीं.
“लगता है वे लोग आ गए हैं.”


पूरा दिन मेहमानों की आवभगत में कब गुज़र गया, कुछ पता ही नहीं चला. घर में रिश्तेदारों का आगमन त्योहारों का सा उल्लास भर देता है. देर रात गए मेहमान विदा हुए, तो सब थक कर सो गए. अगले दिन रविवार था, तो अनन्या निश्‍चिंत सोती रही. रसोई से आती खटपट की आवाज़ से उसकी आंख खुली. उठकर बाहर आई, तो देखा कुक खाना बना रहा था और मां उसे गाइड करने के साथ-साथ वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठकर कुछ फाइलें देख रही थीं. 
“आज तो छुट्टी है ना मम्मी!” अनन्या ने पीछे से जाकर उनके गले में बांहें डाल दीं.
“हां, कल देख नहीं पाई थी, तो अभी निपटा लेती हूं. तेरे पापा को रात में बुखार हो गया था. अभी दवा लेकर सोए हैं. उन्हें आज खिचड़ी-जूस वगैरह ही देना है. अब मैं भी थोड़ा सो लेती हूं.  रातभर जगने से सरदर्द होने लगा है.” फाइलें  समेटते हुए मम्मी उठ खड़ी हुईं, तो अनन्या का मन उनके प्रति सहानुभूति से भर उठा. मजबूरियां देर रात तक जगाए रखती हैं. ज़िम्मेदारियां सुबह जल्दी उठा देती हैं. “आप आराम कीजिए. कल भी पूरा दिन बहुत व्यस्तता भरा रहा. मैं देख लूंगी.”
“थोड़ी देर में अपने पापा को खिचड़ी दे देना. फिर दिन में जूस दे देंगे.”
अनन्या ने मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पूरी की. दिन में भी पूरा खाना लगा देने के बाद ही उसने मम्मी को उठाया. “लंच ले लो मम्मी. दादी और राहुल ने तो खाना शुरू भी कर दिया है. मैं आपकी और अपनी प्लेट लगा रही हूं. जल्दी आ जाइए.”
मम्मी उठीं तो डायनिंग टेबल पर बैठने की बजाय एकबारगी सीधे रसोई में चली गईं.
“फ्रिज से संतरे निकाल कर रख देती हूं. लंच के बाद तेरे पापा को जूस बनाकर देना है.”
पीछे-पीछे अनन्या भी आ गई. “दादी को कल वाली खीर खानी है. बची है क्या?” वह फ्रिज टटोलने लगी. एक कटोरी खीर मिल गई. वह ले जाने लगी, तो मम्मी ने उसे रोका.
“एक सेकंड...” उन्होंने कटोरी ले ली.
“कल पूरे दिन तो खीर बाहर ही पड़ी थी. रात को खाली करके फ्रीज में रखी थी. और कल रात बहुत देर बिजली नहीं थी. खीर ख़राब ना हो गई हो?” उन्होंने पहले सूंघा. फिर चौथाई चम्मच भरकर मुंह में रखा. “हल्की खटास आ गई लगती है. रहने दे इसे.” कहते हुए उन्होंने कटोरी सिंक में खिसका दी. फिर बाहर आ गईं.
“कल ज़्यादा दूध लेकर ताज़ी खीर बना दूंगी मांजी. वह सही नहीं लग रही.”
“अरे मैं तो ख़त्म करने के लिए मांग रही थी. तू बैठ कर आराम से खाना खा. अब कैसी तबीयत है विजय की?”
“पहले से ठीक है.”
“कुछ खाया उसने? थोड़ी सी तबीयत ख़राब होते ही उसका खाना-पीना छूट जाता है.”
“जी, खिचड़ी दी थी अनन्या ने. अभी खाना खाकर जूस निकाल कर दे दूंगी.”
“मैं निकाल देती हूं. मैंने खा लिया है.” मांजी ने जूस निकालकर राहुल के हाथ भिजवाया, तो वह उल्टे पैर वापस आ गया.
“पापा तो सो गए.”

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“यहीं टेबल पर रख दे. अभी उठ जाएंगे तब दे देंगे.” मांजी और राहुल वहीं बैठ कर टीवी देखने लगे. मम्मी और अनन्या ने खाना ख़त्म किया. फिर दोनों किचन और बर्तन समेटने लगीं. शाम को क्या बनेगा, यह भी साथ-साथ चर्चा चल रही थी. 
“पापा क्या खाएंगे? देखती हूं जग गए हों तो पूछ आती हूं.” अनन्या देखने गई और आकर बोली, “पापा शाम को दलिया लेंगे. अरे, उनका जूस  भी तो रखा है कब से! दे आती हूं.” वह ग्लास उठाकर ले जाने लगी, तो दादी को अचानक कुछ ध्यान आया. उन्होंने उसे रोक लिया.
“एक मिनट.” उन्होंने एक टीस्पून जूस भरकर चखा.
“कड़वा न हो गया हो. हम्म्म.. ठीक है.”
“पर दादी, यह तो जूठा हो गया...” अनन्या के मुंह से बेसाख़्ता निकल गया. एकबारगी तो दादी के साथ-साथ मम्मी भी सकपका गईर्ं. पर फिर मम्मी ने तुरंत बात संभाली.
“रखा हुआ जूस ख़राब हो जाता है बेटा. इसलिए दादी ने चखना ज़रूरी समझा, वरना इसे पीने के बाद पापा की तबीयत और बिगड़ जाती तो? हम भारतीय स्त्रियां ऐसी ही होती हैं. जूठा-अच्छा नहीं, हमारे लिए हमारे आत्मीय जनों का स्वास्थ्य, सुरक्षा ज़्यादा महत्वपूर्ण चीज़ होती है.  तुमने शबरी के बेर कहानी पढ़ी है ना! कैसे अपने आराध्य राम को मीठे बेर खिलाने के लालच में शबरी मां ने एक-एक बेर चखकर उन्हें मीठे  बेर ही परोसे थे. और भगवान ने भी उनकी भावनाओं को सम्मान देते हुए बेहद प्यार से उन्हें ग्रहण किया था. मुझे लगता है कि हर भारतीय स्त्री में भी जाने-अनजाने में एक शबरी मां छुपी होती है, जो हमेशा अपने आत्मीयजनों के लिए फ़िक्रमंद रहती है. वह जब तक किसी खाद्य पदार्थ की गुणवत्ता को लेकर ख़ुद संतुष्ट नहीं हो जाती, उसे घरवालों को नहीं परोसती. इसीलिए तो हमारे घरवाले बेफिक्र होकर घर का खाना खाकर स्वयं को स्वस्थ, संतुष्ट और सुरक्षित महसूस करते हैं. मां नन्हें शिशु की दूध की बोतल भरने से पूर्व जांच लेती है कि दूध का तापमान और मीठे का अनुपात सही है या नहीं. यह जूस जूठा नहीं हुआ है, बल्कि एक सुरक्षा कवच के आवरण में लिपटकर और भी मीठा और स्वास्थ्यवर्धक हो गया है. क्योंकि अब इसमें एक मां के प्यार के साथ-साथ उनकी चिंता भी समाहित हो गई है.”
अनन्या ने पाया दादी गर्व से मम्मी को निहार रही हैं. सच, संबंध बड़े नहीं होते, बल्कि उन्हें संभालने वाले बड़े होते हैं. संतुष्ट मन से अनन्या जूस का ग्लास लेकर पापा के बेडरूम की ओर बढ़ गई.

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