महासिंह को तो कोई न कोई बहाना भर चाहिए था. केबिन से निकल कर वह उसी के पास चला आया. बगल की कुर्सी पर बैठ कर उसका हाथ रेणु की सलवार पर जा लगा, "इंपोर्टेड लगता है." रेणु की की-बोर्ड पर थिरकती हुई उंगलियों यकायक रूक गईं. किट्! महासिंह के उस दुर्व्यवहार से वह अंदर ही अंदर भयाकुल होने लगी. आज वह उसे दूसरी बार छेड़ रहा था.
शेरशाह सूरी राष्ट्रीय राज मार्ग के पश्चिम की ओर दूर तक त्रिभुजाकार पहाड़ी अपनी बेतरतीब बांहें फैलाए हुए है. इस राज मार्ग के यहां कोई डेढ़ फलांग की दूरी पर, पूर्व में अंग्रेज़ों की बनवाई हुई मुठी बैरकें हैं. पुलिस महानिरीक्षक का मुख्यालय भी इन्हों बैरकों में है.
पुलिस मुख्यालय के एक हॉलनुमा कमरे में सरकारी कामकाज बहुत तेजी से निपटाया जा रहा था. केंद्र सरकार के कार्यालयों की ही देखा-देखी यहां भी तो काम निपटाओ!, सप्ताह मनाया जा रहा था. फाइलों पर जमी पड़ी धूल झाड़ी जा रही थी. लाल फीतों वाली फाइलें दुगुनी गति से एक मेज से दूसरी मेज़ तक सरकाई जाने लगी थीं. अनुभाग (सेक्शन) अधिकारी चमनलाल लंबी-चौड़ी मेज़ पर बैठे हुए, विभिन्न अनुभागों की डाक के काग़ज़ात देखते आ रहे थे. पंद्रह-बीस बाबू अपनी सीटों पर बैठे हुए काम कर रहे थे. कहीं फाइलों पर फीते बांधे जा रहे थे, तो कहीं जल्दबाज़ी में चिट्ठियां तैयार की जा रही थीं. खिड़की वाली सीट पर बैठा हुआ हुकुमसिंह ढेर सारे पत्रों को संबंधित व्यक्तियों के पास भेजने की व्यवस्था कर रहा था. कोने की सीट पर बैठी हुई रेणु कोई पत्र टाइप कर रही थी.
महासिंह आदतन ११ बजे के लगभग दफ़्तर आया. उसने साइकिल बाहर बरामदे में एक ओर खड़ी कर दी. हाथ में चमड़े का बैग लिए हुए वह अंदर कमरे में आ गया. चमनलाल की सीट पर आकर उसने उन्हें विश किया, "हेलो, साब बहादुर!"
महासिंह को जब से बड़े साहब ने मुंह लगाया है, चमनलाल उससे कम ही बोला करता है. वे उसी प्रकार से अपनी डाक देखते रहे. महासिंह ने कोने पर पड़े हाज़िरी रजिस्टर पर अपने इनीशियल कर दिए उसे एक ओर सरका कर उसने वहीं से पलट कर अपने सहयोगियों को देखा, अगले ही क्षण वह उन्हें अभिवादन करने लगा.
"गुड मॉर्निंग टू एवरीबडी!"
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महासिंह के उस सामूहिक अभिवादन के जवाब में कुछ सीटों से चंद हाथ अभिवादन की मुद्रा में उठ गए. चमनलाल की मेज़ से हट कर महासिंह अपनी केबिन की ओर चल दिया, स्वामीजी की सीट पर रुक कर वह उनका कंधा झकझोरने लगा, "स्वामीजी, मैं किया सत श्री काल!"
"सत श्री अकाल, अंकल." स्वामी की लाल पेंसिल उसी प्रकार लंबे-चौड़े काग़ज़ों पर जोड़-तोड़ करती रही.
महासिंह पहले 'अंकल' शब्द से चिढ़ जाया करता था. यूं उम्र में वह उन सबसे बड़ा ही है. अब वह किसी को भी कुछ नहीं कहता. सभी तो उसे 'अंकल' कहा करते हैं, केबिन खोल कर उसने अंदर प्रवेश किया. बैग को उसने एक ओर रख दिया. उसने चपरासी को आवाज़ दी, "ओए बहादुर सीट पर हाथ फेर जा मापे!"
बहादुरसिंह ने बीड़ी बुझा कर उसे कान में खोस ली. हाथ में झाड़न लेकर वह केबिन में चल दिया, वहां महासिंह की सीट को झाड़-पोछ करने लगा.
"बीड़ी-सीड़ी कम पिया कर पुत्तर!" महासिंह ने कैश बुक खोलते हुए कहा.
रेणु ने टाइप मशीन से पत्र उतार लिया था. दूसरे पत्र के लिए ज्यों ही उसने मशीन पर काग़ज़ चढ़ाना चाहा, उसकी दृष्टि महासिंह पर जा लगी. केबिन के अंदर कैश बुक खोलते हुए उसकी आंखें भी तो उसी के जिस्म को टटोल रही थीं. अगले ही क्षण वह सकपका कर पुनः पत्र टाइप करने लगी.
अनुभाग के बाबू परस्पर बातें करते हुए अपना काम करते जा रहे थे.
"रेणुजी न्यूपिंच", सामने से कमल ने कहा.
रेणु नया सूट पहन कर दफ़्तर आई थी. सहमति में वह धीमे से मुस्कुरा दी. कई जोड़ी आंखें उसके नए सूट पर आ टिकी.
महासिंह को तो कोई न कोई बहाना भर चाहिए था. केबिन से निकल कर वह उसी के पास चला आया. बगल की कुर्सी पर बैठ कर उसका हाथ रेणु की सलवार पर जा लगा, "इंपोर्टेड लगता है." रेणु की की-बोर्ड पर थिरकती हुई उंगलियों यकायक रूक गईं. किट्! महासिंह के उस दुर्व्यवहार से वह अंदर ही अंदर भयाकुल होने लगी. आज वह उसे दूसरी बार छेड़ रहा था. कलाई पकड़ कर वह तो उसका पौंचा ही पकड़ने पर तुला हुआ था.
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"क्यों?" महासिंह की आंखों में उसके लिए चाहत भरे बादल उमड़ने लगे थे.
"हां जी." रेणु ने दो टूक उत्तर दिया.
"हमें भी मंगवा दो न एक ऐसा ही पीस!" महासिंह का दायां हाथ अपनी खिचड़ी हो आई दाढ़ी सहलाने लगा.
रेणु ने उसे और अधिक मुंह लगाना ठीक नहीं समझा. वह फिर से अधूरा पत्र टाइप करने लगी. महासिंह अपनी केबिन की ओर चल दिया था. रेणु का काम में मन नहीं लग पा रहा था. महासिंह तो उसके पीछे हाथ धो कर पड़ने लगा है. एक बार महंगाई भते की किश्त देते समय उसने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा था, "और सोणियों. हौर दस्सो. सुना, सुंदरी."
पुलिस मुख्यालय में महासिंह पूरा चलता पुरजा है. अधिकारियों का तो वह बहुत ही मुंह लगा है. कैश के काम में ही नहीं, बजट बनाने में भी वह माहिर है. मुख्यालय के पिछले वर्ष का बजट उसी का बनाया हुआ था. उसकी उस कार्यकुशलता पर प्रसन्न होकर, पुलिस महानिरीक्षक ने उसे एक साथ ही दो-दो तरक़्क़ियां दे डाली थीं. तब से तो उसे कुछ अधिक ही हवा लगने लगी है. स्टाफ में किसी की क्या मज़ाल कि उससे कोई कुछ कह दे. दफ़्तर भी तो वह अपनी ही मर्ज़ी से आता-जाता है. मुख्यालय की महिला कर्मचारी तो उससे बेहद तंग आ चुकी हैं. वह हर किसी के साथ छेड़खानी कर बैठता है. सभी तो उससे भय खाती हैं. इधर, पिछले कुछ दिन से वह रेणु के पीछे पड़ा हुआ है.
काम से रेणु का मन पूरी तरह से उखड़ चला था. पत्र के एक-एक पैरा में तीन-तीन, चार-चार ग़लतियां हो रही थीं. उसने वह अधूरा पत्र मशीन से निकाल लिया और उसे फाड़ कर टोकरी के हवाले कर दिया. दर्द से उसका सिर बुरी तरह से दुखने लगा था.
क्यों न कैंटीन में जाकर एक प्याली चाय पी ली जाए... यही कुछ सोच कर वह चमनलाल की सीट पर आ खड़ी हुई, "साहब, जरा कैंटीन तक जा रही हूं."
"हां-हां, ज़रूर जाओ!" चमनलाल ने उसे इजाज़त दे दी.
उस समय दिन के साढ़े बारह बज चुके थे. कोने की मेज़ पर बैठी हुई रेणु कैंटीन में अकेली ही चाय सुड़क रही थी. उसी समय हाथ में चाय की प्याली लिए वहां रामेश्वरी चली आई.

"आओ, दीदी!" रेणु ने मुस्कुरा कर उन्हें नमस्कार किया.
"अरी, ऐसी मायूस कैसे दिख रही है?" रामेश्वरी ने चाय की घूंट भर कर पूछा.
"नहीं तो." रेणु ने सामान्य होने का असफल प्रयास किया. "यूं ही ज़रा सिरदर्द हो आया था."
"नहीं, ज़रूर कहीं दाल में काला है." रामेश्वरी उसके मन की थाह लेने लगी, "यह सिरदर्द की उदासी नहीं है, डियर."
रेणु ने रामेश्वरी को महासिंह वाली सारी बातें बतला दी. उसके बाद वह उसके आगे सिसकने लगी.
"ऐ..." रामेश्वरी का हाथ उसके कंधे पर जा लगा, "नौकरीपेशा लड़कियों को यह रोना-धोना शोभा नहीं देता."
"तो?" रेणु अपनी आंखों का गीलापन पोंछने लगी.
"एक बार बहुत पहले वह मुझसे भी आ भिड़ा था." रामेश्वरी उसे बताने लगी, "इस पर एक दिन मैंने उसे अपने घर पधारने की दावत दे डाली थी."
"फिर?"
"फिर, सचमुच ही शाम को सज-संवर कर वह हमारे यहां चाय पर चला आया." रामेश्वरी मुस्कुरा दी. "तब मेरे पति ने उसकी वो धुनाई की थी कि वह आज तक उसे नहीं भूल पाया होगा."
"लेकिन, मैं क्या करूं, दीदी?" रेणु ने भर्राए हुए गले से पूछा.
"तू जा के बड़े साहब से उसकी शिकायत कर दे." रामेश्वरी ने उसे सुझाव दिया, "सुना है, वे इस मामले में अपना पराया कुछ भी नहीं देखते."
चाय पीकर वे दोनों कैंटीन से बाहर निकल आईं. रेणु उधर से अपनी सीट पर चल दी. वह टाइप के लिए मशीन पर काग़ज़ चढ़ा हौ रही थी कि सामने से चमनलाल ने कहा, "रेणु, तुम किधर चली गई थी? जरा महासिंह के साथ आंकड़े तो मिला देती." वे शायद इस बात को भूल गए थे कि वह उनसे ही इजाज़त लेकर कैंटीन में गई हुई थी.
रेणु के अंदर कहीं खटका हुआ. महासिंह अपनी शरारत से बाज़ नहीं आएगा. उसका मन हुआ कि उसी समय बड़े साहब के पास जाकर उसकी शिकायत कर दे. लेकिन वह ऐसा भी न कर सकी. सीट से उठ कर वह महासिंह की केबिन की ओर चल दी.
"और रेणु!" महासिंह तो जैसे उसी की बाट जोहता आ रहा था. उसके मुंह में पानी भर आया.
रेणु चुपचाप वहीं स्टूल पर बैठ गई. "जरा बड़े साहब के आयकर के आंकड़े मिलाने हैं." वह मुस्कुरा दिया. महासिंह ने अत्यधिक आत्मीयता के साथ कहा, "तुम चाय के साथ क्या लोगी?"
"नहीं अंकल. मैं अभी अभी ही तो चाय पीकर आ रही हूं." रेणु ने कहा, "आप मुझे काम बताइए ना."
"अरे भई, सरकारी काम तो चलता ही रहता है." महासिंह पर 'अंकल' शब्द का कोई भी असर नहीं हुआ. अगले ही क्षण वह फिर से रेणु की सूट की प्रशंसा करने लगा. उसका हाथ उसके कुरते की ओर बढ़ने लगा, "ये तो चीन-जापान का रेशम लगता है."
"आप काम बतलाइए न अंकल!" रेणु ने उसका वह बढ़ा हुआ हाथ बीच में ही रोक दिया, "आप मुझे क्यों परेशान किया करते हैं?"
"देखो जी!" महासिंह कुछ गंभीर हो आया. "नौकरी में तो यह सब चलता ही रहता है. थोड़ा सा हंसने-बोलने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?"
"फ़र्क़ पड़ता है." रेणु नथुने फुलाने लगी. वह उसकी केबिन के बाहर निकल आई.
दोपहर के भोजन का समय हो चला था. रेणु ने अपनी मेज की दराज से अपना टिफिन बॉक्स निकाला और कमरे से बाहर चल दी. लॉन में एक पेड़ के नीचे बैठ कर वह अपना लंच खोलने लगी. महासिंह के दुर्व्यवहार से वह इतनी क्षुब्ध हो आई थी कि उसकी भूख ही मर चली थी. उससे वे रोटियां नहीं खाई गईं. उन्हें उसने एक आवारा कुत्ते के आगे फेंक दी. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें, क्या न करें! उसके लिए एक ओर कुआं था तो दूसरी और गहरी खाई. नौकरी से त्यागपत्र दे दे या फिर चुपचाप हर किसी की ज्यादतियां को सहती चले. किंतु तभी उसे एक तीसरा रास्ता भी दिखाई देने लगा, लेकिन वह भी कांटों भरा ही था. बड़े साहब से शिकायत करने पर उल्टे उसी की बदनामी होगी. कोई भी उसकी बात पर विश्वास नहीं करेगा. हर कोई उसी को बेवकूफ़ बताएगा.
तो क्या करें वह? रेणु के मस्तिष्क की कंदराओं में प्रश्नों के हथौड़े ही चलने लगे. लॉन में लोग आ-जा रहे थे. सामने से क्रय अनुभाग के दलजीत ने महासिंह को देख कर आंख दबा दी. उसने ज़ोर का ठहाका लगा दिया, " हां तो महासिंह, तेरी दाल गली कि नहीं?"
"ओ गल जाएगी, पुत्तर!" महासिंह ने भी ठहाका लगा दिया, "अभी पानी खारा है ना इसीलिए देर लग रही है."
उस संवाद को सुन कर रेणु तिलमिला कर ही रह गई. वह फब्ती सीधे उसी पर कसी गई थी. उसने हाथ पर बंधी घड़ी देखी. दिन के दो बजने वाले थे. लॉन से उठ कर वह अंदर अपनी सीट की ओर चल दी. उसी के साथ अन्य बाबू भी अपनी सीटों की ओर जाने लगे.
"क्या बात है, मिस साब?" पुलिस महानिरीक्षक के चपरासी ने रेणु की सीट पर आकर उसकी उदासी का कारण जानना चाहा.
"कुछ नहीं." रेणु सकपका कर ही रह गई. उसने पर्स से दो रुपए का नोट निकाला और उसे चपरासी की हथेली पर रख दिया, "चाय पिएगा?"
"पी लेंगे." चपरासी ने पानसड़े दांत निपोड़ दिए.
"बड़े साहब का मूड कैसा है?" रेणु ने जानना चाहा
"बड़े साहब का मूड हमेशा एक सा ही रहा करता है." चपरासी उधर से कैंटीन की ओर चल दिया.
रेणु ने मेज़ से कोरा काग़ज़ निकाल लिया. उसे वह टाइप मशीन पर चढ़ाने लगी. कांपते हाथों से वह अपना त्यागपत्र टाइप करने लगी. तभी उसके कानों में मां के शब्द गूंजने लगे, "अपनी रेणु तो लड़की नहीं, लड़का है. घर की गाड़ी एक उसी के सहारे तो चल रही है." वह फिर से सोचने लगी. पिता की मृत्यु के बाद से घर-गृहस्थी का सारा बोझ उसी के कंधों पर तो आ पड़ा है. अगर उसने यह नौकरी छोड़ दी तो? तब तो उन लोगों को भीख भी नहीं मिलेगी. अगले ही क्षण उसने वह त्यागपत्र फाड़ दिया. उसे उसने रद्दी को टोकरी में डाल दिया.
पुलिस महानिरीक्षक विक्रांतसिंह बहुत ही दबंग आदमी हैं. उनकी शक्ल-सूरत को ही याद कर बड़े-बड़ों को पसीना छूटने लगता है. अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को मुंह लगाना तो दूर, वे कभी उनसे सीधे मुंह बात तक नहीं करते. वे काम से काम रखते हैं. व्यर्थ की बातों में वे समय बर्बाद नहीं करते. फिर भी, मरता क्या न करता? रेणु ने उनसे मिलाना ही ठीक समझा.
चपरासी रेणु की मेज़ पर हाफ़ सेट चाय ले आया था. एक प्याली उसने रेणु के आगे रख दी, "चाय पीजिए, मिस साब!"
"ओ!" रेणु सामान्य हो आई. चाय का घूंट भर कर वह चपरासी को देखने लगी, "देखो भैया, मुझे साहब से मिलना है."
"साहब से?" चपरासी की आंखों में विशेष चमक आ कौंधी.
"हां." वह मुस्कुरा दी, "एक ज़रूरी काम है." चपरासी चाय पीता रहा. रेणु ने उसे प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा.
"इस समय तो साहब आराम कर रहे होंगे." चपरासी ने कहा, "आप उनसे ढाई बजे के बाद मिल लेना."
"मिलवा तो दोगे न?" उसने पूछा.
"वाह, मिस साब?" चपरासी मुस्कुरा दिया, "नौकर किसके हैं?"
ठीक ढाई बजे रेणु अपनी सीट से उठ कर पुलिस महानिरीक्षक के चेेंबर की ओर चल दी. उसने बाहर बैठे हुए साहब के चपरासी से पूछा, "साहब बैठे हैं?"
"बैठे हैं," चपरासी ने कहा, "मैं अभी पूछ आता हूं."
रेणु वहीं बरामदे में टहलने लगी. साहब से मिलने पर वह बुरी तरह से घबरा रही थी. साहब से वह क्या-क्या कहेगी? मन ही मन वह उनसे बात करने का पूर्वाभ्यास करने लगी.
"जाइए." चपरासी दरवाज़े की चिक उठा कर एक ओर खड़ा हो गया.
"क्या मैं अंदर आ सकती हूं, श्रीमान?" चौखट पर पहुंच कर रेणु ने कांपती आवाज़ से साहब की अनुमति चाही.
"हां-हां, आइए!" पुलिस महानिरीक्षक ने सिगार सुलगाए हुए ही रेणु को अंदर आने की आज्ञा प्रदान कर दी.
बड़े साहब के उतने बड़े चेंबर को देख कर रेणु कुछ घबराने लगी. किसी प्रकार वह उनके आगे जा खड़ी हुई. दोनों हाथ जोड़ कर उसने उन्हें नमस्ते की. वह बुरी तरह से कांपती जा रही थी. बड़े साहब उसकी मनःस्थिति भांप गए
"घबराओ नहीं." पुलिस महानिरीक्षक ने उसे बैठने का संकेत किया, "बैठो!"
ससंकोच रेणु एक कुर्सी पर बैठ गई. घबराहट के मारे उसकी बोलती ही बंद हो आई थी. वह सभी कुछ भूलती जा रही थी.
"कहिए." पुलिस महानिरीक्षक ने रेणु पर भरपूर नज़रें डाली.
"जी... जी..! वह महासिंह..." रेणु सिसक उठी.
"कैशियर न?" पुलिस महानिरीक्षक ने पूछा.
"जी." रेणु ओढ़नी के छोर से अपनी आंखें पोंछने लगी.
पुलिस महानिरीक्षक को रेणु के मनोभाव ताड़ते देर नहीं लगी. वह फिर से फफकने लगी. बड़े साहब को पहले भी एक-आध बार महासिंह के बारे में शिकायतें मिलती रही हैं. रेणु ने रो-रो कर उन्हें सारी बातें बतला दीं.
"ठीक है." पुलिस महानिरीक्षक ने रेणु को पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया, "भविष्य में तुम्हें उससे शिकायत का कोई मौक़ा नहीं मिलेगा."
रेणु ने हाथ जोड़ कर बड़े साहब के प्रति कृतज्ञता प्रकट की. उसके बाद वह उनके चेंबर से बाहर आ गई. उसके निकलते ही बड़े साहब ने ज़ोर से घंटी बजाई.
चपरासी भाग कर अंदर कमरे में जा पहुंचा. "महासिंह को भेजो।" पुलिस महानिरीक्षक ने उसे आदेश दिया.
चपरासी उधर से दफ़्तर के बड़े हॉल में चल दिया. केबिन के पास जाकर उसने महासिंह से कहा, "खजांची महोदय, आपको बड़े साहब याद कर रहे हैं."
"अभी आया, पुत्तर!" महासिंह ने तिजोरी को बंद किया. रजिस्टर को एक ओर खिसका कर वह केबिन से निकल कर बड़े साहब के चेंबर की ओर हो लिया.
महासिंह ने पुलिस महानिरीक्षक के चेंबर में प्रवेश किया तो बड़े साहब ने वहीं खड़े चपरासी को आदेश दिया, "बाहर से दरवाज़ा बंद कर दो!"
अब महासिंह को दाल में कुछ काला नज़र आने लगा. तभी पुलिस महानिरीक्षक ने अपनी कमर से बेल्ट उतार ली. वे उस पर गुरनि लगे, "अपने कपड़े उतारो."
"जी... जी..." महासिंह की तो बोलती ही बंद हो आई.
सड़ाक पुलिस महानिरीक्षक ने उस पर बेल्ट से प्रहार किया, "उतारो कपड़े."
रेणु अपनी सीट से उठकर पुलिस महानिरीक्षक के चेंबर के बाहर जा खड़ी हुई. वहीं खड़ा चपरासी मुस्कुरा दिया, "मरवा दिया न ब्रह्मचारी को!"
"कमीने!" अंदर बड़े साहब महासिंह पर लाल-पीले हो रहे थे, "अगले महीने तो तेरी बेटी का विवाह होने वाला है. और तू है कि..."
चमड़े के बेल्ट से मार खाता हुआ महासिंह पुलिस महानिरीक्षक से बार-बार माफ़ी मांगता जा रहा था. वह रिरियाने लगा, "इस बार मुझे माफ़ कर दें, साहब."
"मैं चाहता तो तुझे इसी समय नौकरी से अलग कर देता." पुलिस महानिरीक्षक ने उसे एक और घुड़क दी, "पर मुझे तेरे बीवी-बच्चों पर तरस आ रहा है. उन बेचारों का क्या कुसूर?"
सड़ाक! सड़ाक!.. बड़े साहब तो जैसे महासिंह की चमड़ी उधेड़ने पर ही तुले हुए थे. वह बुरी तरह से कराहता जा रहा था.
"जा, दफा हो यहां से." बड़े साहब ने उसे एक लात जमा कर कहा.
महासिंह की दशा मुंह दिखलाने लायक नहीं रह गई थी. शर्म और जिस्म की पीड़ा से कहीं अधिक दुख उसे पानी उतर जाने का हो रहा था. गर्दन लटकाए हुए ही किसी प्रकार वह पुलिस महानिरीक्षक के चेंबर से बाहर निकला. अपनी केबिन में पहुंच कर उसने परदा खींच लिया, वहां वह अपने दुखते हुए ज़ख़्मों को सहलाने लगा.
रेणु के हृदय में अब ठंडक पड़ने लगी थी. उधर से वह अपनी सीट पर लौट आई. मन ही मन वह बड़े साहब को धन्यवाद देने लगी.
बात हवा की तरह से सारे दफ़्तर में फैल गई थी. जल्द ही रेणु को बहुत सी महिला कर्मचारियों ने आ घेरा. वे सभी तो उसकी हिम्मत की दाद दिए जा रही थी.
संध्या के पांच बज चुके थे. उस हॉलनुमा कमरे में से सभी लोग अपने-अपने घरों को जाने लगे थे. रेणु ने टाइप की मशीन के ऊपर कवर चढ़ा लिया. उसने मेज़ की दराज से अपना पर्स, टिफिन बॉक्स निकाल लिया. वह बाहर जाने लगी. जाने उसे क्या सूझा कि वह महासिंह की केबिन के पास जा खड़ी हुई. उसने बाहर से ही उसकी ओर एक व्यंग्य-बाण छोड़ा, "अंकल आपकी दाल गली कि नहीं?"
महासिंह आंखें नहीं उठा सका. रेणु ने उसे बुरी तरह से शिक़स्त जो दी थी. रेणु के मन में उसके लिए घृणा भर आई. अगले ही क्षण पर्स हिलाती हुई वह बाहर चल दी.
उधर, महासिंह उसी प्रकार अपने दुखते हुए शरीर को सहला रहा था.
- डॉ. शीतांशु भारद्वाज

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