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कहानी- स्नेहदीप (Short Story- Snehdeep)

चाय बनाते रमाकांत की पीठ से लिपटते हुए पूछा, "बताओ तो, आज क्या हो गया है तुम्हें?" "तुमसे प्यार हो गया है." मुड़ते हुए रमाकांत ने कहा तो मीता शर्म से लाल हो उठी. रमाकांत को लगा, उसके हृदय में सैकड़ों स्नेहदीप एक साथ जल उठे हैं.

आज वो नहीं आई थी. रमाकांत ने आंख उठाकर देखा. हॉल की दीवार पर लगी पुरानी, अधपीली सी घड़ी पूरे ११ बजे का समय बता रही थी. 'शायद पीछे होगी', रमाकांत ने सोचा. सेठ साहब के पिताजी की निशानी है यह घड़ी. कार्यालय में हर साल ढेरों परिवर्तन होते हैं, पर यह घड़ी अपने स्थान से नहीं हटती. रमाकांत का ध्यान फिर से घड़ी की ओर चला गया. समय वहीं था ११ बजे. 'उसके न आने से वक़्त काटना कितना कठिन हो जाता है.' रमाकांत सोच रहा था.

इस कार्यालय में उसे आए अभी सिर्फ़ दो ही महीने हुए थे. इन दो महीनों में वो आज पहली बार नहीं आई थी, इसलिए रमाकांत का बेचैन हो जाना स्वाभाविक भी था. पूरे दफ़्तर में हर क्रियाकलाप रोज़ की तरह तेजी से चल रहे थे. बस रमाकांत के हाथ थे, जो कलम उठाने से कतरा रहे थे. हृदय की बेचैनी चेहरे पर भी झलकने लगी थी.

रमाकांत को प्यार था उससे. हो भी क्यों नहीं, वो बेहद हसीं जो थी. पल भर के लिए भी वो अपनी जगह से उठती तो किस कदर बेसब्र हो जाया करता था रमाकांत. इन आठ घंटों में एक भी पल के लिए उसे न देख पाने का अभाव बेहद खला करता था.

वो सुन्दर भी बहुत थी. बिल्कुल चंद्रमा के समान, चांद के दाग़ की तरह उसके प्यारे से गाल पर एक तिल था. हर रोज़ बालों को संवारने का उसका एक अलग ढंग होता है कभी चोटी, कभी जूड़ा, कभी पौनी टेल तो कभी खुले लहलहाते बाल. बाल क्या लगते थे. आकाश में तैरते बादल उतर कर उसके गालों से खेल रहे हैं. रमाकांत को लगता था, वो इस संसार की सबसे सुंदर स्त्री है. लियनाडों-दा-विन्सी की मोनालिसा से भी ज्यादा सुंदर और मनमोहक. रमाकांत को उस पर ढेरों शायरी लिख डालने की इच्छा होती, पर वो शायर तो था नहीं.

रमाकांत ने टेबल पर पड़े बिलों को उठाकर अनमने भाव से एन्ट्री करनी शुरू कर दी, पर हर एन्ट्री ग़लत हो रही थी और अकाउंट्स रजिस्टर में गड़बड़ी का मतलब था, नौकरी खोने का ख़तरा. मैनेजर की आंख बचाते हुए रमाकांत ने धीरे से रजिस्टर के उस पन्ने को फाड़ा और कूड़ेदान में पटक दिया.

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सिर पर हाथ धरे वो बैठा ही था कि मैनेजर ने पूछ ही लिया, "क्यों भाई रमाकांत, आज कामकाज में मन नहीं लग रहा है क्या?"

"नहीं, मैनेजर साहब... कोशिश तो कर ही रहा हूं, पर काम नहीं हो रहा है.. सिर में बड़े ज़ोरों का दर्द है..."

"जाओ... जाओ... घर चले जाओ, बीजी से सिर दबवा लेना, ठीक हो जाओगे..."

मैनेजर ने अपनी तेज़-तर्रार आंखों को रमाकांत के चेहरे पर गड़ाते हुए कहा. रमाकांत झेंप सा गया. सारे कर्मचारी जानते हैं, रमाकांत मरता है उस पर, इसलिए समय पड़ने पर व्यंग्य बाण छोड़ ही देते हैं. बस यही बात बुरी लगती है रमाकांत को, दिल उसका है, चाहे किसी को प्यार करे और फिर प्यार ही तो करता है उसे, सिर्फ़ प्यार... उस पर एतराज़ क्यों? 'एतराज़ क्या है? जलते होंगे सब... सोचते-सोचते अपने आप में गौरवान्वित हो उठा रमाकांत.

मैनेजर साहब ने कह दिया था, सो रमाकांत जाने के लिए उठ खड़ा हुआ. आज घर ही चला जाए, तो मीता भी ख़ुश हो जाएगी. रोज़ शिकायत करती है, कभी छु‌ट्टी नहीं लेते, बच्चों को कहीं घूमने नहीं ले जाते. रमाकांत ने सोचा, आज शाम तक घर पर आराम करेगा, फिर शाम को बच्चों को लेकर पार्क चला जाएगा. मीता तो बस घर जल्दी आने की शिकायत ही करती है. वक़्त ही कहां रहता है उसके पास रमाकांत के साथ घूमने का. वैसे, रमाकांत की बीमार मां को अकेले छोड़कर कहीं. भी जा पाना मीता के लिए संभव नहीं था.

रमाकांत इतनी तेजी से चलता हुआ घर पहुंचा कि हांफने-सा लगा.

"क्या हुआ? अयानक कैसे आ गए?" असमय रमाकांत को देखकर मीता तो घबरा ही गई थी.

"नहीं... बस दफ़्तर में मन नहीं लगा..."

"ओह, तुम भी..." आंचल से चेहरे पर छलक आए पसीने को पोंछते हुए मीता ने कहा, "कभी-कभी कितना डरा देते हो. खाना तो खाओगे ना." मुस्कुराते हुए मीता ने पूछा तो रमाकांत ने हां में सिर हिला दिया, "बच्चे कहां है?" मीता के पीछे-पीछे रसोई में आते हुए, रमाकांत ने पूछा.

"सभी को एक कमरे में बंद कर रखा है. नासपीटे नाक में दम कर देते हैं. अब वहां वे लड़े या मेरे, मेरी बला से. देखो.. तुम भी दरवाजा न खोलना, घर का पूरा काम करना है मुझे, महरी भी नहीं आई है आज..." मीता बड़बड़ाती जा रही थी.

रमाकांत को खाना परोसते हुए भी वो तनावग्रस्त ही थी.

स्वादिष्ट खाना ज़हर उगलते शब्दों से कड़वा हो गया. रमाकांत उठ खड़ा हुआ. लगा, इस नरक से भाग ही जाए तो बेहतर है, मीता तो बस पागलों की तरह चीखती-चिल्लाती रहती है. अच्छा-ख़ासा घर पागलखाने में बदल गया है.

"पप्पू बड़ा शैतान हो गया है. तुम समझाया करो उसे. मुझसे तो संभलने से रहा. घर संभालू या इन राक्षसों को..."

"चुप रहो मीता," खाना खाते-खाते रमाकांत बोला, "तुम तो बच्चों के पीछे ही पड़ जाती हो. बच्चे ही तो हैं, वो शरारत नहीं करेंगे तो क्या तुम और मैं करेंगे."

"तुम्हें तो बस मेरी ग़लतियां निकालने की आदत सी हो गई है. पता है, आज पप्पू ने नन्हीं के गालों को नोच लिया. भगवान ने तो कोई ऐब नहीं रखा है उस लड़की में. पर, लगता है उसका भाई उसे कुरूप बनाकर ही मानेगा. तुम्हारा खौफ न होता तो कमीने का गला ही दबा देती. ऐसी संतानों से तो मैं बांझ ही भली होती..." मीता का चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था.

स्वादिष्ट खाने का मजा मीता के ज़हर उगलते शब्दों से कड़वा हो गया. रमाकांत उठ खड़ा हुआ. लगा, इस नरक से भाग ही जाएं तो बेहतर है, मीता तो बस पागलों की तरह चीखती-चिल्लाती रहती है. अच्छा-खासा पर पागलखाने में बदल गया है.

रमाकांत भागने की तैयारी में ही था कि मां के दयनीय स्वर ने उसे रोक लिया.

"रमाकांत, सुन तो बेटा कभी कभार तो अपनी मां के पास भी आकर बैठा कर, बस अपनी जोरू की ग़ुलामी ही करता रहेगा या कभी मेरी भी सुनेगा..."

"क्या है मां..?" सिर धुनता हुआ रमाकांत मां के पास बैठ गया.

"पता है, आज इसने मुझे नहलाया नहीं है, और सब्ज़ी भी कच्ची बना रखी है..."

"पर सब्ज़ी तो अच्छी तरह पकी हुई थी."

"तुझे अच्छा खिलाया होगा. कलमुंही की दुश्मनी तो मुझसे है. पानी मांगा था, वो भी नहीं दिया. हर समय आंखें दिखाती रहती है. बेटा, तू अगर अपनी जोरू को संभाल नहीं सकता तो मुझे वृद्धाश्रम भेज दे."

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"ठीक है मां, पूछता हूं उससे..." बिना मां के चेहरे की ओर नज़र डाले रमाकांत उठ गया. मां की बातों को रमाकांत गंभीरता से नहीं लेता था. पिताजी की मृत्यु के सदमे से वो अभी तक उबर नहीं पाई है. उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी, वरना मीता तो हमेशा से मां के प्रति निष्ठावान रही है. कभी शिकायत का मौक़ा भी नहीं देती थी. पर अब, जब मां हर बात पर जलीकटी सुनाती है, तब मीता भी चिढ़ जाया करती है और दोनों के बीच पिस जाता है बेचारा रमाकांत.

इससे पहले कि मीता कुछ पूछे, रमाकांत घर से भाग जाना चाहता था. पर, मां के कमरे के बाहर दोनों हाथों को कमर पर टिकाए, मीता मिल ही गई.

"देखो, यह जो तुम्हारी मां चुपके-चुपके मेरी चुगली करती है, वो ठीक नहीं है. तुम या तो अपनी मां को समझा दो या संभालो अपनी सरफिरी संतानों को. मैं चली अपने मायके."

"मीता..." रमाकांत ने धीरे से उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया.

"कैसी बातें करती हो तुम भी? कभी तुमसे कुछ कहा है मैंने. फिर ये बार-बार मायके जाने की बात क्यों करती हो? चलो, अब ग़ुस्सा थूक भी दो...."

अपनी बातों से मीता को पिघला दिया करता था रमाकांत. मीता न हो तो यह घर ही ना चले. अच्छी-बुरी जैसी भी है, इस घर को चलाने में अहम् भूमिका निभाती है. उसे कभी कभार प्रेम भरे शब्दों के बाण चलाकर इस घर के साथ और मज़बूती से बांध दिया करता था रमाकांत.

"मैं हूं, जो संभाल रही हूं इस घर को. कोई और होती तो कब की आत्महत्या कर लेती..." मुस्कुरा उठी थी मीता.

बस, मीता की तो ज़ुबान ही कड़वी है. वैसे मन की वो अच्छी है. पर जब ग़ुस्सा आता है अपने आपको संभाल नहीं पाती है. ग़ुस्से में बच्चों पर अत्याचार करना तो आम बात हो गई थी.

रमाकांत से तो यह सब देखा नहीं जाता था, इसलिए वो घर से वास्ता जरा कम ही रखता. आज जल्दी आ गया तो ग़लती की और पछता भी रहा था. इससे तो अच्छा था कि मैटिनी शो की फिल्म देख आता. रमाकांत सोच रहा था.

ड्रॉइंगरूम में बैठे-बैठे रमाकांत का दम घुटने लगा. बच्चों के बंद कमरे से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ लगातार आ रही थी. शायद अब पप्पू फिर से नन्हीं को पीट रहा था. रमाकांत तुरंत उठ खड़ा हुआ. इससे पहले कि मीता सभी बच्चों की दनादन पिटाई शुरू कर दे, घर से भाग जाना ही बेहतर था. बच्चों के शोर-शराबे से पगला जाया करती थी मीता. अब अगर उन्हें पीटना शुरू करेगी, तो कोई कसर बाकी नहीं रखेगी.

बच्चों को पिटते देख पाना रमाकांत के लिए संभव नहीं था, इसलिए चुपके से मीता से नज़र बचाकर घर से निकल पड़ा.

'अब क्या करें? किसी दोस्त के यहां जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था. सभी अपने-अपने दफ़्तर में होंगे. ६ बजे से पहले किसी के भी मिल पाने की संभावना नहीं थी. काश, वो भी दफ़्तर में रहती, तो रमाकांत को यूं अकेले तो न भटकना पड़ता.

उसकी याद आते ही बेचैन हो उठा था रमाकांत, जाने क्या हुआ होगा? कहीं बीमार ना हो. अगर बीमार होगी तो ज़्यादा रोज़ नहीं आ पाएगी और वो नहीं आई तो रमाकांत तो बेमौत ही मारा जाएगा, वो ही तो थी, जो रमाकांत को उसके तनाव से मुक्ति दिलाती थी.

कितनी मिठास थी उसकी आवाज़ में. कितनी ठंडक मिलती थी आंखों को, जब रमाकांत उस सौदर्य की देवी को निहारता था. सचमुच उसे देखने के बाद ही रमाकांत जान पाया कि स्त्री क्या होती है.

दो ही महीने हुए थे उसे इस कार्यालय में आए हुए, जिस रोज़ आई थी, उसी रोज़ से रमाकांत के ठीक सामने वाले टेबल पर उसे जगह दे दी गई थी.

कार्यालय के अन्य कर्मचारियों के मुंह से रमाकांत का नाम वो जान गई थी.

"मिस्टर रमाकांत, मेरा नाम शेफाली गुप्ता है..." उसने अपना परिचय स्वयं दिया, रमाकांत के मुंह से शब्द ही नहीं निकला. इतने असीम सौंदर्य को इतनी नज़दीक से निहारने का यह पहला अवसर चा.

"आज मेरा पहला दिन है इस कार्यालय में. इससे पहले कभी नौकरी नहीं की. अगर कोई परेशानी रही तो क्या मैं आपसे मदद मांग सकती हूं?" झिझकते हुए शेफाली ने पूछा तो गौरवान्वित हो उठा रमाकांत, इतने लोगों से भरे हॉल में शेफाली ने सिर्फ़ उसी को मदद मांगने लायक माना था.

"आप बिल्कुल निश्चित रहें. आपको मैं किसी तरह की परेशानी नहीं होने दूंगा..." बड़ी मुश्किल से आश्वासन भरे शब्द निकल पाए रमाकांत के मुंह से.

"जी... धन्यवाद..."

उसके बाद तो कई बार अपनी समस्याओं को लेकर रमाकांत के पास आना पड़ता था शेफाली को और रमाकांत उसकी हर समस्या का समाधान कर दिया करता था. उसके शरीर से हर वक़्त गुलाब की ख़ुशबू आती थी, जो रमाकांत के होश उड़ा दिया करती थी.

धीर-धीरे वो रमाकांत से घुलमिल गई.

"क्या यहीं की हैं आप?" एक बार रमाकांत ने पूछा था.

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"हां. शादी के बाद से इसी शहर में हूं अभी कुछ दिनों से लगने लगा था कि नौकरी करनी चाहिए, आजकल महंगाई भी कितनी है. एक आदमी की नौकरी से गुज़ारा कहां होता है. टाइपिंग तो सीखी हुई ही थी. अख़बार में यहां के लिए इश्तिहार देखा तो आवेदन भेज दिया, अच्छा हुआ कि पहली जगह आवेदन भेजा और वहीं नौकरी मिल गई, वरना जाने कहां-कहां भटकते रहना पड़ता." वो रमाकांत के प्रश्न के अलावा कई और बातों को अपने जवाब में जोड़ दिया करती थी.

उसके कहे शब्द रमाकांत के मानसपटल पर अंकित हो जाया करते थे. देर रात तक बिस्तर पर पड़े-पड़े वो इन शब्दों को याद किया करता था. शेफाली... कितना प्यारा नाम है उसका.. काश, मीता का भी ऐसा ही कोई नाम होता. रमाकांत सोचता था.

'मीता में वो कुछ भी नहीं था, जो शेफाली में था. न तो मीता को अदब से बोलना आता था, न चलना. बिल्कुल फूहड़, गंवार की तरह चीखती-चिल्लाती रहती थी.' रमाकांत जब भी मीता और शेफाली की तुलना करता, पलड़ा शेफाली का ही भारी रहता. मीता को रमाकांत अयोग्य और बेवकूफ़ मानता था.

रमाकांत का प्रेम से ओतप्रोत मन शेफाली की खैर-ख़बर लेने को मचल उठा और वो शेफाली के घर की ओर चल दिया. पता रमाकांत को मालूम ही था. एक रोज़ शेफाली ने स्वयं अपना पता बताया था और कभी भी आने का अनुरोध भी किया था, पर रमाकांत अब तक नहीं गया था.

शेफाली का घर आ गया. गेट के पास खड़े-खड़े रमाकांत ठंड के मौसम में भी पसीने से भीग गया.. 'अगर शेफाली के पति भी होंगे तो?' वह सोच रहा था. जब मन में चोर हो तो डरना स्वाभाविक भी था. 'जी चाहा, वापस लौट जाए, पर, इतने नज़दीक आकर देखे बिना.. नहीं'.. उसने मन-ही-मन सोचा, 'चाहे कुछ भी हो जाए, वो शेफाली से ज़रूर मिलेगा...'

इससे पहले कि उसका इरादा फिर डगमगाए, वो तेजी से आगे बढ़ा और कॉलबेल के बटन पर अपना हाथ रख दिया.

शेफाली के पति या गुप्ता जी ने दरवाज़ा खोला, 'यह निश्चय ही उसके पति होंगे, कितने ख़ुशनसीब हैं, जो शेफाली जैसी पत्नी मिली... उस व्यक्ति को देखते ही रमाकांत के मन में जलन की भावना भर गई.

"आप..?" सज्जन ने रमाकांत का परिचय जानना चाहा.

"मैं रमाकांत हूं, शेफाली जी के कार्यालय में काम करता हूं." रमाकांत ने हिचकिचाते हुए अपना परिचय दिया.

"ओह... तो आप है रमाकांत जी. मैं गुप्ता हूं..." उस सज्जन ने अपने दोनों हाथ को आगे बढ़ाकर रमाकांत के दोनों हाथों को अपने हाथ में ले लिया.

"शेफाली आपकी बड़ी तारीफ़ करती है, अगर आप उसकी मदद न करते तो वो इतनी आसानी से दफ़्तर में काम नहीं कर पाती..." उस सज्जन ने कहा तो रमाकांत चौंक गया, तो क्या शेफाली अपने पति से रमाकांत की तारीफ़ भी करती है? शेफाली को क्या डर नहीं लगता होगा, पर पुरुष की तारीफ करते हुए? अगर मीता कभी किसी पुरुष की तारीफ़ करेगी, तो रमाकांत कदापि सहन नहीं कर पाएगा.

थोड़ी ही देर में शेफाली को अपनी बांहों के सहारे लिए हुए उसके पति लौट आए. शेफाली गुलाबी रंग का गाउन पहने हुए थी. उसके खुले बाल उसके चेहरे से खिलवाड़ कर रहे थे. बिल्कुल छोटी सी बच्ची लग रही थी शेफाली गाउन में,... रमाकांत मंत्रमुग्ध सा उसे देखता रह गया.

"क्या हुआ है आपको, बीमार हैं क्या?"

"जी... कल रात से तेज बुखार है." शेफाली ने कहा. फिर अपने पति से बोली, "आप चाय बना लाएंगे?"

"हां... ज़रूर..." कहते हुए शेफाली के पति उठ खड़े हुए. रमाकांत को लगा, वो डरता है शेफाली से, वरना क्या किसी पति को ऐसा आदेश देने की हिम्मत किसी पत्नी में होगी?

तभी रसोई में बच्चों और गुप्ता जी का मिला-जुला शोर सुनाई दिया, जिसे सुनकर शेफाली मंद-मंद मुस्कुरा रही थी. रमाकांत को लगा, क्या शेफाली को बच्चों के शोर से कोई परेशानी नहीं होती होगी.

तभी दोनों बच्चे दनदनाते हुए ड्रॉइंगरूम में आ गए और शेफाली से ज़िद करने लगे, "मम्मी, पापा से कहो, वे जल्दी आएं, आधा गेम छोड़कर उठ गए हैं."

"आएंगे बेटे.. पहले पापा को चाय बना लेने दो इन अंकल के लिए, फिर पापा तुम्हारे साथ खेलेंगे."

"पापा के आने तक तो तुम खेलो ना मम्मी?" बच्चे मचल उठे.

"नहीं बच्चों, आज हम खेल नहीं सकते."

"लेकिन क्यों मम्मी?" दोनों ही बच्चों ने एक ही स्वर में पूछा

"क्योंकि आपकी मम्मी बीमार है." गुप्ता जी ने अंदर आते हुए कहा और शेफाली के पास आते हुए धीरे से पूछा, "अगर तुम्हें तकलीफ़ हो रही है तो वहां लिटा दूं."

"नहीं, मैं बैठूंगी..." धीरे से शेफाली ने जवाब दिया.

"गुप्ता जी, आप अपनी पत्नी की बड़ी सेवा करते हैं." मन ही मन जलन की भावना से तिलमिलाता हुआ, लगभग व्यंग्यात्मक स्वर में रमाकांत ने पूछा.

"हां करता तो हूं, पर, शेफाली तो इससे भी ज़्यादा करती है मेरे लिए. मेरी आर्थिक तकलीफ़ देखते ही इसने नौकरी करनी शुरू कर दी. घर लौटकर बच्चों को पढ़ाती है, खाना बनाती है और हमारा मन बहले, ऐसा हर प्रयास करती है. शेफाली ना हो, तो यह घर ही न चले और जिसके बिना मेरा घर नहीं चल सकता, वो मेरे लिए पूजनीय ही होगी ना. मैं हर समय यह प्रयास करता हूं कि शेफाली पर काम का बोझ कम पड़े, ताकि उसकी तबीयत भी ठीक रहे. पर ये मदद का मौक़ा ही नहीं देती. हर काम स्वयं करती है और नतीजा बुखार..."

"नहीं, रमाकांत जी.." बीच में ही शेफाली बोल पड़ी, "ये तो बस ऐसे ही तारीफ़ करते रहते हैं. यह तो इनका बड़प्पन है, जो मुझे देवी का दर्जा देते हैं. इनका प्यार पाकर तो मैं निहाल हो जाती हूं, दुगुनी शक्ति आ जाती है तन-मन में और काम के प्रति मेरा उत्साह भी बढ़ जाता है. वैसे ये भी मेरी ज़िम्मेदारी बांट लेते हैं. सवेरे बच्चों को तैयार कर देते हैं.. बाज़ार से सामान ला देते हैं. ये न हों तो यह घर, घर ना रहे, मैं, मैं ना रहूं..." कहते-कहते शेफाली का स्वर भीग गया. वो अपलक गुप्ता जी को ताक रही थी.

रमाकांत को मीता की याद हो आई. लगा, मीता और शेफाली में यह एक बहुत बड़ा फ़र्क़ है कि शेफाली को तो अपने पति का संपूर्ण सहयोग और प्यार मिलता है, जिसके लिए शायद मीता तरस जाती होगी.

रमाकांत को लगा, उसकी मीता भी कोई कम नहीं है. अकेली कितना बोझ उठाती है घर का. बीमार मां की सेवा में कोई कसर बाकी नहीं रखती. रमाकांत तो कभी किसी प्रकार की मदद नहीं करता, उल्टे मीता को परेशान देखकर घर से भाग खड़ा होता है, पर कभी कोई शिकायत नहीं करती मीता. सच... मीता जैसी तो कोई हो ही नहीं सकती.

रमाकांत तुरंत घर जाने को उठ खड़ा हुआ. मीता बेहद याद जो आने लगी थी.

रमाकांत ने घर पहुंचकर देखा, मीता बच्चों से घिरी उन्हें कोई कहानी सुना रही थी. कहानी सुनाते-सुनाते उसकी पलकें मूंद रही थीं. मुंह से शब्द स्पष्ट नहीं निकल रहे थे, पर वो बोले जा रही थी, "खेलो और मुझे कुछ देर सो लेने दो..."

"चलो, अब कहानी ख़त्म हुई... तुम सब..."

"नहीं मां प्लीज़... एक और कहानी..." बच्चे मचल उठे.

"अच्छा बाबा सुनो..." मीता ने मुस्कुराकर कहा और पलकों पर ज़ोरों से हथेली को मलते हुए प्रयास किया कि उसकी नींद भाग जाए और फिर से कहानी सुनानी शुरू कर दी.

रमाकांत का मन भर आया. दो घड़ी विश्राम भी नहीं ले पाती है मीता, कितनी शक्ति है इसमें, जो लगातार काम करती जाती है.

"मीता..." रमाकांत ने धीरे से पुकारा.

"अरे... तुम आ गए, कहां चले गए थे." वो हड़बड़ाते हुए उठ खड़ी हुई, "तुम बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूं."

"नहीं मीता, तुम बैठो, चाय मैं बनाकर लाऊंगा."

"तुम नहीं नहीं.. रहने दो.. मेरे रहते तुम क्यों करोगे यह सब..?"

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"करूंगा मीता, मैं अब समान रूप से तुम्हें सहयोग दूंगा. हम और तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को बांट लेंगे. अब तक तुम अकेले बहुत कुछ करती रही हो. पर, मैं अब तुम्हें अकेले कुछ नहीं करने दूंगा. मुझे भी अपने कर्तव्य पालन का मौक़ा दो. नौकरी के बाद मैं कुछ समय तुम्हारा हाथ बंटाया करूंगा..."

मीता चकित होकर आंखें फाड़-फाड़कर रमाकांत को देखे जा रही थी. रमाकांत मुस्कुराकर रसोई की ओर मुड़ गया. मीता भी पीछे हो ली. चाय बनाते रमाकांत की पीठ से लिपटते हुए पूछा,

"बताओ तो, आज क्या हो गया है तुम्हें?"

"तुमसे प्यार हो गया है." मुड़ते हुए रमाकांत ने कहा तो मीता शर्म से लाल हो उठी.

रमाकांत को लगा, उसके हृदय में सैकड़ों स्नेहदीप एक साथ जल उठे हैं.

- निर्मला सुरेन्द्रन

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