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कहानी- एक थी शाहिना 1 (Story Series- Ek Thi Shaheena 1)

  दिन बीतते रहे. मेरा बंगले पर आना-जाना लगा रहा. मैं हमेशा दरवाज़े के पासवाले सोफे पर ही जान-बूझकर बैठता था. चाय आते ही मैं लपककर उठ जाता. एक दिन चाय लेकर मैंने अरबी भाषा में ‘शुक्रन’ कहा, तो शाहिना के साथ-साथ फुहादीन भी ज़ोरों से हंस पड़ा था और बोला, “अच्छा तो अरबी सीख ली है आपने... वेरी गुड.”   तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं स्टेज पर पहुंचा. आज मुझे मेरे उपन्यास ‘शाहिना’ के लिए सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार का पुरस्कार मिल रहा था. मुख्यमंत्री से पुरस्कार ग्रहण करके मैं नीचे उतरा, तो पुष्पहारों और कैमरों के फ्लैशों का तांता शुरू हो गया. लेकिन उस चकाचौंध के बीच भी मैं कहीं और खोया हुआ था. मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है वो दिन, वो लम्हे... एअरपोर्ट पर उतरते ही मेरे हृदय की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गई थी. कभी इस विदेशी सरज़मीं का अंजानापन मुझे गुदगुदा जाता, तो कभी अपने देश की मिट्टी की यादें गमगीन कर देती थीं. मेरी नौकरी साऊदी अरब की ‘अल-फ़ज़ल’ नामक एक बड़ी कम्पनी में लगी थी. मुहम्मदहुसैन-अल-जफ़र-अलफहाद काजी उस कम्पनी के मालिक थे, जो वहां पर ‘आबू’ नाम से मशहूर थे. मैनेजर की नौकरी बड़ी ज़िम्मेदारीवाली थी. पहली ही मुलाक़ात में फुहादीन अल हुसैन और मैं एक-दूसरें से काफ़ी खुल गए थे. हमउम्र फुहादीन, ‘आबू’ का तीसरा बेटा था. पिता का ‘सेल्स’ विभाग वही सम्भालता था. कभी मेरे ऑफ़िस में आ जाता, तो कभी मुझे ही अपने बंगले पर बुलाकर अगले दिन के कामकाज के लिए हिदायतें दे दिया करता था. मैं अक्सर बंगले पर आने-जाने लगा. वहीं बंगले पर एक दिन मेरी मुलाक़ात शाहिना से हुई थी. सर से पैर तक बुरके से ढंकी हुई शाहिना दरवाज़े के पीछे चाय लेकर खड़ी थी. फ़ाइलों पर अपनी नज़रें गड़ाए हुए ही फुहादीन ने मुझसे चाय की प्याली पकड़ लेने का निवेदन किया था. मेरा संक्षिप्त परिचय दिया, तो प्याला पकड़ाकर शाहिना ने मुझे सलाम किया था... मौन अभिवादन... हाथों के नीचे से ऊपर आने और ऊपर से नीचे आने में उसके हाथों की सारी चूड़ियां एक साथ खनक उठी थीं और वह अंदर भाग गई. बुरके के अंदर से मैंने स़िर्फ उसकी आंखें देखी थी. अंग्रेज़ी में मुझे फुहादीन ने बताया, “मेरी छोटी बहन है- शाहिना. मेडिकल सेकेंड इयर में पढ़ती है, इजिप्ट में, अभी छुट्टियों में घर आई है.” “इजिप्ट में...?” मैंने जिज्ञासा प्रकट की. “हां... असल में हमारे यहां अलग से लड़कियों के लिए कोई मेडिकल कॉलेज नहीं है न. और यू नो... हम लोग लड़कियों को एड में पढ़ाते नहीं हैं. एनी वे, वह टोकियोवाला ‘ओकासिवा’ फर्म की फ़ाइल निकालना तो...” मैं काम में जुट गया. मगर अनायास ही मेरी निगाहें बार-बार अंदर की ओर उठ जाया करती थीं. चूड़ियों की वही खनक मुझे बार-बार सुनाई दे रही थी. दिन बीतते रहे. मेरा बंगले पर आना-जाना लगा रहा. मैं हमेशा दरवाज़े के पासवाले सोफे पर ही जान-बूझकर बैठता था. चाय आते ही मैं लपककर उठ जाता. एक दिन चाय लेकर मैंने अरबी भाषा में ‘शुक्रन’ कहा, तो शाहिना के साथ-साथ फुहादीन भी ज़ोरों से हंस पड़ा था और बोला, “अच्छा तो अरबी सीख ली है आपने... वेरी गुड.” व़क़्त गुज़रता गया. और हमारी बातचीत का सिलसिला भी बढ़ता गया. अब शाहिना चाय देने अंदर कमरे में आ जाती थी और फुहादीन के आग्रह करने पर हम लोगों के साथ बैठकर टीवी भी देख लेती थी. अरबी में कुछ धीरे-से वो ‘कमेंट’ करती, तो फुहादीन हंस पड़ता था और वह अंग्रेज़ी में ट्रांसलेट करके मुझे बता देता. शाहिना झेंपकर अपनी खनखनाती हुई हंसी हंसती हुई दौड़कर अंदर भाग जाती. मैंने बहुत कम अरसे में ही अच्छी अरबी सीख ली थी. फुहादीन खुले विचारों का व्यक्ति था. एक दिन उसी ने मुझसे शाहिना को अंग्रेज़ी पढ़ा देने का निवेदन किया. मैं रोज़ उसके घर जाने लगा था. शुरू में दो-चार दिनों तक शाहिना की मां भी आकर साथ में बैठ जाती थी, मगर ह़फ़्ते भर में ही उसे विश्‍वास हो गया कि मैं एक सीधा-सादा-सा लड़का हूं, तो उसने भी बैठना छोड़ दिया. कभी-कभार आकर मेरा हाल-चाल पूछ जाती और चाय-नाश्ता भिजवा देती. धीरे-धीरे मैं उस घर में घरेलू-सा हो गया. बिना फ़ोन किए उस घर में मेरा आना-जाना आम बात हो गई थी. धीरे-धीरे शाहिना के साथ उसकी अन्य बहनें भी मेरे सामने आने लगीं. बुरका क्रमश: कम होता गया. बातचीत का सिलसिला बढ़ता गया. हिन्दुस्तान के रस्मो-रिवाज़ की बातें वे बड़े चाव से सुनती, यहां की एक शादी-प्रथा पर उन सभी को आश्‍चर्य भी होता, प्रसन्नता भी. इन्हीं दिनों मैं शाहिना के काफी करीब आ चुका था. घंटों फ़ोन पर बातें होतीं. मेरे पहुंचते ही उसकी प्रतीक्षारत आंखों में चमक बढ़ जाना कोई भी पढ़ सकता था...

सुनीता सिन्हा

 
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