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कहानी- अजूबा 2 (Story Series- Ajooba 2)

“जानती हूं, तभी तो हार मानने को तैयार नहीं हुई. जानते हो शिव, हर वक़्त यह अपराधबोध मुझे डसता रहता है कि मैंने तुम बाप-बेटे को अलग किया. तुम मुझसे प्यार करते थे, पर शादी करके यहीं बस जाने में हिचक रहे थे. मैंने ही तुम्हें समझा-बुझाकर तैयार किया था कि डैडी का इतना बड़ा कारोबार तुम नहीं संभालोगे, तो और कौन संभालेगा? उनकी तबियत भी ठीक नहीं रहती. मैं उनकी इकलौती संतान हूं और तुम उनके सबसे विश्वस्त ओैर कर्मठ अधिकारी. तुम्हें मुझसे प्यार पहले हुआ था और मैं तुम्हारे बॉस की बेटी हूं यह सच्चाई बाद में पता चली थी.
… “और बुलाओ बाबूजी को? तुम्हें ही शौक चर्रा रहा था सुशील बहू बनकर बाप-बेटे को मिलाने का!” मेरी लाचारी ग़ुस्से में तब्दील होकर पूजा पर बरस पड़ी थी. वह बेचारी गुमसुम-सी बेडरूम में चली गई, तो ग्लानि भाव लिए मैं भी उसके पीछे-पीछे चला आया.
“सॉरी! मुझे तुम पर ऐसे बरसना नहीं चाहिए था. तुम तो मेरे और इस घर-परिवार के भले के लिए ही यह सब कर रही हो. पर तुम बाबूजी को नहीं जानती. डैडीजी जिस तरह इस महानगर में उद्योग जगत की एक मशहूर हस्ती हैं, बाबूजी भी अपने गांव के एक बेहद समृद्ध और प्रतिष्ठित किसान हैं. गांव में उनके लंबे-चौड़े खेत-खलिहान हैं. लोग उन्हें बहुत सम्मान की नज़रों से देखते हैं. शहर उन्होंने मुझे पढ़ने भेजा था, पर वे चाहते थे कि मैं लौटकर उनकी खेती की विरासत संभालू. अपनी शिक्षा उस पुश्तैनी व्यवसाय में लगाकर उसे और समृद्ध करूं. लेकिन मैं इस महानगरीय जीवन के आकर्षण में बंधकर हमेशा के लिए यहीं बस गया. तुम्हारे डैडी के ऑफिस में नौकरी करते-करते कब तुम्हारे आकर्षण में बंधता चला गया, कुछ पता ही नहीं चला. जब बॉस यानी तुम्हारे डैडी ने तुमसे शादी कर यहीं बस जाने का प्रस्ताव रखा, तब मुझे स्थिति की गंभीरता का एहसास हुआ.
मैं जानता था बाबूजी इस शादी के लिए कभी तैयार नहीं होगें. एक तो गैरजातीय विवाह, उस पर उनका इकलौता बेटा घरजमाई बने, हमेशा के लिए शहर में बस जाए ऐसा वह स्वावलंबी, आत्माभिमानी इंसान कैसे स्वीकार कर सकता था? बाबूजी शादी में सम्मिलित नहीं हुए. मैं उन्हें मनाने कई बार गांव गया. हर बार एक से बढ़कर एक महंगी सौग़ात लेकर फ्रिज, टीवी, लैपटॉप, मोबाइल. बाबूजी चुपचाप उन सौग़ातों को एक नज़र देखते, मेरी कुशलक्षेम पूछते और काकी को मेरी सुख-सुविधा का ख़्याल रखने की हिदायत देकर काम पर लग जाते. उनकी तटस्थता मुझे अंदर तक बेध जाती. तुमने कई बार साथ चलने, उन्हें मना लाने की ज़िद की, पर मैं तैयार नहीं हुआ. मां तो हैं नहीं और बाबूजी ने तुम्हारा अपमान कर दिया तो? मैं अपने प्रति उनकी बेरूखी झेल सकता हूं, पर तुम्हारे प्रति नहीं.” मेरा गला भर आया था.
“जानती हूं, तभी तो हार मानने को तैयार नहीं हुई. जानते हो शिव, हर वक़्त यह अपराधबोध मुझे डसता रहता है कि मैंने तुम बाप-बेटे को अलग किया. तुम मुझसे प्यार करते थे, पर शादी करके यहीं बस जाने में हिचक रहे थे. मैंने ही तुम्हें समझा-बुझाकर तैयार किया था कि डैडी का इतना बड़ा कारोबार तुम नहीं संभालोगे, तो और कौन संभालेगा? उनकी तबियत भी ठीक नहीं रहती. मैं उनकी इकलौती संतान हूं और तुम उनके सबसे विश्वस्त ओैर कर्मठ अधिकारी. तुम्हें मुझसे प्यार पहले हुआ था और मैं तुम्हारे बॉस की बेटी हूं यह सच्चाई बाद में पता चली थी.
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मैंने ही तुम्हें आश्वस्त किया था कि एक बार शादी हो जाने दो हम किसी तरह बाबूजी को मना लेंगे. पिछले महीने जब मुझे अपने गर्भवती होने का पता चला, तो मुझे लगा बाबूजी को मनाने का इससे अच्छा सुअवसर नहीं मिलेगा. ‘मूल से सूद हमेशा प्यारा होता है’ बाबूजी हम दोनों को भले ही नकार दें, पर अपनी आनेवाली पीढ़ी का मोह उन्हें अवश्य खींच लाएगा. इसलिए मैंने एक बार और जबरन तुम्हें उन्हें मनाने भेजा था.”
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संगीता माथुर
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