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कहानी- अपने लिए 1 (Story Series- Apne Liye 1)

तुम्हारा और मेरा अपने-अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होना ही शायद हमारे विवाह का कारण बना था. यदि विवाह पूर्व तुम मुझे देख लेते तो शायद यह विवाह हो ही न पाता, पर तुम्हारे माता-पिता के यह कहने पर कि लड़की ख़ूब पढ़ी-लिखी है, तुमने मुझे आधुनिक मानकर विवाह के लिए हामी भर दी थी. हां, पढ़ी-लिखी तो मैं तुमसे भी अधिक ही थी. पीएचडी की डिग्री थी मेरे पास, व्याख्याता के पद पर कार्यरत थी मैं. पर आधुनिकता की परिभाषा हम दोनों के लिए भिन्न-भिन्न रही... हम दोनों ही विवश थे. संपूर्णा की पूजा की घंटी ही भास्कर के लिए रोज़ सुबह के अलार्म का काम करती थी. पर आज शायद कुछ गहरी ही नींद लग गई थी. बिस्तर से उठते हुए भास्कर ने घड़ी पर नज़र डाली. आठ बज रहे थे. इस समय संपूर्णा किचन में नाश्ता बनाने में व्यस्त होती है, इसके बाद तैयार होकर उसे दस बजे तक पढ़ाने के लिए कॉलेज पहुंचना होता है, पर आज किचन से किसी भी तरह के खटपट की आवाज़ न सुनकर भास्कर देखने के लिए किचन की ओर मुड़े ही थे कि हरी काका चाय की ट्रे लेकर आ गए. साथ में एक लिफ़ाफ़ा थमाते हुए बोले, “बहूजी ने यह चिट्ठी आपको देने के लिए कहा है.” “चिट्ठी...!” आश्‍चर्य से लिफ़ाफ़ा खोलकर सो़फे पर बैठकर भास्कर चिट्ठी पढ़ने लगे... प्रिय भास्कर, वैस ‘प्रिय’ शब्द से इस पत्र की शुरुआत करना पत्र के मैटर के साथ बहुत बड़ा विरोधाभास होगा, परंतु क्या करें. ऐसी आदत-सी पड़ गई है कि कोई भी पत्र हो, आरंभ में ‘प्रिय’ अथवा ‘पूज्य’ स्वयं ही लिख जाता है. ख़ैर! पत्र देखकर तुम अवश्य चौंक गए होगे कि एक ही घर में रहते हुए मुझे पत्र लिखने की क्या आवश्यकता आ पड़ी. ऐसी क्या बात है, जो मैं आमने-सामने नहीं कह सकती थी. दरअसल, बात ही कुछ ऐसी है, जो सामने कहने पर अकारण बहस का रूप ले सकती थी, जो मैं कतई नहीं चाहती थी. निर्बाध रूप से अपना पक्ष तुम्हें समझा पाने का ‘पत्र’ ही मुझे सही माध्यम प्रतीत हुआ. अतः आशा है कि इस पत्र को तुम ‘मैं’ यानि संपूर्णा मानकर पूरा पढ़ने का कष्ट करोगे. असल मुद्दा यह है कि कल सुबह मैं तुम्हारा घर हमेशा के लिए छोड़कर जा रही हूं, तुम्हें मेरी सीधी-सपाट बात से शायद गहरा धक्का लगे, पर पूरा पत्र पढ़ोगे तब कहीं कुछ ग़लत नहीं लगेगा. तुम निश्‍चित रूप से यह सोच रहे होगे कि आज इस उम्र में अचानक मुझे यह क़दम उठाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी. सच तो यह है कि यह क़दम मैं आज से पंद्रह वर्ष पूर्व ही उठाना चाहती थी, जब तुमने अपने संबंधों को नकार दिया था. स्वीकार तो शायद तुमने मुझे कभी किया ही नहीं था, क्योंकि मैं व मेरा रहन-सहन दोनों ही तुम्हारे साथ तुम्हारी तथाकथित मॉडर्न सोसायटी में मूव करने के क़ाबिल नहीं थे. दो बेटियों की मां बनाकर तुमने अपने पति के कर्तव्यों की इतिश्री मान ली थी. वह कर्तव्य भी तुम मुझ पर किए गए एहसानों में से ही एक मानते थे. तुम्हारी नज़र में मैं हिंदी की व्याख्याता केवल बहनजी टाइप औरत थी, जो ग़लती से पत्नी के रूप में तुम्हारे गले की घंटी बन गई थी, क्योंकि तुम आधुनिक थे, तुम्हारा रहन-सहन कहीं से मुझसे मेल नहीं खाता था. तुम्हारी विज्ञापन कंपनी की अत्याधुनिक मॉडल्स की तुलना में तुम्हें मेरा बहनजी टाइप लगना भी स्वाभाविक था. मैं भी तो तुम्हारे मन मुताबिक स्वयं को कभी ढाल नहीं पाई. मेरी इस असमर्थता के पीछे मेरे बचपन का पारंपरिक परिवेश, माता-पिता की शिक्षा का प्रभाव या कह लो मेरी फ़ैशन व आधुनिकता के मामले में पिछड़ेपनवाली मानसिकता जो भी समझो... मैं मजबूर थी भास्कर. तुम्हारा और मेरा अपने-अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होना ही शायद हमारे विवाह का कारण बना था. यदि विवाह पूर्व तुम मुझे देख लेते तो शायद यह विवाह हो ही न पाता. पर तुम्हारे माता-पिता के यह कहने पर कि लड़की ख़ूब पढ़ी-लिखी है, तुमने मुझे आधुनिक मानकर विवाह के लिए हामी भर दी थी. हां, पढ़ी-लिखी तो मैं तुमसे भी अधिक ही थी. पीएचडी की डिग्री थी मेरे पास, व्याख्याता के पद पर कार्यरत थी मैं. पर आधुनिकता की परिभाषा हम दोनों के लिए भिन्न-भिन्न रही... हम दोनों ही विवश थे. स्निग्धा श्रीवास्तव
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