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कहानी- सामनेवाली खिड़की 2 (Story Series- Samnewali Khidki 2)

रात में बिस्तर पर करवटें बदलती रही, पता नहीं कैसा शख़्स है वो. पूरे मुहल्ले में किसी से भी उसका मेल-मिलाप नहीं. लगभग एक वर्ष होने को आया उसे उस मकान में आए, मगर आज तक सभी से अजनबी. इतने दिनों की जुदाई ने मुझे दिल ही दिल उसके और क़रीब कर दिया था. उसी के विचारों में खोए हुए कब मुझे नींद आ गई, पता ही नहीं चला और इस तरह दो महीने और बीत गए. अब भी सब कुछ वैसा ही था. वो खिड़की, व्हीलचेयर पर बैठा शांत भाव से चित्र बनाता वो और मेरी ख़ुशी- सब कुछ एक-दूसरे के पूरक. पता नहीं कितनी देर मैं उसे देखती अगर वह कमरे से बाहर नहीं गया होता. मैंने देखा, व्हीलचेयर को खिसकाकर वह कमरे से बाहर गया और थोड़ी देर के बाद पुनः प्रवेश किया शायद कुछ लेने गया था. मैं थोड़ा बेचैन हो गई. उस खिड़की की बिल्कुल सीध पर मेरी छत थी और उस कमरे में आते समय किसी की भी नज़र सीधे मुझ पर पड़ती होगी, फिर क्या वो मुझे नहीं देखता होगा? मगर ख़ुद ही मन को समझाया, अगर ऐसा होता तो कभी तो कोई प्रतिक्रिया होती उसके तटस्थ चेहरे पर. वह फिर चित्र बनाने में तल्लीन हो गया. उस दिन पहली बार तीव्र इच्छा हुई, काश! मुझमें अदृश्य होने की क्षमता होती तो इसी व़क़्त जाकर उसके चित्रों को देखती. बहुत जी चाहा था कि उसके बनाए चित्र देखूं. जिसकी दुनिया ही चित्रों में सिमटी हो, उसे जान पाना तो उसके चित्रों के माध्यम से ही संभव था. अब उसे जानने की इच्छा-सी मन में जगने लगी थी. ख़ैर, उस दिन मैं नीचे उतर आई. मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना था, मानो कोई ख़ज़ाना मिल गया हो. रात में बिस्तर पर करवटें बदलती रही, पता नहीं कैसा शख़्स है वो. पूरे मुहल्ले में किसी से भी उसका मेल-मिलाप नहीं. लगभग एक वर्ष होने को आया उसे उस मकान में आए, मगर आज तक सभी से अजनबी. इतने दिनों की जुदाई ने मुझे दिल ही दिल उसके और क़रीब कर दिया था. उसी के विचारों में खोए हुए कब मुझे नींद आ गई, पता ही नहीं चला और इस तरह दो महीने और बीत गए. अब भी सब कुछ वैसा ही था. वो खिड़की, व्हीलचेयर पर बैठा शांत भाव से चित्र बनाता वो और मेरी ख़ुशी- सब कुछ एक-दूसरे के पूरक. आजकल मां मेरी शादी को लेकर चिंतित हो उठी है. पापा के देहांत के बाद अकेली मैं ही उनके जीने का सहारा थी. इस कारण मेरी शादी की इच्छा नहीं थी और अब तो शादी का नाम आते ही उसका चेहरा आंखों के सामने आने लगता- ‘मत जाओ’ कहता हुआ. मगर ऐसा क्यों हो रहा है. यह मैं कभी नहीं जान पायी. कभी भी उसने मुझे देखा तक नहीं, क्यों मुझे लगता था कि उसकी दुनिया में स़िर्फ मैं ही हूं. शायद नहीं... यक़ीनन अब मैं उससे प्रेम करने लगी थी. समाज अपने ही बनाए कायदों पर चलता है, उसमें मुझ जैसी अजीब-सी लड़की की अजीब चाहत की क्या क़द्र होती. एक दिन मामा विनय का रिश्ता लेकर आए. माता-पिता का इकलौता लड़का विनय सरकारी द़फ़्तर में क्लर्क था. मां बेहद ख़ुश थीं. शादी का दिन तय हो गया. मैं दिल ही दिल बेहद उदास थी. कई बार मां से कहा भी, “मां मुझे शादी नहीं करनी. मैं यहां से कहीं नहीं जाना चाहती. ज़िंदगीभर तुम्हारे पास ही रहूंगी.” यह भी पढ़ेकुछ डर, जो कहते हैं शादी न कर (Some Fears That Deprive You Of Marriage) “पगली, मेरी चिंता क्यों करती है? बेटियां तो पराया धन होती हैं, उन्हें तो जाना ही होता है. मेरा क्या है, जब तक ज़िंदा हूं कोई न कोई देखभाल कर ही लेगा. पड़ोसियों का साथ आख़िर कब काम आएगा और जब मर जाऊंगी तब इन्हीं में से कुछ उठाकर श्मशान तक भी पहुंचा आएंगे. तेरा घर बस जाए, तू सुखी रहे, बस यही आस है बेटी.” भरे गले से मां ने समझाया. मैं रो पड़ी. नहीं समझा सकी कि मेरा सच्चा सुख अब उस खिड़कीवाले से जुड़ गया था. हां, ख़ामोश ही रह गई. कहां कोई नाम दे सकी उस शख़्स के प्रति अपनी चाहत को. शादी के दिन क़रीब थे. अब भी मैं उसे रोज़ ज़रूर देख आती. मगर अब दिल पर जैसे कई मन बोझ रख दिया था किसी ने. हर समय दिल भरा-सा रहता. ऊपरवाला भी कैसे हृदय में प्रेम को अंकुरित कर देता है. कहीं भी, किसी के भी प्रति. अब समझने लगी थी दर्द और प्रेम के महत्व को. वो अब भी उसी प्रकार चित्र बनाता बिल्कुल शांति से और तन्मय होकर, मुझ मीरा की विरहाकुल पीड़ा से बिल्कुल अनभिज्ञ और बेख़बर. एक दिन रमा चाची को उसके घर जाते देखा तो मेरी उत्कंठा रोके नहीं रुक रही थी. उनके लौटने का बेसब्री से इंतज़ार किया मैंने. पहली बार कोई उसके घर गया था. रमा चाची लौटकर आईं तो सीधे हमारे घर ही चली आईं, मगर मैं नज़रें नीची किए उनके सामने से हट गई. कई बार उसे छत से निहारते हुए वो मुझे देख चुकी थीं. कहीं मां के सामने कुछ बोल ना पड़ें, इस डर ने मेरी उत्कंठा रोक दी. रमा चाची काफ़ी देर तक मां से बातें करती रहीं. मैं चाय देने गई तब दो लाइन उसके बारे में सुनी, ‘बड़ा शरीफ़ लड़का है दीदी. अपने काम से मतलब रखता है बस. मैंने उसे करूणा की शादी में बुलाया है दीदी. कहीं आता-जाता ही नहीं है बेचारा.” मैं दिल को मुट्ठी में भींचे ऊपर आ गई और फूट-फूट कर रो पड़ी. काश, अभी मुझे मौत आ जाती. इस अनाम, अकेले रिश्ते का बोझ उठा नहीं पा रही थी मैं.

- वर्षा सोनी

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