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कहानी- स्वांग 3 (Story Series- Swang 3)

उसे दम घुटता जान पड़ा. उसने खुली हवा का स्पर्श पाने के लिए आंगन में खुलनेवाली खिड़की खोल दी. सामने नीति थी. हौज के पास हाथ-पैर धो रही थी. इसके मन में क्या कभी भी तमन्ना नहीं जागी मुझे पाने की? मैं कभी भी इसका काम्य नहीं रहा? नीति आंगन की डोरी में सूख रहा तौलिया निकालने के लिए मुड़ी और उसकी दृष्टि मनुहरि पर पड़ गई. “आ जाइए. बाथरूम खाली है.” इसका सरोकार बस इतना ही रहा है- बाथरूम खाली है? “आं... हां... नहीं... विवाह की शुभकामनाएं.” “धन्यवाद.” नीति पूरी तरह सहज स्वाभाविक दिखी. कोई पछतावा नहीं, पीड़ा नहीं, खेद नहीं. मनुहरि खिड़की से हटकर बिस्तर पर आ गया. आत्ममुग्धता, विशिष्टता का बोध उसे सुहा नहीं रहा है, बल्कि अस्वाभाविक लग रहा है. स्वांग की तरह. मनुहरि पुस्तक पढ़ रहा था, तभी बीच के द्वार को किसी ने खटखटाया. गुरुजी अस्वस्थ हैं, उन्हें कोई परेशानी तो...? उसने तत्परता से द्वार खोला. “क्या बात है चाची?” “निधि अपनी सहेली की शादी में गई है. अब तक नहीं लौटी. रात बहुत हो गई है, जी घबरा रहा है.” चाची चिंतित थी. “मैं ले आता हूं. पता बताइए.” उसने बाइक स्टार्ट की और चल पड़ा. क्या एकांत उपलब्ध कराया जा रहा है? पूरी तैयारी- नीति या निधि वह जिसमें चाहे रुचि ले. उसे देख निधि की दुविधा दूर हुई, “अच्छा हुआ आप आ गए. यहां कोई खाली नहीं है, जो मुझे घर छोड़े. मैं परेशान थी.” “आइए.” वह पीछे बैठी निधि के स्पर्श को महसूस करता रहा. निधि कहने लगी, “मैं भी पीएससी देना चाहती हूं, पर बाबूजी कहते हैं यह कठिन परीक्षा है. आप टॉपर रहे हैं, जब आप ही फर्स्ट कैटेगरी में नहीं आ सके तो... नहीं मेरा मतलब मैं तो ऐवरेज ही हूं. हिम्मत नहीं कर पाती.” यह बेवकूफ़ लड़की इस एकांत में याद दिला रही है कि मैं पूरी तरह सफल नहीं हूं. गुरुजी आप सोचते हैं कि मैं इस मूढ़मति से अनुराग रखूं, तो यह न होगा. तनिख तल्ख होकर बोला, “अब चयन प्रणाली निष्पक्ष नहीं रही और आप कॉम्पटीशन से घबराती क्यों हैं? चयन होगा, नहीं होगा, कोशिश की जानी चाहिए.” “आपसे मुझे हौसला मिला.” घर पहुंचा तो रुक्मणी चाची दरवाज़े पर मिल गईं. “मनु, तुम्हारा बड़ा सहारा है. तुम्हें तकलीफ़ हुई.” “फिर तो मैं भी आप लोगों को तकलीफ़ दे रहा हूं.” “नहीं, नहीं. तुम्हारे आ जाने से अच्छा लगने लगा है.” कोई दो दिन को आ जाए, तो लोगों को अड़चन होती है, लेकिन यह परिवार उसे निशुल्क रखकर आनंद पा रहा है. स्पष्टतः इस घर में एक सपना पल रहा है. प्रत्येक सदस्य, हां छोटी भी अपने स्तर पर कोशिश कर रही है, सपना पूरा हो. छोटी पढ़ने आई. मनुहरि के बिस्तर पर दो- तीन बर्थडे कार्ड रखे हुए थे. छोटी ने उठा लिए, “कल आपका बर्थडे है?” “हां, कार्ड मेरे मित्रों ने भेजे हैं.” “आप बर्थडे सेलिब्रेट नहीं करते?” “यहां अकेले क्या करूंगा.” दूसरे दिन सायंकाल कार्यालय से लौटा, तो रुक्मणी ने पुकार लिया, “छोटी ने बताया आज तुम्हारा जन्मदिन है. हाथ-मुंह धोकर आ जाओ. मुंह मीठा कराना है.” “जी.” वह हाथ मुंह धोकर पहुंच गया. चाची ने नीति को आवाज़ दी, “नीति, लाओ, क्या ला रही हो?” नीति तश्तरियों में गुलगुले, हलुवा, कटलेट लिए आ पहुंची, “जन्मदिन शुभ हो.” “धन्यवाद, आप लोगों ने मेरा जन्मदिन याद रखा, मुझे अच्छा लगा.” नीति वहीं बैठ गई, “गुनाहों का देवता मिल जाएगी?” “आपने नहीं प़ढ़ी?” “बहुत पहले पढ़ी थी.” गुनाहों का देवता पढ़ चुकी है, पुनः पढ़ना चाहती है. क्या बनना चाहती है? बिनती या सुधा? इस क़िताब के बहाने कोई संदेश तो नहीं देना चाहती? अभी कल ही तो आंगन में कपड़े सुखाते हुए गा रही थी, ‘जोगी हम तो लुट गए तेरे प्यार में, जाने तुझको ख़बर कब होगी.. प्रेम सम्प्रेषण.’ यह भी पढ़ें: कहीं आपको भी तनाव का संक्रमण तो नहीं हुआ है? (Health Alert: Stress Is Contagious) “खाइए न.” “हां-हां.” पाकशाला निधि और छोटी संभाले हुई थी. उन्होंने रुक्मणी को भी वहीं बुला लिया. रचना रची जा रही है. योजनाबद्ध तरी़के से नीति को अकेला छोड़ा जा रहा है कि लड़का पटाओ. वह स्पष्ट कहेगा, आप लोगों के बहुत उपकार हैं, पर मैं आपके इस महाजनी प्रस्ताव की निंदा करता हूं. मैं मानता हूं, प्रत्येक माता-पिता अपनी लड़की का मंगल चाहते हैं और प्रत्येक लड़की की कुछ कामनाएं होती हैं, पर मैं प्रस्तुत नहीं हूं. रामराज गुरुजी के द्वारा बताए गए फूड इन्स्पेक्टर लड़के के साथ दीप्ति के विवाह की तिथि निकल आई. मनुहरि छुट्टी लेकर घर चला गया. गुरुजी ने कहा था विवाह में पहुंचेंगे. नहीं पहुंचे. मनुहरि वापस लौटा, तो गुरुजी ने उसे शुभ समाचार दिया, “मनुहरि, आयोजन अच्छा रहा न? मैं पहुंच न सका. उन्हीं दिनों नीति को देखने लड़केवाले आ गए. वे लड़की देखने के इरादे से आए थे, पर उन्हें नीति इतनी भा गई कि यहीं के बाज़ार से साड़ी, अंगूठी ख़रीदकर रिश्ता पक्का कर गए. लड़का ग्रामीण बैंक में शाखा प्रबंधक है. इसी व्यस्तता में मैं नहीं पहुंच सका.” मनुहरि के लिए सूचना अप्रत्याशित थी. तो उसे हथियाने का इन्होंने विचार नहीं किया? यह परिवार उससे प्रभावित नहीं है? इन लोगों को उसका एक भी गुण दिखाई नहीं दिया? तो...? ये लोग उसके प्रति इतने निर्लिप्त कैसे रह सकते हैं? कैसे? मनुहरि को लगा ठीक इसी क्षण वह पूरी तरह अयोग्य, अकर्मण्य, अक्षम साबित हुआ है. इस लायक भी नहीं है कि किसी मामूली परिवार की मामूली लड़की के दिल में अपने लिए ललक जगा सके. लगा ये लोग उसे अनदेखा कर रहे हैं, बल्कि उपेक्षित... अपमानित, खारिज ही कर दिया है. वह कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. पूरी तरह आहत होकर कमरे में चला आया. बहुत से दृश्य उसके सामने आए... निःशुल्क आवास व्यवस्था, मुनगे की कढ़ी, गुलगुले, हलुवा, गुनाहों का देवता. स्नेह, सहयोग, सौहार्द्र, सदाशयता. इनकी भलमनसाहत किसी फलप्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि उस आदमीयत के लिए थी, जो इनके दिलों में, संस्कारों में है? उसे दम घुटता जान पड़ा. उसने खुली हवा का स्पर्श पाने के लिए आंगन में खुलनेवाली खिड़की खोल दी. सामने नीति थी. हौज के पास हाथ-पैर धो रही थी. इसके मन में क्या कभी भी तमन्ना नहीं जागी मुझे पाने की? मैं कभी भी इसका काम्य नहीं रहा? नीति आंगन की डोरी में सूख रहा तौलिया निकालने के लिए मुड़ी और उसकी दृष्टि मनुहरि पर पड़ गई. “आ जाइए. बाथरूम खाली है.” इसका सरोकार बस इतना ही रहा है- बाथरूम खाली है? “आं... हां... नहीं... विवाह की शुभकामनाएं.” “धन्यवाद.” नीति पूरी तरह सहज स्वाभाविक दिखी. कोई पछतावा नहीं, पीड़ा नहीं, खेद नहीं. मनुहरि खिड़की से हटकर बिस्तर पर आ गया. आत्ममुग्धता, विशिष्टता का बोध उसे सुहा नहीं रहा है, बल्कि अस्वाभाविक लग रहा है. स्वांग की तरह. स्वांग. वह ख़ुद को ही ठगते-झुठलाते, ख़ुद से छिपाते हुए नीति से प्रेम कर बैठा है- निहायत रहस्यमय तरी़के से. और इस रहस्य को ठीक उस क्षण समझ पा रहा है, जब समझने का कोई अर्थ नहीं बचा. Sushma Munindra      सुषमा मुनीन्द्र

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