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कहानी- विजय-यात्रा 6 (Story Series- Vijay-Yatra 6)

आज भी नींद खुलते ही एक भयानक सन्नाटा शोर करने लगता है कि सब ख़त्म हो चुका है. वो कहकहे, वो शरारतें, वो छोटी-छोटी बातों पर मनाए जानेवाले जश्न-सब कुछ! फिर जैसे कोई अनचाहा टेलीविज़न खुल जाता है निगाहों के सामने, जिसमें एक ही दृश्य है. 

       

... गांधीजी के मन में भी दहकी थी एक आग जब उन्हें ट्रेन से फेंका गया था. अगर वो तुम्हारी तरह उस आग में ख़ुद को जलाते रहते, तो एक कुंठित नागरिक बनकर रह जाते और अगर बदला लेने की कोशिश करते, तो कोई गुमनाम शहीद. लेकिन उन्होंने उस आग का इतना परिष्कार किया कि उसे उस चूल्हे की आग बना दिया, जिस पर पूरे देश का खाना पक गया." मैं उनकी ओर देखता रहा, कुछ बोल न सका. धीरे-धीरे वो मेरे ज्वालामुखी के लावे को बहने के लिए दिशा देते गए. बहुत सारी प्रेरक पुस्तकें पढ़वाते गए. हर महान नेता के नेता बनने की संघर्ष यात्रा से परिचित कराते गए. व्यक्तित्व विकास का कोर्स करवाया. फिर एक दिन जाने क्या हुआ कि मुझसे एक ढाबेवाले को अपने यहां काम करनेवाले बच्चे को पीटते न देखा गया. मैंने बीच-बचाव करते हुए जाने कैसे उसे इतने प्रभावशाली ढंग से समझाया कि कुछ दिन बाद वहां से गुज़र रहा था, तो बच्चे ने मुझे धन्यवाद देते हुए कहा कि उसके मालिक ने उसे पीटना बंद कर दिया है. यक़ीन मानोगे मुझे उस रात, उस घटना के बाद पहली बार अच्छी नींद आई. और दूसरे दिन अदालत की सुनवाई के समय वकील के प्रश्नों के उत्तर देते समय पहली बार मेरी आवाज़ कांपी नहीं. बस, सर को बताया, तो उन्होंने नींव रख दी उस छोटे-मोटे नेता रोहन की, जो आज तुम्हारे सामने खड़ा है."

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“चलो अच्छा है कि तुम थोड़ा शांत हुए, भूलने लगे...” “नहीं...“ एक दृढ़ स्वर फिर उसके भीतर दफ़न ज्वालामुखी के चटकने की आहट सुनाई देने लगी, “कुछ भी नहीं भूला मैं. जब तक ज़िंदा हूं, भूल सकता भी नहीं. आज भी आधी नींद में या सुबह उठने से पहले लगता है मां घुड़की लगाते हुए कमरे में घुसेंगी कि उठ नालायक, सब पूजा भी कर चुके. लाडला छोटू मेरी चादर खींचकर मुझे चिढ़ाते हुए भागेगा और मैं उठकर उसे दबोच लूंगा. पापा बीच-बचाव करते हुए कहेंगे, “आह! मेरा हाथ..." और हम दोनो चौंककर अलग हो जाएंगे. आज भी नींद खुलते ही एक भयानक सन्नाटा शोर करने लगता है कि सब ख़त्म हो चुका है. वो कहकहे, वो शरारतें, वो छोटी-छोटी बातों पर मनाए जानेवाले जश्न-सब कुछ! फिर जैसे कोई अनचाहा टेलीविज़न खुल जाता है निगाहों के सामने, जिसमें एक ही दृश्य है. हम हर्ष से लबालब भरे छोटे भाई के स्कूल के जलसे में जा रहे हैं, जहां उसे प्रदेश में प्रथम आने की ट्रॉफी मिलनी है. रास्ते में पापा का बीच सड़क पर आड़ी खड़ी गाड़ी में बैठे युवकों से इतनी सी बात पूछना कि बेटा, कोई समस्या है क्या?.. न में जवाब मिलने पर अनुरोध करना कि हमें गाड़ी आगे निकालने के लिए जगह दे दें, गाड़ी सीधी करके. और फिर कई दृश्य डगमग होने लगते हैं. भीड़ के सामने गिड़गिड़ा रहा हूं कि कोई मेरे परिवार को अस्पताल पहुंचा दे, पर अपनी ताक़त दिखाते हाथ बांधकर खड़े उस युवक की धमकी से जैसे सब बुत बन गए हैं.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...

भावना प्रकाश

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