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4 मुद्दे जिन पर झगड़ते हैं पैरेंट्स

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बच्चा छोटा हो या बड़ा, पैरेंट्स के लिए उसकी परवरिश हमेशा चुनौतीपूर्ण ही होती है और इस काम में बच्चों से जुड़े कई मुद्दों पर अक्सर पैरेंट्स की आपस में ही ठन जाती है. किन मसलों पर हो जाती है पैरेंट्स में बहस? आइए, जानते हैं.
  ऋचा ने जैसे ही घर में क़दम रखा बेडरूम से पति के चिल्लाने की आवाज़ आई, “ऋचा, अच्छा हुआ तुम आ गई. जल्दी इधर आओ, बिट्टू ने बेड पर सूसू कर दिया है. चेंज करो जल्दी से. बेडशीट भी तुरंत हटाओ.” ऑफिस से थकी-हारी आई ऋचा का पारा चढ़ गया, मगर अपने ग़ुस्से पर क़ाबू करते हुए उसने पहले बेटे के कपड़े बदले, फिर बेडशीट. उससे 2 घंटे पहले घर पहुंचे पति ने कुछ नहीं किया. इस बात को लेकर कई बार दोनों की बहस भी हो चुकी है, मगर उसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ. इसके अलावा बच्चों की परवरिश से जुड़े और भी बहुत से मुद्दे हैं, जिन पर अक्सर कपल्स के बीच ठन जाती है.
बच्चे की ज़िम्मेदारी
कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो हमारे समाज में बच्चों की ज़िम्मेदारी हमेशा से मां की ही मानी जाती है. मां भले ही वर्किंग हो या हाउसवाइफ, बच्चे की नैपी बदलने से लेकर रात को बच्चे के जागने पर अपनी नींद ख़राब करने और उसके बीमार पड़ने पर सारी रात जागने की ज़िम्मेदारी भी मां पर ही होती है. मां कितनी भी थकी क्यों न हो, लेकिन वो अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती, जबकि पति ऑफिस से आने के बाद अपने लैपटॉप/फोन पर बिज़ी हो जाते हैं या फिर टीवी के सामने बैठ जाते हैं, मगर बच्चे को संभालने की ज़हमत नहीं उठाते. ऐसे में जब पत्नी का फ्रस्ट्रेशन बढ़ जाता है, तो नतीजा बहस/झगड़े के रूप में सामने आता है.
क्या करें?
पति को चाहिए कि बच्चे की कुछ ज़िम्मेदारी ख़ुद भी उठाएं. उन्हें समझना चाहिए कि पत्नी के ऊपर घर-ऑफिस की दोहरी ज़िम्मेदारी है, ऐसे में आपकी मदद से उन्हें थोड़ा आराम मिलेगा और आपका रिश्ता भी मज़बूत बनेगा.
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परवरिश से जुड़े मसले
अक्सर देखा गया है कि पिता जहां बेटे/बेटियों को खुला उन्मुक्त माहौल देना चाहते हैं, वहीं मां चाहती है कि बच्चे को अनुशासन में रखा जाए, क्योंकि ज़रूरत से ज़्यादा आज़ादी उन्हें बिगाड़ देगी. रमेश कहते हैं, “मैं बहुत ओपन माइंड हूं, मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी ख़ुद इतनी सक्षम बने कि अपने ़फैसले ख़ुद ले सके और हर मुश्किल का सामना भी अकेले कर सके, इसलिए मैं उस पर किसी तरह की बंदिश नहीं लगाता, मगर मेरी पत्नी को लगता है कि बच्चों के लिए अनुशासन ज़रूरी है. रात को 8 बजे के बाद वो बेटी को घर से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं देती. इसी तरह वो उस पर कुछ और पाबंदियां भी लगाती है, जिसे लेकर कई बार हमारी बहस हो चुकी है.”
क्या करें?
बच्चों के विकास पर घर के माहौल का बहुत असर पड़ता है. यदि वो आपको हमेशा बहस करते देखेंगे, तो उन पर नकारात्मक असर होगा. अतः बेहतर होगा कि आप दोनों मिल-बैठकर ये डिसाइड कर लें कि बच्चे को कितने अनुशासन में रखना है और कितनी छूट देनी है. बच्चा ग़लत राह पर न जाए ये सुनिश्‍चित करना पैरेंट्स की ज़िम्मेदारी है.
दादा-दादी का दुलार
ज्वाइंट फैमिली में रहने वाले बच्चों को अपने दादा-दादी से अच्छे संस्कार मिलते हैं और वो अनुशासन में रहना भी सीखते हैं, मगर कई बार वो अपने दादा-दादी की आड़ में अपनी ग़लतियां भी छुपाने की कोशिश करते हैं और कई बार दादा-दादी को बच्चों की कुछ चीजें पसंद नहीं आतीं. राधिका कहती हैं, “मैं इस बात से सहमत हूं कि बच्चों के लिए ग्रैंड पैरेंट्स का साथ बहुत ज़रूरी होता है, मगर हमें ये भी याद रखना होगा कि उनके और बच्चों के बीच जनरेशन गैप है. उनके ज़माने में लड़कों का लड़कियों से दोस्ती करना जायज़ नहीं समझा जाता था, मगर अब ये बहुत नॉर्मल चीज़ है. दरअसल, कई बार मेरी सासू-मां ने मेरे 16 वर्षीय बेटे की उसकी क्लासमेट से दोस्ती पर सवाल उठाए और इस मुद्दे पर पति भी उन्हीं का साथ देने लगते हैं. ऐेसे में अक्सर मेरा उनसे झगड़ा हो जाता है. इतना ही नहीं, कई बार बेटे की ग़लती पर यदि मैं उसे डांटती हूं, तो सासू मां उसका पक्ष लेकर उसे बचाने की कोशिश करती हैं और पति भी कुछ नहीं बोलते.”
क्या करें?     
माता-पिता की इज़्ज़त करना और उनकी बात सुनना अलग चीज़ है, लेकिन आपको ये याद रखना चाहिए कि अब के ज़माने के हिसाब से चीज़ें काफ़ी बदल चुकी हैं. अतः यदि बच्चे से जुड़े किसी मसले पर आपके माता-पिता की राय पुरानी हो, तो आंख बंद करके उनका समर्थन करने की बजाय उनके सामने हां कह दें, मगर करें वही जो आपके बच्चे के हित में हो. और हां, पत्नी से बहस करने की बजाय शांति से बात करके उस मसले को सुलझाने की कोशिश करें.
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पॉकेट मनी से जुड़ा मसला
टीनएज में पहुंचते ही बच्चों को पॉकेट मनी की ज़रूरत पड़ जाती है. हर पैरेंट्स अपनी आमदनी और स्टेटस के हिसाब से बच्चे को पॉकेट मनी देते हैं, मगर ज़रूरत से ज़्यादा पॉकेट मनी देने या जब भी बच्चा पैसा मांगे उसे तुरंत दे देने से एक तो वो पैसों की वैल्यू नहीं समझेगा, दूसरे उसे फिज़ूलख़र्च की आदत हो जाएगी. बच्चों के ख़र्च की आदत पर भी कई बार पैरेंट्स में बहस हो जाती है. मिस्टर आदित्य को अपने बेटे की डिमांड पर तुरंत 500-1000 रुपए देने में कोई आपत्ति नहीं होती, बेटे के एक बार कहने पर ही वो तुरंत अपने वॉलेट से पैसे निकालकर दे देते हैं, जबकि उनकी पत्नी 100 रुपए भी देने से पहले पूछती है कि उसे पैसे क्यों चाहिए? पत्नी की इसी आदत पर आदित्य चिढ़ जाते हैं और दोनों के बीच कहासुनी हो जाती है. पत्नी का तर्क होता है कि बच्चा बिगड़ न जाए, इसलिए ये जानना ज़रूरी है कि वो कहां ख़र्च करता है, जबकि आदित्य कहते हैं कि बच्चा है, उसे एंजॉय करने दो.
क्या करें?
ये बात सच है कि बचपन में ही यदि बच्चों की परवरिश की लगाम ढीली छोड़ दी जाए, तो उनको बिगड़ने में ज़रा भी देर नहीं लगेगी. अतः माता-पिता दोनों को चाहिए कि वो आपस में बैठकर ये तय कर लें कि महीने/हफ़्ते में बच्चे को कितनी पॉकेट मनी देनी है. यदि कभी वो ज़्यादा पैसों की डिमांड करता है, तो पत्नी के प्रश्‍न पर भड़कने की बजाय ख़ुद भी बच्चे से पूछें कि उसे पैसे क्यों चाहिए.

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