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कहानी- आज का एकलव्य (Story- Aaj Ka Eklavya)

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            उषा वधवा
  Hindi Short Story
“क्या-क्या दिखाई दे रहा है?” हर एक को आसपास बैठे-खड़े लोग, पेड़, चिड़िया, दूर का आकाश सभी कुछ दिख रहा है. अब अर्जुन की बारी है और द्रोणाचार्य का वही प्रश्‍न, पर अर्जुन को तो केवल चिड़िया की आंख ही दिखाई दे रही है. अन्य कुछ भी नहीं. ऐसे एकाग्रचित्त थे अर्जुन और ऐसे ही बनना था मुझे भी. अतः मेरा आदर्श बन गए अर्जुन. मेरे ख़्वाब व लक्ष्य बहुत ऊंचे थे और इसके लिए पढ़ाई का कितना महत्व है, यह मैं अच्छी तरह से जानता था. ‘मैं अपना जीवन अपने हिसाब से जीऊंगा.’ यही मेरा दृढ़ निश्‍चय था.
  आज मैंने अपने जीवन के छब्बीस वर्ष पूरे कर लिए. जन्मदिन तो जन्मदिन है, चाहे संगी-साथियों सहित मिल-बैठकर मनाया जाए, चाहे अकेले एकांत कमरे में. बचपन में मां जन्मदिन पर नए कपड़े पहनाती थी. आटे की रोटी थापकर और फिर उन्हें कूटकर घी-शक्कर मिला चूरमा बनाती और हर आनेवाले को गुड़ की डली के साथ बड़े प्यार से खिलाती. आज वह सब यादकर मन उदास हो आया है. कितनी अजीब बात है न सुखद यादें भी रुला सकती हैं. मेरे पिता अस्थाना साहब के बंगले पर माली का काम करते थे और दिनभर वहीं रहते थे. उन्होंने हमारी परवरिश में कोई कमी नहीं रखी. सीमित आय में भी उन्होंने हम दोनों भाइयों को अच्छे स्कूल में दाख़िला दिला रखा था. मां बहुत सुघड़ता से घर चलातीं. पौष्टिक भोजन, धुले व प्रेस किए कपड़े और अच्छे संस्कार सब मां से मिले. वे स्वयं पढ़ी-लिखी नहीं थीं, पर चाहती थीं कि हम दोनों भाई अपना जीवन लक्ष्य ऊंचा रखें. ‘परन्तु लक्ष्य प्राप्ति के लिए एकाग्रता बहुत आवश्यक है.’ ऐसा वे अक्सर कहतीं. इसके लिए वे हमें प्रेरणास्पद पौराणिक कहानियां सुनातीं. मेरी प्रिय कहानी थी अर्जुन की, जिसे कई बार सुनकर भी मेरा मन न अघाता था. धनुर्विद्या की परीक्षा चल रही थी. पेड़ पर काठ की एक चिड़िया टांग आचार्य द्रोणाचार्य ने उसकी आंख भेदने का आदेश दिया है. कौरव और पांडव बारी-बारी धनुष-बाण उठा, उस पर ज्यों ही निशाना साधने लगते हैं कि द्रोणाचार्य प्रश्‍न करते हैं, “क्या-क्या दिखाई दे रहा है?” हर एक को आसपास बैठे-खड़े लोग, पेड़, चिड़िया, दूर का आकाश सभी कुछ दिख रहा है. अब अर्जुन की बारी है और द्रोणाचार्य का वही प्रश्‍न, पर अर्जुन को तो केवल चिड़िया की आंख ही दिखाई दे रही है. अन्य कुछ भी नहीं. ऐसे एकाग्रचित्त थे अर्जुन और ऐसे ही बनना था मुझे भी. अतः मेरा आदर्श बन गए अर्जुन. मेरे ख़्वाब व लक्ष्य बहुत ऊंचे थे और इसके लिए पढ़ाई का कितना महत्व है, यह मैं अच्छी तरह से जानता था. ‘मैं अपना जीवन अपने हिसाब से जीऊंगा.’ यही मेरा दृढ़ निश्‍चय था. मां ने केवल अभावग्रस्त जीवन ही देखा था. मैंने उन्हें सदैव अपना मन मारकर ही जीते देखा. शायद उन्हें यह एहसास ही नहीं था कि उनके पास अपना एक मन भी है, जिसकी कोई इच्छा-अनिच्छा भी हो सकती है. हमारा समाज लड़कियों को उनकी कच्ची उम्र से ही एक तयशुदा दायरे में खड़ा कर देता है और उनसे यह अपेक्षा करता है कि वह उसी पर तमाम उम्र चलती रहेंगी, बिना कोई प्रश्‍न किए. उनके मन में प्रश्‍न उठते भी हैं, यह भी निश्‍चित नहीं. मां भी उन्हीं स्त्रियों में से एक थीं. आज जब मैं उस मुक़ाम पर खड़ा हूं, जब मैं उनकी हर इच्छा पूरी कर सकता हूं, तो वे हमारे बीच नहीं रहीं. रविवार को तो बाबा का अवकाश रहता. पर स्कूलों में तो अनेक छुट्टियां होती हैं और हर छुट्टी के दिन मैं बाबा के संग बंगले पर चला जाता. रंग-बिरंगे फूलों से भरा उपवन, बंगले का साफ़-सुथरा वातावरण मुझे बहुत आकर्षित करता. बाबा को फूलों से बहुत लगाव था. वे नन्हें शिशुओं के समान उनकी देखभाल करते. सुबह बंगले पर पहुंचते ही ताज़े फूलों का एक गुलदस्ता बनाकर गृहस्वामिनी को भेंट करने भीतर जाते, तो मैं भी उनके संग हो लेता. अपनी मेहनत एवं स्नेह से संचित उन फूलों को देते हुए उनके चेहरे पर गर्व मिश्रित हर्ष के भाव रहते. मैंने क्यों नहीं पाया अपने बाबा से यह गुण? मैंने भी जीवन में एक फूल खिलाया था और उसे समर्पित कर उदास हूं आज? अस्थाना दंपति बहुत अच्छे थे. पर अच्छे होने से दुनिया की सब ख़ुशियां मिल जाती हैं क्या? इतने बड़े बंगले के इतने अच्छे लोगों का बेटा महेन्द्र पोलियोग्रस्त था. विशेष प्रकार के बूटों की सहायता से भी बमुश्किल चल पाता था. स्कूल जाने पर अन्य लड़के उसका मज़ाक उड़ाते. अतः पिता ने घर पर ही उसके पढ़ने की व्यवस्था कर रखी थी. पर साथ में खेलने के लिए भी उसका कोई साथी नहीं था. मेरा ही हमउम्र रहा होगा. नियमित स्कूल जाने से मैं विश्‍वासपूर्वक सबसे बातचीत कर लेता था. जिस दिन मैं बंगले पर जाता, मांजी से ख़ूब बातें करता. महेन्द्र के संग दिनभर खेलता. उसे इधर-उधर की ढेर सारी बातें व क़िस्से-कहानियां सुनाता. मैं तब ग्यारह वर्ष का रहा होऊंगा, जब अस्थाना साहब ने बाबा के समक्ष एक प्रस्ताव रखा. मैं उनके घर में महेन्द्र के साथी के रूप में रहूं. इसकी एवज में वह मेरी पढ़ाई का समस्त ख़र्च उठाने को तैयार थे. मैं जब तक चाहे और जो चाहे पढ़ सकता हूं. पढ़ाई में मेरी रुचि के कारण मैं उनके बेटे का अच्छा साथी बन सकता था और मेरा भी उच्च शिक्षा हासिल करने का सपना पूरा हो सकता था. मेरे स्कूल से लौटने पर पहले मैं और महेन्द्र मिलकर पढ़ाई करते और उसके पश्‍चात् स़िर्फ उसी तरह के खेल खेलते, जिनमें वह भी हिस्सा ले सके. महेन्द्र से तीन वर्ष छोटी उसकी बहन मीता भी हमारे खेल-कूद में भागीदार होती थी. कभी-कभार मैं घर अवश्य जाता, पर बंगले पर रहना मुझे अच्छा लगने लगा था. वहां की सुविधाएं, साफ़-सुथरा माहौल, पढ़ने के लिए ढेरों पुस्तकें, मुझे वहीं बांधे रखतीं. मेरा छोटा भाई पढ़ने से बहुत जी चुराता था. स्कूल तो नियमित भेजा जाता, पर वहां से अपनी बुद्धि में कुछ न भर पाता. मेरी उससे दूरी निरंतर बढ़ती जा रही थी. बाबा से तो वहीं भेंट हो जाती थी. हां, मां की जब भी याद आती, मैं जाकर उनसे मिल आता. यह अस्थाना परिवार का बड़प्पन था कि उनमें से किसी ने भी मुझे ‘माली का बेटा’ होने का एहसास कभी नहीं करवाया. बारहवीं कक्षा बहुत अच्छे नंबरों से पास कर मैं प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठा एवं मेरे शहर में ही आईआईटी में मेरा चयन हो गया. अब मैं सप्ताहांत में ही घर आता था. मां से मिलकर बाकी का पूरा समय बंगले पर ही गुज़ारता. महेन्द्र के संग रहने का बहाना तो था ही, मीता का साथ भी अच्छा लगने लगा था. अपने वादे के मुताबिक मेरी उच्च शिक्षा का पूरा ख़र्च अस्थाना साहब वहन कर रहे थे. यह उनकी दरियादिली थी कि उन्होंने मुझे कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दी. मीता उस समय से हमारे संग खेलती आई थी, जब हम सभी बच्चे थे. दिन, महीने और वर्ष बीतते रहे एवं हम अपनी किशोरावस्था लांघ युवा होने लगे. स्कूली होमवर्क में उसकी सहायता तो मैं शुरू से ही करता था. अब अन्य बातों में भी गाइड बन गया. देर-सवेर कहीं जाना होता, तो मांजी मुझे उसके संग भेजतीं. अपने स्कूल की, टीचर एवं सहेलियों की बातें मीता खुलकर मेरे संग डिस्कस करती. महेन्द्र बाहरी दुनिया से उतना अवगत नहीं था, जितना कि मैं और यथासंभव मैं उसे सही राह दिखाता. मां ने हमारे भीतर बहुत उच्च संस्कार डाले थे और उन्हीं के अनुरूप मैं मीता को भी मशविरा देता. यूं उस ख़ूबसूरत कली को मैं फूल बनते देख रहा था, उसकी ख़ुशबू अपने भीतर तक महसूस कर सकता था मैं. किशोरावस्था के बीतते ही उसमें एक अनोखा आकर्षण उतर आया था या फिर यह स़िर्फ मेरी ही आंखों को दिखाई दे रहा था? चेहरे पर स्निग्धता, जो उम्र की ख़ास पहचान होती है एवं होंठों पर सहज मुस्कान. यूं लगता था किसी कुशल कलाकार द्वारा गढ़ी प्रतिमा हो. लेकिन प्रतिमा की आंखें इस कदर नहीं बोलतीं! उसकी आंखें तो मन की पूरी बात सामने रख देती थीं. कुछ भी कहना शेष न बचता. उसका व्यवहार पूरी तरह बदल रहा था. अब वह मुझे विशाल भइया कहकर न बुलाती. नियमित रूप से हर वर्ष महेन्द्र के संग वह मुझे भी राखी बांधती आई थी, पर पिछली बार ‘एक ही राखी मिली है’ कहकर मेरी कलाई में राखी बांधना टाल गई. करोड़ों मनुष्यों से अटी पड़ी इस दुनिया में हम क्यों किसी एक को चुनते हैं, यह प्रश्‍न सुनने में सरल लग सकता है, पर शायद इसका संतोषजनक उत्तर कोई नहीं दे पाएगा. कितना बड़ा था अस्थाना परिवार का दायरा, कई लोगों के संपर्क में आई होगी मीता और नकारने की लाख कोशिशों के बावजूद क्यों सुलग रही थी मेरे भीतर एक चिंगारी? अस्थाना साहब से उसका हाथ मांगना मेरी हिम्मत नहीं, गुस्ताख़ी होती और मैं एहसानफ़रामोश कहलाता. अस्थाना साहब की ही बदौलत मेरे सपने पूरे हुए थे. मैं अपने मुक़ाम तक पहुंचा था. इन सब बातों को मैं कैसे भूल सकता था? मैंने कभी सोचा था कि मैं मन मारकर नहीं जीऊंगा, अपनी हर इच्छा पूरी करूंगा, पर सच्चाई तो यह है कि मन मारकर जीना मुझे विरासत में ही मिला था. वे आंखें बहुत स्पष्ट रूप से मुझसे प्यार मांग रहीं थीं, पर मैंने अपने मन को लौह कवच में बंद कर दिया था. महेन्द्र अपने पिता की फैक्टरी में सहायता करने नियमित रूप से जाने लगा था और मीता भी बीए के अंतिम वर्ष में पहुंच चुकी थी. आईआईटी की पढ़ाई पूरी करते ही मेरी नौकरी लग गई और अस्थाना साहब की रज़ामंदी से मैंने अपने लिए किराए पर घर ले लिया था, पर उनके घर मेरा प्रायः चक्कर लग ही जाता. मांजी की नज़रें शायद अपनी बेटी के मन की बात को समझ गई थीं. वे मान भी जातीं, पर अस्थाना साहब नहीं माने. मुझे महेन्द्र ने बताया था ये सब. मुझ पर क्रोधित नहीं हुए, यही उनकी महानता थी. वे समझते थे कि मैंने स्वयं को ज़ब्त कर रखा है. साथ ही यह भी जानते थे कि मैं उनके मान-सम्मान पर कभी आंच नहीं आने दूंगा. उन्होंने मीता का रिश्ता कहीं और तय कर, तुरंत विवाह की घोषणा कर दी और सारे इंतज़ाम की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी. मैंने चेहरे पर बिना कोई शिकन लाए परिवार के सदस्य की तरह ही सब काम संभाला. पर भीतर जो कांटे-सा चुभ रहा था, उसे तो बस मैं ही महसूस कर सकता था. उस दर्द की व्याख्या तो हो ही नहीं सकती और कहता भी तो किससे कहता? दो महीने तक ख़ूब भागदौड़ की. अस्थाना साहब के निर्देशानुसार विवाह के सब इंतज़ाम पूरे किए, पर वैवाहिक रस्मों में अपनी सहनशीलता की परीक्षा देना अभी बाकी थी. उन लोगों के परंपरा अनुसार लड़की के विवाह में फेरों, विदाई और बाद में कई रस्मों में भाई की प्रमुख भूमिका रहती है. अपना भाई न हो, तो ये सभी रस्में चचेरे-ममेरे भाई को सौंप दी जाती हैं. नहीं कह सकता कि यह ज़िम्मेदारी अस्थाना साहब ने मुझे अपना आत्मीय मान सौंपी थी या मुझे अपनी औक़ात याद दिलाने के लिए. लेकिन मैंने वह सब किया, जो मुझसे अपेक्षित था. विदा होकर दुल्हन जब पहली बार ससुराल जाती है, तो भाई मेवा-मिठाई लेकर उसके संग उसे पति के घर छोड़ने जाता है. यह कर्त्तव्य भी मुझे ही निभाना था. जिस कली को खिलाने में मेरा पूरा योगदान रहा था, उसे कल मैं अपने हाथों किसी और को सौंप आया हूं. विवाह की रस्मों आदि में मीता की पलकें झुकी ही रहीं. क्या उसे डर था कि पलकें उठाएगी, तो बोलती आंखें सब कुछ उजागर कर देंगी? या फिर अपने नए जीवन की तैयारी के लिए स्वयं को मज़बूत बना रही थी वह? कल तक तो ख़ूब भागमभाग रही, पर आज सुबह से अपने कमरे में निढाल पड़ा हूं. इसका एक कारण जहां इतने दिनों की थकावट है, वहीं मन को घेरे बैठा आत्ममंथन भी है. आचार्य द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के हित की सोच एकलव्य से उसके दाएं हाथ का अगूंठा मांगा था. क्या बीती थी एकलव्य के दिल पर अगूंठा देकर? इस विषय पर कवि और कथाकार सब मौन हैं. एकलव्य के साथ न्याय हुआ था या अन्याय? युग बीत गए. कौन करेगा इस बात का फैसला और कब? कुछ भी हो, मुझे विश्‍वास है एकलव्य ने अगूंठा देकर भी एक सार्थक जीवन ही जीया होगा. ऐसे प्रतिबद्ध व्यक्ति जीवन नष्ट कर ही नहीं सकते. आज मैं एकलव्य बनकर खड़ा हूं और मुझसे यह अपेक्षा की गई है कि मैं अपने मन को उसकी समस्त चाहत समेत कुचल डालूं, ख़त्म कर दूं उसे. यही मेरी गुरुदक्षिणा है. मैंने जीवन में अनेक परीक्षाएं उत्तीर्ण की हैं. आज कैसे हार मान लूं? मीता को तो मुझसे भी कठिन परीक्षा देनी है. उसे तो टूटे दिल की किरचें समेटने तक की मोहलत नहीं मिली. बैठकर आंसू बहाने का एकांत न पा सकी वह. मेरे प्यार को दिल के किसी कोने में समेटकर वह हंस-मुस्कुराकर अपने सारे कर्त्तव्य पूरे करेगी. पति को शिकायत का कोई मौक़ा नहीं देगी, यह भी जानता हूं. घुट्टी में यही मंत्र पीकर बड़ी होती हैं लड़कियां, चाहे वह मेरी मां हो या मीता-सी कोई लड़की. जाने किस माटी से बनाकर भेजता है विधाता नारी का मन? सब कुछ समा जाता है इसमें, सब कुछ सहन कर सकता है वह. मेरा जीवन तो आज भी मेरे अपने हाथ में है और इसे मैंने अकेले ही जीने की ठानी है. एक अजब-सा रिश्ता है प्यार का दर्द से. जिसकी याद से पीड़ित है मन, उसी की याद को गले लगाए बैठा हूं. उसे भूल जाने की कोशिश भी नहीं कर रहा. शायद करना ही नहीं चाहता. सच तो यह है कि प्यार में पाना आवश्यक भी नहीं. पृथ्वी-आकाश कहां मिलते हैं भला? दूर से ऐसा देख एक सुखद भ्रम होता है बस. वास्तविक प्यार तो देह से ऊपर मन से जुड़ता है, आत्मा से जुड़ता है और यह प्यार नैतिकता-अनैतिकता के दायरे से बाहर है, समाज की वर्जनाओं से ऊपर. मन का अर्पण करके भी एकलव्य हारेगा नहीं द्रोण! यक़ीनन वह आज भी सार्थक जीवन ही जीएगा.
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