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कहानी- गुलमोहर (Short Story- Gulmohar)

एक-एक कर घर की सभी वस्तुओं के बंटवारे हो रहे थे, लेकिन सावित्री देवी का दिल टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर रहा था. उनका मन हुआ, चीख चीख़ कर कहें, "क्या पति के साथ उनकी ज़िंदगी भी ख़त्म हो गई?"

सावित्री देवी की नज़रें खिड़की के पार आकाश के दूसरे छोर पर फैले नीले रंग पर टिकी थीं. बादल बार-बार आते और अपने रंग बिखरा कर चले जाते. कभी काला, कभी गहरा सलेटी, वैसे ही रंग उनके दिलो-दिमाग़ को ढंकते चले जा रहे थे. तेज़-तेज़ आवाज़ों के बीच में अपने बच्चों के चेहरे के नक़ाब खिसक-खिसक कर बादलों का रूप भरकर उनके दिल के आकाश को ढंक रहे थे.
अरूणा फूले मुंह से छोटी ननद शिप्रा को बता रही थी कि फ्रिज के लिए तो बाबूजी ने ख़ुद भी कहा था कि बड़े सोमेश के यहां भी फ्रिज आ गया, छोटे राजेश के यहां भी, बस बिचले ब्रजेश के पास फ्रिज नहीं है. वह लेकर क्या करेगा, हमारा ले लेगा. लेकिन पिछले साल फ्रिज ख़राब हुआ, तो पैसा सोमेश ने लगाया था. विदेशी बड़ा दो दरवाज़े का फ्रिज देखकर हर किसी का मन मचल जाता था.
अब तो मिलता ही नहीं जब पापा ने ख़रीदा, तब ही दस हज़ार का था, अब तो बहुत क़ीमती होगा. फ्रिज क्या है पूरी बड़ी आलमारी है सब रसोई भर दो. अब क्योंकि सोमेश ने एक बिगड़ा पुर्जा ला दिया था, इसलिए सोमेश ने अपना हक़ जता दिया था, कहा था, "इसमें पैसा मैंने लगाया साथ ही मेरी गृहस्थी बड़ी भी है, मेरा फ्रिज बहुत छोटा है, उससे पूरा नहीं पड़ता." फ्रिज वह ले जाएगा और अपना छोटा फ्रिज मां के लिए भेज देगा, अकेली मां इतना बड़ा फ्रिज क्या करेंगी.
बिचली बहू अरुणा की आशाओं पर तुषारापात हुआ और वह रूठ गई थी, "बड़े हैं तो क्या सब चीज़ों पर उन्हीं का अधिकार बनता है. अपने आप फ़ैसला कर लिया, हमें अधिक ज़रूरत है. छोटा फ्रिज लेना होता, तो हम नहीं ले सकते थे क्या?"

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एक-एक कर घर की सभी वस्तुओं के हिस्से-बंटवारे हो रहे थे, लेकिन सावित्री देवी का दिल टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर रहा था. सुधा बीच-बीच में कान में फुसफुसा देती, "मां अभी जेवर पर हाथ मत लगाने देना. तुम्हारी ज़िंदगी पड़ी है, नक़द भी मत देना. देखा, कैसे सब बस लेने की सोच रहे हैं. एक बार भी सोचा है तुम्हारा ख़र्च कैसे चलेगा?"
सुधा की ओर उदास आंखों से देख सावित्री देवी ने नज़रें तीनों बेटों और दोनों बेटियों पर डालीं. सबके चेहरे उत्तेजना और उत्कंठा से भरे थे कि किसको क्या मिलेगा. चिरप्रतीक्षित घड़ी आई थी. जब-जब घर पर बच्चे आते अपनी पसंद की चीज़ों पर नज़रें गड़ा कर देखते थे. था भी तो अनन्त बाबू को शौक शाही सामान ख़रीदने का. अखरोट की लकड़ी की नक्काशीदार ड्रेसिंग टेबल, ईरानी कालीन जिसकी मोटाई ही गद्दे जैसी थी. हर शहर की उत्तम वस्तुओं के साथ विदेशी सामान का भंडार जो आधुनिक युग में अलभ्य हो गया है जब कि उनके समय में मिलता ही वही था.
"पता है अम्मा, जो तुम्हारे पास पचास कांच की तश्तरियां रखी हैं वैसी तो अब बहुत महंगी हैं, वो भी एम्पोरियम में हैं."
कोई कहता, "संगमरमर की इतनी बड़ी मेज़ पता है अब तो हज़ारों में आएगी."
तो सावित्री देवी बरामदे में उपेक्षित पड़ी मेज को हैरानी से देखती और कहती, "पता' नहीं तब तो तुम्हारे बाबू दो सौ रुपए की आगरा से लाए थे."
ड्रॉइंगरूम में खड़ी आदमकद संगमरमर की परी के बुत पर सब का दिल था. सबने अपने-अपने घर का एक-एक कोना उसके लिए खाली कर रखा था.
"अब तो मां इन चीज़ों को विदेशी ही ख़रीद पाते हैं और वो भी करोड़पति."
उनका मन हुआ चीख चोख कर कहें, "क्या इस हाड़-मांस को किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है? क्या पति के साथ उनकी ज़िंदगी भी ख़त्म हो गई. जब तक वो हैं, वो इस घर से कुछ नहीं ले जाने देगी, ले जाना है, तो एक बार तो फूटे मुंह से कहो कि मां को मैं ले जाऊंगा, पर उनका इस घर में क्या होगा? परंतु शायद उनकी किसी भी घर में ज़रूरत नहीं है. सबके घर में आलमारी मेज सोफा सेट के लिए कोने खाली हैं, पर एक कोना ऐसा खाली नहीं है जिसमें मां समा सके. उनके घरों की साज-सज्जा से पुराने ढंग की मां मेल नहीं खाती. हो, पुरानी पांच शौशे की बटावदार मेज़ पर पॉलिश होकर नायाब चीज बनेगी. मां तो उस घर को बदसूरत बना देगी.

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दिल की दहकन उमड़ते आंसुओं को छन छन कर सुखा रही थी. ऐसे लोगों की बातों पर क्या रोना? नहीं लगता कि इन्हें एहसास है कि मां नाम का जीव, जिसने कभी दिन रात का सुख-चैन गंवाकर अपने रक्त-मांस से इनको गढ़ा और सोच-सोच कर दिल में आशाएं बनाई थीं कि ये उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगे.

तीन-तीन बेटों की मां होने पर नाज था उन्हें. पर कौन उनका सहारा है? क्या वह नौकरानी, जिसका इंतजाम करके जा रहे है या वह चौकीदार, जो पीछे की कोठरी में रहने के एवज में रात में कोई घर में घुस कर सामान न लूट सके, इसका ख़्याल रखेगा, कल को वही चौकीदार रात में गला दबा जाए, तो इसके लिए हिदायते हैं, मां जेवर-पैसा कुछ भी घर में मत रखना. मां को मारकर तब ही तो सामान ढूंढ़ेगा. हारी बीमारी तो क़िस्मत में लिखा कर ही नहीं लाई शायद पता नहीं प्राण छोड़ते समय दो बूंद पानी डालनेवाला भी होगा कि नहीं? अगर सोमू के बाबू रहते तो चिंता नहीं थी.
वो फिर बाहर की ओर आंगन में लगे गुलमोहर के पेड़ को देखने लगीं. उसके नीचे अनन्त बाबू की झूलनेवाली आराम कुर्सी पड़ी थी. उन्हें लगा कुर्सी झूल रही है और अनन्त बाबू सिर टिकाए झूलते हुए कह रहे हैं, "देखा सोमू की मां, बहुत नाज था तुम्हें इन्हीं डॉक्टर, इंजीनियर पर. कितनी सुखी गृहस्थी थी तुम्हारी. पर क्या सच में यह तुम्हारी गृहस्थी है? तुम तो मात्र आया हो इनकी, पिछले जन्म में कर्ज लिया होगा इनसे वही चुका रहे हैं हम. कोई किसी का नहीं होता, सब के पीछे होता है स्वार्थ. हमारा भी तो स्वार्थ ही है न कि बड़े होकर हमें ये पालेंगे. पर जिसका स्वार्थ अधिक बलवान होता है, वही जीतता है."
सुबह से शाम का अधिकांश भाग अनन्त बाबू का इसी कुर्सी पर बीतता था और उसके पास छोटी चौकी डालकर सावित्री देवी घर के काम निपटाती रहती थीं. अख़बार पढ़ने से लेकर चाय-खाना सब इसी कुर्सी पर होता था. यहां तक कि कभी-कभी दोपहर की नींद भी वे इसी कुर्सी पर ले लेते थे. चौकी पर बैठी सावित्री देवी सारे मुहल्ले पड़ोस को सुनाती रहतीं.
सबका अंत यही निकलता था कि उनके सच्चे कितने लायक निकले हैं, वे अधिकतर कहते, "हो जी, तुम्हारे बेटे हैं न पता लगेगा कौन कितने पानी में है. चलो चार-चार महीने रह आते हैं तीनों के घर."
"सो मत कहो. सिर आंखों पर रखेंगे, पर सब यहां आते रहते हैं उनका मन बदल जाता है."
"ओ सोमू की मां, उनका मन बदल जाता. ये तो तुमने सोचा, कभी उन्होंने सोचा कि तुम्हारा भी मन बदल जाए, कभी किसी ने कहा कि बाबू, अम्मा कुछ दिन रह जाओ. हां, जब काम पड़ता है तब झट अम्मा याद आ जाती है. अरे मैं ज़माना देखता हूं ज़माना."
सच ही कहा था, एक गहरी सांस निकल गई.
"मां, भात पच की बात कर रहे हैं; क्या कहती हो तुम?" सुधा की फुसफुसाहट से ध्यान बंट गया.
"किसी को चिंता करने की ज़रूरत नहीं है. भाई करते हैं, तो ठीक है, नहीं तो तुम लोगों को क्या कमी है जो भात पच की तुम्हें आवश्यकता है? अब कुछ ज़माने के साथ चलो." कहकर वे उठ आई.
अवाक् सुधा मुंह देखती रह गई. यह भी कैसी बात कर रही है?
दूसरे दिन एक-एक कर सब विदा लेने लगे थे. जो सामान साथ जा सकता था ले जा रहे थे. न जा सकनेवाले को अपने हिसाब से ढक दाब कर बंद कर रहे थे. दबी जुबान से सबने बहुत चाहा था मां गहने, जेवर नकदी का भी बंटवारा कर दें. कल को उन्हें कुछ हो गया, तो तब क्या होगा. पर सावित्री देवी चुपचाप बिना जवाब दिए अपना काम करती रहीं, पर मन में ज्वालामुखी धधक रहा था. कहना चाहा किराए के बेटे ख़रीदूंगी जिसके बल पर हारी बीमारी में सेवा करा सकूं और तुम लोगों के सामने हाथ फैलाने से बच जाऊं, बल्कि जब कभी तुम आओ तो ख़र्च भी कर सकूं.

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निर्लिप्त चेहरे को देख अधिक किसी की हिम्मत नहीं पड़ी. चलते समय सोमेश कह गया, "आज से ही बाहर दो जने सोया करेंगे, मैंने इंतजाम कर दिया है मां." जैसे बहुत बड़ा एहसान कर दिया.
सुधा लिपट कर रोती हुई बोली, "मां, अपना ध्यान रखना."
जबकि सावित्री देवी हर किसी की हिदायतों को सुनती आनेवाले भयावह दिनों के लिए सहारा कैसे ढूंढ़ रही थीं. वे आनेवाले सन्नाटे को चीर पाएंगी.
राजेश ने जैसे ही वह आरामकुर्सी उठाई, वो एकदम ज़ोर से चीख पड़ीं, "नहीं, उसे वहीं रख, उसे छूना भी मत."
राजेश सिटपिटा गया. आश्चर्य से मां की ओर देखता धीरे से पैर छू बाहर निकल गया.
एक-एक कर सब चले गए. वे गुलमोहर के पेड़ के नीचे अपनी पुरानी जगह चौकी पर आ बैठीं और कुर्सी के सहारे सिर टिका कर बोली, "सोमू के बाबू, वो तुम्हें भी ले जाना चाहते थे, तुम्हारी यादें ले जाना चाहते थे. अब वे यादें ही तो मेरा सहारा है." और फफक-फफक कर रो उठीं और गुलमोहर के फूल उन पर झड़ते रहे.

- डॉ. शशि गोयल

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