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कविता- मेरा अब जी नहीं लगता… (Poetry- Mera Ab Jee Nahi Lagta…)

हज़ारों जतन करती हूं

मैं लाखों यतन करती हूं

बहुत हंसती-हंसाती हूं

मैं यूं ही मुस्कुराती हूं

कभी सखियों के संग

अपनों के संग

महफ़िल सजाती हूं

मैं जो कुछ हूं नहीं

वो भी

यूं ही बनती-बनाती हूं

मगर सच पूछिए तो

मेरा खालीपन नहीं भरता

मेरा अब जी नहीं लगता

कहीं भी जी नहीं लगता

कुछ इक पल को

कुछ इक क्षण को

बदल जाता है सब

लेकिन

मैं फिर से लौट आती हूं

उन्हीं खाली ग़ुफ़ाओं में

उसी अन्तस के कोने में

जहां मैं छुप के रहती हूं

जहां सुनती हूं मैं ख़ुद की

बहुत कुछ ख़ुद से कहती हूं

अगन में अपनी जलती हूं

तपन को अपनी सहती हूं

किसी सूरत मेरे भीतर का

तपता दिन नहीं ढलता

मेरा अब जी नहीं लगता

कहीं भी जी नहीं लगता

मैं जैसे अजनबी हूं

इन हवाओं में, फ़ज़ाओं में

नहीं है नाम मेरा अब

किसी की भी सदाओं में

जो देखूं दूर तक पीछे

नज़र कुछ भी नहीं आता

जो आगे हैं अब उनके संग

चला भी तो नहीं जाता

मैं बस एक शून्य में ही

ताकती रहती हूं

रात और दिन

मेरी आंखों में कल का कोई भी

सपना नहीं सजता

मेरा अब जी नहीं लगता

कहीं भी जी नहीं लगता

मुझे मालूम है

सब कुछ तो मेरे पास है

फिर भी

नहीं कोई कमी जीवन में

ये एहसास है

फिर भी

ये ठिठकी सी निगाहें

चाहती क्या

मांगती क्या है

कहीं भी है नहीं जो

ऐसा कुछ ये ढूंढ़ती क्या हैं

ये क्या अनजानी व्यथा है

कुछ पता इसका नहीं चलता

मेरा अब जी नहीं लगता

कहीं भी जी नहीं लगता

- अर्चना जौहरी

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Photo Courtesy: Freepik

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