यामिनी पात्रेकर, नाटे कद की, गोरा रंग, आंखें ज़्यादा सुंदर नहीं, पर आंखों से भावों को व्यक्त करने की पूर्ण क्षमता व मृदुभाषी महाराष्ट्रियन महिला का नाम है. एक सरकारी दफ़्तर में कार्यरत महिला है वह. शादी हुई ज़रूर पर विगत दो वर्षों से पति से अलग रह रही है. कारण यामिनी के पास अपने हैं तो तुषार के
पास अपने, और लोगों के पास तो अनेकानेक कारण हैं.
तुषार पति है यामिनी का, पर उसने एक दूसरी युवती से शादी कर ली है. लेकिन यामिनी के पास आता जाता रहता है वह. इन दोनों के बीच हुई दांपत्य कटुता को दूर करने की काफ़ी नाकामयाब कोशिश मुझ जैसे कुंआरे व्यक्ति ने भी की है और तभी यह कहानी बन पड़ी है.
यामिनी को में जानता हूं बहुत पहले से. अपने बचपन के दिनों से, तब वह फ्राक पहना करती थी और मोहल्ले की किसी सड़क पर हम साथ ही गिल्ली-डंडा या लुका-छिपी जैसा ही खेल खेलते रहे थे. कभी-कभी झगड़े में धीरे से उसकी फ्राक में हममें से कोई अपनी नाक पोछ लिया करता था तो वह चुनका फाड़कर रोती हुई घर जाती थी और उसके घर पहुंचते ही उसकी मां हम लोगों के बाप पुरखों तक का श्राद्ध कर दिया करती थी. पर यह कुछ क्षण या कुछ घंटे का नाटक सा होता और थोड़ी देर में ही यामिनी अपनी मुट्ठी में गुड़-चना या शक्कर भर लाती और हम सब को बांट देती उसके साथ का यह खेल अब भी जब उसे देखता हूं तो याद हो आता है, जिसमें वह किसी के घर की दहनौज पर दादी मां बनकर बैठ जाती थी और हम सब उसके इर्दगिर्द चिल्लाते थे.
"दादी मां मां..."
"दादी खेलने जाएं."
"जाओ."
"कहां जाओगे?"
"मामा के घर."
"क्या खाओगे?"
"लड्डू पेड़ा."
"मेरे लिए क्या लाओगे?"
"कुल्ले कालै..."
और वह हम सब को मारने झपट पड़ती थी. फिर यामिनी बडी हुई, हम बड़े हुए और ये खेल बंद हो गए अपने आप ही. सच यामिनी कभी स्कूल आते-जाते दिखाई पड़ती या फिर रात में हम उसके घर के सामने सड़क पर चक्कर लगाते और यदि एक झलक भी उसकी दिखाई पड़ जाती तो गद-गद हो जाते.
यामिनी से अपने सबंध बनाने में मैं काफ़ी सफल रहा था और स्कूल जाते वक़्त उसमें हड़बड़ाहट में दो-चार बातें भी कर लेता था. कभी वह अपने मां-पिता के साथ बाज़ार जाती तो उसके पीछे-पीछे आड़ बचाकर चलने लगता. एक दिन यामिनी को लेकर एक रेस्टोरेंट में चाट खाने का प्रोग्राम आखिर बन ही गया और जब हम दोनों वहां बैठकर चाट खाने का आनंद ले रहे थे तो उसी समय मेरे बड़े भैया पहुंच गए. और इस तरह रंगे हाथ पकड़े जाने पर हम दोनों की प्रेम कथा का अंत बड़े भैया की बेतों की मार खाकर हुआ. यामिनी भी पीटी गई और फिर कुछ समय उपरांत उसकी शादी ही हो गई, पर तब की यामिनी और आज की यामिनी में अंतर है. तब शायद वह काफ़ी सहज भी, उन्मुक्त थी किसी ताज़े खिले फूल की तरह, पर आज उसके पास वैवाहिक जीवन की कटु स्मृतियां हैं. निःसंतान होने का दुख है. तुषार को लेकर संपूर्ण पुरुष समाज के प्रति उसके अंदर पल रहा आक्रोश है. और इसी आक्रोश को कई बार हल्का करने की कोशिश उसने मेरे सामने भी की है.
"मैं... उससे अब सिर्फ़ तलाक़ चाहती हूं सिर्फ़
तलाक़..."
"पर यामिनी. तलाक़ लेकर अकेले जीवन कैसे काटोगी? जानती हो, कितना मुश्किल है इस समाज के बीच एक जवान औरत का अकेले रहना..?"
"हा... हा... मझे मालूम है लोग मां पर फब्तियां कसेंगे, बुरी नज़रों से घुरेंगे मुझे. भले भेडियों की एक लम्बी जमात है यहां, मैं सब कुछ बर्दाश्त कर सकती हूं, पर उसके साथ रहना नहीं सोच लो... ठंडे दिमाग़ से..."
"तुम्हें तुषार से इस तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए था आख़िर वह तुम्हारा..."
"हा... हा... आख़िर वह मेरा पति है और मेरे ऊपर सारे अत्याचार करने के हक़ उसे है, यही कहना चाहते हो ना तुम."
"पति-पत्नी होकर तुम्हें एक दूसरे को समझने की कोशिश तो करनी ही चाहिए."
"वह... समझने लायक हो तब ना. बताओ मुझमें कमी क्या है? अरे कमाकर ही देती थी उसे? सारी इच्छाएं पूरी की हैं उसकी मैंने, फिर भी वह मेरे अलावा उस लड़की में ही ज़्यादा दिलचस्पी लेता रहा है अब तो शादी करने तक की बात करने लगा है उसके साथ."
"तुमने समझाया उसे? इसका विरोध किया तुमने?"
"विरोध करने का नतीज़ा जानते हो, उसने हाथ तक उठा लिया मुझ पर, ये देखो प्रतिरोध का नतीज़ा." यामिनी ने अपने पैरों में पड़े नील के निशान दिखाएं.
"तुम्हारे पास मैं अब कोई मुद्दा नेकर नहीं आई हूं सोचने विचारने का. निर्णय कर आई हूं कि तुम मेरे साथ कल एडवोकेट के यहां चलकर तलाक़ का मुकदमा दायर करवा दो तुम्हें अपना समझा इसीलिए चली आई."
यामिनी के बाद तुषार से मिलकर उसे समझाने की कोशिश भी की, पर दोनों अपनी-अपनी ज़िद पर अड़े रहे.
"उसका दिमाग़ सातवें आसमान पर चढ़ गया है. मैं शांता से शादी करके उसे दिखला दूंगा. बड़ी मेहरबानी होगी यदि वह तलाक़ लेती है मुझसे."
दोनों के झगड़े के बीच मुझे भी काफ़ी कुछ सुनना पड़ा है. लोगों ने यामिनी व मझे लेकर भी छींटाकशी की है. फिर मेरे समझाने का भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ है और दोनों के बीच तलाक़ का मुक़दमा चल रहा है.
यामिनी के साथ वकील के यहां जाना, उसे कोर्ट ले जाना, और ढांढ़स देना भी इन दिनों मेरे कामों में शुमार रहा है. पर यामिनी का चरित्र भी बड़ा अटपटा सा है. वह तुषार को भले ही बुरा-भला कहे, लेकिन किसी दूसरे का उसके बारे में कुछ
भी कहना उसे बर्दाश्त नहीं. इस बात को लेकर वह मुझसे भी झगड़ पड़ी है.
एक दिन तुषार उनके यहां पहुंचा और रात भर रहा. शादी के वक़्त यामिनी के दिए गए सारे गहने ले गया था. यामिनी ने दे दिए उसे.
"तुम्हारा दिमाग़ तो ठीक है ना, क्यों दे डाले अपने गहने? अरे कभी काम आते तुम्हारे..."
"वे कल रात आए, रात भर रहे, मुझे छोड़ने का काफ़ी दुख है उनके अंदर. फिर इन दिनों आर्थिक रूप से परेशान से हैं. कह रहे थे शांता की डिलीवरी का समय एकदम पास है और डॉक्टर का कहना है केस सीजेरियन भी हो सकता है. पास में एक पैमा नहीं है उनके."
"बस खा गई ना गच्चा, चार बातें प्यार की उसने की नहीं कि दिल पिघल गया. तुषार को तुम्हारे सिर्फ़ गहने चाहिए थे शांता के लिए. उसको पैसों की क्या कमी? फिर जब तुम्हारे अदर इतना मोह शेष है उसके लिए तो साथ क्यों नहीं रहती."
"नही... नहीं... जब तक वह चुड़ैल शांता उसके साथ है, हम साथ नहीं रह सकते. अरे मेरा भी कोई अस्तित्व है. मैं कमाती हूं, क्या कमी है मुझमें, या तो केवल उसका हो या मेरा..."
बहुत ही मुश्किल है यामिनी को समझना तिन में रत्ती लिल में माशा... कभी वह मुझसे भी इस तरह झगड़ने बैठ जाती मानो उनके तलाक़ के लिए मैं ही कसूरवार हूं.
यामिनी के अंदर इस बात को लेकर सबसे ज़्यादा तिलमिलाहट है कि वह मां नहीं बन पाई और तुषार की दूसरी शादी करने का उद्देश्य वह इसे ही मानती है.
इस बारे में भी समझाया है उसे मैंने कि कोई ज़रूरी नहीं कि हर स्त्री मां बने. इम देश में ऐसी स्त्रियों की संख्या लाखों में होगी सब के साथ क्या ऐसा ही है. फिर तुषार को या तुम्हें बच्चा चाहिए ही था तो किसी को गोद ले लेते, उसे पालते इस देश में अनाथ बच्चों की क्या कमी है? उनका जीवन सुधर जाता और तुम दोनों की इच्छा पूर्ति हो जाती. पर मनुष्य ऐसा सोचता कहां है?
पर एक दिन यामिनी ऐसा भी कर बैठेगी इसकी कल्पना तक मुझे नहीं थी.
शांता ने इस बीच एक बच्चे को जन्म दिया था और उसी के नामकरण पर यामिनी भी पहुंची थी. वह बच्चे को लेकर इधर-उधर डोलती फिर रही थी कि अचानक शांता ने बच्चा उससे झपट लिया था.
"अरे जब अपनी कोख से बच्चा जन ले, तब लाड करना उससे."
बात इतनी ही थी और यामिनी ने वहां से सीधे घर पहुंचकर जहरीली कीटनाशक दवा गटक ली थी. वह तो समय पर पता चल गया तो बच गई, अन्यथा परलोक सिधार गई होती. अस्पताल में उसे देखने मैं भी पहुंचा.
"तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था."
"मुझे... तो कुछ भी नहीं करना चाहिए, आख़िर मुझसे चाहते क्या हो तुम लोग. मैं थक गई हूं अब,
प्लीज़ मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. किसी की सहानुभूति की आवश्यकता मुझे नहीं है."
यामिनी की अपनी व्यथा है. उसकी यह व्यथा उसकी गतिविधियों से झलकती रही है. कभी वह मुझसे इतने निकट होकर बात करने लगती है कि लगता सारा स्नेह मुझ पर ही उड़ेल देगी और कभी-कभी वह महीनों मुझसे नहीं मिलती, पर जब भी वह मुझे मिली है अपनी पीड़ा के साथ ही रही.
तुषार की बात तो उसे लेकर ज़्यादा सोचा नहीं है मैंने यामिनी से, वह क्यों कोई तालमेल नहीं बैठा पाया समझ नहीं पाया हूं. यामिनी के शरीर में उभरी नील ने उसकी क्रूरता का परिचय
ज़रूर दिया है, पर ग़लत कौन है? यामिनी या तुषार...
बचपन के दिनों की यामिनी, विवाहित यामिनी, और पत्यिक्ता यामिनी, तीन अलग-अलग रूप है उसके पर आंखों में हर बार न जाने क्यों उसके बचपन का रूप स्थिर रह पाता है, इसका भी कोई सूत्र मेरी पकड़ से बाहर है.
यामिनी को एक बार तो बचा लिया गया, पर दूसरी बार सीधे फांसी के फंदे पर ही झूलकर दम लिया उसने. पति द्वारा तिरस्कृत इस नारी ने अंतिम बिदा ली तब कोई नहीं बचा पाया उमे.
उसकी अर्थी जब उठाई जा रही थी तो अचानक मुझे लगा कि हम सब उसके इर्दगिर्द खड़े हैं और पूछ रहे हैं उससे, "दादी मां दादी मां... खेलने जाएं."
"जाओ... कहां जाओगे?"
"मामा के घर."
"क्या लाओगे?"
"लड्डू पेड़ा."
"मेरे लिए क्या लाओगे?.."
पर ऐसा कहीं कुछ भी नहीं हुआ और राम नाम सरयू है की आवाज़ के साथ शवयात्रा श्मशान घाट के लिए रवाना हो गई थी.
- तपन त्रिपाठी