
पूर्ति खरे
"... ये आजकल के बच्चे तीज-त्योहार का आनंद ही नहीं लेते, बस महंगे कपड़े पहनकर सोशल मीडिया पर पोस्ट डाल देगें हैशटैग हैप्पी दिवाली, हैशटैग हैप्पी फैमिली ह्म्म्म... पूरी दिखावे वाली जनरेशन है यह.''
हमारे दोनों बेटे पिछले कुछ सालों की तरह इस बार भी दिवाली मनाने, दिवाली से पांच दिन पहले ही घर यानी जबलपुर आ गए. हमारा बड़ा बेटा अर्जुन जिसे प्यार से हम बबलू कहते हैं बैंगलोर में एक मल्टीनेशल कम्पनी में इंजीनियर है और छोटा बेटा अर्णव उर्फ़ बंटी वहीं बैंगलोर के एक कॉलेज से बी. ई कर रहा है. छोटे में दोनों जितने चंचल थे बड़े होकर अब वे उतने ही गम्भीर और शांत हो गए. दोनों को जबलपुर आए तीन दिन ही हो गए थे. हम पति-पत्नी दिवाली की सफ़ाई के बीच उन दोनों की तरफ़ देखते रहते. वे दिनभर अपने लैपटॉप और मोबाइल में ही व्यस्त रहते, कभी-कभी बीच-बीच में आकर हमारी मदद कर देते और फिर अपनी इंटरनेट की दुनिया में खो जाते.
एक दिन स्टोर रूम की सफ़ाई के बीच मैं उदास स्वर में अपने पति सत्येन्द्र जी से बोली, ''हमारे दोनों बेटे कितने बड़े हो गए ना!''
''हां! तो इसमें कौन सी अलग बात है. बच्चे बड़े ही होते हैं, छोटे थोड़े होते हैं.'' सत्येन्द्र जी ने मज़ाक़िया अंदाज़ में ज़वाब दिया.
तो मैं फिर बोली, ''जब बच्चे छोटे होते हैं तब हम उनकी शैतानियों से तंग आकर कहते हैं कि हे ईश्वर ये कब बड़े होगें, फिर जब वे बड़े हो जाते हैं तब हम उनकी बचपन वाली शैतानियों को मिस करते हैं.''
''बात तो सही कह रही हो तुम! दोनों की वो बचपन वाली शैतानियां मुझे भी बड़ी याद आती हैं, अब देखो दोनों कैसे शांत और गम्भीर हो गए.'' सत्येन्द्र जी की इस बात पर मैं बोली, ''शांत और गम्भीर होना तो अच्छा है, पर त्योहार के समय इतनी नीरसता? यह सही नहीं है. त्योहार है तो कुछ तो त्योहार जैसा लगे. ये आजकल के बच्चे तीज-त्योहार का आनंद ही नहीं लेते, बस महंगे कपड़े पहनकर सोशल मीडिया पर पोस्ट डाल देगें हैशटैग हैप्पी दिवाली, हैशटैग हैप्पी फैमिली ह्म्म्म... पूरी दिखावे वाली जनरेशन है यह.''
मेरी इस बात पर अपना काम ख़त्म करते सत्येन्द्र जी बोले, ''यही ज़माना है. आजकल का इस नई जनरेशन का कोई उपाय नहीं.''
सत्येन्द्र जी अपनी बात ख़त्म कर ही रहे थे कि मेरे हाथों बबलू की बचपन की डायरी लग गई. धूल झाड़कर मैं उसकी लिखी कविताएं पढ़ने लगी. पढ़ने के इस क्रम में मुझे एक कविता दिखी. कविता का शीर्षक था- दिवाली की छुट्टी. बचपन से सुना था कि कविताओं में बड़ा ज़ोर होता है, इसलिए वह कविता मैं ऊंचे स्वर में पढ़ने लगी, ताकि सबको सुनाई दे-
'कितनी प्यारी होती है ये दिवाली की छुट्टी
ख़ूब मस्ती करते हैं हम बबलू और बंटी
पापा लाते नए समान
मम्मी घर सजाती
ख़ूब मिलते उपहार हमें
मां नए कपड़े दिलावातीं
रसगुल्ला और पेड़े बनते
मां के किचन में
जगमग-जगमग झालर
सजती द्वारे और आंगन में
साफ़-सफ़ाई में बढ़-चढ़कर
हम भाग हैं लेते
मम्मी-पापा के संग मिलकर
घर को चमका देते
मैं लाता फुलझड़ी पटाखे
चकली लाता बंटी
कितनी प्यारी...
मैं कविता पूरी करने ही वाली थी कि बंटी ने आकर मेरे हाथों से बबलू की डायरी छीनते हुए कहा, ''भाई! तेरी इतनी मज़ेदार कविताओं वाली डायरी तो अब मैं पढूंगा.''
बंटी की बात सुनकर बबलू उस पर झपटा. एक छोटी सी कविता ने घर में फिर उत्साह सा ला दिया. छोटी सी नोंक-झोंक के बाद दोनों भाई दिवाली की तैयारियां करने लगे. कुछ ही देर में दरवाज़े और आंगन में झालर लगाते हुए वे कहने लगे, ''इस दिवाली मेरे मन की मिठाई आएगी...'' तो दूसरा बोला, ''नहीं मेरे मन की...'' तभी आंगन चमकाते सत्येन्द्र जी बोले नहीं, ''मेरे मन की!'' और हम सब ठहाके मारकर हंस पड़े.
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