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कहानी- सूदखोर (Short Story- Soodkhor)

Writer vinita rahurikar new
विनीता राहुरीकर

“लो देखो ज़रा इस सूदखोर को, भूख नन्हें को लगी है और आंतें इसकी कुलबुला रही हैं.” मांजी हंसते हुए बोलीं. नन्हें के लिए दूध की बोतल देते हुए अनु बोली, “और यह भी एक नन्हा सूदखोर ही आ गया घर में.” उसकी बात सुनकर अपर्णा, विशाल, मांजी सब हंस दिए और आशीष कुछ ना समझ पाने की वजह से सबका मुंह देखने लगे.

दोपहर में नन्हा सोया तो अपर्णा भी उसकी बगल में उसे थपकियां देती लेट गई. थकी हुई तो थी ही, नन्हें के साथ ही उसकी आंख भी झपक गई. बड़ी देर बाद आंख खुली तो वह हड़बड़ा उठी. नन्हा पलंग पर नहीं था. शायद मांजी उसे ले गई होंगी अपने पास. अपर्णा उठकर बाहर आई, तो देखा ड्रॉइंगरूम में आशीष नन्हें को गोद में लिए बैठे हैं. नन्हा हाथ-पैर चला रहा है और आशीष उसे

पुचकारकर खिला रहे थे.

“आपने मुझे क्यों नहीं जगा दिया?” अपर्णा ने सामने वाले सोफे पर बैठते हुए कहा. “ऐसी गहरी नींद लगी कि पता ही नहीं चला यह कब उठ गया.”

“तुम रात भर भी इसके पीछे जागती रहती हो, तुम्हें भी तो थोड़ा आराम मिलना चाहिए. दिनभर भी घर के कितने काम हो जाते हैं.” आशीष ने उत्तर दिया.

“लाइए इसे मुझे दीजिए और आप आराम कर लीजिए. पता नहीं कितनी देर से इसे लिए बैठे हैं. यह भी तो ऐसा शैतान है कि सारा समय इसे गोद में ही रहना है. नीचे रखा नहीं कि रोना शुरू.” अपर्णा ने नन्हें को गोद में लेकर बैठ गई.

थोड़ी ही देर बाद नन्हा ठुनकने लगा. सो कर उठे काफ़ी देर हो चुकी थी उसे, अब भूख लगी होगी. अपर्णा सोच ही रही थी कि उसके लिए बोतल में दूध गर्म कर ले आए कि तभी आशीष दूध की बोतल ले आए. अपर्णा नन्हें को दूध पिलाने लगी.

वह देख रही थी कि जब से नन्हा पैदा हुआ है, आशीष में कितना परिवर्तन आ गया है. जब अपना बेटा विशाल पैदा हुआ था तब तो आशीष ने शायद ही कभी उसे संभाला होगा. रात में जब विशाल गीला हो जाने से रोता, तो आशीष खीजकर दूसरे कमरे में जाकर सो जाते कि मेरी नींद ख़राब हो रही है. वह तो मांजी और बाबूजी का सहारा था, जो विशाल को वह बड़ा कर पाई, वरना आशीष ने तो कभी पांच मिनट भी उसे गोद में लेकर संभाला नहीं. और अब विशाल के बेटे अर्थात अपने पोते को जब-तब गोद में लेकर बैठे रहते हैं. जैसे कि बेटे को गोद में खिलाने के चाव को भी पोते से ही पूरा करना चाहते हों. चेहरे पर भी नन्हें के लिए वात्सल्य और दुलार के कितने कोमल और कौतुक से भरे भाव छाए रहते हैं.

नन्हें ने दूध ख़त्म किया ही था कि गीला कर दिया. अपर्णा ने कमरे में जाकर उसके कपड़े बदले और उसे पालने में लिटाकर सोच ही रही थी कि सबके लिए चाय बना ले, तभी मांजी कमरे में आईं.

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“आजा मेरे राज दुलारे.” कहते हुए मांजी ने नन्हें को पालने में से उठा लिया और अपनी गोद में लेकर दुलारने लगी.

“मिल गई गोद इसे. एक मिनट को भी नीचे नहीं खेलता शैतान.” अपर्णा हंसकर बोली.

“अरे दादी से कहो मेरी परदादी, परदादा, दादा-दादी सब हैं तो मैं नीचे क्यों रहूं भला.” मांजी ने नन्हें से कहा तो वह किलकारी भरकर हंसने लगा.

“हां, राजा है यह तो घर भर के, तभी तो गोदी के सिंहासन पर डटे रहते हैं सारा समय.” अपर्णा ने नन्हें की बलैया लेते हुए कहा और चाय बनाने जाने को मुड़ी ही थी कि आशीष चाय की ट्रे लेकर आ गए.

अपर्णा को घोर आश्‍चर्य हुआ, आशीष और चाय बनाकर लाए, जिन्होंने शायद ही कभी रसोईघर में पैर रखा हो. मगर ट्रे में चार कप, दो प्लेट में बिस्किट व्यवस्थित तरी़के से रखे हुए थे. आशीष पिताजी को भी बुला लाए. मांजी चाय की ट्रे देखकर मुस्कुरा दीं. चारों साथ बैठकर चाय पीते हुए बातें करने लगे. बातों का केंद्र तो नन्हा ही था, जो सबकी आंखों का तारा था.

शाम के सात बजे विशाल और अनु ऑफिस से लौटे. हाथ-मुंह धो कर अनु ने थोड़ी देर नन्हें को खिलाया फिर उसे मांजी के पास देकर रसोईघर में अपर्णा की मदद करने लगी.

“लाओ भाई सब्ज़ी-वब्ज़ी मुझे दे दो, मैं काट देता हूं.” आशीष रसोईघर में आकर बोले.

अपर्णा आंखें फाड़े आशीष को देखने लगी.

“नहीं पिताजी आप बैठिए अभी सब हुआ जाता है.” अनु बोली.

“दे दो बेटा खाली ही तो बैठा हूं.” कहते हुए आशीष ने थाली में सब्ज़ी रखी और चाकू लेकर बाहर डाइनिंग टेबल पर बैठकर सब्ज़ी काटने लगे.

“पिताजी को क्या हो गया है मां?” अनु ने आश्‍चर्य से पूछा.

“नन्हें की करामात है.” अपर्णा ने हंसते हुए कहा.

अनु भी नौकरी करती थी. दिनभर ऑफिस में काम कर थकी हुई आती है. फिर रात का खाना बनाने में लग जाती है. उसे रात भर की नींद तो मिलनी चाहिए, यही सोचकर अपर्णा नन्हें को रात में अपने पास ही सुलाती.

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30 बरस बाद दोबारा एक नन्हें बच्चे की देखभाल करना शुरू में कठिन लगा था, ठीक वैसा ही जैसा विशाल के समय लगा था. सब कुछ नया-नया सा, लेकिन जल्दी ही आदत हो गई. शुरू में रात भर नन्हें के साथ जागने पर दिनभर नींद आती रहती थी अपर्णा को. अब आदत हो गई है. अब तो नन्हा भी थोड़ा सो जाता है और कई बार आशीष भी उसे संभाल लेते हैं.

आज नन्हा और आशीष दोनों सो गए थे. अपर्णा भी नन्हें को थपकियां देती उसके पास लेटी थी और सोच रही थी कि आशीष के स्वभाव में कितना परिवर्तन आ गया है. अचानक ही जैसे वह बहुत ज़िम्मेदार और सहयोगी हो गए हैं. कितनी परवाह करने लगे हैं अपर्णा की. नन्हा ज़रा सा सोया नहीं कि उसके पीछे पड़ जाते हैं, “वह सो रहा है तब तक तुम भी जरा लेट जाओ. काम तो होते रहते हैं. नींद नहीं आ रही तब भी लेट जाओ थोड़ा आराम मिलेगा.”

उसे नींद आ जाती है और यदि नन्हा जाग गया, तो उसे अपनी गोद में लेकर बैठे रहते हैं. घर के भी कितने छोटे-छोटे काम निपटा देते हैं, चाय बनाना, तार पर से सूखे कपड़े ले आना, सब्ज़ी काट देना.

विशाल के समय आशीष के जिस साथ और सानिध्य के लिए अपर्णा तरसती थी, वह साथ उसे नन्हें के समय मिल रहा है. विशाल का शायद ही कोई काम किया हो आशीष ने. न कभी उसे बाहर घुमाने ले जाते थे और न कभी गोद में लेकर बैठे. न अपने हाथ से खाना खिलाया न पढ़ाया. पर नन्हें के हर काम में आशीष साथ खड़े रहते हैं. डायपर निकाल कर देना, उसकी चादर-कपड़े तह करना, दूध की बोतल धोकर दूध गर्म कर लाना, अपने हाथ से उसे दूध पिलाना. बांहों में झुलाते हुए आंगन में उसे सुबह-सुबह धूप में लेकर खड़े रहना. इन सब कामों के बहाने अपर्णा के साथ निरंतर संवाद भी बना रहता है, वरना आशीष तो सारा दिन अख़बार, न्यूज़ चैनल और किताबों में ही डूबे रहते थे. बहुत ज़रूरी काम के अलावा शायद ही कभी उनके बीच आत्मीय संवाद हो पता था. लेकिन पोते के आ जाने के बाद से आशीष का एकदम बदला हुआ रूप देखने को मिल रहा है. नन्हें ने न स़िर्फ उसे दादी बनने का सुख दिया, बल्कि उसे उसका आत्मिक साथी भी दे दिया.

धीरे-धीरे बढ़ते हुए नन्हा छह महीने का हो गया. बिस्तर पर पलट कर सरकने भी लगा था. अब तो आशीष उस पर से दृष्टि हटाते ही नहीं थे. पलंग पर कभी उसे अकेला नहीं छोड़ते.

एक दिन अनु रसोई में खाना बनाते हुए अपर्णा से कह रही थी, “दो मिनट के लिए भी विशाल नन्हें को नहीं संभालते. कल मुझे नहाने जाना था, तो मैंने विशाल से कहा कि उसका ध्यान रखें, पर उन्होंने साफ़ मना कर दिया. आख़िर मुझे उसे पिताजी के पास ही देना पड़ा.”

“तो क्या हुआ बेटा घर में इतने लोग हैं संभालने वाले.” अपर्णा ने कहा.

“वह तो है मां, लेकिन विशाल भी तो पिता हैं ना! बेटे के प्रति उनका भी तो कोई फर्ज़ बनता है.” अनु के स्वर में नाराज़गी झलक रही थी.

“विशाल के पिताजी भी ऐसे ही थे. उन्होंने भी कभी विशाल को नहीं संभाला. वह तो मांजी और पिताजी का साथ था,

इसलिए उसे आराम से बड़ा कर पाई मैं.” अपर्णा ने बताया.

“क्या बात कर रही हैं मां? विशाल को कभी नहीं संभाला? पिताजी तो नन्हें को कितना संभालते हैं.” अनु ने आश्‍चर्य से कहा.

“हां पोते को संभालते हैं, लेकिन अपने बेटे को कभी भी नहीं संभाला. मैं भी नहाने जाते समय उसे मांजी या पिताजी के पास ही देकर जाती थी.” अपर्णा हंसते हुए बोली.

“अब तो नन्हें को क्षण भर भी आंखों से दूर नहीं होने देते.” अनु भी हंसने लगी.

“यह आदमी भी अजीब होते हैं.”

“अजीब नहीं सूदखोर होते हैं सभी आदमी, सूदखोर...” मांजी रसोईघर में आते हुए बोलीं.

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“सूदखोर मतलब दादी?” अनु ने पूछा.

“वह कहावत नहीं सुनी क्या तुमने ‘असल से सूद प्यारा’ बस सभी आदमियों को अपने बेटों से अधिक उनके बेटों अर्थात अपने नाती-पोतों से अधिक प्यार होता है. तुम्हारे दादाजी ने भी कभी आशीष को नहीं संभाला. वह तो नौकरी के चलते बाहर रहते थे और मैं भी उनके साथ रहती थी. आशीष तीन महीने का था जब से उसे संभालने के साथ ही घर के सारे काम मैं अकेले करती थी. रात में भी वह रोता, तो तुम्हारे दादाजी दूसरे कमरे में जाकर सो जाते थे कि मुझे दिनभर नौकरी करनी पड़ती है तो रात में तो नींद ज़रूरी है. और मैं चौबीस घंटे की नौकरी से बंधी रहती थी. दिनभर घर के काम और रात भर बच्चे को लेकर बैठे रहना. मगर जब विशाल पैदा हुआ तो तुम्हारे दादाजी रात-दिन पोते को गोद में लेकर खिलाते रहते.” मांजी बोलीं.

“जैसे अब आशीष करते हैं. विशाल को तो कभी संभाला नहीं, लेकिन नन्हें में जान बसती है.” अपर्णा बोली.

“हां तभी तो कहती हूं हर पुरुष सूदखोर होता है जिसे असल से सूद अधिक प्यारा होता है.” मांजी हंसते हुए बोलीं.

“पर यह तो ग़लत है ना. विशाल को अपने बेटे को संभालना चाहिए, तभी तो उनके बीच बॉन्डिंग बनेगी.” अनु ने कहा.

“संभालूंगा न, मैं भी अपने पोते या पोती को संभाल लूंगा. आख़िर तो मैं भी सूदखोर ही हूं ना.” विशाल जो न जाने कब से बाहर खड़ा तीनों की बातें सुन रहा था, भीतर आकर बोला.

“कभी असल की भी परवाह कर लिया करो. यदि नन्हा विदेश में बस गया जाकर, तो ना असल का साथ रहेगा ना सूद का सुख मिलेगा.” अनु ने विशाल से कहा.

“तो मैं भी उड़ जाऊंगा उसके पीछे.” विशाल ने कहा.

उसी समय नन्हें को गोद लिए हुए आशीष ने आकर कहा, “यह कबसे कुनमुना रहा है कहीं रोने ना लगे. जल्दी से इसके लिए दूध या दाल का पानी दो. इसे भूख लगी है. कितनी बार कहा है तुम लोगों से कि इसके दूध के समय का ध्यान रखा करो. भूख के कारण यह रोए मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है, और तुम सब गप्पे मार रहे हो.”

“लो देखो ज़रा इस सूदखोर को, भूख नन्हें को लगी है और आंतें इसकी कुलबुला रही हैं.” मांजी हंसते हुए बोलीं.

नन्हें के लिए दूध की बोतल देते हुए अनु बोली, “और यह भी एक नन्हा सूदखोर ही आ गया घर में.”

उसकी बात सुनकर अपर्णा, विशाल, मांजी सब हंस दिए और आशीष कुछ ना समझ पाने की वजह से सबका मुंह देखने लगे, मगर सबको हंसाता देख नन्हा अचानक ताली बजाकर ज़ोर से किलकारी मारकर हंसने लगा.

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