“... अक्सर लोग बच्चे परेशान ना करें, इसलिए अत्यधिक अनुशासन में रखते हैं या फिर हाथ में मोबाइल या कोई अन्य गैजेट पकड़ा देते हैं. किंतु यह सही नहीं है. कहीं बच्चों को ले भी गए तो हाथ में मोबाइल दे दिए, ताकि वह शांत बैठा रहे और हम गपशप करते रहें. मुझे यह पसंद नहीं है. बच्चों के नेचुरल नॉटीनेस को रोकना नहीं चाहिए. इसका उनके व्यक्तित्व पर असर पड़ता है.”

“सुन रहे हो...”
“अब क्या?”
“अरे परेशान क्यों हो रहे हो?”
“कैसे नहीं परेशान रहूं. तुम्हारी फ़रमाइशें बढ़ती जा रही हैं. जितना बड़ा चादर हो, उतना ही पांव फैलाना चाहिए.”
“तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन क्या यह मैं अपने लिए कर रही हूं.”
“बोलो क्या है?”
“शाम को मार्केट चलते हैं. नई क्रॉकरी ख़रीदनी है. पहले वाली पुरानी हो गई है.”
“ठीक है तैयार रहना. ऑफिस से आते ही हम चलेंगे.”
आजकल प्रणव और पाखी के बीच कुछ इसी तरह की ही बातचीत होती थी. महीने भर से यही कार्यक्रम चल रहा था.
प्रणव की बड़ी बहन हेमा, उनका बेटा वरुण और बहू साक्षी अमेरिका से 10 सालों के बाद उनसे मिलने आ रहे थे. महीने भर पहले बड़ी बहन का फोन आया था. प्रणव तो बहुत ख़ुश हुआ, किंतु पाखी के मन में हज़ार लहरें उठने-गिरने लगीं. अचानक से उसे अपना पूरा घर पुराना और देहाती जैसा लगने लगा था और इसे बदलने की चाह में उसने कमर कस ली.
उस दिन दोनों के बीच कितनी बहस हुई थी. “अरे वह मेरी बहन हैं. मैं उनके सामने बड़ा हुआ हूं. मां के जाने के बाद उन्होंने मां की तरह ही मेरा पालन-पोषण किया था. उनसे क्या दिखावा करना है. 10 सालों के बाद वह आ रही हैं. हम लोगों से मिलकर कितनी ख़ुश होंगी तुम्हें अंदाज़ा भी है. हमारी शादी के समय उन्होंने तुम्हें देखा था. वो घर देखने थोड़े ना आ रही हैं. अपनों के बीच कहीं यह सब होता है.” प्रणव ने पाखी को समझाते हुए कहा.
ननद के आने का दिन जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा था, पाखी का घर भी संवरता जा रहा था. पूरे घर में पाखी नज़रें दौड़ा कर फूले ना समा रही थी. स्वयं पर आज उसे गर्व महसूस हो रहा था कि उसके भीतर इंटीरियर डेकोरेशन की इतनी प्रतिभा भरी थी जिसका उसे भान भी नहीं था. उस दिन पूर्ण रूप से तृप्त पाखी डाइनिंग टेबल पर खाना खा रही थी, तो अचानक पुराने बर्तनों को देखकर उसे ध्यान आया और उसने क्रॉकरी ख़रीदने की बात की थी. इस एक महीने में पाखी इतनी व्यस्त रही मानो उसके घर में शादी हो और उसने पूरे पूरा बारात के रहने-खाने का इंतज़ाम कर दिया था.
और फिर वह घड़ी आ गई. ननद बहुत ही टाइट शेडयूल में भारत आई थीं. पांच भाई-बहनों के बीच उन्हें तीन-तीन दिन सबके यहां रहना था. इसके बाद उन्हें गांव भी जाना था, क्योंकि उनकी बहू ने गांव नहीं देखा था. पाखी का मन थोड़ा मलिन हुआ था जब उसने सुना कि ननद यहां तीन दिन ही रुकेंगी. उसने एक सप्ताह की तैयारी की थी. हर दिन के मेनू की अलग-अलग व्यवस्था थी. ऐसे में तो वह अपनी पूरी प्रतिभा ननद को दिखा भी नहीं पाएगी. किसी तरह उसने अपने मन को संतुलित किया. मैं तीन दिन में ही उनका इतना स्वागत करूंगी कि वह जीवनभर याद रखेंगी. उसने सोचा.
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हेमा दीदी बड़ी आत्मीयता से मिलीं. प्रणव और पाखी को गले लगाते हुए उनके आंसू बह चले. बहुत देर तक वह उन दोनों का हाथ पकड़े रोती रहीं. जब बहुत देर हो गया तब पीछे से आवाज़ आई, “मम्मी, हम लोगों को भी मामा-मामी से मिलने का अवसर दो. क्या हम लोग यूं ही खड़े रहेंगे?” पीछे से वरुण ने कहा था. सभी हंस पड़े. वरुण और साक्षी के जुड़वां बच्चों को देखकर उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. मिलने-जुलने का कार्यक्रम बड़ी सहजता से चल रहा था. सभी के चेहरे पर मुस्कान थी. अचानक साक्षी चौंकी, “अरे सोनू-पोनू हाथ छुड़ाकर कहां गए. बच्चों को तो हम लोगों ने मिलवाया ही नहीं.” हेमा दीदी ने इधर-उधर देखते हुए कहा. सभी ड्रॉइंग हॉल में बैठे थे. पाखी और प्रणव उठ खड़े हुए, “बच्चे कहां गए?”
इतने में सभी उठ खड़े हुए. पूरे घर में उन्हें ढूंढ़ा गया.
पाखी तो अपने घर की साज-सज्जा देखकर मन ही मन प्रफुल्लित और गौरवान्वित हो रही थी. चलो कम से कम इसी बहाने हेमा दीदी ने पूरे घर को तो देख लिया.
स़िर्फ टेरेस का गार्डन बाकी रह गया था. अभी वह उन्हें उधर ले जाने की सोच ही रही थी कि अचानक बहुत ज़ोरों से कुछ गिरने की आवाज़ आई. सभी उधर ही दौड़ पड़े. बेडरूम की आलमारी पर चढ़कर दोनों बच्चों ने दीवार पर टंगे शीशे और सुनहरे फ्रेम से जड़ित पेंटिंग उतार कर नीचे गिरा दिया था. पूरा शीशा टूट कर बिखर चुका था. हतप्रभ पाखी की सांस अटक गई. प्रणव चिंतित हो बोला, “अरे बाप रे, पूरे घर में शीशा बिखर गया है.”
हेमा दीदी ने बेटे-बहू से कहा, “यह तो बहुत ग़लत हुआ. बच्चों को संभालो तुम लोग.”
“हां, बहुत ग़लत हुआ.” वरुण और साक्षी ने भी कहा. इतना कहकर वे तीनों सहज हो गए. बच्चे खिलखिला रहे थे. तीनों बच्चों में लग गए. प्रणव रूम में बिखरा शीशा साफ़ करने लगा, मगर पाखी... वह तो भविष्य की आशंका से कांप उठी.
किचन में पाखी रात का डिनर तैयार करने में लगी तो थी, पर उसका मन उचट सा गया था. उसका दिल और दिमाग़ अभी भी उस पेंटिंग में ही लगा हुआ था... कितनी महंगी पेंटिंग थी. प्रणव के मना करने के बाद भी वह ख़रीद कर ले आई थी. प्रणव बैठा था उनसे बातें करने को. बहुत सारी बातें थीं. 10 साल के बाद मिले थे वे लोग, पर बातें कहां हो पा रही थीं. बच्चों की धमाचौकड़ी के कारण सभी का ध्यान उनकी तरफ़ ही था. बहू-बेटे तो अधिक बैठ ही नहीं पा रहे थे. बस बच्चों के पीछे लगे हुए थे.

पाखी का मन थोड़ा हल्का हुआ जब उसने अपनी नई क्रॉकरी में उन लोगों के लिए खाना लगाया. सभी डिनर के लिए बैठ चुके थे. पाखी गर्म कचौड़ियां तल कर ला रही थी. हेमा दीदी ख़ुश होते हुए बोलीं, “हम लोग तो अपना इतना डायट कंट्रोल करते हैं कि यह सब तो खाना ही भूल चुके हैं. आज मां के हाथों के बने खाने की ख़ुशबू आ रही है.” पाखी उनके प्लेट में अभी कचौड़ियां डाल ही रही थी कि चौंक गई. सोनू और पोनू फिर गायब हो चुके थे. घबराई सी पाखी प्रणव से बोली, “बच्चे कहां हैं? उन्हें बुलाओ ना, क्या वे खाना नहीं खाएंगे?”
तभी अचानक रोने की आवाज़ आई. गर्म खाना बेचारा मुंह फाड़े सभी को देख रहा था. सर्च का कार्यक्रम फिर शुरू हो चुका था. दोनों मिले थे, किंतु इस बार बाथरूम में. ड्रॉइंगरूम के शोकेस से एक मूर्ति को निकाल कर बाथरूम में पानी भरी बाल्टी में डुबोकर नहला रहे थे. इसी में सोनू ने पोनू पर पानी फेंक दिया. वह चीखने-चिल्लाने लगा और फिर गुत्थमगुत्थी.
सभी दौड़े. उन्हें अलग किया गया, डांटा भी गया, हिदायत भी दी गई. किंतु वह जैसे ही चुप हुए सभी हंस पड़े. अब किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. साक्षी उनके कपड़े बदलने में लग गई. वरुण उसकी मदद कर रहा था. हेमा दीदी ने थोड़ा-बहुत उपदेश दिया और खाने की टेबल पर बैठ गईं. पाखी और प्रणव सवालिया नज़र से एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे.
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पूरे घर का काया पलट हो चुका था. वरुण ने बड़ी समझदारी दिखाई थी. घर के सारे गुलदस्ते और डेकोरेटिव आइटम्स को उसने उठाकर घर की आलमारियों के ऊपर छुपा दिया था. क़ीमती पर्दे झूले का रूप ले चुके थे, जिसके कारण साक्षी ने उन्हें खोलकर रखने की सलाह दे डाली. किसी को भी आराम से बात करने का अधिक समय नहीं था.
घर की स्थिति ऐसी थी मानो दो दिनों में घर को छोड़कर जाना हो.
नींद और चैन पाखी से दूर हो चुके थे. फिर भी अपने आपको सहज बनाते हुए वह उनके आवभगत में लगी रही. सुबह नाश्ते में हेमा दीदी ने ही मेन्यू डिसाइड कर दिया था. उन्होंने हरे मटर की कचौड़ियां और बूंदी का रायता फ़रमाइश की थी. पाखी ने एक दो आइटम अपने मन से भी बना दिया. वे सभी नहा कर छत पर धूप सेंकने गए थे. प्रणव ऑफिस चला गया था. पाखी टेबल पर नाश्ता परोसकर उन्हें छत पर बुलाने गई. आने में मुश्किल से पांच मिनट लगा होगा. जैसे ही पाखी नीचे उतरी, उसके शरीर में तो मानो किसी ने करंट लगा दिया हो. वह होश खो बैठी. रायता पूरे टेबल पर पसरा हुआ था. एक प्लेट भी गायब थी.
पाखी ने नज़रें दौड़ाई तो देखा कि हॉल के कोने में प्लेट टूटा पड़ा था और सोनू-पोनू उन्हें जोड़ने की कोशिश में लगे हुए थे. मानो वह अचेतन में चली गई थी, पर हेमा दीदी के शब्दों ने उसे चेतन में आने को मजबूर किया.
“पाखी, इतने महंगे क्रॉकरी के सेट को निकालने की क्या ज़रूरत थी. हम लोग बाहर के थोड़े ना हैं. रोज़ के इस्तेमाल के लिए तो स्टील के ही बर्तन ठीक होते हैं.”
पाखी के पूरे तन-बदन में आग लग गई. भुनभुनाते हुए वह किचन में गई, “तुम लोग इसी के लायक हो...” और स्टील के प्लेट में उसने कचौड़ियां तलकर उन्हें खिला दिया.
मानो आंधियां थम चुकी थीं. हेमा दीदी, साक्षी, वरुण और वह दोनों तूफानी कश्ती (बच्चे) आंधियों में गिरे पेड़ की तरह सो रहे थे. पाखी ने अपने भीतर का सारा फ्रस्ट्रेशन प्रणव पर उड़ेल दिया.
“वह क्रॉकरी सेट कितने महंगे थे. कितना लड़कर मैंने तुमसे उसे ख़रीदवाया था. अभी एक दिन और बचा है. पता नहीं अब कौन सा तूफ़ान आने वाला है.”
“क्यों तुमने तो एक सप्ताह का प्लान बनाया था.” प्रणव ने झुंझलाते हुए कहा.
“मैं क्या जानती थी कि ये ऐसे हैं.”
आज तीसरा दिन था. आंधियों में सब कुछ बर्बाद हो जाने के बाद भी कोई क्षीण सी किरण व्यक्ति को जीवित रखने में मदद करती है. वही हालत पाखी की थी. पता नहीं इतना होने के बाद भी आज वह हल्की सी मुस्कान लिए हुए किचन में घुसी. आज उनके जाने का दिन था शायद इसलिए. अभी सब्ज़ी काटने जा ही रही थी कि हेमा दीदी की आवाज़ आई, “पाखी, अभी मैं कुछ भी नहीं खाऊंगी. तुमने इतना हैवी खिला दिया है कि हम सभी का पेट ख़राब हो गया है.” पाखी हक्की-बक्की रह गई . बोलने को होंठ खुले, पर बोल नहीं पाई. इतने में साक्षी आई और बोली, “दरअसल हम लोग इस तरह के डायट के आदी नहीं हैं. हम लोग सुबह में ओट्स खाते हैं. दिन में स़िर्फ पतली दाल और सलाद लेते हैं.” पाखी पता नहीं यंत्रवत कैसे बोल गई, “और रात में?”
“रात में दूध या फ्रूट्स या कभी-कभी ओट्स भी.”
पाखी संयत होते हुए बोली, “ठीक है आप लोग जो कहेंगे, वह मैं बना दूंगी, तब तक मैं अपने और प्रणव का नाश्ता बना लेती हूं.”
पाखी सब्ज़ी काटते हुए सोच रही थी- सब कुछ ख़ुद ही फ़रमाइश करके बनवा रही थीं और ख़ूब खाया भी इन लोगों ने. अब मुझ पर दोष मढ़ रही हैं कि मैंने खिला दिया. दोपहर का समय था. पाखी का पूरा घर खाली-खाली सा लग रहा था. उजड़े आशियाने की तरह. वे लोग अपना सामान पैक कर रहे थे, क्योंकि शाम को उन्हें जाना था.
आज प्रणव ने भी छुट्टी ले रखी थी. वह पेट की दवाइयां ले आया. पाखी ने सभी के लिए मूंग दाल की खिचड़ी बना दी थी. हेमा दीदी कमरे में लेटी थीं. बहू-बेटे दोनों बच्चों के उछल-कूद को नियंत्रित करने में मशगूल थे. प्रणव बहुत दुखी था. वह प्लेट में खिचड़ी लेकर स्वयं ही हेमा दीदी के कमरे में गया और उनके पास बैठ गया.
“लीजिए दीदी, खा लीजिए. खाली पेट दवा कैसे खाइएगा.” सोनू और पोनू बॉल से खेल रहे थे. अचानक उन्हें क्या सुझी कि उन्होंने बॉल प्लेट पर दे मारी और पूरी खिचड़ी बिस्तर पर बिखर गई. प्रणव अपने क्रोध को रोक नहीं पाया. ग़ुस्से में भरकर उसने कहा, “बच्चों को मैं दोष नहीं दूंगा, पर दीदी आपको क्या हो गया है? इन बच्चों को कोई तरीक़ा नहीं सिखाया है? बचपन में हम भाई-बहनों को तो आप हर समय अनुशासन का पाठ पढ़ाती रहती थीं, किंतु अपने पोतों के प्रति आप इतनी लापरवाह कैसे हो गई हैं? बच्चों को आप लोगों ने ना कोई तरीक़ा सिखाया है और ना कोई संस्कार दिया है. एकदम जंगली बना दिया है, मानो जंगल से आए हों.”
वरुण से रहा नहीं गया. उसने कहा, “दरअसल मामा हम बच्चों पर ज़बरदस्ती नहीं करते हैं. अक्सर लोग बच्चे परेशान ना करें, इसलिए अत्यधिक अनुशासन में रखते हैं या फिर हाथ में मोबाइल या कोई अन्य गैजेट पकड़ा देते हैं. किंतु यह सही नहीं है. कहीं बच्चों को ले भी गए, तो हाथ में मोबाइल दे दिए, ताकि वह शांत बैठे रहें और हम गपशप करते रहें. मुझे यह पसंद नहीं है. बच्चों के नेचुरल नॉटीनेस को रोकना नहीं चाहिए. इसका उनके व्यक्तित्व पर असर पड़ता है. आगे चलकर वही दबा हुआ बचपन बाहर आता है और व्यक्ति असामान्य हो जाता है.”
तभी साक्षी ने पाखी की तरफ़ देखते हुए कटाक्ष किया, “दरअसल आपके बच्चे नहीं हैं, इसलिए बच्चों के बारे में आप क्या जानें.”

उसने तो सहजता से कह दिया, परंतु पाखी तिलमिला उठी. फिर भी पाखी ने अपना-आपा नहीं खोया. संयत होते हुए बोली, “आपने बिल्कुल सही कहा, पर आप लोगों का बच्चों के प्रति मनोविज्ञान बिल्कुल ग़लत है. मैं मनोविज्ञान की टीचर हूं. एक नहीं... दो नहीं.... बल्कि ढेर सारे बच्चों के बीच में रहती हूं. बच्चों के प्रति व्यवहार हमेशा संतुलित होना चाहिए. क्या अच्छा, क्या बुरा है, काउंसलिंग की ज़रूरत होती है. और जिस नेचुरल नॉटीनेस की बात आप कर रहे हैं ना... आज बच्चे हैं तो उनके हर कार्य आपको प्यारे लग रहे हैं. धीरे-धीरे यही उनकी आदत बन जाएगी और बड़े होकर जब अपने ही घर में तोड़फोड़ करेंगे, तो आपका जीना मुश्किल हो जाएगा.”
वरुण अभी कुछ बोलता कि प्रणव ने उसे चुप करा दिया और गंभीरतापूर्वक कहा, “तुम ख़ुद ही सोचो ना... यह कौन सा मनोविज्ञान तुमने पढ़ लिया है. आज तीन दिन हो गए हैं. इस तीन दिन में पूरे घर का कितना नुक़सान हुआ है. मैं तुम्हारा मामा हूं, इसे तुम अपना ही घर समझो. क्या तुम्हारे घर का सामान बर्बाद होता, तो तुम्हें दुख नहीं होता. महीनेभर से पाखी तुम लोगों के आने की ख़ुशी में इतनी उत्साहित थी कि पूरे घर को सजा-संवार दिया. दीदी का यह मायका है, उसने उनका मान रखा उनके बहू-बेटे के सामने. तुम लोगों के स्वागत में वह कोई भी कसर छोड़ना नहीं चाहती थी. पर तुम ही लोग देखो इस घर का क्या हाल हो गया. बिल्कुल उजड़ा चमन बन गया है. इस बात को हम थोड़ी देर के लिए भूल भी जाते हैं तो स़िर्फ यह सोचो ना कि 10 सालों के बाद हम लोगों से मिले हो. कितनी बातें थीं, कितनी यादें थीं... तुम लोगों को कितना व़क्त मिला हमसे बातचीत करने का. हमारे पास दो मिनट ढंग से नहीं बैठ पाए और फिर कब आओगे, यह भी पता नहीं है.”
हेमा दीदी अब तक चुपचाप बैठी हुई थीं. अचानक मुखर हुईं. कहीं दूर देख रही उनकी आंखें उदास थीं.
“तुम सही कह रहे हो प्रणव.”
और फिर उन्होंने बहुत सारी बातें बताईं. वरुण की जब पढ़ाई हो रही थी, उसी समय हेमा दीदी के पति इस दुनिया से चले गए. वरुण जो डिग्री लेना चाहता था, वह नहीं ले पाया. फिर भी वह एमबीए करके दिल्ली में नौकरी करने लगा. ये बातें वैसे प्रणव भी जानता था. साक्षी से जब वरुण की शादी हुई तब वे सभी दिल्ली में ही थे. पाखी उस समय बहुत बीमार थी, जिस कारण से प्रणव शादी में नहीं जा पाया था.
“साक्षी की सारी बहनें विदेश में ही रहती थीं. स़िर्फ सामाजिक दिखावा और अपनी बहनों की होड़ में उसने वरुण को वहां जाने के लिए विवश किया और फिर सभी वहां से चले गए. आज स्थिति यह है कि वे छोटे-छोटे दो कमरे के मकान में रह रहे हैं. सारे फोल्डिंग फर्नीचर हैं. ज़रूरत हुई तो उपयोग किया, वरना मोड़ कर रख दिए गए. घर में बस ज़रूरत भर का सामान है. वरुण-साक्षी सुबह ऑफिस चले जाते हैं और शाम में लौटते हैं. बच्चे शादी के छह साल के बाद हुए और वह भी जुड़वां.”
वातावरण बिल्कुल शांत था, किंतु बोझ सा लिए हुए. हेमा दीदी रुआंसी होकर फिर बोलीं, “मुझसे उतना नहीं होता और इन लोगों के पास समय ही नहीं है कि बच्चों को कुछ सिखाएं-पढ़ाएं. स़िर्फ इनकी ज़रूरतों को पूरा कर दिया जाता है. यहां पर इतना बड़ा सजा-संवरा घर, इतने सामान देखकर ये और भी असामान्य हो गए थे. इसी कारण इस तरह की हरकतें कर रहे थे. एक बात और कहना चाहती हूं कि यहां पर विदेश के प्रति लोगों में एक अजीब सा आकर्षण है, जिसमें मैं भी कभी शमिल थी. लोगों ने इसे स्टेटस सिंबल बना दिया है. किंतु विदेश जाने के बाद मेरा वह आकर्षण अब ख़त्म हो गया है.”
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हेमा दीदी उठीं और पाखी के पास आकर उसके हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, “पाखी मैं तुम्हारी फीलिंग समझती हूं. एक तो पता नहीं क्यों विदेश में रहने वाले लोगों के लिए भारत में रहने वाले लोगों का एक अलग इमेज हो जाता है. उन्हें अपने से ज़्यादा हाई-फाई समझने लगते हैं. एक तरफ़ तो तुम्हारा हम लोगों के प्रति प्रेम-स्नेह था, दूसरी तरफ़ यही हाई-फाई इमेज जिसके कारण तुमने हमारे सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी. रही बात वरुण के कथन नेचुरल नॉटीनेस की, तो मैं भी इससे सहमत नहीं हूं. बच्चे तो कच्ची मिट्टी के समान होते हैं. हमारा व्यवहार उनके प्रति बिल्कुल संतुलित होना चाहिए. बहुत स्वतंत्रता भी नहीं, बहुत रोक-टोक भी नहीं. यह हमारे तजुर्बे पर निर्भर करता है कि हम बच्चे को कैसी सीख और संस्कार देते हैं. यह सच है कि बच्चों की शैतानियां बचपन में बहुत प्यारी लगती हैं, किंतु आगे चलकर वही आदत में बदल जाए, तो जीवन को तहस-नहस कर देती हैं. बिल्कुल इस घर की तरह. उनके बचपन को कभी मत छीनो, लेकिन उनकी दिशा और आकार के बारे में सचेत रहो. मेरी भी ग़लती है, इनके साथ रहकर मैं भी उसी परिवेश में ढल गई थी. वरुण कहता है कि यह अपने आप ठीक हो जाएगा... यही समझ कर उनकी ग़लत हरकतों को हम अब तक नज़रअंदाज़ करते आए हैं.”
कमरे में भारीपन का वातावरण छा गया था. सभी जाने की तैयारी में थे. अचानक ज़ोरों से कुछ फूटने की आवाज़ आई. बातों के बीच में सोनू और पोनू गायब हो चुके थे. कोई कुछ कहता, इसके पहले वरुण और साक्षी दौड़कर टेरेस पर गए. जाते-जाते उन्होंने सेरामिक के दो गमले तोड़ दिए थे. दोनों को ज़ोर से डांटते हुए वरुण ने एक-एक थप्पड़ लगा दिए. बच्चे सहम गए थे, क्योंकि उनके साथ पहली बार ऐसा हुआ था. दोनों ने दहाड़ मार कर रोना शुरू कर दिया. वरुण का हाथ फिर से उठता कि प्रणव ने पकड़ लिया.
“इतनी ज़ल्दबाज़ी नहीं वरुण. इन्हें सुधारने का यह तरीक़ा ग़लत है. तुम्हारा व्यवहार संतुलित होना चाहिए. समय लगेगा इन्हें आकार देने में. बहुत अधिक धैर्य और संतुलन की ज़रूरत है. पहले स्वयं को ठीक करो तब बच्चों को सुधारना. कहीं भी रहो, किसी मिट्टी में रहो, किंतु अपनी जड़ों को मज़बूती से पकड़े रहो.”
साक्षी की आंखों में आंसू भरे थे. वह आगे बढ़ी और पाखी का पांव स्पर्श करते हुए उसने ग्लानि भरे स्वर में कहा, “मामी, मुझे माफ़ कीजिएगा. मैंने आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाया है. आपने ठीक ही कहा था. ढेर सारे बच्चों के बीच में आप रहती हैं. मैं तो दो ही बच्चों के साथ हूं. आप मनोविज्ञान पढ़ी हैं, इनकी परवरिश की टिप्स मैं आपसे ही लूंगी.”
पाखी हंस पड़ी. सभी के चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई. कमरे का भारीपन कम हो गया था.

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